शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Thursday, September 6, 2007
हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (साल २००७)- भाग १
(सं)वैधानिक अपील: ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि इस अगड़म-बगडम पोस्ट को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखें।
स्कूल में मास्टर जी ने बताया था; 'जब कोई बात पुरानी हो जाती है तो इतिहास का हिस्सा बन जाती है।' कुछ महीने पहले तक जब भी उनकी बात याद आती थी, तब ये सोचकर मन मार लेते थे कि; 'अपन नेता नहीं बन सके. घर से भागकर बंबई भी नहीं जा सके, सो अभिनेता बनने का चांस भी पहले ही गँवा बैठे हैं. इसलिए इतिहास का हिस्सा तो बनने से रहे.' मास्टर जी की इस 'सूचना' का मेरे लिए कोई ख़ास महत्व नहीं था.
लेकिन जब से ब्लॉग समाज की सदस्यता ली है, ऐसे विचार मन में नहीं आते. अब तो हाल ये है कि सड़क पर चलते-चलते अगर कोई पीछे से आवाज दे देता है तो पहली बात जो दिमाग में आती है वो है; 'शायद आटोग्राफ लेने के लिए बुलाया है इसने'. अब तो दिन में कई बार बैठे-बैठे गुनगुना लेता हूँ; 'साला मैं तो ब्लागर बन गया…!' हाल ये है कि अब ये सोचकर निश्चिंत हो जाता हूँ कि जब भी हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास लिखा जायेगा, अपने ऊपर भी चार लाईन का ही सही, एक पैराग्राफ जरूर लिखा जायेगा. और क्या पता, आगे चलकर अगर सरकार का दिमाग फिर जाए, तो एक ताम्रपत्र के साथ-साथ कुछ ब्लॉगर पेंशन का इंतजाम भी हो सकता है.
मेरी सोच का आधार ये है कि हिन्दी ब्लागिंग का भी अपना इतिहास होगा। कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं. ब्लॉग समाज के सदस्य कितनी सारी बातों पर बहस करते हैं. कभी-कभी झगडा भी कर लेते हैं. ब्लॉग पोस्ट हो या फिर उसपर टिप्पणी, हिन्दी साहित्य का इतिहास हो या फिर हिन्दी भाषा, अमेरिका की खिलाफत हो या साम्प्रदायिकता और नरेन्द्र मोदी पर बहस, लगभग सारे मुद्दों पर बहस और झगडा करते हुए हम हिन्दी ब्लागिंग का समाजशास्त्र लिख रहे हैं. जिसे हम आज समाजशास्त्र मानकर चल रहे हैं, आगे चलकर इतिहास में परिवर्तित हो जायेगा. हम सभी भावी इतिहास का हिस्सा बन रहे हैं. मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सन २०७० में हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास नामक पुस्तक किसी को मिले तो उसमें क्या लिखा होगा? मेरा मानना है कि किताब में साल के आधार पर इतिहास लिखा होगा. अब तकनीकी दृष्टि से अति विकसित समय में किताब की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसी किताब के पन्ने बीच-बीच से गायब मिलेंगे. उसमें सन २००७ का वर्णन शायद कुछ ऐसा हो:
'साल २००७ हिन्दी चिट्ठाकारिता का स्वर्णसाल था। इस साल हिन्दी चिट्ठों और चिट्ठाकारों की बाढ़ सी आ गई. तरह तरह के विचारों और मुद्दों पर चिट्ठे लिखे गए. साम्यवाद से लेकर शेयर बजार, वेदों पर चर्चा से लेकर गजलों पर चर्चा, कुछ भी बचा नहीं रहा. चिट्ठों की इस बाढ़ ने फीड एग्रीगेटर को पूरे साल परेशान रखा. जहाँ पर चिट्ठे नहीं परेशान कर सके, वहाँ परेशान करने का काम चिट्ठाकारों ने किया. चिट्ठों में आई बाढ़ ने विचारों का बाँध खोल दिया. …॥(आगे का पन्ना गायब है)
साल २००७ के अगस्त महीने तक चिट्ठों की संख्या में बढोतरी सामान्य रही। सितंबर महीने के मध्य से चिट्ठों की संख्या में अभूतपूर्व बढोतरी देखी गई. इस तरह की असामान्य बढोतरी को लेकर इतिहासकारों में अलग-अलग मत हैं. कुछ का मानना है कि ऐसी बढोतरी उन लोगों की वजह से हुई जो अगस्त महीने तक केवल इसलिए चिटठा नहीं लिख पाते थे क्योंकि वे अपना पूरा समय भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम को मेल लिखने और सवाल पूछने में बिताते थे. ए पी जे अब्दुल कलाम के राष्ट्रपति पद छोडने के बाद ऐसे लोगों के सामने समस्या उत्पन्न हुई कि अब ये क्या करें. काफ़ी सोच विचार के बाद और 'समय बिताने के लिए करना है कुछ काम' पर अमल करते हुए इन लोगों ने अपना हिन्दी चिट्ठा लिखना शुरू किया.
इस वर्ष में हिन्दी ब्लॉगर असुरक्षा की भावना से भी ग्रस्त रहे। अकेले पड़ जाने के अहसास को मिटाने के लिये जबरदस्त नेटवर्किंग की गयी. पत्रकार लोगों ने पत्रकारों को, शिक्षकों ने शिक्षकों को, अपने पड़ोसियों, बच्चों को .... जो जिसके करीब का मिला, उसे हिन्दी बॉगरी में लुभा कर उनसे ब्लॉग बनवाया. एक ने पांच, पांच ने पच्चीस का आंकड़ा बनवाया ब्लॉगरी में जोड़ने का. यह प्रक्रिया वर्ष के प्रारम्भ में शुरू हुयी थी पर अपने पूरे यौवन पर सितम्बर मास में आ पायी.
चिट्ठों में आई असामान्य बढोतरी का सबसे बड़ा असर चिट्ठों की पोस्ट पर टिपण्णी की कमी के रूप में सामने आया। चिट्ठाकार इस बात से दुखी रहने लगे कि उनकी प्रति पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या घटकर औसतन क़रीब 1.०८ रह गई. चिट्ठाकारों का दुःख तब और बढ़ गया जब एक ब्लॉग समाजशास्त्री ने अपने अध्ययन के आधार पर ये रिपोर्ट निकाली कि; 'आनेवाले साल में टिप्पणियो की संख्या घटकर औसतन 0.७६ रह जायेगी'. चिट्ठाकारों की इस चिन्ता का समाधान खोजा उस समय के मूर्धन्य चिट्ठाकार और अपनी टिप्पणियों के लिए लोकप्रिय, कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय श्री समीर लाल ने. समीर लाल जी ने गूगल के साथ मिलकर जबलपुर में टिप्पणीकार बनाने के लिए एक संस्थान कि स्थापना की. इस संस्थान से पहले ही वर्ष क़रीब तीन हजार फुल-टाइम टिप्पणीकारों को स्नातक का प्रमाणपत्र मिला. कालांतर में इस संस्थान की नौ साखायें भारत और विदेशों में स्थापित हुईं. साल २०११ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस संस्थान को साहित्य और वैश्वीकरण में योगदान के लिए पुरस्कृत किया.
साल २००७ को इतिहास में चिट्ठाकारों के सम्मेलन के लिए याद रखा जायेगा. इस साल देश के कई शहरों में ब्लॉगर मीट का आयोजन किया गया. दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद और आगरा जैसे शहरों में आयोजित चिट्ठाकार सम्मेलन काफ़ी चर्चा में रहे. इस तरह के सम्मेलनो में चिट्ठाकारों की संख्या को लेकर भी काफ़ी चर्चा हुई. सबसे ज्यादा पब्लिसिटी उन सम्मेलनों को मिली जिनमें केवल दो चिट्ठाकार रहते थे. कुछ सम्मेलनों में 'डिजिटल कैमरे' की अनुपलब्धता ने मज़ा किरकिरा किया. कालांतर में गूगल ने चिट्ठाकारों के ऐसे सम्मेलनों को अपने फोटोग्राफ़र भेजकर कवर कराया. उस समय सभी चिट्ठाकारों ने गूगल की इस पहल की सराहना की. लेकिन गूगल की ये पहल पूरे तौर पर 'मुनाफिक' (मुनाफा कमाने के लिए) थी, इस बात का खुलासा तब हुआ जब सन २०३३ में गूगल ने ऐसे सम्मेलनों में ली गई तस्वीरों को क्रिस्टीज की एक नीलामी के दौरान ६० लाख डालर में बेंच दिया. भारत के लिए गर्व की बात ये थी कि इन तस्वीरों को विजय माल्या के पुत्र ने खरीद लिया...(आगे का पन्ना गायब है)
(....... भाग २ में जारी रहेगा.)
आपके इस ऐतिहासिक लेख के अगले भाग की इंतजार है।
ReplyDeletegreat article
ReplyDeleteबहुत सही जा रहे है. गति बनाए रखें. (रेल्वे की भाषा में)
ReplyDeleteसही है प्रभु। अच्छा लिखे हो।
ReplyDeleteलेकिन ये बीच बीच के पन्ने कहाँ गायब कर रहे हो, इसमे कोई विदेशी हाथ तो नही?
अगली कड़ियों का इन्तज़ार रहेगा।
जितेन्द्र- 'लेकिन ये बीच बीच के पन्ने कहाँ गायब कर रहे हो, इसमे कोई विदेशी हाथ तो नही?'
ReplyDelete@ जितेन्द्र जी,
किताबों के पन्ने गायब होने में हमेशा देशी हाथ ही रहता है. ये किताब जिस विद्यार्थी की थी, उसने पन्ने फाड़कर अपनी जेब में रख लिए होंगे. परीक्षा में नक़ल कराने के लिए.
बंधु
ReplyDeleteआप के इस लेख से मेरी ब्लॉग न लिखने की प्रतिज्ञा और भी द्रिड हुई ! आप ने लिखा है की आने वाले समय मैं टिपयाने वालों की कमी होने वाली है !ये बहुत अच्छा संकेत है ! बाजारवाद के अनुसार जिस चीज की कमी हो जाए उसकी कीमत बढ़ जाती है ! तभी तो अच्छे समय मॆं प्याज भी सेब के दाम पे बिकते हैं ! समीर लाल जी अभी तो सिर्फ़ स्नातक की मानद उपाधि से ही टिपयाने वालों को प्रोलाभन दे रहे हैं आने वाले समय मॆं उनको अपना ब्लॉग चलने हेतु सोने की माला भी पहनानी पड़ सकती है !! टिपयाने वाले न जाने कब से इस स्वर्ण काल की उम्मीद लगाये बैठे हैं !
टिपयाने वालों के आभाव मॆं ब्लॉग लिखने वालों की वैसी ही दशा हो जाती है जैसी बिना फौजी हुकूमत के पाकिस्तान की !
किताब के पन्ने भी लगता है ब्लॉग लेखकों ने ही फाड़े होंगे ! घोर अवसाद के क्षणों मॆं ऐसा हो जाता है !
नीरज
शिव कुमार मिश्र>... "किताबों के पन्ने गायब होने में हमेशा देशी हाथ ही रहता है. ये किताब जिस विद्यार्थी की थी, उसने पन्ने फाड़कर अपनी जेब में रख लिए होंगे. परीक्षा में नक़ल कराने के लिए."
ReplyDeleteसन 2070 में भी वही भारत. नकल के वही प्रगेतिहासिक तरीके! कल्पना में विविधता लाइये ... जरूर इण्टरनेशनल ब्लॉगर लीग, जिसका अध्यक्ष 2070 में क्वात्रोक्की का परपोता है, ने कुछ गड़बड़ की है!
नीरज> "...किताब के पन्ने भी लगता है ब्लॉग लेखकों ने ही फाड़े होंगे ! घोर अवसाद के क्षणों मॆं ऐसा हो जाता है !"
ReplyDeleteनीरज जी की यह अवसाद वाली थ्योरी मुझे जम रही है. मैं क्वात्रोक्की के परपोते को बरी करता हूं. :)
ज्ञान दत्त पाण्डेय
ReplyDelete'सन 2070 में भी वही भारत. नकल के वही प्रगेतिहासिक तरीके! कल्पना में विविधता लाइये ... जरूर इण्टरनेशनल ब्लॉगर लीग, जिसका अध्यक्ष 2070 में क्वात्रोक्की का परपोता है, ने कुछ गड़बड़ की है!'
भैया,
क्वात्रोक्की जी के परपोते के बारे में बात करके और कल्पना में विविधता लाकर कौन सीबीआई से पंगे ले. अगर सीबीआई से बच भी गए तो हंस राज भारद्वाज के परपोते (सं २०७० में कानून मंत्री) से नहीं बच सकेंगे....और फिर भारत बदल जायेगा, लेकिन हम भारतीय? वैसे भी हम अपने इतिहास और संस्कृति को लेकर हम कितना गर्व महसूस करते हैं.....सरकार की चाल देखकर आपको लगता है कि सं २०७० तक शिक्षा में सुधार होगा?
ये क्या चक्कर है जी ..? जहां हमारा नाम आने कॊ हुआ लिख दिया पन्ना गायब..? मतलब इतिहास से भी पंगा.. और हमारे से भी..? ये आप इतिहास नागरिक शास्त्र भुगोल सबसे पंगा लो कोई दिक्कत नही हम साथ है ,पर हमसे..? और ७० मे भी ये काम हमारा ही वंशज कर रहा होगा..खबरदर जो किसी और का नाम लिया तो...:)
ReplyDeleteवाह!!
ReplyDeleteशानदार!
प्रतीक्षा रहेगी अगली किश्त की!!
इतने भीषण ऐतिहासिक लेख में एक ऐतिहासिक चिट्ठा साहित्यकार द्वारा अपना जिक्र प्रथम भाग में पा आँख भर आ गई, कंठ अवरुद्ध हो गया. गरम पानी में फिटकरी डाल कर गरारा किया, दो गुटखे खाये तब इस स्थिती में आ पाये हैं कि आभार व्यक्त करें और अगले भाग के इंतजार में बीड़ी जलाकर बैठे हैं.
ReplyDeleteपन्नों का गुम जाना शुभ संकेत है कि इस तरह के ऐतिहासिक लेखों में गैर जरुरी लोगों का नाम का समावेष लेख स्वतः ही नहीं करेगा.
यही तो एक सच्चे लेख की पहचान है कि वो लेखक से कहीं उपर है. :)
खूब जी मजेदार।
ReplyDeleteअब जरा गाइड फिल्म में जो डायलॉग वहीदा रहमान का पति देवानंद से कहता है, वो हमें भी कह दीजिए:
"फिक्र न करो राजू किताब में तुम्हारा भी नाम होगा।"