बीजेपी का फील गुड़ याद है? नहीं? क्या बात कर रहे हैं! अरे साल २००४ की बात है. चार साल ही तो हुए है अभी. याद नहीं है? खैर, कैसे याद रहेगा? उसके बाद भारत में कितना कुछ हो गया. क्रिकेट टीम ट्वेन्टी-ट्वेन्टी वर्ल्ड कप जीत गई. फिफ्टी-फिफ्टी वर्ल्ड कप हार गई. आई पी एल का आयोजन हो गया. करन जौहर की फ़िल्म पिट गई. खली जी पहलवान बन गए. राखी सावंत स्टार बन गईं. नवजोत सिंह सिद्दू हँसी के शाहंशाह बन गए और हास्यास्पद रस के प्रसार में ख़ुद को झोंक दिया. शिबू सोरेन निर्दोष साबित हो गए. लालू जी ने रेलवे को प्राफिट में ला खड़ा किया. आडवानी जी ने जिन्ना को महान बता डाला. अमिताभ बच्चन जी ने तिरुपति और वैष्णो देवी की यात्रा कर डाली. टीवी न्यूज चैनल साल दर साल सर्वश्रेष्ठ होते गए. रावण के हवाई अड्डे खोज लिए गए. युधिष्ठिर जिस सीढ़ी पर चढ़ कर स्वर्ग पहुंचे थे, उसकी खोज हो गई. अब इतने सारे नए फील गुड़ फैक्टर के बीच पुराने को कौन पूछे.
खैर, नहीं याद है तो दुखी मत होईये. आख़िर हम और आप ठहरे आम आदमी. वैसे अगर कोई ख़ुद को ख़ास समझता हो तो अलग बात है लेकिन सच तो यही है कि हम आम आदमी हैं. वैसे आम आदमी शब्द सुनकर मुझे नहीं पता कि आपके मन में कैसे भाव आते हैं, मेरे मन में जो आते हैं वो मैं बताता चलूँ. मुझे लगता है कि आम आदमी उसे कहते हैं जिसे आम की तरह चूसा जा सके. अब आम को हमेशा सिर की तरफ़ से ही चूसते हैं. लिहाजा चूसा हुआ आम आदमी का अपना दिमाग भी चूसा जाता है. इसलिए आम आदमी की याददाश्त इन मामलों में ठीक नहीं होती. वो तो बेचारा केवल ये बात याद रख सकता है कि बीस साल पहले पड़ोसी ने क्या कहकर गरियाया था. लेकिन ये कभी याद नहीं रखता कि देश के नेता आए दिन उसके साथ क्या-क्या करते रहते हैं. वो तो जी छोटी-छोटी चीजों में खुशी का मजा लेते आगे निकल लेता हैं.
लेकिन क्या उन्हें याद है, जो ख़ास हैं? अब देखिये जी, एक लोकतंत्र में ख़ास कौन हो सकता है? लोकतंत्र में दो ही तो लोग होते हैं. एक जनता और दूसरा नेता. आप कहेंगे कि नेता तो विपक्षी भी हो सकता है. तो उसपर मेरा कहना ये है जी कि विपक्ष वालों को अब नेता ही नहीं माना जाता. नेता तो केवल उसी को माना जाता है जो शासन में हो. अब शासन में तो जी कांग्रेस पार्टी है. जी हाँ, वही पार्टी जिसने बीजेपी के फील गुड़ वाले विज्ञापनों का मजाक उड़ाया था. क्या उसे याद है? लगता तो नहीं कि याद है. मेरे ऐसा कहने के पीछे कारण है. और वो कारण है पिछले दो महीने से टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन. देखकर 'कन्फर्मामेंट' (आम आदमी की अंग्रेजी है जी) हो गया है कि कांग्रेस भी वही विज्ञापन का खेला खेल रही है. इसको भी उसी फील गुड़ कीटाणु ने डस लिया है.
