रोज चिट्ठाजगत से मेल मिलता है. किसी दिन २५ तो किसी दिन १९ नए चिट्ठे रजिस्टर होते हैं. लिखा रहता है;
"इन्द्रजाल में नवपदार्पण करने वाली इन कलियों का टिप्पणी रूपी भ्रमरों द्वारा स्वागत करें!"
पूरी लाइन पढ़कर लगता है जैसे अति कोमल ह्रदय के ओनर किसी कवि ने रात में खूब तेल खर्च करके इस लाइन को गढा है. कुल मिलाकर घणी गाढ़ी लाइन है.
नवपदार्पण करने वाली कलियाँ! टिप्पणी रुपी भ्रमर. आहा!
लेकिन एक बात है. कवि ने किसी अलग तरह के अलंकार का सदुपयोग कर डाला है. अब देखिये न. टिप्पणी हुई स्त्रीलिंग. भ्रमर जी हुए पुल्लिंग. ऐसे में टिप्पणी रुपी भ्रमर!
ठीक वैसे ही, चिट्ठा हुआ पुल्लिंग. कलियाँ हुई स्त्रीलिंग.
शायद ये ब्लॉग अलंकार है.
काव्य प्रेमी लोगों से भरा है अपना ब्लॉग-जगत. मामला काव्यात्मक न रहता तो थोडा अटपटा लगता.
काव्य रचने को प्रोत्साहित करने वाले नॉर्मल बगीचे में नवपदार्पण करने वाली कलियाँ भ्रमरों को देखकर ज्यादातर विदक जाती हैं. ये कहते हुए तन जाती हैं कि; "मुवों, तुम्हें और कोई काम नहीं है? हम कलियों ने पदार्पण किया नहीं कि चले आये मंडराने? तुम्हारे मन में हमेशा खोट रहता है."
लेकिन चिट्ठा-बाग़ में ऐसा नहीं हो सकता. इस केस में ऐसा होने का चांस नहीं हैं. यहाँ तो नवपदार्पण करने वाली कलियाँ भ्रमरों का इंतज़ार करती रहती हैं. जैसे कह रही हों;
आजा रे..मैं तो कब से खड़ी...ये अँखियाँ थक गई पंथ निहार...आजा रे.
भ्रमर आ जायें तो ठीक. न आयें तो बड़ी मुश्किल. काहे नहीं आये आज? शायद भटक गए होंगे.
नवपदार्पण करने वाली जिस कली का टिप्पणी रुपी भ्रमरों ने स्वागत नहीं किया वे अपने पास वाली कली से पूछती होगी; " सखी, आज तुम्हारा स्वागत किसी भ्रमर ने किया कि नहीं?... क्या कहा?... तीन भ्रमरों ने तुम्हारा स्वागत किया! हमारा तो स्वागत किसी ने किया ही नहीं."
टिप्पणी रुपी भ्रमरों के स्वागत करने से खुश हुई कली बोलेगी; " सखी, हम ठहरे काव्य-कली. इन भ्रमरों को हमें स्वागत करने में आराम रहता है न. स्वागत गान बनता है काव्य से कॉपी की हुई चार लाइन और बधाई नामक शब्द को जोड़कर. इसीलिए तीन भ्रमर हमारे सामने स्वागत गान गाकर गए हैं."
भ्रमर भी कैसे-कैसे. आड़े-तिरछे मंडराते हुए. भिनभिनाते हुए. तीस्ता नदी से चंचल.
इनके ये गुण भ्रमरों से जाने क्या-क्या करवाते हैं. देखेंगे भ्रमर चले नवपदार्पण करने वाली कलियों की बाग़ की तरफ. पहुँच गए कहीं और. पुराने बगीचे में. वहां पहले से ही डेरा जमाये धूल समेटे फूलों को निहार हर्ष की गंगा में गोते लगा रहे हैं.
ऐसा भी हो सकता है कि तीन-चार भ्रमरों का एक झुंड नवपदार्पण कलियों के चिट्ठा-बाग़ की तरफ उड़ा. देखा सामने से एक भ्रमर वापसी का टिकट टेंट में दबाये चला आ रहा है. इस झुंड को देखकर पूछेगा; " कहाँ जा रहे हो?"
ये बोलेंगे; "नवपदार्पण करने वाली कलियों का स्वागत करने."
वापसी करने वाला भ्रमर बोलेगा; " उस तरफ मत जाओ. आज इन नवपदार्पण कलियों में काव्य-कली है ही नहीं."
