Saturday, October 18, 2008

तुरत लिखा, फुरत आलोचक मिले और 'धुरत' फ़ैसला....

न जाने कितने लोग सामान्य सी लगने वाली दुर्घटनाओं के चलते साहित्यकार हो लेते हैं. ओ हेनरी गबन की सजा में जेल जाने से लेखक बन गए थे. चार्ल्स सोभराज ने जेल में बैठे-बैठे किताब लिख डाली. किताब छप गई और उन्हें साहित्यकार की पदवी मिल गई तो अपनी वकील की आंखों में झांकते हुए कविता लिख डाली और कवि बन गए. वैसे ही बबलू श्रीवास्तव ने पुलिस की हिरासत में रहते हुए साहित्य रचना कर डाली. नरसिम्हा राव भी अपने अन्तिम राजनैतिक दिनों में लेखकगति को प्राप्त हो गए थे.

लेकिन इतिहास गवाह है कि दिवाली के सफाई कार्यक्रम ने आजतक किसी को कवि घोषित नहीं करवाया. इस लिहाज से हमारे ज्ञान भइया ने अलग ही मुकाम हासिल कर लिया. दिवाली के लिए चल रहे सफाई समारोह में उनके घर के कबाड़ से उनकी लिखी हुई ग्यारह साल पुरानी कविता बरामद हुई. मजे की बात ये कि कविता ब्लॉग पर भी छप गई. कवि छपास के लिए हमेशा तैयार रहता है.

अब अगर अचानक लोगों को पता चले कि सीरियस बातें करने वाला कविता भी लिखता है तो लोगों को आश्चर्य से लेकर सुखद आश्चर्य तक होगा. लोगों को हुआ भी. लगभग चालीस-पैंतालीस लोगों ने इस कविता को शानदार कविता बताया. अनूप जी ने कविता में छिपी हुई कवि की सोच पर पर शंका जाहिर की. कुछ लोगों ने कबाड़ को और खंगाले जाने का अनुरोध भी कर डाला.

कवि के लिए कुछ भी ठीक नहीं जा रहा था. जो भी आता, कविता को शानदार बता कर चला जाता.कविता की इतनी विकत बड़ाई सुनकर कवि बोर हुए जा रहे थे.

लेकिन कवि की आँखें तब चमक उठी जब उसे एक टिपण्णी मिली जिसमें कविता और कवि की आलोचना की गई थी. जरा सोचिये कि कवि की सफलता की पहली सीढ़ी क्या हो सकती है? आलोचक की प्राप्ति. और इस लिहाज से देखें तो हमारे ज्ञान भइया एक सीढ़ी चढ़ लिए. कारण? उन्हें आलोचक के रूप में मिल गए अरुण कुमार जी. अरुण कुमार जी ने ज्ञान भइया की कविता पढ़ी और उसे कूड़ा घोषित कर दिया.

यही होना ही था. कविता कबाड़ से बरामद हुई थी. वो भी स्क्रैप बुक में लिखी हुई. अब कबाड़ से निकली कविता को और क्या कहेंगे? वही, जो अरुण कुमार जी ने कहा.

बड़े-बड़े महाकवि कविता 'राइट' करके आलोचक को भेजते हैं. आलोचक जी का मुंह ताकते हैं. महीनों इंतजार करते हैं. आलोचक जी से दो-चार बार तगादा करते हैं. रिमाइन्डर देते हैं. रिमाइन्डर से आलोचक जी अगर खीज गए तो कविता लौटा भी देते हैं. ये कहते हुए कि; "परसों ही मैंने रविंद्रनाथ की गीतांजलि को नए बिम्बों को आधार बनाते हुए टेस्ट किया है. आज से मैं कीट्स की कविताओं के हिन्दी अनुवाद की समालोचना में व्यस्त हूँ. अभी हमें डिस्टर्ब मत करो. मैं तुम्हारी कवितायें वापस भेज रहा हूँ. तीन साल बाद हमें ये कवितायें दुबारा भेजना तब देखेंगे."

