पिछली पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में अभिषेक ने पूछा; "ई क्लाइमेक्स में युधिष्ठिर जी क्या कर रहे हैं?"
अभिषेक जिज्ञासु ब्लॉगर हैं. बाकी के लोग नहीं हैं. इसलिए मैंने सोचा कि अभिषेक की जिज्ञासा का समाधान करना चाहिए. मेरे मन में आया कि; 'कहीं ऐसा न हो कि अभिषेक की जिज्ञासा का समाधान न करने पर एक टिप्पणीकार नाराज़ हो जाए और भविष्य में लिखी जाने वाली पोस्ट पर टिप्पणी ही न करे. ऐसे में हमें तो एक टिप्पणी का नुकशान हो जाएगा न. (इस बात पर स्माईली नहीं लगाऊँगा. यह बहुत गंभीर बात है.)
तो यह रहा अभिषेक की जिज्ञासा का उत्तर.
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युधिष्ठिर के हवाले से हम जानते हैं कि मन सबसे तेज भागता है. क्या कहा? युधिष्ठिर के हवाले से कैसे जानते हैं? अरे, मेरे कहने का मतलब उन यक्ष जी के सवालों को याद कीजिये जो उन्होंने युधिष्ठिर जी के भाइयों से पूछा था. तालाब के किनारे. जहाँ युधिष्ठिर के भाई प्यास बुझाने गए और सवालों का जवाब न जानने के कारण उन्हें मरना पड़ा.
अजीब बात है. जो ज्ञानी नहीं हैं, उनको इस दुनियाँ में जीने का अधिकार नहीं है क्या? लेकिन सवाल तो अपनी जगह हैं. आखिर ऐसा क्यों कि उनके भाइयों को यक्ष द्बारा पूछे गए सवालों के जवाब नहीं मालूम थे? क्या युधिष्ठिर चाहते थे कि उनके पास जितना ज्ञान था, सबकुछ भाइयों को नहीं देना है?
और भी सवाल हैं. आखिर सबकुछ घटने के बाद युधिष्ठिर जी सीन में क्यों आये? वही सबसे पहले पानी लाने क्यों नहीं गए? अगर सबसे पहले वही पानी लाते जाते और ये बखेड़ा ही नहीं होता.
आप अगर यह सोच रहे हैं कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ तो मेरा जवाब है कि मेरे पास भी तो मन है. मन तेज भागा तो यह साब बातें मन में आईं.
आश्चर्य की बात है न? बाकी भाईयों के मन में यह बात नहीं आई लेकिन युधिष्ठिर के मन में ही क्यों आई?
शायद इसलिए की अज्ञातवास के दौरान बाकी के भाई तो काम-वाम करते थे. जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके लाते थे. खाना बनाते थे. झाडू वगैरह देते थे और युधिष्ठिर आराम से बैठे रहते थे. भीम से पाँव दबवाते थे सो अलग. जो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्म कूट-कूट के भर जाता है. तब वह सरल टाइप कुछ सोचता ही नहीं. जब भी सोचता है, गूढ़ ही सोचता है. उसके लिए भोजन और भाषण के अलावा आध्यात्म का सहारा रहता है.
लेकिन मन के तेज भागने वाली बात युधिष्ठिर को किसी ने बताई थी या फिर उन्होंने खुद से जान लिया था? अगर किसी ने बताई होगी तब तो ठीक. लेकिन अगर उन्होंने खुद ही पता लगाई होगी तो कैसे?
शायद ऐसा कुछ हुआ हो.
एक दिन आराम करते-करते युधिष्ठिर थक गए होंगे. थक गए तो उठकर बैठ गए होंगे. बैठे-बैठे बोर हो गए होंगे. बोर होते-होते सोचा होगा कि; "बोर क्यों होना? जब बैठे ही हैं तो कुछ सोच डालते हैं."
बस उन्होंने सोचना शुरू कर दिया होगा; ' अज्ञातवास ख़त्म होने दो, वापस हस्तिनापुर जायेंगे. कृष्ण को बुला लेंगे. उनके साथ बैठकर प्लान बनायेंगे. पहले सीधे-सीधे युद्ध नहीं करेंगे. पहले पाँच गाँव मांगेंगे. दुर्योधन है तो काइयां, इसलिए आराम से तो देगा नहीं. गाली-वाली बकेगा ऊपर से. उसकी वोकावुलरी कित्ती तो खराब है. उसके 'लुक्खेपन' की वजह से हम जनता की सारी सहानुभूति इकट्ठी कर लेंगे. जनता को बताएँगे कि देखो, ये दुर्योधन हमें गद्दी तो छोडो, पाँच गाँव भी नहीं दे रहा. युद्ध की पचास प्रतिशत भूमिका केवल इसी बात पर तैयार कर लेंगे. युद्ध शुरू हो जायेगा तो कौरवों के महारथियों को एक एक करके रास्ते से हटाते जायेंगे. गुरु द्रोण से भी थोडा झूठ बोलना पड़े तो चलेगा. आख़िर युद्ध में सब कुछ जायज है.'
यह सोचते-सोचते अचानक युधिष्ठिर ने यूरेका-यूरेका चिल्लाना शुरू कर दिया होगा. द्रौपदी ने चेहरे पर आश्चर्य के भाव रखकर पूछा होगा; "आप यूरेका-यूरेका नामक गीत क्यों गा रहे हैं, हे आर्यपुत्र?"
युधिष्ठिर ने बताया होगा कि; "प्रिये अभी-अभी मुझे पता चला कि मन सबसे तेज भागता है."
यह सुनकर द्रौपदी जी ने कहा होगा; " ओह. पता चल गया. बहुत बढ़िया बात. अब इसे याद रखियेगा. जब यक्ष प्रश्न करेंगे तो फट से जवाब दे दीजियेगा."
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तो भइया अभिषेक, युधिष्ठिर जी के बहकावे में आकर हम दुपट्टा चोरी काण्ड पर अपने मन को यहाँ-वहां, जहाँ-तहाँ दौड़ा दिए थे.वैसे यक्ष जी ने और भी प्रश्न पूछे थे. उन प्रश्नों के ऊपर भी कभी मन दौड़ाया जाएगा....:-)
अभिषेक तो खैर जिज्ञासु हैं ही और अब शायद जिज्ञासा के समाधान से कुछ और जिज्ञासा उत्पन्न कर लिए हों तो आवेंगे फिर से मगर हम तो बस यह नोट कर के ले जा रहे हैं:
ReplyDeleteजो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्म कूट-कूट के भर जाता है.
-धन्य हुए. आभार अभिषेक का ही, उनकी वजह से ही तो यह ज्ञान मिला.
बड़ी आध्यात्मिक पोस्ट है। उतनी आध्यात्मिक पहली टिप्पणी है! लेकिन आपने पिछली पोस्ट में रचनाकी के आध्यात्मिक प्रश्नों का जबाब नहीं दिया। :)
ReplyDeleteआध्यात्मिक टिप्पणी हमें भी पसंद आई।
ReplyDeleteहमारा सप्लीमेण्टरी आध्यात्मिक प्रश्न:
ReplyDeleteमन तेज डोलता है कि दुपट्टा?
"जो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्म कूट-कूट के भर जाता है."
ReplyDeleteजे बात! वही मैं सोच रहा था कि आज कल मैं आध्यात्मिक टाईप क्यों होता जा रहा हूं । अब समझ में आया ।
वैसे ज्ञान काका मन से तेज गति तो दुपट्टे की होती है । ऐसा नहीं होता तो काहे कोई नायिका का दुपट्टा ले उड़ता ।
हमारा दूसरा सप्लीमेण्टरी आध्यात्मिक प्रश्न:
ReplyDelete"इतने आराम के बाद भी आधा हिंदुस्तान ज्ञानी क्यों नहीं हुआ ?"
आपने एक टिप्पणीकार को खुश करने के लिए कह दिया है कि बाकी के लोग जिज्ञासु नहीं ! ये अच्छी बात नहीं ! जो पहले ही सब जानते हैं वे भला क्या जिज्ञासा प्रकट करें :)
ReplyDeleteआभार शिव भाई ..
ReplyDeleteये मन
बहुत बुरा हो जाता है \
कभी कभी :)
- लावण्या
"जो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्म कूट-कूट के भर जाता है."
ReplyDeleteचलो जी अब हमें यह तो पता चल ही गया कि हम वास्तव में अब अध्यात्मिक हो चुके हैं।तभी अपना यह हाल है:))
कर्म नहीं, यह काम का महत्व समझनें का ही परिणाम है कि दुनिया समेत भारत में कामियों की बाढ़ आगयी है।
ReplyDeleteआभार रहेगा इस पोस्ट के लिए. अब तो ऑब्लिगेशन हो गया है हर पोस्ट पर टिपण्णी करने का. (अब बताइए इस सिरियर इसु पर क्या इस्माइली लगायें).
ReplyDeleteक्षमा याचना सहित: ज्ञान भैया के सवाल में फंडामेंटल मिस्टेक लगता है. दुपट्टा तो उड़ता है, डोलता नहीं. हाँ (कभी-कभी) मन के डोलने का कारण बन जाता है. वैसे डोलता तो तन और मन है वो भी जब कोई बांसुरी बजाता है (भले ही ओरिजनल में बांसुरी की जगह बीन बज रहा हो.) 'रेफेरेंस:मेरा तन डोले, मेरा मन डोले....' लीजिये हम भी क्या क्या लिखे जा रहे हैं. अब समझ में आया... सब युधिष्ठिर का दोष है :)
वैसे युधिष्ठिर ने ये भी कहा 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' अब महाजन से महापुरुष कह रहे थे या 'महाजन/सेठ' ये तो वही जानें. फ़िलहाल हम तो आपको ही फोलो कर रहे हैं.
ज्ञान प्रदान करने के लिए धन्यवाद महोदय...
ReplyDeleteयुधिष्ठिर वही थे न...कौशल्या के दामाद!!!
हे भगवान ,युद्धिष्ठिर , यक्ष-यम् और शिव जी ! बम भोले !
ReplyDeleteआज आपकी पोस्ट से सीखा के आध्यात्म कैसे और किन लोगों में जागृत होता है।
ReplyDeleteसही बात है । यदि युधिष्ठिर ज्ञान बाँटते रहते तो यह स्थिति उत्पन्न न होती । खतरा और भी था कि यदि भाईयों को बता देते तो भाई लोग मन दौड़ाते रहते और उद्देश्य से भटक जाते ।
ReplyDeleteइस घटना में एक और गलती हुयी । जब पहला भाई वापस नहीं आया तभी सोचना था कि मुसीबत एक की बस की नहीं है, ऐसी दशा में तीनों को एक साथ भेज देना था । सभी साथ में रहने से उत्तर ढूढ़ने की सम्भावना बढ़ जाती है । यदि उत्तर फिर भी गलत होता तो भी मरता एक ही, पर प्रश्न तो ’आउट’ हो जाता । लौटकर युधिष्ठिर से ज्ञान लेकर कोई भी उत्तर देने जा सकता था या युधिष्ठिर स्वयं जा सकते थे । तब भी दो की बचत होती ।
पूरे महाभारत में देखें तो आध्यात्मिक अवस्था में युधिष्ठिर कई जगह पर व्यवहारिकता का उपयोग करने में चूके हैं ।
हमने भी सिद्ध कर दिया कि सच में मन बहुत तेज दौड़ता है ।
हमें नहीं पता कौन भागता है कौन डोलता है क्यों डोलता है.. हम तो बस पढ़ने के मजे ले रहे हैं...
ReplyDeleteआज मन की सारी शंका कुशंकाए दूर हो गई. आज मन निर्मल होगया है.
ReplyDeleteरामराम.
अभी अभी हम अपना मन दौडाए और एक जिज्ञासा पैदा हुई...पूछिए क्या...मत पूछिए हम बताये बिना थोडी मानेंगे...की.. ये जो आप युधिष्टर के बारे में इतना कुछ जानते हैं इसका कारण ये तो नहीं की आप वर्तमान में उनके अवतार हैं...अंग्रेजी में बोले तो RE INCARTATION OF Mr.YUDHISHTAR...अब हमारा मन तो ऐसी ऊटपटांग विषयों के बारे में ही सोचता है... क्या करें... पर हमारी सोच कहीं सच तो नहीं...आप बताईये ना.
ReplyDelete"जो ज्ञानी नहीं हैं, उनको इस दुनियाँ में जीने का अधिकार नहीं है क्या? लेकिन सवाल तो अपनी जगह हैं."
ReplyDeleteऔर शायद इसका जवाब भी युधिश्टर के पास नहीं है:)
जब यूरेका-यूरेका कह रहे थे तो क्या युधिष्ठर भी आर्केमेडिस की अवस्था में थे???????
'..पहले पाँच गाँव मांगेंगे. दुर्योधन है तो काइयां, इसलिए आराम से तो देगा नहीं. गाली-वाली बकेगा ऊपर से. उसकी वोकावुलरी कित्ती तो खराब है. उसके 'लुक्खेपन' की वजह से हम जनता की सारी सहानुभूति इकट्ठी कर लेंगे. जनता को बताएँगे कि देखो, ये दुर्योधन हमें गद्दी तो छोडो, पाँच गाँव भी नहीं दे रहा.'
ReplyDeleteयुधिष्ठिर का ये रूप हमने सपने में नहीं सोचा था. घर में बढे होने के फायदे तो अनेक होते हैं उनमे से एक ये भी है..
इमेगिनेशन के घोढ़े दौधा के देखा युधिष्ठिर मुंडेर पे बैठ के, नज़रे ज़मीन पे गढ़ा के, अजीब अजीब शक्लें बना के ये सब सोच रहा है..
हँसते हँसते लोट पोट हो गए
आगे से ऑफिस में आपका ब्लॉग पढना नुक्सान पंहुचा सकता है.
ये बात बिलकुल सही है, की बिलकुल खाली आदमी ही इतना सोचने की क्षमता रख सकता है. एकबार श्री प्रसून जोशी जी ने अपने साक्षात्कार में कहा था अच्छी इमेगिनेशन के लिए इंसान को एकदम बेकार होना ज़रूरी है.
खली दिमाग antenna की तरह होता है जिसमे चमत्कारी विजंस(visions) आते रहते हैं.
और तभी से हमने भी खाली बैठना शुरू कर दिया. हलाकि हमारा antenna अभी इतना डेवेलप नहीं हुआ है.
पर आपका ब्लॉग पढ़ पढ़ के अपनी नहीं तो आपकी कॉपी करने लगेंगे!
एक बार फिर नमन करते हैं!
प्रणाम गुरुदेव!