बस. इतना काफी है भ्रमरों के इस झुंड के लिए. झुंड में से एक भ्रमर बोलेगे;" जब नवपदार्पण कलियों में काव्य-कली है ही नहीं तो कौन वहां जाकर इधर-उधर उड़े? खाली-पीली दो-चार मिनट मंडराएंगे और फिर वहां से बिना स्वागत किये ही एक-दो-तीन."
पुरायट टाइप भ्रमरों को ट्राइड एंड टेस्टेड टाइप फूल ज्यादा भाते होंगे. ऐसे फूलों को देखकर भ्रमर बोर भी होंगे लेकिन आदत पुरानी हो गई है. कुछ नया देखना ही नहीं चाहते. कहते हैं; "हमें तो पता है. जिस फूल पर बैठेंगे उसका रंग क्या है? उसका गंध कैसा है? हम तो उसी पर बैठेंगे."
काहे उन्ही पर बैठोगे? नया देखने की इच्छा नहीं होती? गेंदा के फूल का कितना दिन स्वागत करते रहोगे? इतनी सारी कलियाँ चिट्ठा-बाग़ में अवतरित हो रही हैं. उनपर मंडराओ. उन्हें फूल बनाओ. तरह-तरह के रंग लिए, तरह-तरह का गंध लिए इन नवपदार्पण करने वाली कलियों का स्वागत करो.
टिप्पणी रुपी भ्रमर
ReplyDeleteI think the situation टिप्पणी रुपी भ्रमर is too "gay" to give any furthur comment .
लैंगिक विकलांगता टिप्पणी रुपी भ्रमर
ReplyDeleteमैंने तो कभी किसी भ्रमर को टिपण्णी करते हुए नहीं देखा.. यहाँ तो बस फूल ही टिपण्णी करते है जो कल तक खुद कली थे.. कुछ फूल तो इस उम्मीद से कलियों का टिपण्णी से स्वागत करते है कि बाद में यही कलिया जब फूल बनेगी तो टिप्पणियों का ब्याज लौटाएगी.. कलियों पर फूलो की टिपण्णी.. फूलो पर फूलो की टिपण्णी.. बस यही सब होता है इस बाग़ में .. भ्रमर टिपण्णी करते है ये आपका भ्रम है..
ReplyDeleteनोट: फूल अंग्रेजी वाला है अथवा हिंदी वाला, यह पाठक स्वविवेक से तय करे..
आपकी पोस्ट पढ़ कर राजकपूर की फिल्म "प्रेम रोग" में ऋषि कपूर भंवरें की उड़ते हुए गीत" भँवरे ने खिलाया फूल फूल को ले गया राजकुंवर....भूं भूं भूं..." गाते याद आ गए.
ReplyDeleteआपका अपने ब्लॉग के प्रति जो मोह भंग हुआ था लगता है अब ब्लॉग अनुराग में परिवर्तित हो गया है...
आपकी ही मेरे ब्लॉग पर दी टिपण्णी इस पोस्ट को सादर समर्पित है..."बहुत शानदार पोस्ट ! हमेशा की तरह"
नीरज
लो जी हम भी मंडराते हुए आ गए, आखिर इसकी खूश्बू खींच ही लाई:)
ReplyDeleteये क्या हो रहा है मिश्राजी? अब ये भंवरा और फ़ूल और टिपणी ये सब कहां से लेआया. आप तो हमारी भैंस और लट्ठ का जोगाड करवाईये. हम सब देख लेंगें.
ReplyDeleteहम्को इ सब छोटी मोटी भंवरा जैसी चीजे दिखाइ नही दे्ती ना..देखिये हमरी भैंस भंवरे जैसी ही काली और कितनी बडी है.
आप तो चि्ट्ठाजगत को बोल के इनका नाम शामिल करवा दिजिये.
रामराम.
कवि और टिप्पणीकार लिंग भेद नहीं करते।
ReplyDeleteपहले सोचा आपकी तरह "शानदार "जैसी टिप्पणी करके प्रतिशोध ले लूँ .
ReplyDeleteपर यहाँ फूल ,भँवरे ,कलिया पढ़कर डेल्ही-६ का गाना याद आ गया...पुल्लिंग ओर स्त्रीलिंग के फेर में न पडो जी आप..
जो नीरज भाई ने गीत का जिक्र किया है वो मेरे पापाजी का लिखा हुआ है
ReplyDeleteऔर कुश की बात भी सही है -
फूल भी different अर्थ लिये हैँ -
FOOL aur Phool ..
वो भी गुलाब, गेँदा या गोभी का -
-बेचारा भ्रमर कहाँ कहाँ जाये !! :)
:) जोरदार्…॥बहुत ही पैनी द्र्ष्टी और मारक कलम चली है।
ReplyDeleteवैसे असली भँवरा तो हर जगह मडराता है जी।लेकिन जब कभी कोई बड़ा गोभी का फूल सामने आ जाए तो खिसने में ही अपनी भलाई समझता है। अब उसे सिर्फ एक दो फूलों पर तो मडराना नही है कोशिश रहती है सभी की गंध का मजा लिआ जाए। इसी लिए परिचित फूलों पर बैठना ज्यादा भाता है।;)
ReplyDelete"टिप्पणी हुई स्त्रीलिंग. भ्रमर जी हुए पुल्लिंग. ऐसे में टिप्पणी रुपी भ्रमर! "
ReplyDeleteअरे भई, टिप्पणी स्त्रीलिंग है तो टिप्पणा कर लो:)
लिखने का बढिया अंदाज ... अच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteजय हो! क्या लिखा है। ब्लाग अलंकार! कुश की बात हम मान नहीं रहे हैं। आपके ब्लाग आपकी बात सही मानी जायेगी न!
ReplyDeleteचिठ्ठाजगत वाले आज सिर खुजाते पाये गये। भौरों को हटाकर तितलियों को लाने की बारी है, और नवागन्तुक कलियों को सीधे ‘फूल’ [हिन्दी वाला:)] कहे जाने की तैयारी है। अब तितलियाँ फूलों पर बैठकर ब्लॉग रस का आस्वादन करेंगी।
ReplyDeleteसाथ ही लैगिक विकलांगता को दूर करने के अन्य उपायों पर भी मन्त्रणा जारी है। डर है कि रचना जी जैसी टिप्पणीकार (तितली) हाथ से न निकल जाँय।
हा हा हा
ReplyDeleteरोचक विश्लेषण....
मनोरंजक अलंकारों-अनुप्रासों में
तब तो जो लोग अपनी ब्लॊगपोस्ट मेल(ई)से भेजते हैं यह गाना उन पर सही बैठेगा - फूल तुम्हें भेजा है खत में..... [शायद इसी से प्रेरणा लेकर चिट्ठाजगत् ने ब्लॊग को फूल :)कहा है] वस्तुत: वे ईमेल से पनी पोस्ट भेजने वालों पर व्यंग्य कर रहे होंगे। :)
ReplyDeleteमेरी कल वाली पोस्ट पर बहुत कम भ्रमर आए। यदि अनुमति हो तो आपके टिप्पणी रूपी भ्रमर से आरम्भ कर फिर वही पोस्ट चेप कर देखती हूँ कि कितने भ्रमर आपका नाम पढ़ते ही आते हैं। मुझे विश्वास है कि बहुत आँएगे। यदि आपने टोका नहीं तो इसे अनुमति माना जाएगा।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अजी, दू फेरा लउट चुके हैं..
ReplyDeleteजरा स्पष्ट किया जाय.. हम टिड्डों के लिये क्या आज्ञा है ?
टिप्पणी करी कि न करी.. याकि तिलचट्टे की तरह पोस्टिया चाट कर चुप्पै सरक लेई ?
चित्ठाजगत का यह कथन तो नए चिट्ठों की रैगिंग की सलाह देता सा लगता है ! :)
ReplyDeleteग़ज़ब भाई! अदभुत है आपका विश्लेषण. और नीलिमा जी, रैगिंग पर अब प्रतिबन्ध लग चुका है. मालूम है न! वैसे शिवकुमार जी की तो है रैगिंग ही.
ReplyDeleteपोस्ट तो पोस्ट, टिप्पणियाँ पढ़ कर भी आनन्द आ गया :-)
ReplyDeleteमेरे पास भी आती हैं इस तरह के सूचनाएँ. मुझे भी पता है इस बारे में. लेकिन सोचा ही नहीं था कभी इस बारे में लिखना. अब सोचना पड़ेगा..
ReplyDeleteजो कार्य भ्रमर करता है, वही कार्य समीर (हवा) के माध्यम से भी संपादित होता है. मुद्दा है कलियों को फूल बनाने का और नवपदार्पण की संख्या बढ़ाने का-प्रजनन एवं पालन प्रक्रिया सभी मान्य है.
ReplyDelete-बहुत उम्दा एवं सन्नाट लिखा है. काव्य हृदय से अन्य कोई उदगार निकल ही नहीं रहे थे.
ha ha ha ha.....
ReplyDeleteबहुत बढिया!! इसी तरह से लिखते रहिए !
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