Saturday, May 30, 2009

तरही कविता - मंदी के मारे उर्वशी और पुरुरवा

तरही कविता लिखने के दूसरे चरण में इस बार दिनकर जी द्बारा रचित उर्वशी पर नज़र गई. मुझे लगा कुछ तुकबंदी फिर से इकठ्ठा हो सकती है. फिर ट्राई किया तो तुकबंदी इकठ्ठा हो गई. आप झेलिये.

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रात का समय. आकाश मार्ग से जाती हुई मेनका, रम्भा, सहजन्या और चित्रलेखा पृथ्वी को देखकर आश्चर्यचकित हैं. उन्हें आश्चर्य इस बात का है कि मुंबई के साथ-साथ और भी शहरों के शापिंग माल सूने पड़े हैं. मल्टीप्लेक्स में कोई रौनक नहीं है. दिल्ली में कई निवास पर कोई हो-हल्ला नहीं सुनाई दे रहा. लेट-नाईट पार्टियों का नाम-ओ-निशान नहीं है.

पिछले कई सालों से शापिंग माल और मल्टीप्लेक्स की रौनक देखने की आदी ये अप्सराएं हलकान च परेशान हो रही हैं.

सहजन्या

लोप हुआ है जाल रश्मि का, है अँधेरा छाया
रौनक सारी कहाँ खो गई, नहीं समझ में आया
शापिंग माल में लाईट-वाईट नहीं दीखती न्यारी
कार पार्किंग दिक्खे सूनी, सोती दुनिया सारी

तुझे पता है रम्भे, क्या इसका हो सकता कारण?

रम्भा

कैसा प्रश्न किया सहजन्ये, कैसे करूं निवारण?

हो सकता है इसका उत्तर दे उर्वशी बेचारी
पर अब महाराज पुरु की भी दिक्खे नहीं सवारी

सहजन्या

अरे सवारी कैसे दिक्खे, महाराज सोते हैं
मैंने सुना है, वे भी अब तो दिवस-रात्रि रोते हैं
पृथ्वी पर मंदी छाई है, ठप है अर्थ-व्यवस्था
नहीं पता था, हो जायेगी ऐसी विकट अवस्था

मेनका

अर्थ-व्यवस्था की मंदी तो, दुनियाँ ले डूबेगी

सहजन्या

अगर हुआ ऐसा तो फिर उर्वशी बहुत ऊबेगी

महाराज पुरु की चिंताएं उसे ज्ञात हो शायद
दिन उसके दूभर हो जाएँ स्याह रात हो शायद
मर्त्यलोक की सुन्दरता पर मिटी उर्वशी प्यारी
किसे पता था होगी दुनियाँ इस मंदी की मारी?

पता नहीं किस हालत में उर्वशी वहां पर होगी

मेनका

सच कहती है सहजन्ये वो जाने कहाँ पर होगी

सहजन्या

वह तो होगी वहीँ, जहाँ पर महाराज होते हैं
दिन में विचरण करते हैं, और रात्रि पहर सोते हैं
पिछली बार गए थे दोनों, गिरि गंधमादन पर
हो सकता है अब जाएँ वे, किसी धर्म-साधन पर
लेकिन उनका आना-जाना, अब दुर्लभ हो शायद
मंदी के कारण न उनको, अर्थ सुलभ हो शायद

चित्रलेखा

अरी कहाँ तू भी सहजन्ये मंदी-मंदी गाती
महाराज को कैसी मंदी, दुनियाँ उनसे पाती

मेनका

पाने की बातें करके, ये अच्छी याद दिलाई
सखी उर्वशी को क्या मिलता, उत्सुकता जग आई
तुझे याद हो शायद, उसका कल ही जन्मदिवस है

सहजन्या

महाराज क्या देंगे उसको, मंदी भरी उमस है.

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महाराज पुरुरवा के साथ उर्वशी उद्यान में विचरण कर रही है. कल उसका जन्मदिवस है. महाराज चिंतित हैं. उसे इस बार क्या उपहार दें? पिछले बार इक्यावन तोले का नौलखा हार दिया था. पाश्चात्य देशों से मंगाया गया बढ़िया परफ्यूम और चेन्नई से मंगाई गई नेल्ली चेट्टी की साडियां दी थी.

