Wednesday, March 5, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २८८०

आज सुबह से देख रहा था, दु:शासन बहुत डिप्रेस्ड था. कारण के बारे में तो मुझे भी नहीं पता था लेकिन एक बात मुझे अच्छी नहीं लग रही थी. एक तरफ़ तो मैं, मामाश्री और कर्ण पांडवों को खोजने की योजना बनाते हुए अपने एजेंट चारों दिशाओं में तैनात करने के बारे में सोच रहे थे और दूसरी तरफ़ दु:शासन पता नहीं किन कारणों से डिप्रेस्ड था.

मीटिंग में बैठा तो था लेकिन कुछ बात नहीं कर रहा था. विमर्श की बात दूर, आज तो ये हमारी हाँ में हाँ भी नहीं मिला रहा था. यहाँ हमारी हालत यह सोचकर ख़राब हुई जा रही है कि पांडवों का अज्ञातवास बीतने में अब ज्यादा दिन बाकी नहीं रहे और हमलोग पांडवों को खोज नहीं पाये.

आख़िर में मैंने दु:शासन से पूछ ही लिया. पहले तो उसने कुछ नहीं बताया लेकिन जब मैंने कई बार पूछा तो वह बोल बैठा. उसने कहा; "भ्राताश्री, वैसे तो मैं हमेशा आपलोगों के साथ रहता हूँ. आपलोग जो योजना बनाते हैं उसमें हाँ कहकर ही सही लेकिन अपने स्तर पर सहयोग देता हूँ. कई बार आपलोगों की योजना पर विचार करने की एक्टिंग भी करता हूँ. लेकिन मेरी मुश्किल तब शुरू होती है जब मैं कहीं अकेले चला जाता हूँ."

उसकी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने उससे पूछा; "क्या होता है जब तुम कहीं अकेले चले जाते हो? मुझे बताओ."

मेरी बात सुनकर उसने बताया; "मैं अकेले कहीं जाता हूँ तो लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं. कहते हैं मैं केवल आपकी चमचागीरी ही कर सकता हूँ. मुझे और कुछ करने की समझ नहीं है. कल की बात ही लीजिये. मैं पान खाने चौमुहानी पर चला गया था. वहाँ कुछ छोकरे अड्डा मार रहे थे. मुझे देखते ही उनलोगों ने पिंगल बोलना शुरू कर दिया. कह रहे थे आपने केवल एक बार मुझे द्रौपदी की साड़ी उतारने का काम दिया था और मैं इतना निकम्मा हूँ कि वो भी नहीं कर सका. जानते हैं भ्राताश्री, लोग मुझे निकम्मा कहकर चिढ़ाते हैं. कहते हैं मैं जिंदगी में कुछ नहीं कर पाऊंगा. एक बार तो गुस्सा आया कि अपने कमांडो को बोलकर उन लोगों को पिटवा दूँ लेकिन फिर मन में शंका उत्पन्न हुई कि कहीं ये लोग ठीक ही तो नहीं कह रहे."

दु:शासन की बात सुनकर मुझे उन अड्डा मारने वाले छोकरे पर बड़ा गुस्सा आया. फिर मैंने दु:शासन को समझाया कि वो निकम्मा नहीं है. जो लोग उसे निकम्मा कहते हैं मैं उन्हें देख लूंगा. लेकिन दु:शासन है कि मेरी बात से संतुष्ट नहीं हुआ. मुझे लगा इसकी शिकायत पर मुझे ध्यान देना चाहिए.

बहुत देर तक सोचा कि दु:शासन के लिए क्या किया जा सकता है. हम लोग ठहरे राजा. लिहाजा राजा को काम ही क्या है. हमें तो केवल राज करना है. और राज करने के लिए जितने भी काम करने चाहिए वो हम करते ही रहते हैं. शिकार करना, नाच देखना, दारू वगैरह पीना, दूसरों के ख़िलाफ़ साजिश करना. आख़िर एक राजपुत्र और क्या करता है जो दु:शासन करना चाहता है?

ऐसा क्या है जिसे करने से उसे निकम्मा नहीं समझा जायेगा. मैं अभी इस सोच में डूबा बैठा था कि कर्ण आ पहुँचा. मुझे चिंतित देख मुझसे पूछा; "किस सोच में डूबो हो मित्र? मुझे बताओ, मैं तुम्हारे लिए अपनी जान भी दे दूँगा."

कर्ण वैसे तो अच्छा ही है लेकिन कभी-कभी इसकी परोपकारी अदा मुझे अच्छी नहीं लगती. जब देखो तब परोपकार करने पर तुला रहता है. इसलिए कभी-कभी इसको पर्सनल और घर की बातें भी बतानी पड़ती हैं. लिहाजा उसके सवाल पर और कुछ नहीं कर सकता था. उसे दु:शासन के डिप्रेशन के बारे में बताना ही पड़ा. मेरी बात सुनकर कर्ण बोला; "इसमें इतना चिंतित होने की क्या जरूरत है मित्र? ठीक है, अगर दु:शासन इतना डिप्रेस्ड है तो उसके लिए कुछ करेंगे न. चिंता क्यों करते हो?"

मुझे उसकी बात सुनकर हँसी आ गई. हँसी इस बात पर आई कि मैं एक राजपुत्र हूँ और ये कर्ण मुझे चिंता नहीं करने के लिए बोल रहा है. जब मैंने उससे कुछ सजेस्ट करने के लिए कहा तो उसने जो कहा उसकी बात सुनकर मैं भी दंग रह गया.

इस कर्ण का दिमाग तो बहुत चलता है. पूरा ब्यूरोक्रेट का दिमाग पाया है इसने. मेरी बात सुनकर बोला; " देखो मित्र हम ठहरे राजा. हमारे राज्य में कोई उद्योग धंधा तो है नहीं. तुम ख़ुद ही समझ सकते हो कि जो सबसे बड़ा उद्योग है वो है युद्ध उद्योग. अब राज परिवार की सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ होती तो दु:शासन को इन कंपनियों में सप्लाई के काम वगैरह का हिसाब बैठा देते. लेकिन और कोई उद्योग तो है नहीं. एक ही उद्योग है और वो है युद्ध उद्योग. ऐसे में एक काम कर सकते हैं. तुम तो जानते ही हो कि अगर हम पांडवों को नहीं खोज सके तो वे तो अज्ञातवास पूरा कर लेंगे. ऐसे में उनके वापस आने के बाद युद्ध होना तय है. आख़िर तुमने भी तय कर रखा है कि पांडवों को राज्य का तो क्या पगडंडी भर जगह नहीं देना है. बोलो मैं ठीक कह रहा हूँ कि नहीं?"

उसकी बात सुनकर मुझे समझ में नहीं आया कि ये कहना क्या चाहता है जो इतनी बड़ी भूमिका बाँध ली है. फिर मैंने उससे कहा; "लेकिन तुम बताओ कि तुम कहना क्या चाहते हो."

तब उसने अपने प्लान का खुलासा किया. बोला; "देखो, जैसा कि मैंने तुम्हें बताया युद्ध उद्योग छोड़कर और कुछ तो है नहीं अपने राज्य में. युद्ध शुरू होगा तो हमें सेना में अफसर, सैनिक, घोड़े, तलवार वगैरह की जरूरत पड़ेगी ही. क्यों नहीं दू:शासन के लिए तीन-चार कम्पनियाँ बनवा देते? एक कम्पनी बना लेगा जिसमें वो हार्स फार्मिंग करेगा. एक कम्पनी हथियार सप्लाई के लिए खोल लेगा और एक और कम्पनी खोल लेगा जिसमे प्लेसमेंट एजेन्सी का काम करेगा. प्लेसमेंट एजेन्सी बनाकर सेना में सैनिकों की सप्लाई कर लेगा."

कर्ण की बात सुनकर मैं उसकी बुद्धि पर मुग्ध हो गया. मैं तो इसे केवल लड़ने वाला समझता था. मैं समझता था कि ये केवल धनुर्धर है जिसे युद्ध में अर्जुन के सामने कर दूँगा. बाकी का काम ये ख़ुद कर लेगा. लेकिन आज मुझे पता चला कि इसके अन्दर न सिर्फ़ धनुर्धर है बल्कि एक बिजनेसमैन और ब्यूरोक्रैट की बुद्धि भी है.

चलते-चलते:

पिछली पोस्ट जो कि एक 'मुफ्त गद्य' था, हमारे ब्लॉग पर पब्लिश होने वाली सौवीं पोस्ट थी. जितने ब्लॉगर बंधु कमेंट करने आयें, उनसे निवेदन है कि हमें बधाई भी देते जाएँ. सौवीं पोस्ट पब्लिश करने के लिए. और इस बात की कामना भी करते जाएँ कि हम जल्द ही (दो-चार दिन में नहीं) दो सौवीं पोस्ट पब्लिश कर डालें....:-)

12 comments:

  1. अच्छी डायरी उड़ा लाये हो.
    आज पता चला कि दुर्योधन अपने भाई को कितना प्यार करता था.
    राजपुत्र भी समय आने पर बिजनेसमैन हो लेता है. और ये बात द्वापर युग से है, आज ही पता चला.

    ReplyDelete
  2. पुनश्च:
    सौवीं पोस्ट के लिए बधाई. और हम तो कहेंगे कि बहुत से ब्लॉगर हैं जिनकी तरह लिखोगे तो तीन-चार दिन में ही दो सौवीं पोस्ट लिख डालोगे. और उसके लिए भी अभी से एडवांस में बधाई ले लो.

    ReplyDelete
  3. लगता है दुर्योधन कर्ण की बुद्धि पर मुग्ध अवश्य हुआ, पर उसके कहे अनुसार चला नहीं। कहीं न कहीं उसका राजा होने का अहं आड़े आया होगा। अन्यथा कुरुक्षेत्र का युद्ध एक कॉरपोरेट सेक्टर की स्ट्रेटेजी से लड़ता तो या तो जीत जाता या फिर कृष्ण गीता की बजाय पीटर ड्रकर की पुस्तकें पांच हजार वर्ष पहले कृष्ण वैशम्पायन से लिखवा चुके होते!
    यह डायरी है बड़ी मजेदार!!!

    ReplyDelete
  4. रोचक डायरी है, जारी रखिए। सौवीं पोस्ट की बधाई। मेरी राय है कि मात्रा पर स्तर को तरजीह दें। सौ सुनार की एक लुहार की, ठीक है न?

    ReplyDelete
  5. आपकी सौवीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई..ज्यादा इसलिये कि यह सौवीं उम्दा पोस्ट की भी बधाई है..सभी उम्दा हैं. आप जल्द ही १०००वीं पोस्ट पूरी करें और हम ऐसे ही बधाई देते नजर आयें, यही कामना है.

    ReplyDelete
  6. डायरी तो धांसू जुगाड़े हो, मेरे ख्याल से सिर्फ़ इसी डायरी के सहारे ही जल्द दो सौ पोस्ट हो सकते हैं ;)

    बधाई!!

    ReplyDelete
  7. मुझे सूचना मिली है कि आपके पास किसी व्यास की डायरी है....कुछ मामा शकुनी की डायरी से भी छापें...
    शतक की बधाई

    ReplyDelete
  8. सौंवीं पोस्ट के लिए बधाई। और, अच्छा है दो-चार डायरी और झटकिए। जल्द ही (2-4 दिन में नहीं)दो सौवीं पोस्ट भी हो जाएगी।

    ReplyDelete
  9. बधाई हो जी ..:) पर इस दो सो वी के हकदार हम भी है आखिर हमने पूरी डायरी जो उधारी मे ही सोप दी है..एड्संस के भरोसे..:)

    ReplyDelete
  10. बधाई! बधाई! बधाई! चहुंओर से आई? जो नहीं दिख रही है वह छिपी है झाड़न के पीछे, या आपके छत के ऊपर पानी का टंकी का पीछे लुकाई! दुर्जोधन को बहुत कपार पे मत चढ़ाइये! गोदी में चढ़ाना हो तो ज़रूर चढ़ाइये?

    ReplyDelete
  11. धांसू है डायरी। लिखते रहें। चार सौं वी पोस्ट भी होगी। बधाई!

    ReplyDelete
  12. ढेर सारी बधाईयां।

    अब लगे हाथों एक काम भी कर लो। हर दुर्योधन की डायरी के शुरु मे पिछली डायरी का लिंक और आखिरी मे अगली डायरी का लिंक दो।

    साथ ही लगे हाथों, एक पेज भी बना दो, जहाँ पर सारी डायरियां सिलसिलेवार (1st to latest) मौजूद हो। उसका लिंक भी साइडबार मे दे दो। ये आपका फ़्लैगशिप प्रोडक्ट है, इसकी सही मार्केटिंग करो भई।

    किसी प्रकार की तकलीफ़ आने पर सम्पर्क किया जाए।

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय