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Tuesday, October 14, 2008

ख़राब टीवी, बिगड़ी इमेज.....और बाज़ार विमर्श


@mishrashiv I'm reading: ख़राब टीवी, बिगड़ी इमेज.....और बाज़ार विमर्शTweet this (ट्वीट करें)!

पिछले करीब बीस दिनों से घर का टीवी सेट ख़राब था. एक बार सोचा कि इसकी मरम्मत करवा लूँ. फिर सोचा कुछ दिन ऐसे ही रहने दो. ये ख़राब टीवी सेट मेरी इमेज ठीक करने के काम आ सकता है. बढ़िया टीवी सेट दिखा कर तो सभी अपनी इमेज दुरुस्त करते हैं लेकिन मैं घटिया, पुराना और ख़राब टीवी सेट दिखा कर अपनी इमेज सुधार लूँगा.

नहीं-नहीं. इमेज को लेकर आप ये सोचें कि अगले साल होने वाले आम चुनावों में लड़ने-भिड़ने की तैयारी चल रही है. इस तरह से इमेज सुधारने का काम तो बड़े लोग करते हैं. हमें तो बस दो-चार दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच इमेज ठीक करनी थी.

मैंने सोचा कि अगर ये टीवी सेट ऐसे ही पड़ा रहा और मेरे भाग्य से कोई दोस्त-यार या फिर रिश्तेदार घर में आ गया और उसके बच्चे कार्टून देखने की फरमाईस करेंगे ही. जब वे ऐसी फरमाईस करेंगे तो मैं कहूँगा; "बेटा टीवी ख़राब है."

मेरी बात सुनकर दोस्त पूछेगा ही; "क्या बात है, टीवी ख़राब है तो रिपेयर क्यों नहीं कराते?"

और मैं बड़े गर्व से जवाब दूँगा; "हाँ यार ख़राब तो है लेकिन एकदम समय नहीं मिल रहा है कि इसकी मरम्मत करवा सकूं. बहुत बिजी हूँ."

दोस्त मेरी बात सुनकर मन ही मन इम्प्रेस्ड ही जायेगा. सोचेगा; "मैं तो समझ रहा था कि इसे कोई काम-धंधा नहीं है. केवल ब्लागिंग करता रहता है. ऊपर से पोस्ट ठेल कर फ़ोन करके पढ़ने के लिए कहता है, सो अलग. लेकिन ये भी बिजी है! कमाल है. आजकल कोई भी बिजी हो लेता है. ये भी."

लेकिन मेरा प्लान धरा रह गया. कोई नहीं आया जो घर में आधा घंटा बैठे. दशमी के दिन शाम को एक-दो लोग आए लेकिन वे भी दशमी और दुर्गा पूजा की बधाई देकर निकल लिए. किसी ने टीवी के बारे में नहीं पूछा. टीवी और मैं दोनों इंतजार करते रह गए. लोगों को इम्प्रेस करने का मेरा प्लान चौपट हो गया.

फिर सोचा कि जिस टीवी की इतनी हैसियत नहीं कि मेरी इमेज सुधार सके, उस टीवी के लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं. इसे हटाओ और नई टीवी खरीद लाओ. अब इमेज में सुधार नई टीवी की वजह से ही आएगा. बस, यही सोचते हुए रविवार को नई टीवी खरीद लाया. जिस शोरूम से खरीदा वहां के लोग बोले; "आप क्यों ले जा रहे हैं? हम कल सुबह डिलीवरी करवा देंगे न."

वे तो बोलेंगे ही. उन्हें क्या पता कि कि मैं नई टीवी इमेज सुधारने के लिए ले रहा हूँ?

मैंने उनसे कहा; "कोई बात नहीं है. मैं ख़ुद ही ले जाऊंगा."

और मैं शाम को टीवी लेकर घर आया. तुरत-फुरत में टीवी को सेट किया. उसे ऑन किया और टीवी न देखने की वजह से बीस दिनों में जो भी लॉस हुआ था, उसकी भरपाई करने लगा.

सबसे पहले अपना 'फेवरिट' न्यूज़ चैनल खोला. देखते क्या हैं कि बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ स्क्रीन पर न्यूयार्क की बड़े-बड़ी इमारतें दिख रही हैं. साथ में बैकग्राउंड से ही बड़े जोर-जोर से आवाज आ रही है; "कंगाली के कगार पर खड़ी है दुनियाँ. जी हाँ, टूट चुके हैं पूरी दुनियाँ के शेयर बाज़ार. ध्वस्त हो गई है अर्थव्यवस्था. बिना मकान के हो गए हैं दस लाख लोग. क्या होगा आगे.....?"

लगा जैसे कोई हारर शो चल रहा है. भाई लोगों को बहराईच के प्रेम त्रिकोण और हत्या के मामले में और अर्थ-व्यवस्था के मामलों में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता. अर्थ-व्यवस्था की खबरें पढेंगे वो भी सनसनी की स्टाइल में?

अर्थ-व्यवस्था से की बात चली तो याद आया कि एक दिन मेरी दीदी ने सुबह-सुबह फ़ोन किया. मैं आफिस जा रहा था. बड़ी घबराई हुई थी. उसने पूछा; " ये जो अर्थ-व्यवस्था की डगमगाहट या गिरावट है, उसके बारे में तुम क्या सोचते हो?"

उसकी बात सुनकर मैं सोच में पड़ गया. मैंने उससे पूछा; "तुम शेयर बाज़ार की बात कर रही हो या अर्थ-व्यवस्था की?"

उसने कहा; "अर्थ-व्यवस्था की."

उसके प्रश्न पर मुझे जो सूझा मैंने उसे बताया. लेकिन एक बात ज़रूर है. अर्थ-व्यवस्था को लेकर लोगों की चिंता शेयर बाज़ार की ख़राब हालत की वजह से हुई है. लोगों में ये बात फैला दी गई है कि बाज़ार ऊपर माने अर्थ-व्यवस्था आसमान पर है. लोग ऐसा ही विश्वास करते हैं. बिना ये सोचे हुए कि; जिस देश की सड़कें ऐसी हैं कि रांची से चली ट्रक कलकत्ते तक पहुँचने में दो दिन लगाती है उस देश को अधिकार नहीं है २०२० तक इकनॉमिक सुपर पॉवर होने के सपने देखने का.

और वैसा ही शेयर बाज़ार के गिरने से होता है. शेयर बाज़ार गिरा नहीं कि बात शुरू हो जाती है कि सबकुछ ख़त्म हो गया. अब कुछ नहीं बचेगा. लोग कंगाल हो जायेंगे. खाने को नहीं मिलेगा. और ये सारी बातें बिना ये सोचे हुए कि शेयर बाज़ार के पार्टिसिपेंट हमेशा अर्थ-व्यवस्था को देखकर काम करें, ये ज़रूरी नहीं.

मजे की बात ये है कि देश के लोग ये बात कहते रहते हैं कि शेयर बाज़ार तो जुआ है. भैया हम तो पैसे नहीं लगाते. लेकिन जैसे ही बाज़ार नीचे जाता है लोग हाय-तौबा मचाना शुरू कर देते हैं कि आम आदमी का पैसा डूब गया. आम आदमी इस बाज़ार से कभी नहीं कमा सकता. ये बाज़ार तो बड़े लोगों के लिए है.

समझ में ही नहीं आता कि जब आम आदमी पैसा लगाता ही नहीं तो उसका पैसा डूबता कैसे है? कई बार मैंने देखा है कि लोग बड़े-बड़े अपराधियों से अपने संबंधों के बारे में बहुत गर्व के साथ बताते हैं लेकिन ये शेयर बाज़ार में निवेश करने की बात को ऐसे देखते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध है.

ये अलग बात है कि उनका पैसा भी शेयर बाज़ार में लगा रहता है.

शेयर बाज़ार से याद आया कि मेरी एक माईक्रो पोस्ट पढ़कर ब्लॉगर साथियों ने मेरे प्रति संवेदना प्रकट की. कुछ लोगों ने सुझाव भी दिया कि जिस स्टॉक की बात मैंने अपनी पोस्ट में की थी, उसे तुंरत बेंच दूँ नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा. सब बेकार हो जायेगा.

ब्लॉगर साथियों के सुझाव पढ़कर लगा कि हमसब एक दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील हैं. शायद यही बात एक इंसान को दूसरे से जोड़ती है.

पिछले दिनों बाज़ार विमर्श इस तरह से चला कि ढेर सारी बातें जानने और सुनने को मिलीं. कल विक्रम बता रहा था; "भैया, कंबन ने तमिल में जो रामायण लिखी है उसमें उन्होंने एक घटना का जिक्र किया है. जब राम वनवास चले जाते हैं उसके बाद के समय का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि दशरथ की हालत ठीक वैसे ही थी, जैसे कर्ज में डूबे किसी व्यक्ति की होती है."

कंबन रामायण में वर्णित इस प्रसंग के बारे में विक्रम का मत था; "सोचिये, कि कर्ज लेना कितनी बड़ी बात है. किस तरह की मन: स्थिति से गुजरना पड़ता होगा. लेकिन आजकल लोग कर्ज लेने में जरा भी नहीं झिझकते. कोई-कोई तो बड़े आराम से बताता है कि उसने अपनी छोटी गाड़ी बेंचकर नई बड़ी गाड़ी खरीद ली. वो भी बैंक से कर्ज लेकर."

विक्रम की इस बात से याद आया कि बहुत सारे लोगों से बातचीत के दौरान मैंने पाया कि उन्होंने कर्ज लेकर शेयर बाज़ार में निवेश किया है. अब ऐसे लोगों की हालत राजा दशरथ जैसी होगी या उनसे भी बुरी.

इसी मसले पर सुदर्शन का कहना है; "दो-चार दिन से एक बात सोच रहा हूँ सर. सोच रहा हूँ कि जिस तरह के अनुशासन के बीच हमलोग पले और बड़े हुए हैं, उसका हमारे अपने फाइनेंस को मैनेज करने में बड़ा हाथ है. जो ये हमें घर वाले कहते थे कि स्कूल से पहले घर आना है उसके बाद खेलना है. रात को आठ बजे से पहले घर आना है. बिना किसी कारण के देर रात तक घर से बाहर नहीं निकलना है. इन सारी बातों को महत्व आज पता चल रहा है जब ये देखते हैं कि फाइनेंस को मैनेज करने में जो अनुशासन हमलोग दिखाते हैं, वैसा सभी नहीं दिखा पाते."

सुदर्शन का आगे कहना था; " महत्व इस बात का नहीं है कि हमने फिनान्सिअल मैनेजमेंट की पढाई कितनी की है. महत्व इस बात का भी नहीं है कि हमें सिद्धांतों के बारे में कितनी जानकारी है. सारा ज्ञान और सारी जानकारी धरी रह जायेगी अगर हमारे अन्दर फाइनेंस मैनेज करने के लिए अनुशासन नहीं है."

बाज़ार हमें चलाने की कोशिश करेगा. लेकिन हमें वहीँ तक चलना है जहाँ तक चलने के लिए हमारे पैर तैयार हैं. जहाँ तक चलने की हमारे अन्दर हिम्मत है. ऐसा न हो कि चलते-चलते हम थक जाएँ तो बाज़ार की मंशा पूरी करने के लिए गाड़ी खोजने लगें.

14 comments:

  1. बंधू मैं भी विवेक जी की तरह "सत्य वचन" लिख कर सायोनारा कर सकता था...उनका दोष नहीं है इसमें...जो पोस्ट टी.वी से शुरू हो कर अर्थ व्यवस्था और शेयर बाजार की तंग गलियों से गुजरती हुई रामायण प्रसंग के पर्वत लाँघ कर सुदर्शन जी के दार्शनिक महासागर में समाप्त होती हो उसके लिए सत्य वचन कह कर चल देना सबसे अधिक सुरक्षित है. अब चूँकि मैंने "सत्य वचन" से अधिक वचन लिख दिए हैं टिपण्णी में इसलिए अब मुझे सायोनारा कहने में कोई परेशानी नहीं है.
    आप के घर का टी.वी जब अगली बार ख़राब हो जाए तो नया मत लाईयेगा.... वरना फ़िर आप आप एक ठो बुद्धि जीवी टाइप पोस्ट लिखने को बाध्य हो जायेंगे.
    नीरज

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  2. बाज़ार हमें चलाने की कोशिश करेगा. लेकिन हमें वहीँ तक चलना है जहाँ तक चलने के लिए हमारे पैर तैयार हैं. जहाँ तक चलने की हमारे अन्दर हिम्मत है. ऐसा न हो कि चलते-चलते हम थक जाएँ तो बाज़ार की मंशा पूरी करने के लिए गाड़ी खोजने लगें.

    आपकी इन लाईनों को अगर लोग वेद वाक्य मान ले तो इस बाजार में जो कत्ले आम होता है , वो कभी भी ना हो ! इस शिक्षा दाई लेख के लिए आपको बहुत धन्यवाद !

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  3. यह टिप्पणी जरा विषय से हट कर भी है और विषय पर भी.


    सुबह बाबा मार्क्स की पूजा कर घर से निकलते समय एक चश्मा लगा लेते है, अब हर समस्या के लिए पूँजीवाद जिम्मेदार नजर आता है. फिर निजी कम्पनी में मोटी पगार पर नोकरी बजाते है और पैसा शेयर बजार में लगाते है. जब बाजार लुड़कता है, अमेरीका को गरियाते है. आम आदमी (भई खूद की)की चिंता इन्हे खाए जाती है. ये निजी चैनलो के पत्रकार भी हो सकते है :)

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  4. "तुम शेयर बाज़ार की बात कर रही हो या अर्थ-व्यवस्था की"

    सही कहा.. दोनों को आजकल एक ही मान कर चला जा रहा है..

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  5. यह और एक निराशा हो गयी कम्बन रामायण के बारे में जानकर - हममें तो दशरथ बनने की बेसिक क्वालीफिकेशन ही नहीं है!
    भैया कुछ उधार दोगे क्या? दशरथ बनना है।

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  6. सारा ज्ञान और सारी जानकारी धरी रह जायेगी अगर हमारे अन्दर फाइनेंस मैनेज करने के लिए अनुशासन नहीं है."

    सौ बातों की एक बात कही तुमने.बहुत सार्थक पोस्ट है. .

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  7. पहले तो बधाई नये टी वी की, ओर वो पुराने वाला कहाम फ़ेका? शायद हमारी इमेज बना दे...
    धन्यवाद

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  8. आज का जो सच है वही उजागर किया है आपने ..और टीवी भी घर का सदस्य ही हो गया है आजकल तो
    - लावण्या

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  9. नये टीवी के साथ यह ज्ञान मुफ़्त में मिला। बधाई!

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  10. ऐसा लगा हारर शो चल रहा हो,बहराईच के प्रेम त्रिकोण और हत्या और अर्थ-व्यवस्था ,अर्थ-व्यवस्था की खबरें सनसनी स्टाईल में,क्या बात है शिव भैय्या सनसनी मचाने वाली पोस्ट है ये तो।शानदार्।

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  11. ऐसा न हो कि चलते-चलते हम थक जाएँ तो बाज़ार की मंशा पूरी करने के लिए गाड़ी खोजने लगें.

    अत्यंत धारा-प्रवाह पढता गया !!अंत की लाईन वाकई शानदार है!!

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  12. वाह!
    वाह!!
    वाह!!!
    अब आप बिल्कुल फूल-टाइम व्यंग्यकार हो जाईये.
    या शायद हो चुकें हैं.
    बहुत बढ़िया.
    बधाई! बधाई! बधाई!

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय