(सं) वैधानिक सूचना:
दिल्ली में हुए बीएमडब्लू केस में एनडीटीवी ने एक स्टिंग आपरेशन किया था. इस स्टिंग आपरेशन में दो महान वकील, श्री आर के आनंद और श्री आई यू खान खान को 'वकालत' करते पाया गया था. मैंने ये पोस्ट उस समय लिखी थी. वैसे पिछले दिनों दोनों वकीलों को अदालत ने दोषी करार दे दिया.
मैं इस पोस्ट को फिर से पब्लिश कर रहा हूँ. कारण यह है कि इस पोस्ट पर मुझे एक भी कमेन्ट नहीं मिला था. अब जैसा कि मैं हमेशा से कहता आया हूँ; "मैं कमेन्ट पाने के लिए लिखता हूँ." इसीलिए मेरी आप सब से गुजारिश है कि आप कमेन्ट जरूर करें. बिना पढ़े भी कमेन्ट करेंगे तो चलेगा. बस कमेन्ट कीजियेगा. प्लीज.
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करीब एक सप्ताह हो गया, देश की जनता का इस देश की न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है. वो भी इसलिये कि, देश के दो विख्यात वकील एक 'स्टिंग ऑपरेशन' में कुछ ऐसा करते दिखे जो न्याय व्यवस्था के हिसाब से ठीक नहीं माना जाता. टीवी चैनल ने इन वकीलों की करतूत दिखाने के साथ-साथ जनता के सामने एक सवाल भी दाग दिया;
'इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद आपका विश्वास क्या देश कि न्याय व्यवस्था से उठा गया है?'
टीवी चैनल जब भी ऐसे सवाल करते हैं, जनता फूली नहीं समाती. जनता को लगता है कि देश के लिए कुछ करने का असली मौका आज हाथ लगा है. अगर उसने संदेश नहीं भेजे तो देश रसातल में चला जाएगा. नतीजा ये हुआ कि जनता ने संदेशों कि झड़ी लगा दी. टीवी चैनल को बताया कि 'आपने ये दिखाकर हमारी आंखें खोल दीं. कमाल कर दिया आपने. हमारा विश्वास सचमुच ऐसी न्याय व्यवस्था से उठ गया.
मानो कह रहे हों; "आज सुबह तक हम अपने देश कि कानून व्यवस्था को दुनिया में सबसे अच्छा मानते थे लेकिन आज हमने ऐसा मानने से इनकार करना शुरू कर दिया है." टीवी चैनल भी कुछ ऐसा बर्ताव करता है जैसे कह रहा हो; " देखा; अगर हम नहीं दिखाते तो तुम्हें कैसे पता चलता कि हमारे देश में क्या हो रहा है? एहसान मानो हमारा कि हम हैं."
सालों से हम ऐसी व्यवस्था देखते आ रहे हैं. लेकिन ऐसा क्यों है कि 'स्टिंग ऑपरेशन' देखने के बाद हमारे चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे मिस वर्ल्ड का खिताब जितने के बाद उस सुंदरी के चेहरे पर होता है जिसने खिताब जीता है. हम सालों से ऐसी व्यवस्था के शिकार हैं. आंकड़े निकाले जायेंगे तो मिलेगा कि हम सभी न सिर्फ इस व्यवस्था के शिकार हैं, बल्कि इसका हिस्सा भी हैं. न्याय व्यवस्था कि धज्जी उड़ाते हुए न जाने कितनों को देखा जा सकता है. नेता हो या पुलिस, जनता हो या वकील, कोई अछूता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल-विवाद में फैसला दिया. लेकिन कर्णाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने नहीं माना. हड़ताल और बंद को लेकर न्यायालय के फैसले को कौन मानता है? हमारी मौजूदा केंद्र सरकार ने तो पिछले दो-तीन सालों में सुप्रीम कोर्ट के कितने ही फैसले विधेयक पास करके रद्द कर दिए हैं. आये दिन हमारी लोकसभा के स्पीकर न्यायपालिका को धमकी देते रहते हैं. तो फिर 'स्टिंग ऑपरेशन' देखकर चहरे पर ऐसे भाव क्यों हैं?
मुझे सत्तर के दशक कि एक हिन्दी फिल्म याद आती है. सुभाष घई ने बनाई थी. नाम था विश्वनाथ. उसमें प्राण साहब ने एक बड़ा ही मजेदार चरित्र निभाया था. गोलू गवाह का चरित्र. एक ऐसा आदमी जिसका काम ही है कोर्ट के बाहर मौजूद रहना और पैसे लेकर किसी के लिए गवाही देना. हम अंदाजा लगा सकते हैं; जब सत्तर के दशक में ऐसा हाल था, तो फिर आज कैसा होगा? तुलना की बात केवल इस लिए कर रह हूँ क्योंकि सुनाई पड़ता है कि ज़माना और खराब हो गया है. नैतिकता करीब ३० से ४० प्रतिशत और गिर गई है.
१९९१ में इस देश में आर्थिक सुधारों की शरुआत हुई. वैसे मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि अपने शासन को सबसे अच्छा बताने वाले लोगों को अपने द्वारा किये गए कामों में सुधार कि ज़रूरत क्यों महसूस होने लगी? चलिये ये एक अलग विषय है. आर्थिक सुधारों के साथ-साथ क्या सरकार को और बातों में सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं हुई? न्याय व्यवस्था में सुधार, पुलिस में सुधार, शिक्षा में सुधार; ये बातें सरकार के कार्यक्रम में नहीं हैं क्या? चलिये सरकार कि बात अगर छोड़ भी दें, तो हमने क्या किया? आरक्षण पाने के लिए हम ऐसा 'आंदोलन' कर सकते हैं, जिसमें लोगों का मरना एक आम बात है. लेकिन हम ऐसा आंदोलन नहीं कर सकते जिसकी वजह से सरकार से सवाल कर सकें कि हे राजा क्या हमें इन सुधारों कि ज़रूरत नहीं है? और अगर है तो फिर कब शुरू करेंगे आप इन सुधारों को?
हमारी ताक़त केवल आर्थिक सुधारों को रोकने में और आरक्षण पाने के लिए झगड़ा करने में लगी हुई है. टीवी पर बहस करके बात ख़त्म कर दी जाती है. बहस में नेता और विशेषज्ञ आते हैं. साथ में तथाकथित जनता भी रहती है जो सवाल करती है. वास्तव में वह सवाल करने नहीं आती वहाँ पर. आती है ये देखने कि टीवी कि स्क्रीन पर दिखने में मैं कैसा लगता हूँ.
टीवी पर एक बहस देखी मैंने. उसमें एक वकील आये थे. उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है; न्याय व्यवस्था की ऐसी हालत क्यों हैं? क्यों जज और वकील घूस लेते हुए देखे जाते हैं? क्यों गवाह तोड़े जाते हैं या किसी किसी-किसी केस में ख़त्म कर दिए जाते हैं? उन्होने इन सवालों का बड़ा रोचक जवाब दिया. उन्होने बताया; वकीलों को बैठने की जगह नहीं है, अदालत में टाईपराइटर ठीक से काम नहीं करते, बुनियादी सुविधाओं की कमी है. आप खुद सोचिये. सुविधाओं की कमी है, इसलिये लोग घूस लेते हैं! गवाह तोड़े जाते हैं. किसी ने उनसे ये नहीं पूछा कि अगर ऐसी बात है तो फिर आपने क्या किया? कहीँ पर किसी को सुविधाएं बढाने के लिए आवेदन भी किया क्या? शायद अच्छा ही हुआ कि किसी ने नहीं पूछा. उनका जवाब शायद ये होता कि भैया मुझसे क्यों पूछते हो; मैं आम इन्सान हूँ क्या? मैं तो वकील हूँ. मैं न्याय व्यवस्था से तो पीड़ित नहीं हूँ. फिर मुझे क्या पडी है कि मैं सरकार से कहूँ कि सुविधाओं को बढाया जाय.
जब तक हम टीवी कि तरफ देखेंगे कि वो हमें बताये कि हमारे साथ क्या बुरा हो रहा है; जब तक हम संदेश भेजकर अपना नाम टीवी कि स्क्रीन पर देखने कि ललक मन में रखेंगें; जब तक हमारा 'आंदोलन' टीवी के पैनल डिस्कशन तक आकर रूक जाएगा; तब तक कहीँ भी सुधार की संभावना नहीं है. क्योंकि न्याय-व्यवस्था से जुड़े बहुत सारे लोग न्याय नहीं होने देंगे.
आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है.
Monday, August 25, 2008
स्टिंग आपरेशन और न्याय-व्यवस्था - एक री-ठेल पोस्ट
@mishrashiv I'm reading: स्टिंग आपरेशन और न्याय-व्यवस्था - एक री-ठेल पोस्टTweet this (ट्वीट करें)!
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न्याय-व्यवस्था,
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बंधू
ReplyDeleteहम कमेन्ट कर दिया हूँ....(बिना पढ़े ही)
नीरज
अब अगर आपको कमेंट्स के लिये भी सोचन पडे तो लानत है :)
ReplyDeleteअब हम क्या कमेन्ट करें?
ReplyDeleteपंगेबाज महोदय ने पहले ही इतना पंगा फैला दिया है कि बस जवाब नहीं.
अब तो पंगेबाज महोदय से दरख्वास्त है कि मेरी भी अगली पोस्ट पर यही नज़रेइनायत कर दें
तो वकील हूँ. मैं न्याय व्यवस्था से तो पीड़ित नहीं हूँ. फिर मुझे क्या पडी है कि मैं सरकार से कहूँ कि सुविधाओं को बढाया जाय.
ReplyDeleteदरअसल यही सोच सारे मसले का सार है...मुझे क्या? वाली प्रवृत्ति कभी विकास नहीं होने देगी! आपका पूरा लेख पढ़कर कमेन्ट कर रही हूँ!
महान लानतीय पोस्ट रही!!!
ReplyDeleteपढ़ा है और टिप्पणी भी दे दी है. :)
ReplyDelete.
ReplyDeleteईश्वर, ज्ञानदत्त जी को यह पोस्ट सहने की शक्ति प्रदान करे...
वइसे भईय्या, यह रिठेल-उठेल घर के भीतर ही कर लिया करो,
आपके चाहने वाले तो, ऊ सब पुरनका पोस्ट खोद खोद के पढ़बे किये हैं !
ई सिलसिला कहाँ से शुरु हुआ जी ?
देखो बड़े दद्दा भी गहन विषाद से उबर कर लानतें भेज रहे हैं ....
ये गलत बात है हम आज आपकॊ पोस्ट पर १६१ बार कमेंटियाये थे , मोडरेट क्यो किये गये ? अब हम विरोध मे कमेंटिया रहे है जी , दुबारा लानत है इत्ती मेहनत बेकार कर डाली :)
ReplyDeleteये गलत बात है हम आज आपकॊ पोस्ट पर १६१ बार कमेंटियाये थे , मोडरेट क्यो किये गये ? अब हम विरोध मे कमेंटिया रहे है जी , दुबारा लानत है इत्ती मेहनत बेकार कर डाली :)
ReplyDeleteis post ne ek naye vivaad ko janm de diya hai ..jo nahi hona chahiye tha ...wase aap ne likha accha hai ..
ReplyDeleteसाहब मैंने तो आज
ReplyDeleteपहली बार पढ़ी ये पोस्ट.
वैसे ये सिलसिला आगे भी
चलाइए न ! कमेन्ट न मिलने के दंश की
पीड़ा का बखान क्यों....?
ओह !शायद इसलिए कि ये भी आपकी शैली का
एक नायब नमूना है... है न ? सच, बड़ा सूक्ष्म
व्यंग्य किया है आपने. रि-ठेल ब्लागर्स का लगे हाथ
स्टिंग आपरेशन कर दिया.......शुक्रिया.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
रि- ठेली हुई इस पोस्ट में वाकई कुछ मुद्दे है जिन पर बहस की जा सकती है ....आदरणीय द्रिवेदी जी इस पर सही ओर सटीक पोस्ट लिख सकते है....
ReplyDelete@ डा. अमर कुमार > देखो बड़े दद्दा भी गहन विषाद से उबर कर लानतें भेज रहे हैं ....
ReplyDeleteजी, ऐसा कदापि नहीं है। मैं तो पंगेबाज के कमेण्ट्स - जो बेशुमार और एकसार थे, उसके आधार पर लिख रहा था। अन्यथा, शिव की पोस्ट में वाजिब मुद्दे हैं। टीवी बहस की निरर्थकता एक बड़ा मुद्दा है।
इन फेक्ट वह पीढ़ी ही मानसिक दिवालिया है जो टीवी के आधार पर अपने विचार बनती है। यह प्रजातन्त्र टीवी-तंत्र में तब्दील होता जा रहा है।
" कर्मण्येवाधिकारस्ते" भी बस एक लोकोक्ति का आभूषण बन गया है
ReplyDeleteवासतविक सुधार के लिये ठोस प्रयत्न बरम्बार करने पडते हैँ-
आपने बात सही चलाई है
-लावण्या
Lo ji bina pare hi comment kar diye hain.....
ReplyDeleteWaise ye shikayat hume bhi hai, hum bhi comment ke liye hi likhte hain lekin aap kabhi nahi tipiyate...Kaahe aisa karte hain, batayen to....
Chaliye ab tipiya diye, ab post bhi par lete hain
भैया पहले टिप्पणी क्यों नहीं मिली? इस के लिए जाँच आयोग बिठाया जाए। मजिस्ट्रेट जाँच भी बिठाई जा सकती है। ब्लागरों की कमेटी भी चलेगी।
ReplyDeleteरी-ठेल रिटेल में क्षम्य है लेकिन थोक में नहीं चलेगी। वैसे भी मामला आगे बढ़ चुका है। टीवी वालों की तरह यह नहीं चलेगा कि सबसे पहले हमने इस पर व्यंग्य लिखा था। लिखा था तो लिखा था। वैसे री-ठेल का प्रयास पाठ्य पुस्तक में किया जा सकता है। साहित्य में नहीं तो इतिहास में ये पोस्ट उद्धरण के रूप में चलेगी। बस थोड़ी बहुत सिफारिश-विफारिश की जरूरत पड़ेगी। अब टिप्पणी अपना विस्तार कर रही है। लम्बी टिप्पणी से अच्छा है चार ब्लाग पर टिपियाया जाए। चार टिप्पणी वापसी मिलने की संभावना बनी रहती है।
"मैं कमेन्ट पाने के लिए लिखता हूँ." इसीलिए मेरी आप सब से गुजारिश है कि आप कमेन्ट जरूर करें. बिना पढ़े भी कमेन्ट करेंगे तो चलेगा. बस कमेन्ट कीजियेगा. प्लीज.
ReplyDeleteहमने बिना पढ़े टिपण्णी कर दी :-)
एक बार फिर कमेण्ट के मामले ने नया टर्न ले लिया। मुद्दे पर टिप्पणियाँ नहीं आयी, भूमिका/प्रस्तावना को ही लोगों ने टिपिया दिया।
ReplyDeleteदरअसल आपने जो मुद्दा उठाया उसमें कदाचित् दोषी हम सभी बन गये, इसलिए बगलें झाँकते हुए निकल लिये।
हमारे देश में बड़े संतोषी जीव हैं जो कहा करते हैं “कोउ नृप होहिं हमै का हानी।”
रिठेल पोस्ट का पुनर्पाठ किया गया। अच्छा है। परसाई जी ने बहुत पहले एक वकील के माध्यम से कहा था- मैं तो गवाह तोड़ता हूं और अपनी प्रैक्टिस सबसे अच्छी है। लोग पढ़ते नहीं इसलिये झटका लगता है। आपकी ये पोस्ट भी जो पढ़ेगा नहीं ,उसे कुछ साल बाद झटका लगेगा। आपने सच ही लिखा है-
ReplyDeleteआख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है.
मैं तो इसे एक गंभीर पोस्ट ही कहूँगा.. वाकई कुछ मुद्दे विचारणीय है.. द्विवेदी जी को पकड़ना पड़ेगा
ReplyDeleteपूरा पढ़ लेने के बाद, पावती स्वरूप टिप्पणी आवश्यक थी, इसलिये दे दी।
ReplyDeleteविचारणीय ,गंभीर पोस्ट
ReplyDeleteचलिए, उदासी दूर- हम थे नहीं यहां..फिर भी देरी से कमेंट किये दे रहे हैं-शानदार री ठेल!!! :)
ReplyDelete"" हमारी ताक़त केवल आर्थिक सुधारों को रोकने में और आरक्षण पाने के लिए झगड़ा करने में लगी हुई है. टीवी पर बहस करके बात ख़त्म कर दी जाती है. बहस में नेता और विशेषज्ञ आते हैं. साथ में तथाकथित जनता भी रहती है जो सवाल करती है. वास्तव में वह सवाल करने नहीं आती वहाँ पर. आती है ये देखने कि टीवी कि स्क्रीन पर दिखने में मैं कैसा लगता हूँ. ""........
ReplyDeleteलाजवाब.
"नैतिकता करीब ३० से ४० प्रतिशत और गिर गई है."
"...निचोड़.."...सब तुम्हारी ही पोस्ट से है.
बहुत बढ़िया लिखा है.वस्तुतः यह प्रसंग कभी पुराना नही पड़ेगा चाहे कितने दिन बाद भी पोस्ट करो और चाहे तो कितनी ही बार पोस्ट करो.
lo aapne adesh diya or der se sahi hajir hai .avayavastha failane ke liye hamara tantr jimmedar hai or sudhaar ki kalpana karna apna samy kharab karana hi hi . vicharapoorn post. dhanyawad.
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