लेकिन इस बार छाई मंदी की वजह से प्रजा से भी धन वगैरह की प्राप्ति नहीं हुई है. खजाने में केवल एक सप्ताह के आयात के लिए ही फॉरेन एक्सचेंज बचा है. ऐसे में इम्पोर्टेड चीजें मंगाकर उपहार स्वरुप उर्वशी को देना संभव नहीं है. महाराज सोच रहे हैं कि उर्वशी कुछ मांग न बैठे. इसलिए वे आज के लिए उर्वशी से विदा होना चाहते हैं.....

पुरुरवा

चिर-कृतज्ञ हूँ, साथ तुम्हारा मन को करता विह्वल
जब से हम-तुम मिले, लगे ये धरा हो गई उज्जवल
मन के हर कोने में, बस तुम ही तुम हो हे नारी
लेकिन हमको करनी है, अब चलने की तैयारी

उर्वशी

चलने की तैयारी! लेकिन क्योंकर कर ऐसी बातें?
चाहें क्या अब महाराज, हो छोटी ही मुलाकातें?
शायद हो स्मरण कि मेरा जन्मदिवस है आया
एक वर्ष के बाद हमारे लिए, ख़ुशी है लाया
पिछले बरस मिला था मुझको हार नौलखा,साड़ी
मैं तो चाहूँ मिले इस बरस, बी एम डब्यू गाड़ी


पुरुरवा

गाड़ी दूं उपहार में कैसे, मंदी बड़ी है छाई
ज्ञात तुम्हें हो अर्थ-व्यवस्था, है सकते में आई
खाली हुआ खजाना मेरा, समय कठिन है भारी
अब तो हमको करनी है, बस चलने की तैयारी

उर्वशी

फिर-फिर से क्यों बातें करते हमें छोड़ जाने की?
जाना ही था कहाँ ज़रुरत थी वापस आने की?
या फिर देख डिमांड गिफ्ट का छूटे तुम्हें पसीना
समझो नहीं मामूली नारी, मैं हूँ एक नगीना

समझो भाग्यवान तुम खुद को, मिली उर्वशी तुमको

पुरुरवा

नाहक ही तुम रूठ रही हो, थोड़ा समझो मुझको

पैसे की है कमी और अब लिमिट कार्ड का कम है
धैर्यवान हो सुनो अगर, तो बात में मेरी दम है
मुद्रा की कीमत भी कम है, ऊपर से यह मंदी
क्रेडिट क्रंच साथ ले आई, पैसे की यह तंगी

उर्वशी

ओके, समझी बात तुम्हारी, मैं भी अब चलती हूँ
वापस जाकर देवलोक में, सखियों से मिलती हूँ
जब तक मर्त्यलोक में मंदी, यहाँ नहीं आऊँगी
देवलोक में रहकर, सारी सुविधा मैं पाऊँगी
थोड़ा धीरज रखो, शायद अर्थ-व्यवस्था सुधरे
हो सुधार गर मर्त्यलोक में, और अवस्था सुधरे
अगर तुम्हें ये लगे, कि सारी सुविधा मैं पाऊँगी
एक मेल कर देना मुझको, वापस आ जाऊंगी


इतना कहकर उर्वशी आकाश में उड़ गई. पुरुरवा केवल उसे देखते रहे.

अब पृथ्वी पर अर्थ-व्यवस्था में सुधार की राह देख रहे हैं. कोई कह रहा था कि अर्थ-व्यवस्था जल्द ही सुधरने वाली है.

16 comments:

  1. मंदी के दौर में लाखों डूब गए हों लेकिन आप को बहुत फायदा हुआ है...आप के दिमाग में कविता लिखने की जो मंदी आयी हुई थी वो छंट गयी...दो दिनों में दो महान कवियों को चुनौती देती कविताओं की रचना कर डाली है आपने...मंदी का ये ही हाल रहा तो हमारा क्या हाल करेगा ये शख्श सोच सोच कर कांप रहे हैं अज्ञेय, निराला और पन्त...क्यूँ की अब लगता है उनकी ही बारी है...हिंदी के महान कवियों की आत्मा की शांति के लिए अब जरूरी हो गया है की मंदी दूर हो...

    बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी...आप का क्या भरोसा इन कवियों के बाद आप कालिदास, तुलसीदास, सूरदास, आदि को लपटते हुए कबीर और रहीम तक भी पहुँच सकते हैं...

    मंदी के असर से अच्छा खासा अर्थ शास्त्री कवि बन गया वो भी बच्चन दिनकर से भी ऊंचा इस से बढ़ कर मंदी में बुरी बात और क्या होगी...

    कुछ भी हो बंधू मंदी के अलीबाबा ने आपकी काव्य प्रतिभा के खजाने पर लगा ताला खोल दिया है...खुल जा सिम सिम...अब काव्य का खजाना पाठकों के सामने आने ही वाला है...सावधान...

    (वैसे आप दिनकर जी की टक्कर का काव्य रच दिए हैं...शायद आपको भान न हो लेकिन हम पहचान लिए है...ये रचना आपको साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान दिलाएगी...याद रहे)
    नीरज

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  2. मंदी के effects और side effects का पुरा खाका खिच दिया सुकन्याओं नें.. बहुत खुब..

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  3. पर अर्थजगत के महापुरुष, तू होता क्यों इतना कातर?
    यह तिमिर छंटेगा मन्दी का, कवियों की ऐसी-तैसी पर! :D

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  4. मंदी के दौर में कविता सुंदर लिखी है। बधाई हो।
    मंदी वास्तव में संकट उपस्थित करती है। ऊपर से तुर्रा ये कि यह बार बार आती है। यह आती है तो उर्वशी को विदा कर जाती है। लगता है यह उस की सौतन है। पुरुरवा को प्रयास करना चाहिए कि यह फिर फिर न आए और उर्वशी उसे छोड़ कर न जाए।

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  5. सही लाइन पकड़े हो, मित्र !

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  6. "रात का समय. आकाश मार्ग से जाती हुई मेनका, रम्भा, सहजन्या और चित्रलेखा पृथ्वी को देखकर आश्चर्यचकित हैं...." यह क्या सिवजी धरती पर इस अंधेरी रात में अकेले चमक रहे हैं:)

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  7. हा हा !
    ये वाला मस्त:
    "पिछले बरस मिला था मुझको, हार नौलखा-साड़ी
    मैं तो चाहूँ मिले इस बरस, बी एम डब्यू गाड़ी"

    और अब दुर्योधन कि डायरी का वो पन्ना भी ले आइये जो उसने मंदी पर लिखा. सुना है बहुत डूबा है उसका भी. मामाश्री ने भी कुछ तिकड़म लगाया ही होगा !

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  8. मदी की ऐसी मार कि अच्छे खासे बन्दे को तरही कवि बना कर छोड़ा. अब मंदी के नुकसान दिखने लगे हैं..याने जोरों पर है मंदी.

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  9. जय हो! शानदार मंदी काव्य।

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  10. मंदी में कविताओं का जम रहा बजार चोखा...

    खूब लिखी कविता, प्रयोग यह भी अनोखा.

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  11. वैसे तरही कविता की तेरही मानाते , परोसी तहरी स्वादिष्ट ही लगी

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  12. सुना है की दुःख achchhe bhale आदमी को kavi bana deti है....
    arth shashtra के bujhakkad हो,इस mandi के दुःख को तुमसे achchha koun जान समझ सकता है...

    लेकिन इस कविता को padhkar तो mandi को भी achchha kahna padega....

    lajawaab लिखा है.....lajawaab !!

    लेकिन मुझे shikayat यह है की iskee bhoomika में jheliye लिख तुमने इसका apmaan किया है...

    iishwar से prarthna है की तुम्हे ऐसे ही लिखने की prerna दिया करें.....
    ऐसे ही sahity की seva करो.....

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  13. पूरे खंडकाव्य की तैयारी कर रखिये...हम अपने खर्चे पर छपवाएंगे...

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  14. भाई मंदी के ऊपर आपका यह चल रहा रिसर्च - पहले श्री बच्चन साहब के अंदाज में, उसके बाद श्री दिनकर जी के अंदाज में. अब किन श्री की बारी है.... पूरा होते होते सच मानिये यह "मंदी-ग्रन्थ" हो जायेगा.

    आपके लिखने के अंदाज और सोच के आगे मैं नत-मस्तक हूँ- गुरु , कमेन्ट क्या करूँ - अच्छा, बहुते अच्छा....बहुते अच्छा टू द पवार ----इन्फिनिते

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  15. छँट जायेगी मंदी वत्स, तेजी फिर से आयेगी
    पुरुरवा की प्रिय उर्वशी बी एम. डब्लू पायेगी ।

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  16. बहुत खूब! जबरदस्त!
    आप धन्य है मित्रश्रेष्ठ.

    आज से आपको ब्लागरश्रेष्ठ भी कहूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

    मंदी महाकाव्य की मार्मिक महागाथा पढ़कर मज़ा आ गया.

    अभिषेक की मांग जायज है मैं भी समर्थन करता हूँ कि दुर्योधन कि डायरी से भी मादी के ऊपर कुछ छापा जाई.

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय