चुनाव जनता के लिए टॉनिक का काम करता हैं. चुनाव के आते ही जनता आम से खास हो जाती हैं. उसके अन्दर एक अलग तरह का आत्मविश्वास आ जाता हैं. साथ में जनता ताकतवर दिखाई देने लगती हैं. देखने से लगता हैं रोज च्यवनप्रास का सेवन कर रही हैं. वह सत्ताधारी दल को जड़ से उखाड़ फेकने की तैयारी शुरू कर देती हैं. सबेरे जल्दी उठने लगती हैं. कभी-कभी कसरत भी कर लेती हैं. गुंडा ताकतों को आनेवाले चुनाव में हराना जो हैं. सत्ताधारी पार्टी को गद्दी से हटाने का सुख भोगने के लिए तैयार होने लगती हैं. जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, कसरत के लिए और समय देने लगती हैं. सोने की सुध नहीं रहती. खाना नहीं खाने से भी चलेगा. बीच बीच में न्यूज़ चैनल्स के कैमरे के सामने नेताओं को चेतावनी भी दे देती हैं : “हम बेवकूफ नहीं रहे अब, समझ आ गई हैं हमें. अब हमें बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा. हम जागरूक हो गए हैं.” उसे ये नहीं पता की उसके इस संदेश को देख कर नेता हँसता हैं. मानो कह रहा हो की बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा तो क्या हुआ थोड़ी मुश्किल से बनायेंगे. लेकिन बनायेंगे ज़रूर!
जनता को असली ख़ुशी सत्ता में बैठे लोगों को हरा कर मिलती हैं.सत्ता में रहने वाली पार्टी को हराकर कई महीनो तक सीना तानकर चलती हैं. कुछ महीने बीतने के बाद उसे महसूस होता हैं की असल में जिसे वह अपनी जीत समझ रही थी, उसकी हार निकली. फिर क्या करे. फिर से जीतने के सपने सजोने लगती हैं. समस्या केवल इतनी हैं की ये सपना लगभग चार साल तक सजोना पड़ता हैं. फिर चुनाव आते हैं. फिर से ‘गुंडा शक्तियों’ को हराती हैं. और फिर से छः महीने तक सीना तानकर चलती हैं. जीत और हार का ये ‘रोलिंग प्लान’ अनवरत चलता रहता हैं. जनता वोट देकर खुश और नेता वोट लेकर. सालों से चलते आ रहे इस प्लान में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ. जनता को लगता हैं की आज वो समझदार हो गई हैं. नेता ये सोचता हैं की ऐसी बात नहीं हैं. जनता आज भी उतनी ही बेवकूफ हैं, जितनी कल थी. चरित्र दोनो के नहीं बदले. आख़िर अपने-अपने कर्म से दोनो खुश हैं.
हर पांच साल पर जनता की जीत का भ्रम क्या टूट नहीं सकता? ये सवाल जनता क्या खुद से करेगी? अभी तक तो नहीं किया. जिन्हें जनता से ऐसे सवाल पूछने चाहिए उन्होने उसे इस बार का विश्वास दिला दिया हैं की लोकतंत्र में असली ताकत तो आप ही हैं. ये नेता वेता तो आते-जाते रहेंगे लेकिन आप वहीँ रहेंगे जहाँ हैं. जनता से उसकी वोटर की कुर्सी कोई छीन नहीं सकता. नेताओं का क्या हैं, उनकी कुर्सी तो हमेश ख़तरे में रहती हैं.
इन सभी बातों के बीच एक बात बिल्कुल साफ हैं. जनता अपनी जीत के इस भ्रम को टूटते हुये देखना नहीं चाहती. जनता अगर चाहती तो उसकी हालत ऐसी नहीं रहती. अगर उसने अपने जीत (या फिर हार) के बारे में कभी सोचा होता तो शायद जातिगत राजनीति के लिए जगह कम बचती.
जनता खुद केवल वोटर कहलाना पसंद नहीं करती. उसे खुद को ब्राह्मण वोटर, ठाकुर वोटर, यादव वोटर, दलित वोटर, मुस्लिम वोटर कहलाने में बड़ा मज़ा आता हैं. उसके इसी विचार की वजह से ब्राह्मण नेता, ठाकुर नेता, दलित नेता, यादव नेता और न जाने कौन-कौन से नेता पैदा होते रहते हैं. उन्हें जनता का नेता बनने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि जनता का नेता बनकर केवल जनता के लिए काम करना पड़ेगा न कि यादव जनता, ब्राह्मण जनता या फिर दलित जनता के लिए.
आपने जो लिखा वह हर लोकतंत्र में होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि अपने यहां की जनता सब कुछ बड़ी जल्दी भूल जाती है.
ReplyDeleteलोकतंत्र में हमेशा जनता जीतनी चाहिए, मगर चुनाव हमेशा नेता ही जीतेंगे.
ham to yahi badhayi denge.. mere khyal se yahi sabse achchhi jagah hai aapko badhai dene ki.. :)
ReplyDeletevaise oopar vala badhai 2 saal poore karne par hai.. agle saal bhi yahi badhai deni hai so ye likhna jaroori tha.. :)
ReplyDeleteएक शब्द जो मैं हमेशा कहता हु " प्रासंगिक " ये पोस्ट पांच साल पहले भी थी और आज भी ... आप के लेखन शैली में परिवर्तन जरुर है, लेकिन मुझे यही लगता है जैसे .....मैं भी यही कहना चाहता था ....गिरीश
ReplyDelete