'व्यावहारिक साम्यवादियों' से असली साम्यवादी निराश हैं. कह रहे थे कि नंदीग्राम में जो कुछ भी हुआ उससे विचारधारा में मिलावट की बू आ रही है. कुछ 'असली साम्यवादियों' ने तो नंदीग्राम की तुलना गुजरात से कर डाली. कल कानू सान्याल को टीवी पर देखा. बेचारे बड़े निराश थे. कह रहे थे कि; "पश्चिम बंगाल में सीपीएम् जो चाहेगी वही होगा. पश्चिम बंगाल में वही रह सकता है जिसे रहने की इजाजत पार्टी देगी."
सान्याल साहब की निराशा समझी जा सकती है. कितने अरमान लेकर उन्होंने नक्सलबाड़ी का आन्दोलन शुरू किया होगा. लेकिन सब गुड़ गोबर हो गया. सत्ता में आए साम्यवादियों की सराहना पिछले महीने तक जारी थी. लेकिन परिस्थितियां बदलने के लिए शायद एक महीने का समय काफ़ी होता है. जो साम्यवादी सत्ता में नहीं हैं और जिनका साम्यवाद लेखन और पाठन तक सीमित है वे बेचारे भी दुखी हैं. सत्ता पाने के लिए किया गया संघर्ष सत्ता मिलने पर ख़त्म हो जाता है. साथ में लुट जाती है सिद्धांतों की पोटली, जिसमें किताबें बांधकर सत्ता पाने का संघर्ष किया जाता हैं.
लेकिन 'साम्यवादियों' का अत्याचार क्या केवल पिछले महीने की ही बात है? इन लोगों ने जिस देश में सत्ता का स्वाद पहली बार चखा, वहाँ की कहानी कैसे भूल जाते हैं? स्टालिन भी साम्यवादी थे, इस बात में लोगों को संदेह रहता है क्या? या फिर साम्यवाद के इस महान सपूत ने क्या-क्या किया, किसी को मालूम नहीं है. जहाँ तक अपने देश की बात है, तो पिछले महीने तक क्या सब कुछ ठीक था? अस्सी और नब्बे के दशक तक विरोधी पार्टियों को वोट देने वाले अंगूठे काट दिए जाते थे, ये बात किसी से छिपी नहीं है. हाँ, उदासीनता की चादर ओढ़ कर कुछ भी न देखने का नाटक तो कोई भी कर सकता है. वैचारिक मतभेद की बात आती है तो सत्ता में बैठे लोग (या फिर वे भी, जो सत्ता का सुख नहीं भोग पाने के कारण दुखी रहते हैं) किसी भी तह तक गिरने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. फिर चाहे पाठ्यपुस्तकों से स्टालिन जैसे 'महान साम्यवादी' के ख़िलाफ़ लिखे गए लेख को हटाने की बात हो, या फिर निरीह किसानों को उनके ही घर से निकालने की बात, सब कुछ करना चुटकी बजाने के बराबर रहता है.
पश्चिम बंगाल में भूमि सुधारों को आगे रखकर कुछ भी करने के लिए तैयार बैठे लोग क्या-क्या कर सकते हैं, नंदीग्राम उसका एक नमूना मात्र है. ऐसा नहीं है कि नंदीग्राम पहली घटना है. इससे पहले भी कितना कुछ हो चुका है. इस बार समस्या केवल ये हो गई कि मामला सामने आ गया. लेकिन उससे भी क्या होने वाला है. सब कुछ सामने आने के बाद भी बेशर्मी से 'तर्कों' के जरिये सारी बातों को सिरे से खारिज कर रहे हैं. इतने सालों के शासन के बाद भी आम आदमी को राशन की दुकानों से अनाज तक नहीं दिला सके. ऊपर से तुर्रा ये कि "हमने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ऐसे परिवर्तन किए हैं, जो देश में और कहीं नहीं दिखाई देता." ऐसे परिवर्तन का नतीजा है कि जनता राशन दुकानों को लूटने पर आमादा है.
तीस सालों के शासन के बाद की पैदावार से निकला क्या? मोटरसाईकिल पर लाल झंडा गाड़े कैडर, अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में राजा की तरह जीने वाले सांसद जो चुनाव आयोग को बताते हैं कि उनके पास केवल चार सौ पैसठ रुपये हैं, मुहल्ले में चलने वाले क्लब जिनमें चालीस साल की उम्र वाले 'डेमोक्रेटिक यूथ' कैरम खेलते हैं, दूसरों की जमीन पर कब्जा करते हैं और वहाँ रहने वालों को डराते-धमकाते हैं.
इसके अलावा नयी फसल में एक चीज और उपजी है, नंदीग्राम.
जब देश में थी दीवाली, वे (सीपीएम काडर) खेल रहे थे होली।
ReplyDeleteजब हम बैठे थे घरों में, वे (नंदीग्राम के लोग) झेल रहे थे गोली।
सृजन शिल्पी जी के कथन के बाद कुछ कहने लायक मिल ही नही रहा!!!
ReplyDeleteसही कहा आपने.
ReplyDeleteबंगाल की तुलना गुजरात से करना मूर्खता है. बंगाल में कोई अपनी जमीन "कामरेड गुण्डो" को मोटी रकम खिलाये बिना नहीं बेच सकता. क्या ऐसा गुजरात में सम्भव है?
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है आपने.
"मुहल्ले में चलने वाले क्लब जिनमें चालीस साल की उम्र वाले 'डेमोक्रेटिक यूथ' कैरम खेलते हैं"
ReplyDeleteवर्त्तमान राजनैतिक परिवेश में "डेमोक्रेटिक यूथ" ये नया शब्द काफी सार्थक सा लगता है. बाक़ी जो आपने कहा, उसमे शायद ही प्रतिवाद की कोई गुंजाइश बचती हो.
बंधू
ReplyDeleteआप कई बार ऐसी गज़ब की पोस्ट लिख देते हैं की कमेंट की जगह दांतों तले अंगुलियाँ दबानी पढ़ जाती हैं. आप का हौसला देख के आँखें फटी की फटी रह जाती हैं. आप पानी में रह के मगर से बैर ही नहीं लेते उस ससुरे की सवारी भी करते हैं . भाई वाह. हमारा नमन है आप को और आप की हिम्मत को.
नीरज