जो 'असली' कवि होते हैं वे कागज़ पर तो लिखते हैं, लेकिन ब्लॉग पर नहीं डालते. और यहीं उनसे चूक हो जाती है. ब्लॉग पर डाल दें तो आलोचक को रिमाइन्डर भेजने की जहमत उठानी ही न पड़े. ब्लॉग पर डालने का फायदा ये है कि न जाने कितने ही आलोचक तुंरत टूट पड़ते हैं उन कविताओं पर. दो घंटे के अन्दर साधुवाद, बधाई, खूबसूरत और बेहतरीन से लेकर कूड़ा तक बता डालते हैं.

इस मामले में 'ब्लॉग-साहित्य' जो है वो 'कालजई' साहित्य से आगे है. इसे कहते हैं जेट एज में साहित्य साईकिल का घूमना. तुरत लिखा. फुरत आलोचक मिले और धुरत फ़ैसला. (ये धुरत शब्द का मतलब नहीं पता. असल में आजकल तुकबंदी में हाथ आजमा रहा हूँ न, इसलिए जो मन में आ रहा है, लिख डालता हूँ.)

लेकिन जी, मैं एक बात कहना चाहता हूँ. ये काव्य दुर्घटना तो ग्यारह साल पहले हुई थी. दुर्घटना होने पर दवाई- दरपन तुंरत करवाना चाहिए. जब ये हुआ, उसी समय कवि का कर्तव्य था कि मुहल्ले में किसी को सुना लेता. मुहल्ले में श्रोता न मिलते तो आफिस में सुना डालते. अफसर सुनने को तैयार न होते तो प्यून को सुना लेते. प्यून न सुनता तो भारत लाल को सुना लेते. कोई न कोई तो ज़रूर ही मिलता जो ऑन स्पॉट उसे कूड़ा कह डालता. बात ख़तम होती और कागज़ हज़म होता. सोचता हूँ तो लगता है कि ग्यारह साल तक छिपाकर रखी गई कविता न्यूक्लीयर डील पास होने वाले वर्ष में ब्लॉग पर ठेलेंगे तो और क्या होगा?

शुकुल जी ने अभी परसों ही तरमाल अपने ब्लॉग पर ठेला. मौज वाली कविता. सही निशाने पर लगी. साधुवाद से लेकर बधाई तक समेटते हुए जेब के हवाले कर चलते बने. असली कवि-कर्म तो वही है जिसमें 'तरमाल' को तुंरत पाठकों और आलोचकों के हवाले करो और जो कुछ भी मिले, लेकर निकल लो.

दो दिन पहले हुई इस 'साहित्यिक दुर्घटना' पर तमाम चिट्ठाकारों ने अपने विचार व्यक्त किए. प्रस्तुत है उन्ही विचारों में से कुछ 'तर विचार'.

फुरसतिया जी:

अपनी कविता को कूड़ा बताने का काम स्वयं ज्ञान जी ने किया है. उन्होंने कल ही अरुण कुमार के नाम से एक फर्जी आई डी बनाई और अपनी कविता को कूड़ा बता डाला. साथ में ख़ुद को ही सलाह दे डाली कि; "सब्जी-मंडी में बैठकर घास बेंचों." घास की बड़ी डिमांड है जी. हाल ही में पता चला कि देश में घास की कमी हो गई है. ऐसे में बीच बजरिया घास बेचना देश के हित में है.

अलोक पुराणिक जी

कविता तो घणी चोखी थी जी. मैंने अपने कमेन्ट में भी लिखा था; "क्या केने क्या केने." लेकिन अब जब उसे कूड़ा बता दिया गया है लगा कि एक बार फिर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. मैंने सोचा कि उस छात्र का विचार ले लूँ जिसने पिछले महीने कविता पर निबंध लिखकर टॉप किया था. उसका कहना था; "आजकल ज्यादातर कवितायें कूड़ा ही होती हैं, ठीक वैसे ही जैसे कम्यूनिष्टों द्बारा दिए जानेवाले ज्यादातर वक्तव्य कूड़ा होते हैं."

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि अच्छा हुआ जो मैं कविता नहीं लिखता.

समीर लाल जी उड़न तश्तरी वाले

हाल ही में वॉशिंगटन से लौटा. वहां राकेश खंडेलवाल जी के काव्य संकलन के विमोचन के लिए गया था. वहां जाकर लगा कि पूरी दुनियाँ ही कविता है. ऐसे में ज्ञान जी की कविता भी मुझे प्यारी ही लगी. साधुवाद की हकदार कविता. मैंने साधुवाद समर्पित किया. लेकिन अब उस कविता को एक बार फिर देखने की ज़रूरत है.

मैं अभी सोच रहा हूँ कि पुनर्विचार को क्षणिकाएं लिखकर बताऊँ या दोहे लिखकर. थोड़ा और इंतजार कीजिये मैं जल्दी ही अपने ब्लॉग पर अपने विचार व्यक्त करूंगा. हो सकता है कि मैं अपनी प्रतिक्रिया विडियो के थ्रू दूँ. फिर सोचता हूँ कि नवम्बर में तो भारत आऊंगा ही. वहां पहुंचकर वक्तव्य दे दूँगा.

24 comments:

  1. शुक्र है अभी तक हमारे साथ को दुर्घटना नही हुई.. वरना हम भी साहित्यकार हो लेते

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  2. आदरणीय गुरुजी प्रणाम ! वो कविता तो खैर हमने पढी नहीं पर आपकी यह कविता चर्चा चिट्ठाचर्चा के माध्यम से होनी चाहिए थी . आखिर आपका नाम भी चर्चाकारों में है फिर चिट्ठाचर्चा से इतनी दुश्मनी क्यों ? बताइए . बताइए बताइए . बताइए ना .

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  3. बंधू कबाड़ से निकली चीज को अच्छा कहने के लिए हौसला और पारखी नजर दोनों चाहिए...कविता हम भी पढ़े हैं और टिपियाये भी आप ने देखा ही होगा और हमारी समझ से, अब जो जितनी भी है, वो ठीक ही लगी...इस लायक नहीं लगी की उसपर पुनर्विचार किया जाए...पढ़ी अच्छी लगी कहा और खिसक लिए...आज आप फ़िर उसी मुद्दे को उठा लायें हैं...उस कविता पर चर्चा कर रहे हैं जिसे ज्ञान भैय्या बाल्यकाल में लिख कर भूल चुके थे...कबाड़ से निकली कविता प्रकाश में आयी ये क्या कम है ? बंधू कविता को कविता की तरह ही लो उसे पोस्ट मत बनाओ...
    नीरज

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  4. हा हा, कहीं इस सुझाव के बाद ज्ञानजी रेलवे की अफसरी छोड़ घास छीलन/बेचन पर ध्यान तो नहीं दे रहे :-)

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  5. हमने ज्ञानजी को सलाह भी दी कि जो वैकल्पिक रोजगार सुझा रहा है , उसका शुक्रिया तो अदा कर दें। यह सुझाव यह मानते हुये दिया गया कि वह टिप्पनी स्वयं ज्ञानजी के मन की पुकार नहीं है!

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  6. कविता के बहाने ज्ञान जी की खिंचाई, बहुत नाइंसाफी है ये।

    आपने एक बात उठाई, कि कवि यदि कविता किसी को भेजता है तो उसकी आलोचना(खिंचाई) होती है, वही कविता यदि वो अपने ब्लॉग पर छाप देता है तो तारीफ़, ऐसा कैसे। वो ऐसे कि भाई, जब आप कविता भेजते हो, तो पढने वाले की गरज नही होती, जितनी आपकी पढवाने की गरज होती है। जब आप कविता अपने ब्लॉग पर डालते हो तो ये कविता एक तरह का बुफे (गिद्द भोज) की तरह परोसी जाती है, वैब पर जितने कवि है वो तो आएंगी ही, टिप्पणी करने, क्योंकि उनको वापसी टिप्पणी की उम्मीद है। यहाँ कविता पृष्ठभूमि(बैकग्राउंड) मे चली जाती है, प्रति-टिप्पणी की आस फ्रंटलाइन मे रह जाती है। रही बात गिद्द-भोज की, उसको दिल पर मत लिया जाए।

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  7. ज्ञान जी का तो पता नही कम से कम ओ. हेनरी को तो बेचारा समझ कर छोड़ दिया होता आपने :-)

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  8. शुक्रिया तो अभी भी अदा किया जा सकता है इसमें क्या है .

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  9. शुक्र है हम उस" कवितायी दुर्घटना "से बच गये ....(दो दिन ब्लॉग से अनुपस्थित जो थे )पर उसका असर अब भी देख रहे है...संदेश यही जाता है की सभी टिपियाने वाले शिष्टचार का कितना पालन करते है .....

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  10. बहुत जोरदार लिखा ! सारी बातें कविता मय लग रही हैं हमको तो ! शुभकामनाएं !

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  11. कोई इमानदार टिप्पणी कर गया उसका स्वागत होना चाहिए :) निंदक नियरे राखिये....

    आप भी एक ठो कबिता ठोकिये और हम हू एक ठो लिखता हूँ, कविता ठेलने के लिए ही होती है.

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  12. कहीं ऐसा तो नहीं कि ज्ञान जी ने सब टिप्पणीकारों का स्टिंग ऑपरेशन किया हो . अगर ऐसा है तो फँस गये अच्छे अच्छे टिप्पणीकार . वैसे उन्होंने चारलाइना पोस्ट भेजने वालों और उस पर टिप्पणी करने वालों की खिंचाई कुछ दिन पहले ही की थी .

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  13. तुम भी कोउन कोउन चीज से खफिया (खफा) जाते हो पता नही चलता........कभी साहित्यकार कभी कविकार......ई सब का है ?अरे ई फिल्ड में हो तो खली खुश रहना और सबको सबासी देना सीखो.

    बाकी लिखे बहुत जोरदार हो.पहिला पारा तो बड़ा ही जबरदस्त है.

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  14. मुझे एग्प्लॉण्ट (बैंगन) बेचने की सलाह है। और अस्थिर मति के लिये बैंगन से बढ़िया कोई प्रतीक नहीं। :-)

    कभी लगता है कि अस्थिर मति, स्थिर (जड़) मति से बेहतर है।

    बहुत आलू-टमाटर पर ठेल लिया। लिहाजा बैंगन ज्यादा आउट आफ कोर्स नहीं है!:)

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  15. हम प्रतिक्रिया बदल कर गाकर (समर्पित अरविंद जी को और अनूप जी को करते हुए)सुनाने की तमन्ना पाल बैठे हैं. :)

    बैंगन बेचने को तो यूँ सलाह दी है कि जो बेचने से बच जाये‍गे, उन्हें ज्ञान जी फेकेंगे तो नहीं..खा ही लेंगे तो कब्जियत निवारण बिना कविता ठेले भी हो लेगा. :)

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  16. अजी किस कविता की चर्चा हो रही है????????

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  17. आपने कल दोहे धोये अब टिप्पणीकार को धो रहे है या ज्ञान जी को ?हा हा हा

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  18. हमें मसाले वाले भरवां बैंगन बहुत पसंद हैं , बैंगन ज्ञान जी के और मसाले शिव भैया के हो तो खूब करारी भाजी बनेगी , सोच कर ही मुंह में पानी आ रहा है…:)

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  19. सर.. अभी तक हम आलोचक गति को प्राप्त नहीं हुये हैं.. जो भी उल्टा-सीधा लिखता हूं, सभी वाह वाह कर जाते हैं.. :)
    पता नहीं मैं कब साहित्यकार गति को प्राप्त होऊंगा? :(

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  20. ज्ञानजी की कविता के बाद आपकी चर्चा पढ़ने के बाद अब मानसिक हलचल पर प्राप्त टिप्पणियों को पढ़ने के लिए फिरसे वहाँ जाना पड़ेगा...।

    इसे कहते हैं जबरदस्त केमिस्ट्री। तभी तो मैं कहूँ कि इस ब्लॉग पर ज्ञानजी का नाम क्यों चल रहा है? :)

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  21. हा हा, कविता पर खिंचाई या ज्ञानजी पर खिंचाई या टिप्पणी पर खिंचाई या शायद सभी पर खिंचाई। बहुत खूब

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  22. शुक्र मनाइये, अब अगले दीवाली में ही घर की साफ सफाई होगी और घर के कबाड़ से कोई दुर्घटना रूपी कविता मिलने की आशंका होगी. लेकिन यह तो कन्फर्म कर लें कि इस दीवाली की सफाई चल ही रही है क्या..? वरना..पहले कविता और फ़िर उस पर टीपें........... ---~~~~##@@@@!!!

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  23. रामायण खत्म, सीता कौन?

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  24. अच्छा है पहले दोहे फ़िर कविता पर पोस्ट आप बिल्कुल सही दिशा में जा रहें है मंजिल जल्द ही मिलेगी :) :)

    वीनस केसरी

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय