एक जमाना था जब मंहगाई के मौसम में खाने-पीने की चीजों की कीमतें आसमान छूती थीं. अब जमाना बदल गया है. अब मामला आसमान तक जाकर नहीं रुकता. उससे भी दो-चार प्रकाश वर्ष दूर जाता है. मंगल, बृहस्पति वगैरह पार. इस बार की मंहगाई कुछ ऐसी दिख रही है. सबसे ज्यादा मारा-मारी चावल को लेकर है. अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि चावल की कमी अफ्रीका और एशिया के देशों में सबसे ज्यादा है. कुछ का तो मानना है कि थाईलैंड नहीं होता तो पाकिस्तान में बिरियानी और पुलाव इस साल के अंत तक लुप्त हो जाते और आने वाली पीढियों के पास पुलाव और बिरियानी के बारे में जानकारी लेने के लिए कराची का नेशनल म्यूज़ियम ही रह जाता. वैसे कुछ लोग इस बात पर सहमत हो गए हैं कि लंदन और न्यूयार्क के भारतीय और पाकिस्तानी रेस्टोरेंट्स में बिरियानी और पुलाव के दर्शन होते रहते क्योंकि आजकल अमेरिकी और अंग्रेज भी ऐसी चीजें खाने लगे हैं. बंगलादेश में भी चावल की कमी है. आजकल माछेर झोल कटोरी में अकेला पड़ा रोता है.
भारत में भी चावल की कमी दिखाई दे रही है. सरकार कमी को पूरा करने की कोशिश कर रही है. इसी कोशिश के तहत आम चावल (आम और चावल नहीं) के निर्यात पर रोक लगा दी गई है. बासमती चावल के निर्यात पर टैक्स वगैरह बढ़ा दिया गया है. मतलब ये कि सरकार का प्रयास जारी है. कुछ लोग कह रहे हैं कि समस्या का समाधान मुश्किल है. सरकार की योग्यता पर लोगों का विश्वास कम हो गया है. अब जनता सरकार के ऊपर कम विश्वास करे तो चलता है. लेकिन यही जनता अगर सरकार की योग्यता पर विश्वास न करे तो मामला हाथ से निकलता हुआ दिखाई देता है. लेकिन हर चुनाव सरकार के लिए संकटमोचक बन कर आता है. कर्नाटक का चुनाव ऐसा ही है. ये चुनाव सरकार के लिए मौका लेकर आया है. सरकार के पास अपनी योग्यता साबित करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता था.
यही कारण है कि सत्ता में बैठी पार्टी और उसकी सरकार ने जनता को बता दिया है; "हमें वोट दे दोगे तो चावल, जिसके लिए तुम रिरिया रहे हो, हम तुम्हें दो रुपये किलो में देंगे. साथ में कलर टीवी भी देंगे. चावल खाना और टीवी देखना. चाहे तो टीवी देखते-देखते भी चावल खा सकते हो. हम इसपर कोई टैक्स नहीं लगायेंगे." जनता के वाह वाह नामक मंत्र का उच्चारण कर रही है. ठीक वैसे ही जैसे अल्ताफ रजा के 'गाए' शेरों पर किसी सस्ते से बार में बैठे पियक्कड़ वाह वाह करते हैं. वित्तमंत्री जरूर खुश हुए होंगे. प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री को धन्यवाद देते हुए अपने हांथों से साइन की हुई चिट्ठी रवाना कर दी होगी. नेता गण खुश हो चुके होंगे. ये सोचते हुए कि; 'इस बार तो चुनाव हमी जीतेंगे.'
अर्थशास्त्रियों की समझ में नहीं आ रहा है कि पक्के तौर पर कौन सी बात मानी जाय. पढे-लिखे लोगों को आजतक बताते आए हैं कि चुनाव वगैरह आने से मंहगाई बढ़ती है. लेकिन यहाँ तो उल्टा ही है. नेता के सामने बड़े-बड़े अर्थशास्त्री फेल हो जाते हैं. नेता अर्थशास्त्री को चुनौती दे चुका है. जैसे कह रहा हो; "तुम्हारी औकात क्या जो तुम भारत के असली अर्थशास्त्र के बारे में कुछ लिख सको या बोल सको. तुम बेवकूफ हो. असल बात तो ये है कि चुनाव आने से चीजों के दाम, खासकर चावल का दाम घटता है. और ये क्या तुम ढोल पीटते रहते हो कि चावल की कमी हो गई है. कमी होती तो हम दो रूपये किलो में चावल उपलब्ध करा पाते?"
अर्थशास्त्री हैरान है. सोच रहा है; "फालतू में लोग सर पीटते रहते हैं कि किसानों के गेंहू, चावल को सही कीमतें नहीं मिल रही हैं. ज्ञानी लोग बताते हैं कि भारत का असली नागरिक गाँव में रहता है और खेती करता है. पूरे देश को खिलाता है और ख़ुद भूख से तड़पता रहता है. जब इस किसान को एक किलो चावल का चौदह रुपया मिलता है तो ये जल-भुन जाता है. कहता है पूरी कीमत नहीं मिली. लेकिन जब इसे दो रूपये में एक किलो चावल मिलता है तो इसका चेहरा खिल जाता है. ऐसे में कैसा अर्थ और कैसा अर्थशास्त्र?"
ऐसी स्थिति में अर्थशास्त्री किसकी तरफ़ देखे? नेता की तरफ़ देखने से क्या मिलेगा? नेता ने अपना अर्थशास्त्र उसे बढ़िया से समझा दिया है. अर्थशास्त्री को आशा है उस नेता से जो ख़ुद भी अर्थशास्त्री है. लेकिन अर्थशास्त्री अगर नेता बन जाए तो उसके अन्दर का अर्थशास्त्र वैसे ही पिघल कर निकल भागता है जैसे चावल का माड़.
