सब अपने-अपने मौसम को संभालते दिख रहे हैं. ब्लॉगरगण कवितायें लिखकर बसंत को संभाल रहे हैं तो कवि गण अपनी-अपनी चुटुकुले वाली कविताओं से काव्यप्रेमियों को संभालने की जुगत लगा रहे हैं. कवि सम्मलेन-ओम्मेलन का प्रोग्राम रोजई बन-बिगड़ रहा है.
हाल तो ई है कि चलते-चलते कहीं नज़र चली जाए तो हास्यास्पद रस के कवि सम्मेलनों के पोस्टर हाथ हिलाते लौक जाते हैं. जैसे कह रहे हों; "अरे आफिस के काम-धंधे तो चलते ही रहेंगे. एक-आध दिन हास्यास्पद रस में भी तो डूबकर देखो. खूब मज़ा आएगा."
कविगण कुर्ता धुलवाते और उसपर इस्तिरी देते हलकान हुए जा रहे हैं. काव्य-प्रेमी आफिस से शाम को जल्दी निकलने की जुगत भिड़ा रहे हैं. चिंता खाली मार्च के महीने की है जो हर जुगत को सल्टाता हुआ जान पड़ता है.
कारपोरेट संस्कृति काव्य संस्कृति के आड़े आ जा रही है.
वैसे अगर सबसे बढ़िया किसी की छन रही है तो ऊ हैं नेता लोग. उनको न तो बसंत-वसंत की चिंता और आफिस की परेशानी. कवि सम्मेलनों में वैसे ही नहीं जाते. कविगण नब्बे प्रतिशत कविताओं में कुत्तों और गधों को नेता से ऊंचा बताते हैं.
ऐसे में नेता जी क्या करें?
वे तरह-तरह के पोज से अखबार का पृष्ट रंग दे रहे हैं. आखिर जो मज़ा फोटो खिचाकर चुनाव प्रचार में है वो मज़ा बसंत और आफिस में कहाँ मिलेगा?
सामने अखबार रखा हुआ है. पांच-छ पेज पर खाली नेता, उपनेता, अनेता, सुनेता, कुनेता, मंत्री, उपमंत्री, राज्यमंत्री, मुख्यमंत्री, दम वाले मंत्री, बेदम वाले मंत्री छाए हैं. अखबार का पेज योजना, परियोजना, उप-योजना से लेकर अति-योजना की डिटेल से भरा पड़ा है.
भारत संचार का विज्ञापन है. विज्ञापन में बताया गया है कि हर फ़ोन-काल का रेट पचास पैसा. साथ में पार्टी अध्यक्षा, प्रधानमंत्री, सूचना मंत्री, सूचना राज्य मंत्री की फोटो लगी है. इनलोगों की फोटो के सामने ही पचास पैसा के सिक्के का फोटू छपा है. देखकर एक बार के लिए कोई भी कन्फ्यूजिया जाए. ये सोचते हुए कि ये पचास पैसे का सिक्का फ़ोन-काल का रेट बता रहा है या....
परियोजनाओं के उद्घाटन की तो पूछिए ही मत.
"मंत्री जी से मिलना था."
"भैया, मंत्री जी अगले चार दिन तक नहीं मिलेंगे. परियोजना का उद्घाटन करने गए हैं. दस दिन से बिजी हैं. तीन तारीख तक भेंट नहीं कर सकोगे. उनका टारगेट है अगले चार दिन में पौने आठ सौ परियोजनाओं के उद्घाटन करने का."
हालत यह है कि रेल का कारखाना, खेल का कारखाना से लेकर भेल का कारखाना, कुछ भी उद्घाटित होने से नहीं बच पा रहा.सड़क परियोजना से लेकर पुल परियोजना और फैक्टरी से लेकर सैक्टरी, कुछ भी नहीं छोडेंगे.
एक ही मंत्री एक दिन में चालीस-पचास उद्घाटन कर डाल रहा है. कभी-कभी पढ़कर लग रहा है जैसे अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो अगले साल तक भारत सड़कों और पुलों का देश बन जायेगा. आदमी घर से निकला नहीं कि सड़क पर आ जायेगा. गली-कूचे तो बहुत जल्दी ही इतिहास हो जायेंगे. अब गंगा, जमुना, गोमती, घाघरा, ब्रह्मपुत्र, कोसी वगैरह को तो जाने दीजिये, नाला, नाली और तालाब पर भी पुल बन जायेंगे.
टीकाकरण के आंकडों की तो बात ही निराली है. एक दिन में लगने वाले टीकों का आंकडा पकड़ लें तो पता चलता है कि पिछले चार-पांच साल में पूरा भारत ही टीका-ग्रस्त हो गया है. फोटू-वोटू का हाल यहाँ भी वैसा ही है. पार्टी अध्यक्षा के साथ स्वास्थ्य मंत्री का फोटू छपा है. देखकर लगता है जैसे टीका-वीका इन्ही लोगों को लगा है.
जल्दी-जल्दी परियोजना के उद्घाटन के मामले में अपने मंत्रियों का नाम कल-परसों तक गिनीज बुक में आने ही वाला है. पता नहीं इन मंत्रियों को नीद आती है या नहीं. या फिर रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े उद्घाटन और भाषण के ही सपने देखते हैं.
आज सुबह टीवी में देख रहा था. पटना के गाँधी मैदान में कल लालू जी ने एक ही मिनट में एक हज़ार परियोजनाओं का उद्घाटन कर डाला. सही बात है. कौन झमेला करे यहाँ-वहां जाकर उद्घाटन करने का? एक ही रैली में संगमरमर के एक हज़ार पत्थर ही तो इकठ्ठा करने हैं. उनपर लिखवाकर पर्दा लगा दो और भाषण देने के बाद जैसे ही जनता ताली बजाये वैसे ही पर्दा गिरा दो. बस, सिंपल.
धोया, भिगोया...हो गया टाइप.
वैसे एक हज़ार पत्थर अपने गंतव्य माने परियोजना की जगह तक भी पहुँच सकेंगे कि नहीं, किसे पता? जब पत्थरे का कोई गारंटी नहीं है त परियोजना का गारंटी कौन लेगा?
अच्छा मौका है गिनीज बुक में नाम डलवाने का.गिनीज बुक में नाम डलवाने के लिए न तो नाखून बड़े करने हैं और न ही मूंछ. ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि दाढ़ी, मूंछ, नाखून, बाल वगैरह बड़ा करके अपने देश वाले गिनीज बुक में नाम दर्ज करवा लेते हैं. मंत्री जी को तो वो भी नहीं करना पड़ रहा.
लेकिन संगमरमर के इन पत्थरों की गति क्या होगी? इसका अंदाजा इस बात से लगाईये कि मुंबई मेट्रो प्रोजेक्ट जिसके उद्घाटनकर्ता माननीय प्रधानमंत्री थे और जिन्होंने नारियल फोड़कर इस प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया था, उसका संगमरमर ही कोई उखाड़ ले गया. प्रोजेक्ट तो वैसे ही उखड़ा-उखड़ा सा है.
Saturday, February 28, 2009
लोकतंत्र का उद्घाटन
@mishrashiv I'm reading: लोकतंत्र का उद्घाटनTweet this (ट्वीट करें)!
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इतनी परियोजनायें! एक हजार परियोजनाओं पर तो गिनीज बुक का दावा बन ही गया।
ReplyDeleteवैसे इतना साहस तो लालूजी में है ही कि एक हजार को पाँच हजार, दस हजार में बदल दें ।
लेकिन इसकी जरूरत तब पड़ेगी, जब इतनी परियोजनाओं के उदघाटन का आंकड़ा कोई दूसरा शलाका पुरुष भी छू ले।
और हम आपके लिखे का यहां लुत्फ उठा रहे हैं।
ReplyDeleteसब अपने-अपने मौसम को संभालते दिख रहे हैं. ब्लॉगरगण कवितायें लिखकर बसंत को संभाल रहे हैं तो कवि गण अपनी-अपनी चुटुकुले वाली कविताओं से काव्यप्रेमियों को संभाल की जुगत लगा रहे हैं.
ReplyDeleteमिसिरजी ने पत्थर संभालने का काम संभाल लिया है!
हा हा हा बहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteसुनेता???? ई का होत है ???
ReplyDeleteबड़ी फिटटूस पोस्ट है जी आज क़ी.. मज़ा आ गया..
अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteओजी बड़ी मुश्कल से आपके पोस्ट पर टिपियाने आयें हैं....क्या करें...टैम ही नहीं है जी...लोगों की हास्य कविताओं का पंजाबी में अनुवाद करने का इतना काम बढ़ गया है जी की क्या कहें...नरम दिल के हैं जी हम...अब किसी को मना भी तो नहीं कर सकते...सोचते हैं की अगर किसी को मना कर दित्ता और उसने पलट के कहा की जिसकी कविता का आपने अनुवाद किया है क्या वो आपका फुफ्फड़ लगता है?....तो क्या जवाब देंगे? आज कल हम इस अनुवाद वाली परियोजना पर ही काम कर रहे हैं...
ReplyDeleteआप कहेंगे की मेरी इस टिपण्णी का आप की पोस्ट से क्या सम्बन्ध है...??? हैं हैं हैं हैं....कोई सम्बन्ध नहीं है जी...होली है....
नीरज
बहुत गजब लिखा जी.
ReplyDeleteरामराम.
मै यहां आपसे यह जानना चाहता हू कि पत्रकारिता बहुत लोग करते है लेकिन पुरस्कार तक कम लोग ही पहुच पात है । नगमा जी अगर शामिल हो तो कोई बड़ी बात नही । ये सम्मान और पुरस्कार हमेशा विवादित रहा है । इस पर मै कुछ लिखने को सोच रहा हूं
ReplyDeleteपांच-छ पेज पर खाली नेता, उपनेता, अनेता, सुनेता, कुनेता, मंत्री, उपमंत्री, राज्यमंत्री, मुख्यमंत्री, दम वाले मंत्री, बेदम वाले मंत्री छाए हैं. अखबार का पेज योजना, परियोजना, उप-योजना से लेकर अति-योजना की डिटेल से भरा पड़ा है.
ReplyDeleteहा हा हा हा.....लाजवाब !!! जबरदस्त उद्घाटन कथा !!! सौ पैसे सच ,सटीक !!
अब सब कुछ जब ...........भिगोया,धोया और ......हो गया..टाईप ही करना है तो दिक्कत क्या है......
अच्छा मौका है गिनीज बुक में नाम डलवाने का.गिनीज बुक में नाम डलवाने के लिए न तो नाखून बड़े करने हैं और न ही मूंछ. ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि दाढ़ी, मूंछ, नाखून, बाल वगैरह बड़ा करके अपने देश वाले गिनीज बुक में नाम दर्ज करवा लेते हैं. मंत्री जी को तो वो भी नहीं करना पड़ रहा.
ReplyDeleteग़ज़ब शिवकुमार जी. गिनीज़ बुक के लिए नाम दर्ज करवाने के लिए हमारे पास बहानों की कोई कमी नहीं है.
दर असल आज-कल में ही लोकसभा चुनावों की घोषणा होने वाली है। जिसके बाद चुनाव आचार संहिता लागू हो जाएगी। संहिता लागू होने के बाद चुनाव आयोग इस प्रकार के लोक-लुभावन कार्यक्रमों पर रोक लगा देगा। इसी लिए आजकल उद्घाटन और शिलान्यास का मौसम जोर-शोर से चल रहा है।
ReplyDeleteवैसे आपने पोस्ट गजब लिखी है। बधाई।
लालू जी कुछ भी कर सकते हैं.....अभी तो बस एक हज़ार परियोजनाओं का ही उदघाटन किया है!नाखून बढ़ाना या मूंछें बढ़ाना अब पुराणी बात हो गयी है! इत्ती मेहनत करने की ज़रूरत ही क्या है...वैसे एक दिन में एक हज़ार एक ब्लॉग पर टिपण्णी करने का आइडिया कैसा रहेगा? कोई चुरा मत लेना मेरे आइडिये को...:-)
ReplyDeleteये नेता लोग किस ग्रह से आये हैँ क्या पता !! :-(
ReplyDeleteसुन्दर !
ReplyDeleteअतिसुन्दर !
बडे सुन्दर विचार हैं !
क्या बात हैं !
क्या बात है !
बेहतरीन...जरा जल्दी में हूँ-एक उद्धघाटन में जाना है. :)
ReplyDeleteनेताओं के दो ही तो आभूषण हैं। उद्घाटन और आश्वासन। अच्छा लिखा है आपने।
ReplyDelete‘कविगण कुर्ता धुलवाते और उसपर इस्तिरी देते हलकान हुए जा रहे हैं. ’ रंग-ओ-गुलाल से बचना रे बाबा, रंज-ओ-मलाल से दूर रहना रे बाबा:)
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