लेकिन पुराने फील गुड और नए फील गुड के विज्ञापनों में अन्तर है जी. पुराना फील गुड शूट-बूट और टाई वालों को हुआ था. नया वाला तो जी गंजी और धोती पहने लोगों को हो रहा है. हो रहा है से मेरा मतलब है विज्ञापनों में हो रहा है. आय हाय, क्या विज्ञापन है जी. बिल्कुल नया सलवार-कमीज धारण किए एक महिला सिर पर मिट्टी से भरा पलरा उठाये दिखती है. एक ट्रैक्टर दिखता है जिसमें मेकअप लगाकर बड़ी मेहनत करके गरीब बनाए गए लोग बैठे रहते हैं. फावड़ा और पलरा लिए हुए. कैलाश खेर बैकग्राऊंड में गाकर बताते हैं कि रोज कितने गावों में बिजली पहुँचाई जा रही है. कितने गावों में टेलीफोन और सड़क बनाई जा रही है. आंकडे देखकर लगा कि सालों से जिस जनता ने विकास नहीं देखा, उसे अचानक इतना विकास दिखा देंगे तो दस्त से पीड़ित हो जायेगी जी. आदत नहीं है जी इतना विकास देखने की.
वैसे विज्ञापन इस बात का भी बनाया जा सकता है जिसमें सरकार के बाकी कारनामे दिखाए जा सकते थे. मंहगाई में बढ़ोतरी, किसानों की समस्या, चावल का दाम, ऑस्ट्रेलिया से आयातित सड़ा हुआ गेहूँ, और ऐसे ही न जाने कितने कारनामे हैं जो विज्ञापन के कैमरे की तरफ़ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं.
हे सरकार, इन्हें भी मौका दीजिये.
चलो, यह तो पता चल गया कि विज्ञापन में इलेक्शन मोड (election mode) आ गया है।
ReplyDeleteफीलगुड विज्ञापन वालों को अगर पुरानी और छेद वाली गंजी चहिये तो हमसे ले लें, बदले में हमे नयी दे दें। उनका भी फील गुड (जीवन्त) रहेगा और हमारा भी हो जायेगा!
राजनीति मुझे नही आती जी लेकिन एक चीज आती है तारीफ करना, आपने बहुत अच्छा लिखा है जी. राजनीती से अलग होकर लिखते तो और मजा आता जी
ReplyDeleteजी काईं बात करो सो थम.
ReplyDeleteम्हारे गावं म तो ना पुंची बिजली हाल ताई.
और सड़का री काई बात करा बेरो कोणी चाले जी कि
सड़का बीच गड्ढा है कि गड्ढा बीच सड़का है.
महाने तो कोन्या हो रह्यो थारो यो फिल सिल गूड
चुनाव का सूतक है यह।
ReplyDeleteआम आदमी की आपकी परिभाषा खूब है......
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteआप हमारी दुखती रग पे हाथ धर दिए हैं. वो नीले रंग का गोल गोल डिजाईन वाला सूट देख कर हमारी पत्नी श्री बोलीं की "हे नाथ जिस जगह ऐसे सूट पहन कर इतनी सुंदर और कोमल नारियाँ मिटटी उठा कर पैसे कमाती हैं वो गाँव हमें दिखाओ...." नाथ परेशान, कहाँ कहाँ नहीं दूंढे...सारा राजस्थान छान मारा क्यों की गाँव ऐसा ही लग रहा था... लेकिन उसे ना मिलना था..ना मिला.. पत्नी श्री बोलीं..."नाथ आप निकम्मे हो ये तो मुझे मालूम ही था लेकिन मूड मति भी हो ये अब पता चला..अरे गावं नहीं मिल रहा था तो कम से कम वैसा सूट ही ले आते..."
कांग्रेस वालों को बताओ की ऐसी स्तिथि में फील गुड कैसे किया जाए.?
नीरज
काहे इत्ती सडी सडी बाते कर रहे है आप,बदबू से माहौल खराब कर दिया है.कित्ते अच्छा फ़ी ~ ~ ~ ~ ~ ~ ल गुड हो रहा था.फ़ैक्टरी मे भले लाईट महीने डेढ महीने मे आती हो.घर जाकर इनवर्टर पर हमे भी टीवी देख कर अच्छा खासा "जिस देश मे सोनिया जी का शासन है हम उस देश के वासी है" गुड गुड फ़ील हो जाता था, सारा मजा खराब कर दिया आपने,अच्छा खासा हम अपनी सूखी रोटी को पानी मे डुबो कर टीवी देखते हुये खीर पूडी समझ कर खा रहे थे.क्या जरूरत थी आपको हमारा सपना तोडने की ? देखियेगा आपको पाप लगेगा मनमोहन और सोनिया जी की कसम . :)
ReplyDeleteआज तक का रिकोर्ड है, जिसने ऐसे विज्ञापन दिये...वह डूबा है.
ReplyDeleteकरने दें जनता के पैसे का धूँआ...
याद न रहने के आये बदलावों में राखी सावन्त से लेकर IPL तक को गिनवा गये और खुद को भूल गये: शिव मिश्रा ब्लॉगर बन गये. काहे ऐसी भूल करते हैं, फिर कैसे चुनाव में आपकी बात सुनी जायेगी. बस, आम के आम ही बने रहेंगे.
ReplyDeleteसंजय बैंगाणी जी तो विश्लेषक हो लिये. उनको सारे रिकार्ड कंठस्थ जो हैं. हा हा!! इस बार चुनाव के दौरान उनको ब्लॉग विश्लेषक बनाया जायेगा और उनकी विशेषज्ञ सलाह को आमजन तक पहूँचाने का जिम्मा आपका. :)
अपन तो उड़नतश्तरी जी से सहमत हैं आखिर गुरु जो हैं वे।
ReplyDeleteलिखे मस्त हो भैया!
jay ho....hindi nahin likh pa raha hoon....
ReplyDeleteजमाये रहियेजी।
ReplyDeleteविज्ञापन भी लगता है ऑस्ट्रेलिया से इम्पोर्ट कराया होगा.. क्योंकि मैने तो अभी तक ये सब भारत में देखा नही.. लेकिन मेरी बात कौन मानेगा, मैं ठहरा आम आदमी..
ReplyDeleteठीक-ठीक, खरी-खरी।
ReplyDeleteफील गुड की यही विडम्बना है इसे फील करने की कोशिश कोई करता है और फील किसी और को होता है. जैसे बीजेपी का फीलगुड कोंग्रेस ने फील किया अब कांग्रेस का फीलगुड फील करने की बारी लगता है बीजेपी की है
ReplyDelete''मुझे लगता है कि आम आदमी उसे कहते हैं जिसे आम की तरह चूसा जा सके. अब आम को हमेशा सिर की तरफ़ से ही चूसते हैं. लिहाजा चूसा हुआ आम आदमी का अपना दिमाग भी चूसा जाता है. इसलिए आम आदमी की याददाश्त इन मामलों में ठीक नहीं होती. वो तो बेचारा केवल ये बात याद रख सकता है कि बीस साल पहले पड़ोसी ने क्या कहकर गरियाया था. लेकिन ये कभी याद नहीं रखता कि देश के नेता आए दिन उसके साथ क्या-क्या करते रहते हैं. वो तो जी छोटी-छोटी चीजों में खुशी का मजा लेते आगे निकल लेता हैं.''
ReplyDeleteआम आदमी की इसी याददाश्त की कमजोरी का फायदा तो राजनीतिज्ञ उठाते हैं।
और, आपकी आम आदमी की परिभाषा सामयिक भी है। इस सीजन में आम और आम आदमी दोनों साथ-साथ चुसे जा रहे हैं।
ये गाना काफी सही लगता है
ReplyDelete" कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हकीकत आधा फसाना "
आजकल टीवी नहीं देखता हूँ इसलिए बस कल्पना ही कर सकता हूँ कि ये विज्ञापन कैसे होंगे।
ReplyDeleteएकदम सही कह रहे हैं महंगाई से लतियाई जाती इस सरकार को आखिरी साल में अब इन्हीं विज्ञापनों का ही सहारा है।
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