बंधू
ReplyDeleteआप ऐसे विषय पर लेखनी चलायें हैं जिस पर हमारा ज्ञान शून्य से भी नीचे है..वैसे आप पूछ सकते हैं की किस विषय पर हमारा ज्ञान शून्य से ऊपर है तो मुस्कुराते हुए उत्तर मिलेगा किसी पर भी नहीं. जब भी हमें अपनी अज्ञानता सार्वजनिक प्रदर्शित नहीं करनी होती तब हम सिर्फ़ मुस्कुराते हैं..वो भी मंद मंद...तो मंद मंद मुस्कुराते हुए हम इशारे से समझा रहे हैं की आप का लिखा पढने में बहुत मजा आया...समझने में नहीं. चावल, नेता और जनता तीनो की मिला कर आप जो खिचडी बनायें हैं और राजनीती का छौंक लगाये हैं वो देखने में बहुत स्वादिष्ट लग रही है...पाक शास्त्री (आप की भाषा में अर्थ शास्त्री) इसे खा कर बताएँगे की कितनी बढ़िया बनी है.
नीरज
कृपया यह बताया जाये कि कर्णाटक का वोटर कैसे बना जा सकता है? :)
ReplyDeleteमुनाफे के लिए उत्पादन का अर्थशास्त्र सदैव अनियंत्रण की और जाता है। माल खूब होते हुए दाम नहीं उतरते। मुनाफे का केन्द्रीयकरण बाजार में मंदी लाता है। इस संकट में छोटे उत्पादक हरिशरण हो जाते हैं। जनता अनाज होते हुए अकाल भोगती है।
ReplyDeleteये दौर पहले समय लेकर आते थे। अब गति बढ़ गई है तो जल्दी जल्दी आते हैं। एक समाप्त नहीं होता, दूसरा टपक पड़ता है।
मुनाफे के उत्पादन की अर्थव्यवस्था ऐसे ही चलेगी। जब तक आवश्यकता के लिए उत्पादन की अर्थव्यवस्था कायम नहीं होती ये संकट झेलने ही होंगे।
@जब इस किसान को एक किलो चावल का चौदह रुपया मिलता है तो ये जल-भुन जाता है. कहता है पूरी कीमत नहीं मिली. लेकिन जब इसे दो रूपये में एक किलो चावल मिलता है तो इसका चेहरा खिल जाता है.
ReplyDeleteबात तो सोचने वाली है .....
मेरा सवाल भी वही है जो ज्ञान भैया का है. कर्णाटक का वोटर कैसे बन सकते हैं?
ReplyDeleteहमारे बंगाल में तो ये सुविधा है नहीं.
ऐसी स्थिति में अर्थशास्त्री किसकी तरफ़ देखे?-जाहिर है शिवकुमार मिसिर जी के ब्लाग की तरफ़!
ReplyDeleteसही कह रहे हैं-वैसे वाकई ज्ञान जी की बात गहरी है-कोई रस्ता निकालिये वहाँ का वोटर बनवाने का.
ReplyDelete:)
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
दरअसल दुःख की बात ये है की सारा प्रबंधन अनपढ़ ओर फूहड़ लोगो के हाथ मे है गुंडे नेता है ओर हम आप अपनी ब्लोगिंग की दुनिया मे उलझे है.....महंगाई बढेगी तो रोना रो देगे फ़िर चुप हो जायेंगे.....दरअसल अब अपनी दुनिया मे व्यस्त है...अपना काम निकालो बाकी...... देश का ठेका सरकार का........
ReplyDeleteमस्त है जी.. सभी कर्नाटक शिफ्ट होना चाह रहे हैं.. क्या बात है..
ReplyDeleteफ़िलहाल हम चावल के जुगाड मे कर्नाटक जा रहे है ,लौट कर टिपियायेगे जी :) चाहो तो टिप्पणि के बजाय एक दो किलो चावल ले लेना :)
ReplyDeleteअर्थशास्त्री अगर नेता बन जाए तो उसके अन्दर का अर्थशास्त्र वैसे ही पिघल कर निकल भागता है जैसे चावल का माड़.
ReplyDeleteसारगर्भित पंक्ति...
बहुत ही बड़िया विषय चुना इस बार चर्चा करने का। आप के तर्क जायज हैं । अमर्तया सेन की किताब अकाल पर पढ़ना जरूरी है।
ReplyDeleteभई वाह क्या चावल पकाया है ।
ReplyDeleteis chaval ki manhgayi ne to sahi me jindagi maad kar dali.Kuch mahino pahle tak jahan ki sabse sasta chaval kitne rupye kilo hai to 12-15 batate the wahin ab seedhe seedhe 22-25 bataten hain.Ab to basmati chaval khana apne aap me kisi luxary se kam nahi hai.Sharon aur mahanagron me base hue we log jo mahine ke 2-5 hajar kamate hain kya aur kaise khayenge,sochkar man bhar aata hai.
ReplyDeleteभारत के बिबिधता मे एकता है ...... अब बात समझ में आई... ! केंद्रीय सरकार कह रही है की चावल की कमी है ,.... कर्नाटका के नेता गन दो रुपये में चावल खिला रहे हैं.! फिर भी देखिये नेताओं में कितनी एकता है, कोई भी दो रुपये के विरुध नही है.... यहाँ सब चलता है!
ReplyDeleteवाह - वो गाना याद आया - "चावल, चावल पुकारूं दलियों में.. " - पूरा आप करें? [ :-)]
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