Wednesday, February 24, 2010

'लाफ्टीबॉय' उर्फ़ नान्हूमल बुद्धिराज साहू

बहुत दिनों से कोशिश कर रहे थे कि उनका इंटरव्यू ले लें. बहुत दिनों की कोशिश के बाद आज वे मिले हैं. ट्वीट करने से फुर्सत ही नहीं मिलती उन्हें. वे हमेशा ट्वीट करते रहते हैं और अबतक कुल एक लाख चालीस हज़ार पांच सौ बावन...सॉरी मेरे बावन लिखते-लिखते उन्होंने तीन ट्वीट और कर दिया. तो अभी तक वे कुल एक लाख चालीस हज़ार पांच सौ पचपन ट्वीट कर चुके हैं.

खैर, मैंने बहुत कहा तब जाकर इंटरव्यू देने के लिए तैयार हुए. पहले बोले; " इंटरव्यू ट्विटर पर ही ले लो."

जब मैंने कहा कि पूरा इंटरव्यू छापने में परेशानी होगी तब जाकर तैयार हुए. जीवन का दर्शन कुल एक सौ चालीस अक्षरों में समेट देने में महारत हासिल कर लिया है इन्होने.

जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ नान्हूमल बुद्धिराज साहू की जिन्हें ट्विटर की दुनियाँ में 'लाफ्टीबॉय' के नाम से जाना जाता है. तो अब भूमिका वगैरह में उनके बारे में कितना बूंकेंगे? सीधा बात करते हैं उनसे.



शिव : नमस्कार लाफ्टीबॉय जी.

लाफ्टीबॉय : गुड मोर्निंग......हाऊ आर यू, ट्वीपल..

शिव : माफ़ कीजिये...लगता है आपको याद दिलाना पड़ेगा कि आप इस समय इंटरव्यू दे रहे हैं.

लाफ्टीबॉय : ओह ओह..सॉरी. मैं भूल गया था.

शिव : आपके कहने का मतलब क्या है? जरा विस्तार से बताएं क्या भूल गए थे?

लाफ्टीबॉय : विस्तार से बताएँगे तो १४० से ज्यादा अक्षर यूज करने पड़ेंगे न.

शिव : अरे तो कर लीजिये न. आप यहाँ ट्वीट थोड़े न कर रहे हैं. आप तो इंटरव्यू दे रहे हैं.

लाफ्टीबॉय : चलिए, आप कहते हैं तो १४० से ज्यादा अक्षर यूज कर लेते हैं. मेरे कहने का मतलब यह है कि मैं भूल गया था कि मैं इंटरव्यू दे रहा हूँ....ट्विटर इस तरह से ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया है कि हमेशा लगता है जैसे मैं ट्वीट कर रहा हूँ.

शिव : चलिए कोई बात नहीं है. आप ये बताएं कि आप क्या करते हैं? मेरा मतलब आपका प्रोफेशन क्या है?

लाफ्टीबॉय : बहुत कठिन सवाल कर दिया आपने. अब इसका क्या जवाब दूँ? देखा जाय तो मैं खुद भूल गया हूँ कि मेरा प्रोफेशन क्या है. पहले लोग कहते थे कि मैं एक लेखक और पत्रकार हूँ. कई महीने बीत गए लोगों से अपने बारे में सुने हुए. अब तो लोग कहते हैं कि मैं केवल एक ट्वीटर हूँ. तो आप भी वही कह सकते हैं.

शिव : लगता है जैसे ट्विटर ने आपके जीवन को बहुत प्रभावित किया है.

लाफ्टीबॉय : बहुत.... देखा जाय तो ट्विटर ने....एक मिनट..एक मिनट. मैं जरा ट्वीट कर दूँ कि मैं इंटरव्यू दे रहा हूँ. जस्ट वन सेक...हाँ. अब ठीक है. क्या है कि मुझे फालो करने वाले परेशान होंगे न. सोचेंगे बिना बताये कहाँ चला गया मैं? हाँ तो मैं कह रहा था कि ट्विटर ने मेरे जीवन को बहुत प्रभावित किया. कह सकते हैं कि मेरा जीवन एक खुली किताब है अब.

शिव : हाँ, वह तो है. मैंने सुना है कि आप वाशरूम जाते हैं तो भी बताकर जाते हैं कि आप वहां जा रहे हैं?

लाफ्टीबॉय : हाँ. ज़रूरी है न. हज़ारों लोग अगर आपको फालो कर रहे हैं तो उन्हें बताना ज़रूरी है. एक तरह से उनकी भावनाओं का सम्मान करना है ये.

शिव : लेकिन सबकुछ बताने की इस आदत की वजह से नुक्सान भी तो हो सकता है.

लाफ्टीबॉय : हाँ, नुक्सान तो हो सकता है. सबसे बड़ा नुक्सान ये होगा कि इसी तरह से ट्वीट करता रहा तो मुझे अपनी बायोग्राफी लिखने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी. हा हा हा...

शिव : आपका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर...

लाफ्टीबॉय : हाँ..मेरे फालोवर भी यही कहते हैं कि मेरा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर अमेजिंग है..हा हा हा.

शिव : वैसे दिन में कितने घंटे ट्वीट करते हैं आप?

लाफ्टीबॉय : हा हा हा..क्या बात करते हैं आप भी? कोई घंटा गिनकर ट्वीट करता है भला? ये कोई आफिस का टाइम है जो दस से पाँच तक चलेगा?..वैसे आप जानना चाहते हैं तो जवाब यह है कि मैं हमेशा ट्वीट करता रहता हूँ.

शिव : वैसे इसकी वजह से घर वालों को परेशानी नहीं होती?

लाफ्टीबॉय : नहीं. ऐसी कोई बात नहीं है. कह सकते हैं घर वाले सपोर्टिव हैं. हाँ, कभी-कभी ऐसी घटना हो जाती है जब घरवाले नाराज़ हो जाते हैं..

शिव : ऐसी कोई घटना हुई क्या आपके साथ?

लाफ्टीबॉय : हा हा..चलिए आपको बता ही देते हैं. वो हुआ ऐसा कि पिछले महीने घर में एक रात चोर घुस आया. मैंने देखा कि वह घर में घुस आया है. मैं उसे पकड़ने जा ही रहा था कि मन में ख़याल आया कि पहले मैं ट्वीट करके अपने फालोवर को बता दूँ कि घर में चोर घुस आया है. ट्वीट करने के बाद आराम से पकडूँगा. अब इसे मेरा दुर्भाग्य कहिये कि चोर मेरे ट्वीट करते-करते सामान लेकर चम्पत हो गया. जब मैंने घरवालों को बताया तो वे नाराज़ हुए. कई दिन तक नाराज़ थे...

शिव : वैसे ये बताइए कि टेक्नालाजी ने ट्वीट करने में कितनी मदद की है आपकी?

लाफ्टीबॉय : बहुत. टेक्नालाजी का काफी विकास हो गया है. अब तो सेल फ़ोन से भी ट्वीट कर लेता हूँ. हाँ, ये बात ज़रूर है कि टेक कंपनियों को और भी बहुत कुछ करने की ज़रुरत है.

शिव : क्या-क्या विकास कर सकती हैं टेक कम्पनियाँ?

लाफ्टीबॉय : मैं अपना एक्सपीरिएंस बताता हूँ आपको. जैसे अगर मैं नहाने जा रहा हूँ तो मैं ट्वीट करके बाथरूम में घुसता हूँ कि; "गोइंग फॉर अ बाथ." लेकिन नहाते समय मैं सेल फोन यूज नहीं कर सकता. क्योंकि सेलफोन भीग जाएगा तो खराब हो जाएगा. मेरा ऐसा ख़याल है कि टेक कम्पनियां ऐसे सेलफ़ोन बनाएं जो वाटरप्रूफ हों. अगर ऐसा हो जाय तो फिर ट्विटर को एक स्टेप और ऊपर ले जाया जा सकता है.

शिव : वैसे ये बताइए कि आपतो भारत के स्टार ट्वीटर के नाम से जाने जाते हैं. आगे ट्विटर का क्या भविष्य देखते हैं? मेरा मतलब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या और हो सकता है? उसमें आप अपनी भूमिका कहाँ देखते हैं?

लाफ्टीबॉय : बहुत कुछ किया जा सकता है. इंटरनेशनल लेवल पर बहुत कुछ किया जा सकता है. जैसे मैं मानता हूँ कि इंटरनेशनल लेवल पर एक "इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन ट्वीट मैनेजमेंट" बनाया जा सकता है जो पूरी दुनियाँ में ट्विटर को बढ़ावा देगा. मेरा सपना है कि भारत का स्टार ट्वीटर होने के नाते मैं एक दिन इस पैनल का हेड बनूँ.

शिव : और क्या-क्या किया जा सकता है ट्विटर को बढ़ावा देने के लिए?

लाफ्टीबॉय : बढ़ावा देने के लिए भी बहुत कुछ किया जा सकता है. जैसे मेरा मानना है कि नोबेल प्राइज़ कमिटी को ट्वीट के लिए भी एक नोबेल का प्रावधान करना चाहिए. बुकर पुरस्कार देने वालों को भी पुरस्कार देने से पहले ट्वीट करने वालों का लेखन भी देखना चाहिए. उसके अलावा हर देश में नेशनल और लोकल लेवल पर भी पुरस्कार होने चाहिए. जैसे नेशनल ट्वीटर ऑफ़ द इयर अवार्ड. जैसे स्टार ट्वीटर ऑफ़ द मंथ या फिर स्टार ट्वीटर ऑफ़ द वीक...कालेज और यूनिवर्सिटी को भी चाहिए कि वे बड़े ट्वीटबाजों की ट्वीट्स कोर्स की किताबों में पढ़ाएं.

शिव : आपकी कोई ट्वीट जो आपको आज भी याद हो?

लाफ्टीबॉय : वैसे तो बहुत सारी ट्वीट्स हैं लेकिन मुझे सबसे ज्यादा उस ट्वीट की याद आती है जब आइसक्रीम खाते हुए मैंने ट्वीट किया था कि; " ईटिंग आइसक्रीम..इट्स डैम कोल्ड.." आप विश्वास नहीं करेंगे कि मेरे कुल अट्ठारह सौ पांच फालोवर ने उसे री-ट्वीट किया. उसके अलावा एक और ट्वीट था..खैर जाने दीजिये..

शिव : ट्विटर से समाज को लाभ हुआ है? आपका क्या मानना है?

लाफ्टीबॉय : लाभ ही लाभ हुआ है. ट्विटर ने पिछले एक साल में समाज की दशा और दिशा चेंज कर दी है. अब लोग ज्यादा पेसेंस वाले हो गए हैं. भूख लगती है तो भी वे तुरंत खाना नहीं खाते. तुरंत नहीं खायेंगे तो अनाज बचेगा. कुछ को भूख ही नहीं लगती. कुछ को नींद ही नहीं लगती. अब आप सोचिये कि नींद नहीं लगेगी तो ट्वीट करते हुए आदमी जागता रहेगा. ऐसे चोर घर के भीतर नहीं आएगा...मैं तो कहता हूँ..

शिव : अच्छा ये बताइए कि एक ट्वीटर के तौर पर आप क्या चाहेंगे ज़िन्दगी से?

लाफ्टीबॉय : ज़िन्दगी ने ट्विटर दे दिया तो और क्या चाहिए? मैं तो यह चाहता हूँ कि मैं अपनी आखिरी सांस तक ट्वीट करता रहूं. यमराज लेने के लिए आयें तो उनसे भी कहूँ कि; बॉस, जस्ट वेट फॉर अ सेक..एक ट्वीट तो कर लूँ.....और फिर मैं अपने फालोवर्स को बताऊँ कि; "यमराज हैज कम टू टेक मी अलांग....न यू नो व्हाट, द मैन लुक्स
सो फनी...
हा हा हा...मैंने कहा था न कि मेरा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर...

शिव : हाँ..हाँ..मै समझ गया. आपका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर बहुत बढ़िया है. चलिए इंटरव्यू यहीं ख़त्म करते हैं..फिर कभी मौका मिला तो आप से बात होगी. नमस्कार..

लाफ्टीबॉय : ओके..ओके..गुड नाईट ट्वीपल..सॉरी सॉरी...आदत पड़ गई है...सॉरी..अच्छा नमस्कार.

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पाठकों के सूचनार्थ:

मेरे ब्लॉग के लिए इंटरव्यू लेने वाला पत्रकार बंगलूरु गया था देवेगौड़ा जी का इंटरव्यू लेने और अभी तक नहीं लौटा. मैंने उड़ती खबर सुनी है कि देवेगौड़ा जी का इंटरव्यू लेने में उसे पूरे एक दिन लगे क्योंकि वे बीच-बीच में सो जाते थे. फिर घनिष्टता कुछ ऐसी बढ़ी कि पत्रकार ने उनकी पार्टी ही ज्वाइन कर ली. यही कारण है कि लाफ्टीबॉय का इंटरव्यू मुझे खुद ही लेना पड़ा.

Friday, February 19, 2010

पहले ही उपन्यास लिखवा लेते?

मेलबॉक्स खोला तो चिट्ठाजगत से, हमसब के प्यारे चिट्ठाजगत से एक मेल पढ़ने को मिला. लिखा था;

आदरणीय
एक ज़माना था जब लोग बाघ से बचते थे, और आज का ज़माना है जब लोग बाघ को बचाते हैं। क्या से क्या हो गया, और क्यों, आपका क्या सोचना है?

भाग लीजिए चिट्ठाजगत.इन द्वारा प्रायोजित एक और लेखन प्रतियोगिता, इसमें आप अपने निबंध, कविताएँ, व्यंग्य, कार्टून, तस्वीरें और वीडियो अपने चिट्ठे पर चढ़ा कर, शीर्षक में १४११ (या 1411) लिख दें।

प्रतियोगिता की अंतिम तिथि 28-फरवरी-2010 है, प्रतियोगिता क्या लिखने का एक और बहाना है, वही तो हम सब खोजते हैं न?
इनाम इस प्रकार हैं -

१. 1001/-
२. 501/-
३. 251/-

समझ नहीं आ रहा कि शुरू कैसे करें? तो कुछ जानकारी यहाँ से पाएँ ..........
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पुरस्कार भी है!

आजकल जिधर देखिये उधर पुरस्कार. उधर सम्मान. दो ही काम हो रहे हैं आजकल, पुरस्कार देना और सम्मानित करना. जो औकात वाले हैं वे पुरस्कार तो देते ही हैं, साथ-साथ सम्मानित भी कर देते हैं. हालात ऐसे हो गए हैं कि सुबह-शाम उठते-बैठते यही चिंता रहती है कि कहीं पकड़कर कोई पुरस्कार न दे दे. देखेंगे, न लेते बनेगा और न ही रिजेक्ट करते.

अब बाघों को बचाने के लिए भी पुरस्कार!!!

लेकिन बाघों को लेखन के जरिये बचाया जा सकता है, यह नहीं सोचा कभी. आज इस नई खोज के बारे में सोचता हूँ तो लगता कि सरकार ने पहले ही क्यों नहीं एक कमीशन बैठाकर पता लगवा लिया कि बाघों को बचाने का सबसे बेहतर तरीका लेखन है. मैं कहता हूँ कोई रिटायर्ड जस्टिस नहीं मिला तो सी बी आई वालों से जांच करवा लेती. सरकार का बड़ा सारा पैसा वगैरह बच जाता.

अब इस प्रपोजीशन पर सोचते हैं तो लगता है कि क्या समय आ गया है? बाघ को बचाने की जिम्मेदारी लेखक पर आन पड़ी है. सरकार के पास अफसर हैं, बन्दूक है, कानून है. इतनी सारी चीजों से लैस सरकार बाघों को नहीं बचा पाई. अब इस काम की जिम्मेदारी लेखक संभाले? वो भी लेखन के जरिये.

उल्टी चाल है सरकार की भी. जिन नक्सलियों से देश को सबसे ज्यादा खतरा था, उनके ऊपर पहले लेखन, सेमिनार और आह्वान ट्राई किया गया. अब हालात खाराब हो गए है तो अब जाकर बन्दूक उठाने की बात हो रही है. ठीक इसके विपरीत जिन बाघों से कोई खतरा नहीं था, उनके लिए पहले कानून, बंदूक, अफसर का प्रावधान किया गया. अब वे ख़तम होने के कगार पर हैं तो लेखन को ट्राई किया जा रहा है.

धन्य है सरकार!

लेकिन कविता, व्यंग, लेख, कार्टून से बाघ बच पायेगा? मुझे तो लगता है कि चिट्ठाजगत ने बाघों को बचाने का यह प्लान बाघों से पूछकर नहीं बनाया. अगर बनाया होता तो शायद बाघ लेखन के जरिये खुद को बचाने के पक्ष में नहीं होते. लेखन के जरिये उन्हें बचाने के प्लान पर तुरंत हड़ताल पर चले जाते. चिट्ठाजगत वालों को मना भी कर देते. शायद सवाल तक कर देते कि; "काहे हमारे पीछे पड़े हो? अब केवल १४११ बचे हैं. तुम्हें वह भी नहीं सोहाता? तुमलोग ब्लॉग जगत से लेख, व्यंग और कविता लिखवा कर हमें मारना चाहते हो क्या? क्या चाहते हो आखिर?"

सोचिये बाघों पर कविता लिखी जायेगी तो क्या होगा? कवि अपने की-बोर्ड से कविता की पहली दो लाइन निकालेगा;

बाघ तेरी अजब कहानी
सुनकर आँखों में भर आया पानी
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कवि जब देश पर, समाज पर कविता लिखता है तो छापने से पहले उस कविता को वह इंसानों पर ट्राई करता है. मेरा मतलब इस खोज में रहता है कि कोई इंसान मिले तो उसे सुना दे. वैसे ही कवि अगर बाघों पर कविता लिखेगा तो उसके हृदय में लहर उठेगी कि वह सबसे पहले अपनी कविता किसी बाघ को सुना दे.

आपने अगर न सुना हो तो मैं लगे हाथ आपको बता दूँ कि; "कवि बहुत भावुक होता है. उसके आह से गान उपजता है."

लेकिन ऐसी शुरुआत वाली कविता का समाज और बाघों पर क्या असर होगा, इस पर कौन विचार करेगा? पता चला खोजते-खोजते कवि को एक बाघ मिल गया और उसने बाघ को अपनी कविता सुना दी. देखेंगे बाघ वहीँ ढेर. १४११ से एक निकल लिया और बचे सिर्फ १४१०. टीवी पर विज्ञापन चलाने वालों को अपने विज्ञापन में चेंज लाना पड़ेगा.

निबंध लिखने का आह्वान भी है. मेरी समझ में नहीं आता कि बाघ पर कैसे कोई लिखेगा निबंध? स्कूल में अपना गाँव, गाय, भैंस, किसान वगैरह पर निबंध लिखना सिखाया गया. अब तो 'मेरे पापा' पर निबंध लिखना सिखाया जाता है बच्चों को. लेकिन आज तक का रिकार्ड है कि किसी स्कूल में बच्चों को बाघ पर निबंध लिखना नहीं सिखाया गया. जिस पेज पर बाघ की तस्वीर होती थी, उसे स्कूली बच्चा खोलता ही नहीं होगा. अगर कभी हवा चली और वही पेज खुल गया तो बच्चा किताब छोड़ वहां से भाग खड़ा होता है. उसे सिखाया गया है कि बाघ बच्चों को खा जाता है. अब ऐसे में बच्चा बड़ा भी हो जाएगा तो बाघ तो क्या उसके बच्चे को भी देख कर भागेगा, निबंध लिखना तो दूर की बात है.

बड़ी बमचक मची है टीवी पर भी. किसी चैनल पर चले जाइए वहां से आवाज़ आती है; "केवल १४११ बचे हैं. पहले चालीस हज़ार थे. अब १४११ को बचने के लिए आवाज़ उठाएं. ब्लॉग लिखें. एस एम एस भेजें."

क्या बात कर रहे हो? चालीस हज़ार से जब उनतालीस हज़ार हुए थे तभी काहे नहीं बखेड़ा खड़ा किया? तभी लेखन करवाना चाहिए था. तभी उपन्यास लिखवाना चाहिए था. अब १४११ हो गए हैं तब तुम नींद से जागे हो?

और मैं एस एम एस किसको भेजूँ. संसार चंद को भेज दूँ जिससे मेरा एसएमएस देखकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाए और बाघों को मारना बंद कर दे? प्रधानमंत्री को भेज दूँ जिससे वे चिंता व्यक्त करके अपना पल्ला झाड़ लें. या फिर बाल ठाकरे को भेज दूँ? खैर, उन्हें भेजकर होगा भी क्या? उन्होंने तो खुद अपनी पार्टी के झंडे पर रायल बंगाल टाइगर छपवा रखा है. बड़ा मोटा-ताजा टाइगर. देख कर लगता है असली बाघ है जिसे मारकर झंडे पर चिपका दिया गया है. मेरे एक मित्र ने उनकी पार्टी का झंडा देखकर सवाल किया; " ये किसी मराठी जानवर का चित्र अपने झंडे पर क्यों नहीं लगाते?"

किसे फुर्सत है मेरा ब्लॉग पढ़ने की. जो पढ़ते हैं उन्हें मालूम है कि बाघों को नहीं मारा जाना चाहिए. मेरे ब्लॉग लिखने से अगर बाघ बच जाते तो फिर बात ही क्या थी. सबकुछ छोड़कर केवल बाघों पर पोस्ट लिखते. संसार चंद पढ़ते और हमसे प्रभावित होकर उनका हृदय परिवर्तन हो जाता. वे बाघों को मारना छोड़कर बाघों की खेती करने लगते.

वैसे सुना है कि कल काजीरंगा में एक बाघ मारा हुआ पाया गया. अब तो केवल १४१० बचे हैं. अब चूंकि बाघ की मृत्यु कल हुई है इसलिए यह मत कहियेगा कि मेरा लेख बर्दाश्त नहीं कर पाया और मर गया.

राष्ट्रीय जानवर है. सुना है गंगा भी राष्ट्रीय नदी है.

Friday, February 12, 2010

वसन्त, विद्यापति, नायिका और परसाई

ये झोंपड़ी झंझावात में न उड़े, इस लिये मैं नायिका ला रहा हूं - वाया वसन्त, विद्यापति और परसाई जी के।

सारा मसाला परसाई जी के लेखन का है और भुवनेश शर्मा जी की पोस्ट  और विकीसोर्स से कबाड़ा है।


कल बसन्तोत्सव था। कवि बसन्त के आगमन की सूचना पा रहा था--

प्रिय, फिर आया मादक बसन्त' ।

मैंने सोचा, जिसे बसन्त के आने का बोध भी अपनी तरफ से काराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति - विज्ञान पढ़ायेंगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसन्द आता है ।

कवि मग्न होकर गा रहा था –

'प्रिय, फिर आया मादक बसन्त !'

पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अन्त ‘हा हन्त’ से होगा, और हुआ। अन्त, सन्त, दिगन्त आदि के बाद सिवा 'हा हन्त' के कौन पद पूरा करता ? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरम्भ चाहे 'बसन्त ' से कर लो, अन्त जरूर ' हा हन्त ' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी , इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसन्त ' से शुरू करके 'हा हन्त' पर पहुंचते हैं। तुकें बराबर फ़िट बैठती हैं , पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमन्त्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की , उसकी तुक शुध्द सर्वोदय से मिलायी -- 'सोना दबाने वालो , देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्ताम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे ? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे ?

कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तोरे की !' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम -कम-कम 51 तुकें बॉधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बांधी हैं। ( देखो 'यशोधरा ' पृष्ठ 13 ) पर तू मुझे क्या बतायेगा कि बसन्त आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसन्त ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा – “कौन?” जवाब आया-- मैं वसन्त। मैं घबड़ा उठा। जिस दूकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसन्तलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे ! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसन्त अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनन्दकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जायेगा और अमृतलाल जल्लाद फॉसी पर टांग देगा !

वसन्तलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसन्त निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं ! इस वसन्तलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।

मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। ऑखें झंप गयीं । मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा --कौन? जवाब आया—“मैं वसन्त !” मैं खीझ उठा - कह तो दिया कि फिर आना। उधर से जवाब आया—“मै। बार-बार कब तक आता रहूंगा ? मैं। किसी बनिये का नौकर नहीं हूं ; ऋतुराज वसन्त हूं। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूं और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल , अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूंठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव -भाव कर रही है -- और बहुत भद्दी लग रही है।

मैने मुंह उधाड़कर कहा-, भई, माफ़ करना , मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आये, तो लगता है , उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठण्ड बहुत लगती है। वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, जाते -जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़ -खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो ; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गयी है।

उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुन्दरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।

मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हज़ारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं ; टनों कवि - कल्पनाएं जमी हैं। सोचा, वसन्त है तो कोयल होगी ही । पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनायी दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'कांव-कांव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौटा-- मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परम्परा ने कौढ को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का सन्देसा देने वाला माना जाता है। सोचा , कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता ; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूं। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा।

शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया , तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा , प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या? नायिका लजाकर कहेगी , उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सेबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था। तब नायक कहेगा, प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थेड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं।

इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाये हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी ग़लत परम्परा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुन्दरी खुद सोना मढ़े। नायिका चुप हो जायेगी। 


स्वर्ण - नियन्त्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूं ; तब से, जब इसने सीता के पांव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाये। इसी समय इन्द्र का बिगडै़ल बेटा जयन्त आवारागर्दी करता वहां आया और कौआ बनकर सीता के पांव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगडैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं , क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिये हैं। पर इस मौसम में कोयल कहां है ? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसन्त में कौए की बन आयी है। वह तो मौक़ापरस्त है ; घुसने के लिए पोल ढूंढता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊंचाई पर कौआ बैठा 'कॉव-कॉव' कर रहा है।

मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, ' हाय, अब वे अमराइयां यहां कहां है कि कोयलें बोलें। यहां तो ये शहर बस गये हैं, और कारखाने बन गये है।' मैं कहता हूं कि सर्वत्र अमराइयां नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया , वह छाया कैसे बंटायेगी ? जब हम अमराई बना लेंगे , तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर क़ब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें , पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूं। चौराहे पर पहली बसन्ती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूं। यौवन की एड़ी दिख रही है -- वह जा रहा है -- वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी' - (निराला )। उसने वसन वासन्ती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसन्त का अन्तिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने मांग में बहुत -सा सिन्दूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी मांग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अंगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठण्ड से कांप रही है और 'सीसी' कर रहीं है। वसन्त में वासन्ती साड़ी को कंपकंपी छूट रही है।

यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- ' सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तर से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।

मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।

मैं सोचता था कि इससे पहले पण्डित शिवकुमार मिश्र ठेलें, मैं ही ठेल दूं नायिका और विद्यापति को इस चिर्कुटर्बिया में!

Thursday, February 11, 2010

......आप जल्द ही बोरियत गति को प्राप्त हों.

बड़ा बवाल मचा हुआ है. पूरे भारत में दस-पंद्रह शब्द गूँज रहे हैं. शाहरुख़ खान, बाल ठाकरे, आई पी एल, माफी, महाराष्ट्र, उत्तर भारतीय, टैक्सी ड्राइवर, कराची, मन्नत, माई नेम इज खान, राहुल गाँधी, जूता, लोकल ट्रेन, ए टी एम, शरद पवार, इज्जत, धूल, पाकिस्तानी क्रिकेटर्स, वगैरह-वगैरह.

जो भारतीय इन शब्दों से नहीं खेल रहा उसे लोग शक की निगाह से देख रहे हैं. साथ ही साथ उसके सामान्य ज्ञान पर टीका-टिप्पणी तक किया जा रहा है. कल ऐसा ही प्रयास मेरे साथ किया गया. मेरे एक मित्र ने कहा; "तुम इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोल रहे. ब्लॉग पर भी नहीं लिख रहे. सामान्य ज्ञान पर क्या अपर सर्किट लगा हुआ है?"

उनकी बात लग गई मुझे. मित्रों की बात बहुत जल्दी लगती है. लोगों को उनके बॉस, शहर के दरोगा, और ट्रैफिक कांस्टेबल की गाली उतनी नहीं चुभती जितना मित्रों की बात चुभती है. बस बात चुभी तो हमने भी उस इंटरव्यू को अपने ब्लॉग पर छापने का फैसला कर लिया जो एक पत्रकार ने बाल ठाकरे से परसों ही किया था.

आप इंटरव्यू बांचिये. मित्रों को चेतावनी है कि वे मेरे सामान्य ज्ञान पर टीका-टिप्पणी न करें नहीं तो मैं फट से इंटरव्यू का ब्रह्मास्त्र चला दूंगा. इंटरव्यू नहीं तो डायरी का आग्नेयास्त्र. कुछ न कुछ ज़रूर चलेगा.


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पत्रकार : नमस्कार सर.

ठाकरे जी : मराठी नहीं आती तुमको?

पत्रकार : वो क्या है सर कि मैं ख़ास तौर पर आपका इंटरव्यू लेने दिल्ली से आया हूँ. इसलिए मैं हिंदी में ही सवाल पूछूँगा.

ठाकरे जी : दिल्ली से आये हो तो इंटरव्यू लेकर चले जाओगे तो? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुंबई में बसने का प्लान लेकर आये हो?

पत्रकार : नहीं-नहीं सर. मुंबई में बसने का मेरा इरादा नहीं है. मैं घूम-घूम कर इंटरव्यू लेता हूँ. अब आपका इंटरव्यू लेने के बाद मेरे पास असाइंमेंट है कि मैं बंगलौर सॉरी बंगलूरु जाकर देवेगौडा जी का इंटरव्यू लेना है.

ठाकरे जी : तब ठीक है. सवाल करो. एक मिनट-एक मिनट. सवाल करने से पहले बोले; "जय महाराष्ट्र."

पत्रकार : वो तो मैं बोल देता हूँ, सर. जय महाराष्ट्र. वैसे एक बात बताइए, सर. आप जय भारत मेरा मतलब जय राष्ट्र क्यों नहीं बोलते हैं?

ठाकरे जी : किसने पत्रकार बना दिया तुमको? आज की पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा है.

पत्रकार : सर, आप भी तो पत्रकार रह चुके हैं. ऐसा क्यों कह रहे हैं?

ठाकरे जी : पत्रकार रह चुके हैं से क्या मतलब तुम्हारा? मैं अभी भी पत्रकार हूँ. सामना में मेरा एडिटोरियल नहीं देखा कभी?

पत्रकार : नहीं सर. वो क्या है कि मुझे मराठी नहीं आती न. वैसे आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. आप राष्ट्र की जय क्यों नहीं बोलते?

ठाकरे जी : तुम्हें साधारण ज्ञान भी नहीं है. एक बात बताओ, किसमें 'महा' है? राष्ट्र में तो महा नहीं है न. महा तो केवल महाराष्ट्र में है. ऐसे में कौन बड़ा है? राष्ट्र बड़ा या महाराष्ट्र बड़ा?

पत्रकार : वैसे देखा जाय तो 'महा' तो सर राष्ट्र में ही लगा है. राष्ट्र में महा लगा तभी तो महाराष्ट्र बना. महाराष्ट्र में अगर महा लगा होता तो फिर महा-महाराष्ट्र कहते न फिर? खैर, जाने दीजिये. मैं आपकी बात समझ गया हूँ. मेरा अगला सवाल है कि शिव-सैनिक लोग जगह-जगह शाहरुख़ खान की फिल्म का पोस्टर फाड़ रहे हैं. आप शिव-सैनिकों को क्यों नहीं रोकते?

ठाकरे जी : देखो, तोड़-फोड़ और पोस्टर फाडू कार्यक्रम संगठन के बाय-ला की वजह से हो रहा है. वो क्या है कि इतने दिन हो गए थे कि हमारे सैनिक बैठे-बैठे बोर हो रहे थे. कई सैनिकों को यह चिंता सताने लगी थी कि अगर जल्द ही कोई तोड़-फोड़ न शुरू की गई तो फिर उनकी प्रैक्टिस नहीं होगी. और अगर प्रैक्टिस नहीं होगी तो ज़रुरत पड़ने पर वे परफ़ॉर्म नहीं कर पायेंगे.

पत्रकार : तो यह तोड़-फोड़ कार्यक्रम प्रैक्टिस के लिए किया जा रहा है?

ठाकरे जी : हाँ. प्रैक्टिस बनी रहे तो संगठन के लिए शुभ होता है.

पत्रकार : अच्छा, ये बताइए. लोग आपके ऊपर आरोप लगाते हैं कि आप इस तरह के काम पैसे लेकर करते हैं. लोगों का कहना है कि ये शिव-सेना का साइड बिजनेस है. जिस फिल्म को पब्लिसिटी चाहिए होती है उसके प्रोड्यूसर आपके पास आकर रिक्वेस्ट करते हैं कि आप का संगठन उस फिल्म का पोस्टर वगैरह फाड़ दे और रिलीज न होने की धमकी दे तो उन्हें पब्लिसिटी मिल जायेगी. क्या यह सच है?

ठाकरे जी : मैं इसके बारे में कुछ नहीं कहूँगा.

पत्रकार : लेकिन अगर आप कुछ कह देते तो लोगों को आपके स्टैंड के बारे में पता चल जाता.

ठाकरे जी : इसमें स्टैंड कैसा? हमारे संगठन का काम है तोड़-फोड़ करना. अब ऐसे काम से किसी का भला हो जाता है तो अच्छी बात है न. ऐसा होने से हमें भी कुछ पूण्य कमाने का मौका मिलता है.

पत्रकार : मतलब आप पूण्य कमाने के लिए राजनीति करते हैं?

ठाकरे जी : नहीं कोई ज़रूरी नहीं है कि राजनीति में केवल पूण्य कमाया जाय. राजनीति में जो कुछ कमाया जा सके सब कुछ कमाया जाना चाहिए. असल में यह डिपेंड करता है कि हम कहाँ हैं? अगर हम सत्ता में हैं तो और कुछ कमा लेंगे. सत्ता में नहीं हैं तो पूण्य कमा लेंगे.

पत्रकार : समझ गया. मैं आपकी बात समझ गया. अच्छा ये बताइए आपको यह नहीं लगता कि पब्लिसिटी की वजह से फिल्म वाले आपका इस्तेमाल कर रहे हैं? मतलब आप जाने-अनजाने में उन्हें हेल्प कर....

ठाकरे जी : यही तो असली राजनीति है. अब तुम्ही बताओ. क्या तुम इस बात को स्योर होकर कह सकते हो कि शिव-सेना पत्रकारों का इस्तेमाल नहीं कर रही? नहीं न....यही असली राजनीति है. मीडिया शिव-सेना का इस्तेमाल कर रही है. शिव-सेना मीडिया का इस्तेमाल कर रही है. फिल्म प्रोड्यूसर शिव-सेना का इस्तेमाल कर रहा है. शिव-सेना प्रोड्यूसर का इस्तेमाल कर रही है. असल में यह इस्तेमाल करने का युग है.....

पत्रकार : जी-जी. मैं समझ गया. आपके कहने का मतलब हम सब इस्तेमाली है.

ठाकरे जी : हाँ-हाँ. हमसब वही हैं. किसी न किसी बाग़ के माली. अपने-अपने बाग़ की रखवाली कर रहे हैं. रोज नए-नए पौधे लगा रहे हैं.

पत्रकार : तो जो पौधे आप अभी लगा रहे हैं, वे बचे रहेंगे? वे फूले-फलेंगे?

ठाकरे जी : क्यों नहीं. हर माली यही सोचकर पौधा लगाता है. सामने म्यूनिसिपल इलेक्शन हैं. कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा न.

पत्रकार : अच्छा ये बताइए कि कल ही शरद पवार ने आपसे मुलाकात की. मुलाकात के बाद आप आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को खेलने देंगे?

ठाकरे जी : शरद पवार और मेरी मुलाक़ात में आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी कहाँ से आ गए?

पत्रकार : लेकिन वे तो इसीलिए आपके पास आये थे न. ताकि आप आई पी एल में आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को खेलने दें.

ठाकरे जी : हा हा हा. वे मेरे पास आये थे मंहगाई के मुद्दे पर मेरी सलाह लेने. पूछ रहे थे कि चीनी, दाल वगैरह की कीमतें कैसे कम की जाएँ?

पत्रकार : ओह! ये बात है. तो आपने उन्हें सलाह दे दी?

ठाकरे जी : हाँ, मैंने उन्हें सलाह दे दी. मैंने कुल तेरह तरीके बताये मंहगाई रोकने के.

पत्रकार : कोई एकाध तरीके का खुलासा कर दीजिये. मैं छाप दूंगा.

ठाकरे जी : पहला तरीका मैंने बताया कि सबसे पहले यूपी और बिहार से गेंहूँ और चावल की एंट्री महाराष्ट्र में बंद कर दी जाए.

पत्रकार : ये तो बड़ा अच्छा तरीका है. अच्छा ये बताइए कि शाहरुख़ खान के साथ आपके पार्टी की लड़ाई कब तक चलेगी?

ठाकरे जी : ये तो डिपेंड करता है इस बात पर कि लड़ते-लड़ते दोनों कब बोर होंगे. जिस घंटे बोर हुए उसी समय लड़ाई बंद. ये सारा कुछ बोरियत के ऊपर निर्भर करता है.

पत्रकार : तो अभी बोरियत शुरू हुई या नहीं?

ठाकरे जी : नहीं-नहीं. अभी तो लड़ाई ही शुरू हुई है. बोरियत तो तब शुरू होगी जब लड़ाई कुछ दिन पुरानी हो जायेगी.

पत्रकार : चलिए हम आशा करते हैं कि आप जल्द ही बोरियत गति को प्राप्त हों. हम इंटरव्यू यही ख़त्म करते हैं.

ठाकरे जी : कोई बात नहीं. वैसे आज ही मुंबई से चले जाना.

पत्रकार : हाँ-हाँ सर, मेरी शाम की फ्लाईट है. मैं यहाँ से बंगलूरू जा रहा हूँ.

ठाकरे जी : बहुत ज़रूरी है. मैं कुछ सैनिकों को तुम्हारे साथ भेज रहा हूँ. वे तब तक एअरपोर्ट पर रहेंगे जब तक तुम प्लेन में बैठ नहीं जाते.

Tuesday, February 2, 2010

इन्ही के लिए सब इतना हलकान है???

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शाहिद आफरीदी हैं न. अरे वो पाकिस्तान वाले. अरे वही जो यंग हैं. अरे यार, वही विश्व के नंबर एक खिलाड़ी.... अरे गजब हो.... नंबर एक क्या केवल तेंदुलकर ही हो सकते हैं? अरे वही यार, जिनको आई पी एल में नहीं लेने पर झमेला हो गया.

हाँ वही-वही. दो दिन पहले आस्ट्रेलिया की आस्ट्रेलियाई पिच पर क्रिकेट की बाल चबाते हुए देखे गए. आफरीदी को बाल चबाते देख, पाकिस्तानी टीम मैनेजमेंट को बहुत गुस्सा आया. उन्होंने प्लान बनाया कि वे इस बात की शिकायत आई सी सी से करेंगे. वे उन्हें बताएँगे कि आस्ट्रेलिया में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को ढंग से खाना नहीं खिलाया जाता. खाना नहीं मिलने की वजह से खिलाड़ी भूखे रहते हैं और बाल चबाने लगते हैं. यही कारण है कि पाकिस्तानी टीम आस्ट्रेलिया में एक भी मैच नहीं जीत पाई.

अभी मैनेजर साहब शिकायत ड्राफ्ट कर ही रहे थे कि किसी ने उन्हें बताया कि जिसे वे भूख बताने पर आमादा हैं, असल में उसे बाल टेम्पेरिंग कहते हैं. मतलब बाल के साथ छेड़-छाड़. उन्हें इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. पिछले कई वर्षों से पाकिस्तानी टीम के साथ रहकर उन्होंने यही जाना था कि छेड़-छाड़ केवल महिलाओं के साथ हो सकती है. खुद आफरीदी भी एक बार हवाई जहाज में लड़की से छेड़-छाड़ करते धर लिए गए थे.

जितना ड्राफ्ट किया गया था, उसे सेव कर के छोड़ दिया गया. बाद में अम्पायर लोगों ने बताया कि आफरीदी तो बाल के साथ सचमुच छेड़-छाड़ कर रहे थे. अब तो छेड़-छाड़ का ये मामला मैच रेफरी तक जाएगा.

यह सब सुनकर मैनेजर बोले; "मैं मान ही नहीं सकता जी. अल्ला-ताला के फज़ल से बाल टेम्पेरिंग वो होती है जो कोक की बोटल कैप से की जाय. इमरान भाई ने इसी को बाल टेम्पेरिंग बताया था. वे खुद भी ऐसे ही बाल टेम्पेरिंग करते थे."

किसी ने कहा; "उसी अल्ला-ताला के फज़ल से अब जमाना बदल गया है. अब बाल टेम्पेरिंग ऐसे भी होती है जैसे आफरीदी ने किया है. बाल को ही चबा जाओ. काहे कोक की बोटल का एहसान लो?"

मैनेजर साहब इस बात पर आश्वस्त हुए कि पाकिस्तानी क्रिकेट सही तरक्की कर रहा है.

बाद में शाहिद आफरीदी ने माना कि जो उन्होंने किया उसे बाल टेम्पेरिंग ही कहते हैं. टीम मैनेजमेंट के ह्रदय में क्रैक हो गया. टीम मैनेजमेंट ने सोचा था कि मीडिया-वीडिया में हल्ला मचा देंगे और इस बात को नहीं मानेंगे कि शहिद आफरीदी ने टेम्पेरिंग जैसी कोई हरकत की है.

लेकिन आफरीदी जी ने क़ुबूल करके सब गड़बड़ कर दिया.

आफरीदी जी ने क़ुबूल भी बड़े मस्त अंदाज़ में कहा. बोले; "इल्लीगल तो है जी. लेकिन वो क्या है न कि फ्रस्ट्रेशन थी जी. पाकिस्तान टीम एक भी मैच जीत नहीं पा रही थी." इतना कहने के बाद शायद उन्हें लगा होगा कि ये क़ुबूल करना तो एक तरफ़ा हो रहा है इसलिए फट से बोले; "और वैसे भी जी, दुनियाँ की हर टीम करती है जी, बाल टेम्पेरिंग."

कहने का मतलब यह कि मुल्क के लिए जो करें कम है जी.

बाल टेम्पेरिंग करके उन्होंने बता दिया कि टीम के न जीतने की दशा में कुछ न कुछ किया जा सकता है. पिच को स्पाइक से खोदने का काम वे पहले ही कर चुके थे. गाली-वाली देकर भी टीम को जिताने का प्रयास कर ही लिया था. अब बाल टेम्पेरिंग भी आजमा लिया.

आगे अगर इसे बढ़ाएंगे तो क्या-क्या आजमा सकते हैं?

अब पाकिस्तान में तो वैसे भी कोई खेलने नहीं जाता. इन्हें खेलना होगा तो किसी और देश में जाना ही पड़ेगा. देखेंगे कि किसी दौरे पर पकिस्तान टीम मैच नहीं जीत पा रही है. कप्तान की समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाय? कौन सा दांव खेला जाय? डेढ़ सौ रन बनाकर खेल रहे बैट्समैन को आफरीदी अचानक बाल मारकर घायल कर देंगे.

अम्पायर पूछेगा कि यह क्या कर रहे हो तो आराम से बोल देंगे; "फ्रस्ट्रेशन है जी. मुल्क जीत नहीं पा रहा है जी. क्या करें जी? मानता हूँ इल्लीगल है लेकिन जीतने के लिए... मुल्क के लिए कुछ करना तो पड़ेगा जी...."

इन्ही वर्ल्ड नंबर वन के न खरीदे जाने पर अपने देश में इतना बड़ा बवाल हो गया. मीडिया ने आई पी एल को गाली दी. शाहरुख़ खान को शिवसेना वालों ने गाली दी. बुद्धिजीवियों ने टीम के मालिकों को गाली दी.मीडिया, सरकार, शाहरुख़, पत्रकार, बुद्धिजीवी और न जाने कौन-कौन हलकान हुए जा रहे थे.