"यदि आज ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह बीस-पच्चीस साल बाद भी पढ़ा जाता रहे, तब इस पर विचार किया जा सकता है कि वह साहित्य कहलाने लायक है या नहीं।"
इसपर दो मत नहीं हो सकता कि ऊपर लिखी गई बात भी साहित्य को नापने का एक पैमाना है. लेकिन यह मान्यता कब की है? पुरानी है. जब साहित्य के बारे में यह मान्यता उभरी, उनदिनों में और आज के दिनों में बहुत अंतर है. पहले शिक्षा और ज्ञान की उम्र बहुत लम्बी होती थी. लेकिन आज ऐसा नहीं है. तकनीक के विकास की वजह से ज्ञान या शिक्षा की उम्र धीरे-धीरे घटती जा रही है.
एक शिक्षा या ज्ञान लेकर शिक्षण संस्थाओं से निकलने वाला छात्र देखता है कि कुछ ही वर्षों में उसके ज्ञान को तकनीकी विकास के दौर में किसी और ज्ञान ने रिप्लेस कर दिया.इसके अलावा ज्ञान और शिक्षा के माध्यम भी बदल गए हैं.
आप कंप्यूटर को ही ले लीजिये. कंप्यूटर के क्षेत्र में हर एक-दो वर्ष में कोई नई भाषा आकर पुरानी भाषा को रिप्लेस कर रही है. कंप्यूटर के अलावा आप शिक्षा के किसी भी और डिसिप्लिन को ले लीजिये, वह चाहे इंजीनियरिंग हो, मेडिकल हो,अकाऊंटिंग हो, आर्ट हो, सिनेमा हो, या फिर कुछ और, हर क्षेत्र में बदलाव बड़ी तेजी से हो रहे हैं.
ऐसे में बदलाव से साहित्य अछूता कैसे रह सकता है?
बालसुब्रमण्यम जी ने खुद लिखा है कि कैसे पहले राहुल साकृत्यायन और किपलिंग के साहित्य की गिनती अच्छे साहित्य के तौर पर होती थी लेकिन बाद में पुनर्विचार के बाद इन लोगों की कृतियों को खारिज कर दिया गया. मेरा प्रश्न यह है कि अगर इन साहित्यकारों की कृतियों पर पुनर्विचार के बाद इन्हें खारिज किया जा सकता है तो फिर साहित्य की मान्यताओं पर क्या पुनर्विचार भी नहीं किया जा सकता?
पहले साहित्य को सहेजने के साधन क्या थे? किताब की शक्ल में साहित्य लिखा जाता था. शोध-कार्यों को भी सहेज कर रखने का जरिया भी किताबें ही थीं. वहीँ दूसरी तरफ ब्लॉग जहाँ पर लिखा जाता है वह माध्यम ही रोज बदलता रहता है. हो सकता है कि हमें कल कोई और माध्यम मिले जिसपर लोग ब्लॉग लिखें. हम विचार करें तो शायद इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि असल में ब्लॉग का आईडिया ही व्यावसायिक है. और चूंकि व्यवसाय के काम में लाया जानेवाला आईडिया समय-समय पर बदलता रहता है इसलिए हो सकता है कि कल ब्लॉग का आईडिया ही पूरी तरह से डिस्कार्ड कर दिया जाय. ब्लॉग को कोई और माध्यम रिप्लेस कर दे.
पुराने साहित्य-लेखन पर व्यावसायिक होने का तमगा कभी नहीं लगा सिवाय इसके कुछ प्रकाशक और लेखक साहित्य को कोर्स की किताबों के तौर पर चलवाने के लिए कुछ करते रहते थे. वहीँ आज के साहित्यकारों को देखिये, कितना पैसा मिलता है इन्हें. तो क्या व्यावसायिक होने का बहाना बनाकर इनके साहित्य को खारिज कर दिया जाय?
कोई भी कह सकता है कि जो कुछ पहले लिखा गया और अभी तक पढ़ा जा रहा है, वही असली साहित्य है और आज के साहित्यकार जो लिख रहे हैं, चूंकि उसके आज से पचास साल बाद भी पढ़े जाने की गारंटी नहीं है, लिहाजा उनके द्बारा लिखे जाने वाले साहित्य को साहित्य ही न माना जाय. कालजयी लेखन के चक्कर में आज का साहित्यकार अपने समय के समाज और अपने समय की राजनीति के बारे में बात ही न करे तो फिर उसके साहित्य का समाज के लिए क्या फायदा?
हिंदी ब्लागिंग में ही न जाने कितने लोग हैं जिन्होंने लिखना शुरू किया तो देखकर लगा कि बहुत अच्छा लिखते हैं. लेकिन वही लोग अब लिखते ही नहीं. ऐसे में उनका लिखा हुआ लोग आज से बीस साल बाद भी याद रखेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. लेकिन ब्लागिंग छोड़ने से पहले उन्होंने जो कुछ भी लिखा, उसे न सिर्फ किताब की शक्ल दी जा सकती है बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि वह सारा कुछ लोक हितकारी है और शायद आज से बीस साल बाद भी लोग उसे पढ़ना चाहें. ऐसे में ब्लागिंग छोड़ने से पहले उनलोगों ने जितना लिखा, उसे क्या साहित्य नहीं कहा जा सकता?
इसके अलावा शिक्षा के माध्यमों में जिस तरह का बदलाव आ रहा है, हो सकता है कल को शिक्षण संस्थायें कुछ ब्लॉग लेखकों के ब्लॉग को अपने पाठ्यक्रम में ले आयें. आखिर जब फिल्मों को साहित्य के पाठ्यक्रम में रखा जा सकता है तो उसी तरह ब्लॉग को भी तो रखा जा सकता है.
ब्लॉग को साहित्य कहा जाय या नहीं, इस बात पर बहस करना शायद अभी ठीक नहीं होगा. हाँ, जैसा कि हाल ही में सुना गया है, कुछ संस्थायें इन्टरनेट पर हिंदी साहित्य को उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत हैं. जब हिंदी साहित्य का एक बड़ा भाग नेट पर उपलब्ध होगा और जब ब्लॉग और साहित्य के पाठक एक ही होंगें, तब शायद यह बहस ही बेमानी हो जाय. तब पाठक खुद ही पता लगा लेगा और एक निर्णय पर पहुंचेगा कि ब्लॉग पर जो कुछ भी लिखा जा रहा है वह सब साहित्य है या नहीं? या फिर उसका एक हिस्सा ऐसा है जिसे साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है.
आखिर सच तो यही है न कि आज साहित्य और ब्लॉग के पाठक बहुत हद तक अलग-अलग हैं.
शिवजी, आपका प्रतिउत्तर मुझे पसंद आया। साहित्य ठहर गया है। साहित्य में कहीं कोई बदलाव नहीं आ रहा है। हमारे बीच आज भी वही बूढ़े लेखक-साहित्यकार अपनी-अपनी बकबासें लिख रहे हैं। अब उन्हें न पढ़ने का मन करता है न ही उनके प्रति मन में कहीं कोई आदर-सम्मान ही बचा रहा है।
ReplyDeleteब्लॉग और ब्लॉगिंग साहित्य से कहीं बेहतर तकनीक और अभिव्यक्ति का माध्यम है।
हां, एक जरूरी बात हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा कुंठित साहित्यकार मौजूद हैं।
यदि पत्र-पत्रिकाओं में छपी सामग्री साहित्य है तो ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री भी साहित्य से इतर कुछ भी नहीं है.
ReplyDeleteक्यों इस पचडे़ में पड़े कि साहित्य क्या है? और ब्लोग क्या है.. क्या साहित्य कि कोई परिभाषा हो सकती है या क्या इसे परिभाषा में बांधा जा सकता है... कतई नहीं जो आपके लिये साहित्य है वो मेरे लिये कुड़ा हो सकता है और जो आपके लिये कुड़ा हो वो मेरे लिये साहित्य.. किसी को साहित्य कहने न कहने का कोई सर्वमान्य आधार नहीं.. क्यों हम छड़ी लेकर नापते है और किसी को तय खानों में फिट करने कि कोशिश करतें है.. जो है वो है.. जो जैसा है उसे वैसा रहने दें..
ReplyDeletevartmaan daur me bloging se behtar any koi maadhyam aisaa nahin hai jo janmaanas par apnaa prabhaav ankit kar sake
ReplyDeletejis prakar kabhi kabhar sahityakaar vaar tyohar
sangoshthiyan karte the aur aapas me sahitya-charcha karte the usee prakaar bloging ko bhi samajhna chaahiye ....ye vo sangoshthi hai jo akhand hai, aviral hai aur 24 ghante jaari hai
jab, jiske man me jo bat aaye, vo kah sakta hai aur har blogar ko us par bebaak rai dene ki suvidha bhi hai
मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद कोई मेरा लिखा हुआ कुछ पढ़े (खबरदार, यदि मेरे लिखे हुए को साहित्य-वाहित्य कहा तो), मैं तो चाहता हूँ कि लोग आज ही पढ़ लें, अभी पढ़ लें, फ़िर अगले मुद्दे पर आ जायें… पोथी.कॉम पर भी सुविधा है, जिसे अपने ब्लॉग को "साहित्य" की शक्ल देना है वह उधर भी जा सकता है।
ReplyDeleteयदि साहित्य का मतलब बोझिल सी दार्शनिक और आलंकारिक भाषा में लिखा गया कुछ "ऐसा-वैसा" ही है तो मैं कभी भी साहित्यकार कहलाना पसन्द नहीं करूंगा… मैं तो चाहता हूँ कि मेरे लिखे हुए को आम आदमी पढ़े, समझे और उसे आगे बढ़ाये… न कि मोटी-मोटी किताबों में गिरफ़्तार करके आलमारियों में बन्द कर दे, जिसे 1000 में से 4 लोग पढ़कर यह सोचें कि "मैं तो धन्य हो गया तथा बाकी की दुनिया कीड़ा-मकोड़ा ही है…"।
साहित्य क्या है...???इस प्रश्न का उत्तर दें तब बात समझ में आये...कहते हैं की साहित्य समाज का दर्पण है...तो ब्लॉग क्या है...क्या ये दर्पण नहीं है...समाज की कौनसी बात है जिसकी इसपर चर्चा नहीं होती...हर बात पर होती है...इस लिए ब्लॉग भी साहित्य है...बात ख़तम...बहस के लिए और कोई मुद्दा नहीं है क्या आजकल जो लोग ब्लॉग लेखन पर बहिसेया रहे हैं...
ReplyDelete(क्या दुर्योधन की डायरी साहित्य नहीं कहलाएगी...??जवाब दें. साहित्य है शत प्रतिशत है...अजी शताब्दियों तक लोग उसे पढेंगे और कहेंगे ब्लॉग पर उस ज़माने में क्या धाँसू साहित्य लिखा जाता था)
नीरज
पंडित जी इसे साहित्य की बजाय विचारो की अभिव्यक्ति ही कहना उचित होगा.
ReplyDeletesabne aur aapne khud itna kah diya ki jaroorat to nhi hai kahne ki magar sahitya insaan ne banaya hai sahitya ne insaan ko nhi.
ReplyDeleteabhi kuch din pahle aise hi kisi ne kuch kaha tha to maine isi par ek rachna likhi thi........har insaan mein hai sahityakar chupa.
aap ise padhiyega.
vandana-zindagi.blogspot.com
redrose-vandana.blogspot.com
तुमने और कुछ कहने की गुंजाईश ही नहीं छोडी...क्या कहूँ.....
ReplyDeleteआज ब्लॉग पर लगभग सभी विषयों पर बड़े ही विशिष्ट कार्य किये जा रहे हैं, ज्ञान तथा जानकारियों का प्रसारण किया जा रहा है,जो की आज भी और आने वाले समय में भी बहुतों के लिए रेफरेंस पॉइंट बनेगा....
यह सही है की ब्लॉग पर पोस्ट की जाने वाली हर पोस्ट साहित्य की श्रेणी का नहीं है...परन्तु जो सुन्दर है,कल्याणकारी है,मार्गदर्शक है,उत्कृष्ट है,उसे साहित्य नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे.......
लाजवाब ....सारगर्भित सार्थक आलेख के लिए वाह.....
देखोजी जो मन और दिल दिमाग को अच्छा लगे वो साहित्य. बाकी सब फ़ालतू की बाते हैं. जिसका दाम्व चलता है वो ही कभी साहित्य घोषित हो जाता है और बाद मे वो ही असाहित्यिक घोषित कर दिया जाता है. तो बेहतर है जो जनता मान ले वो ही साहित्य है बाकी सब रामराम.
ReplyDeleteरामराम.
अभी अभी ब्लॉग जी की प्रतिक्रिया हमें प्राप्त हुई है . कहते हैं :
ReplyDeleteमैं ब्लॉग हूँ . मुझे ब्लॉग ही रहने दिया जाय . मुझे साहित्य बनाने की कोशिश न की जाय . मैं साहित्य बनकर अपनी पहचान नहीं खोना चाहता . होगा साहित्य अपनी जगह महान . पर मुझे महानता से अधिक अपनी पहचान प्रिय है !
बीस-पच्चीस साल का पैमाना क्यों? अब इसे साहित्य मानें या ना मानें पर ब्लॉग पर फ़िलहाल काफी कुछ बेहतरीन, उपयोगी और स्तरीय लिखा जा रहा है.
ReplyDeletehindi bloging kaa str kab sae giraa
ReplyDeletejab sae saahitykaar hindi kae yahaan aayae . bas itna hii
Test Match >> 50-50 >> 20-20
ReplyDeleteBasic Phone >> Pedger >> Mobile
Radio >> Music System >> Walkman>> Ipod
Blogger >> Twitter
मैंने भी बाला जी का लेख पढा़ और उस पर प्रतिक्रिया भी दी. ब्लाग एक बेहतरीन साधन है अभिव्यक्ति और त्वरित प्रतिक्रिया का. जो बढ़िया होगा वही पढा़ जायेगा. कालिदास और तुलसी बाबा तो हर कोई नहीं हो सकता. मुझे तो आपके व्यंग्य भी साहित्य ही लगते हैं.
ReplyDeleteब्लॉग का पाठ्यक्रम में तो इस्तेमाल होने ही लगा है. अभी एक आईआईएम् में एक 'रीसेंट डेवेलपमेंटस' जैसा कोर्स होता है जिसमें बड़े अर्थशास्त्रीयों के ब्लॉग भी पढने होते हैं. पॉल क्रुगमैन और बैरी रितोल्ज़ जैसे कुछ लोगों के ब्लॉग तो विश्वविद्यालयों में बहुत ज्यादा लोग पढ़ते हैं. चर्चा भी होती है और उन पर केस स्टडी भी बनाई जाती है.
ReplyDeleteआपके तर्क अच्छे है. मजबूत है.
ReplyDeleteअपनी कहूँ तो इस फेर में बिना पड़े की ब्लॉग साहित्य है या नहीं लिखते रहना चाहूँगा. साहित्य की किसे पड़ी है? :) जिन साहित्यकारों को परेशानी है, तर्क-कुतर्क करते रहे हम ब्लॉगरों की बला से :)
साहित्य कहीं भी छप सक सकता है, किताब में भी ब्लॉग में भी। बस उसे मानदण्ड पूरे होने चाहिए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सामयिक और अच्छी चर्चा हुई। आभार।
ReplyDeleteअच्छा लिखा। धन्यवाद।
ReplyDeleteएक ही कविता अलग अलग उम्र के दौर पे अलग अलग अर्थ की व्याख्या करती है ....धर्मवीर भारती का सत्रह की उम्र में पढ़ा हुआ" गुनाहों का देवता "अब शायद बचकाना लगे तब उसने किंतनी थ्रिल दी थी.....
ReplyDeleteमनीषा कुलश्रेष्ट जी ने कभी कही लिखा था ...
इन्टरनेट पे हिन्दी साहित्य के लिए कोई खास छलनी नहीं है ,कोई क्वालिटी कंट्रोल नहीं ,अभिव्यक्त करना कितना आसान की चार पंक्तिया लिखी ओर ठेल दी सच कहा था उन्होंने ...
किसी चीज को ड्राफ्ट करके लिखने .बार बार उससे गुजरने ओर अचानक मन में आई किसी अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करने में कुछ फर्क तो होता ही है....एक ओर पेशेवर लेखक ओर दूसरी ओर कामकाजी दुनिया के गैर पेशेवर लेखक....फर्क तो होना लाजिमी है ....साहित्य दरअसल किसी समय का दस्तावेज है ओर एक सोच की खिड़की है जो एक नए आसमान में खुलती है...धूमिल के शब्दों में कहे तो
अकेला कवि कटघरा होता है
ओर कविता
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े
बेक़सूर आदमी का हलफनामा
लेखक कुछ बदल नहीं सकता ,पर छटपटा सकता है ..आपकी आत्मा को जगाये रखने में मदद कर सकता है ...कुछ उपन्यास कुछ किताबे जप हम बचपन में पढ़ते है ..हमारी सोच को एक नया आयाम देते है .हम उससे सहमत हो या न हो...पर जीवन के एक पहलु से हम रूबरू होते जरूर है....प्रेमचंद्र की "मन्त्र "हो या रेनू की "मैला आँचल "...मंटो की "बाबा टेक सिंह "हो या भीष्म सहनी की "तमस" .....श्री लाल शुक्ल का "राग दरबारी "हो या मंजूर अह्तेषम का "सूखा बरगद "
सब आपको बड़ा करने में आपकी मदद करते है .....भले ही आप उसे माने या न माने ...
नेट एक चाभी है जिससे आप पल भर में दुनिया के दुसरे दरवाजे पे पहुँच जाते है ....ओर दो मिनटों बाद आपको प्रतिक्रिया भी मिल जाती है ...शायद संवाद का एक बेहतर जरिया ....पर यहाँ एक विचार की उम्र कम होती है चौबीस घंटे ...या शायद कुछ ज्यादा .......जाहिर है इसके नुकसान भी है फायदे भी....जिस तरह साहित्य में सब कुछ अच्छा नहीं होता वैसे ही ब्लॉग में सब कुछ लिखा अच्छा नहीं होता .आप अपने स्तर का अपनी पसंद का ढूंढ ही लेते है .....
वाही कीजिये .इन्तजार कीजिये .शायद भविष्य ओर बेहतर हो......
Blog par jo bhee likha jaa raha hai vah sab saahitya hee hai. Ismen shanka ki gunjaaish nahi honi chaahiye. Haan stareey hai ya ghatiya ya ausat ispar vivaad ho sakta hai
ReplyDelete
ReplyDeleteअच्छा लिखा। धन्यवाद।
कोई मुझे साहित्य की स्पष्ट परिभाषा बतलाने का कष्ट करे तो आजीवन आभारी रहूँगा और आगे से लेखन को उस परिभाषा की कसौटी में कस कस कर निचोड़ कर ब्लॉग को अरगनी मान सूखने फैला दिया करुँगा. जब हिट्स की चटक धूप में सूख जायेगा तो प्रतिक्रियाओं में मिले अंगारों को इस्तेमाल कर इस्त्री करके किताब की शक्ल में लाऊँगा..सब करुँगा..बस कोई मुझे साहित्य की स्पष्ट परिभाषा बतलाने का कष्ट करे.
ReplyDeleteसाहित्य न हुआ, बीरबल की खिचड़ी हो गई-किसी को पता ही नहीं कितना पकाना है. कभी जैसे राहुल साकृत्यायन और किपलिंग को कह दिया कि पक गई पक गई..अभी खाये भी ठीक से नहीं कि कहने लगे नहीं पकी, नहीं पकी. मजाक बना कर रख दिया है. क्यूँ?
हे प्रभु, क्या जमाना आया है कि अब चार लोग चश्मा लगा कर बतायेंगे कि क्या साहित्य है और क्या नहीं..पाठक क्या घास छिलने को बनें हैं.
मानो आप हमें चपत लगा लगा कर साहित्य रचवा भी लो सिखा पढ़ा कर-फिर पाठक, उनको भी चपत लगाओगे क्या कि चल अब पढ़ इन्हें, ये साहित्यकार हैं. जी लेने दो, महाराज और आप भी जिओ. समय सबके पास लिमिटेड है, लेखक के पास भी और पाठक के पास भी, उस पर से बीच में बैठे आप छाना बीनी में लगे हैं, जबकि सबसे कम समय आप ही के पास है (औसत के हिसाब से):). ये सब छोड़ कर, माना आप ही कागज लुग्दी में साहित्य रच रहे हो, तो रचते काहे नहीं भई. यहाँ क्या करने तराजू लिये चले आ रहे हो? यहाँ तो इलेक्ट्राँनिक तराजू है. बटन दबाओ, झट छपो और पाठक बोले. कागज लुग्दी वाला बट्टा बाट और काँटा मारी की कम ही गुंजाईश है, इससे तो परेशान नहीं हो गये कहीं.
खैर जो मन आये सो करो. हमारे शिव बाबू हम सब की बात कह दिये हैं. वे सो गये हैं और अब हम भी चले सोने!! राम राम जी की!!
शिव जी, प्रश्न गंभीर है और मुद्दा गरम..डर ये है कि ,जो हमारे लिखे को साहित्य नहीं मानते वो हमारी टिप्पियों को क्या समझेंगे ..
ReplyDeleteवैसे मुझे लगता है कि ब्लॉग्गिंग पर इस तरह के प्रश्न इसलिए उठाये जाते हैं क्यूंकि उसका दायरा साहित्य से कहीं व्यापक है..अब आप ही देखिये न ..यहाँ एक चित्र ....जो कह जाती है..चित्र तो अखबार, पत्रिकाओं में लगते हैं मगर उन्हें देख कर लोग क्या सोचते हैं कहते हैं वो सामने कहाँ आ पाता है , जबकि ब्लॉग जगत में ..तो असली दास्ताँ ही वही से शुरू होती है ..और फिर क्या इस बात से कि वे कहीं छपे नहीं..क्या वे साहित्य होने से वंचित हो जाते हैं..ये तो भविष्य बताएगा कि ..कौन कहाँ है ..मगर इतना जरूर विश्वास है कि एक न एक दिन हिंदी ब्लॉग्गिंग वो मुकाम जरूर हासिल कर लेगी...जहां उसे दरकिनार नहीं किया जा सकेगा...और मुझे उस दिन का इंतज़ार रहेगा...
ब्लॉग साहित्य है या नहीं , यह मुद्दा सिर्फ मठाधीश उठा रहे हैं .उनका धंधा खतरे में है .यहीं पर सार्थक टिप्पणीयों में काफी कह दिया गया है.
ReplyDeleteब्लॉग अपने आप में बहुत कुछ हैं .सूचना से लेकर अभिव्यक्ति तक . साहित्य और क्या होता है ? और होता है तो इन पकाने वालों से कोई पूछे की परोसा जा रहा है जो और जिसे वे साहित्य कह रहे हैं उसे आप के अलावा कौन साहित्य मान रहा है.
कचरा छप भी सकता है , छपता भी है और साहित्य भी . उसी तरह ब्लॉग पर भी . यह बस अलग माध्यम मिला है मंच मिला है . इसमे भी यही सब है .तो बात अलग माध्यम और उसकी संभावनाओं पर हो तो बात भी है . उस पर छपे लिखो को सिर्फ माध्यम के चलते कोई नकारे तो भैय्या ताम्र पात्र पर भी कचरा और शिला लेख पर भी लीद की जा सकती है.
और मैं बहुत धंधे बाजों को ,जिनका काम ही लेबल लगाना है ,उनकी राय को ( अगर लेबल सिर्फ माध्यम को लेकर है ) और उन की नीयत और औकात दो कौडी की मानता हूँ .
चलते चलाते :
छपाई मशीन उनके बाप ने इजाद की होगी वे छपे को साहित्य माने . यह इलेक्ट्रोनिक माध्यम हमारे बच्चों का इजाद है . हम इसी में साहित्य लिखे जाने का सौभाग्य पहले चाहते हैं .ताकि सर्वोत्तम सर्वसुलभ हो, हर तरह से
मैंने अंगरेजी में कोई ऐसी बात नहीं देखी . कुछ टिप्पणियों में वह बात यहीं पर कह दी गयी है .
सच तो यह है की प्रतियोगी विश्व में नाकारा कचरे जो कहीं और न लग सके हिन्दी साहित्य की रखवाली के स्वघोषित ठेकेदार हो गए हैं .
समीर लाल वाला सवाल मेरा भी है .......साहित्य क्या है ??
Log apni baat kahe tab tak kayee naye HINDI BLOG POST aa jate hain ...
ReplyDeleteBahasbajee se kya fayda ?
Aapne achcha likha hai Shiv bhai
शिव भैया यंहा आईये,यंहा तो बाकायदा एक कारखाना शुरू है साहित्यकार बनाने का।कुछ लोगो का गिरोह किसी को भी कवि या लेखक के रूप मे स्थापित करने के लिये बाकायदा अभियान तक़ चलाते हैं।खुद को भी साहित्यकार घोषित कर दिया है।वैसे मुद्दे की बात ये है कि साहित्य को मापने के लिये आईएसआई मार्का तो बना नही है।फ़िर यंहा जो लिखा जा रहा है उसे किसी पर थोपा भी नही जा रहा है।ये तो सुधी पाठक हंस की तरह चुन-चुन कर चुग लेते है।आपने बहुत सही लिखा है।
ReplyDeleteये तो बहुत ही सिंपल है सर जी । यदि एक संपादक ब्लाग पर बैठ कर लोगों के लिखे ब्लाग को दो चार बार वापस कर दे। फिर ब्लाग पर पोस्ट (संपादित) होकर ही चढ़े । और इसके लिए लिफ़ाफ़े में कुछ रक़म ब्लाग लेखक पाने लगें तो बस हो गया ब्लाग भी साहित्य।
ReplyDeleteकाफी बातें बहुत सही हैं
ReplyDeleteब्लॉग की दुनिया में ब्लॉग तथा साहित्य के बीच की खाई जितनी बड़ी दिखाई या दिखलाई जाती है दरअसल उससे कहीं कम चौड़ी है.... केवल कुछ टेक्नोफोबिक हिन्दी साहित्यकार या आलोचक ब्लॉग को खारिज करने में ऊर्जा लगाते हैं, वहीं चंद यथास्थितिवादी ब्लॉगर प्रतिक्रिया में साहित्य मात्र कोनकारने में लग जाते हैं। वरना इन दोनों में न केवल सोहार्द संभव है वरन एकदम स्वाभाविक है
ReplyDelete"बीस-पच्चीस साल बाद भी पढ़ा जाता रहे.."तब आज के लेखन को संभवतः रीतिकाल कहा जाएगा:)
ReplyDeleteअच्छा विमर्श है.....और ऊपर काजल जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ।
ReplyDeleteलेकिन आपका ये कहना कि "आखिर सच तो यही है न कि आज साहित्य और ब्लॉग के पाठक बहुत हद तक अलग-अलग हैं" मान्य नहीं। मेरेव िचार से अधिकांश ब्लौगर साहित्य में भी अच्छी रुचि रखते हैं।
मुझे समझ नहीं आता कि इस तरह के प्रश्न कौन और क्यों उठाता है? मैं नहीं समझता कि कोई ढंग का (वास्तविक साहित्य सर्जनात्मक प्रतिभा से युक्त) साहित्यकार इस तरह का प्रश्न उठायेगा। वह तो अपने चिंतन और सर्जन में लगा रहेगा। उसकी रचना किसी भी विधा में हो,मानवमन के प्रतिबिम्बन और हितचिंतन पर केन्द्रित होगी।अब समस्या यह है कि बहुत से लोगों को साहित्यकार बनना है और इस देश में साहित्यकार वही है जो पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो। आज साक्शरता कितनी भी बढ गयी हो,औपचारिक शिक्शा के बाद साहित्य से कितनों का वास्ता है?ऐसे कितने लोग है जो स्कूल छोडने के बाद तुलसी,सूर कबीर ,मीरा ,प्रेमचन्द ,रामचन्द्र शुक्ल को पढ्ते हैं? तो क्या यह कह दिया जाए कि अब वे साहित्यकार नहीं रहे। सच तो यह है नामी पत्र पत्रिकाओं में छपने वाले बडे नाम भी अब पढे नही जा रहे। और फिर क्या बीस साल बाद ये पढे जायेंगे ? चाहे पत्र –पत्रिका हो या ब्लाग, ये तो एक मंच है और मंच पर प्रशंसा वही पाता है जिसमें दम होता है । एक सफल साहित्यकार वही है जो पाठक से रागात्मक सम्बन्ध बना ले ,माध्यम चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक (ब्लाग) ।
ReplyDelete१. "आखिर सच तो यही है न कि आज साहित्य और ब्लॉग के पाठक बहुत हद तक अलग-अलग हैं" सही नहीं है. यदि आपका आशय छपे हुए को पढने वालों और ऑनलाइन पढने वालों का फर्क करने का हो तो बात काफी हद तक सही हो सकती है.
ReplyDelete२. "पहले राहुल साकृत्यायन और किपलिंग के साहित्य की गिनती अच्छे साहित्य के तौर पर होती थी लेकिन बाद में पुनर्विचार के बाद इन लोगों की कृतियों को खारिज कर दिया गया." अगर ऐसी बेहूदगी हुई है तब तो ब्लॉग को साहित्य बनाने का काम बहुत आसान हो गया, जिन्होंने उन दोनों को लिस्ट से हटाया है उन्हें ब्लोगिंग सीखा दो.
मैंने तो पहले ही कह दिया है हम अगर भुनगे हैं हमें भुनगे ही रहने दो.
ReplyDeleteइस चर्चा में मैं देर से पहुंचा, पर यह एक तरह से अच्छा ही हुआ क्योंकि सबकी बातें पढ़कर जवाब दे सकता हूं। वैसे कहने को कुछ ज्यादा है नहीं, बाकी लोग काफी कह गए हैं।
ReplyDeleteपहली बात, शिव जी, कि आप साहित्य और ज्ञान को एक नहीं मान सकते। ज्ञान पल-पल बदलता है, पर साहित्य अधिक स्थायी चीज है, वरना हम आज भी क्यों रामायण-महाभारत का रस ले पाते हैं उन्हें पढ़ते हैं? या आज प्रकाशित उपन्यासों की तुलना में एक शताब्दी से भी पहले प्रकाशित प्रेमचंद, निराला, अमृतलाल नागर या वृंदावनलाल वर्मा की उपन्यास-कहानियों में ज्यादा रस ले पाते हैं?
इसलिए कि ये सब किताबे समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। इन्हें कई पीढ़ियों ने पढ़ा है और अनुभव किया है कि ये काम की चीजें हैं, और उन्हें दुबारा-तिबारा पढ़ना समय का अपव्यय नहीं है। साहित्य हमें यह आश्वासन देता है।
क्या ब्लोगों में लिखी चीजों के बारे में यह कहा जा सकता है? निश्चय ही कुछ पोस्ट कालजयी हैं, और आगे चलकर साहित्य बनेंगे। यह तो मैंने भी कहां नकारा है? पर अधिकांश पोस्ट?
दूसरी बात जो कहने को रहती है, वह यह कि साहित्य को कौन सहेजकर रखता है? आपने तथा टिप्पणीकारों ने किताब, प्रकाश्क, पुस्तकालय, विश्वविद्यालय आदि का नाम लिया है, पर यह काम करनेवाले सबसे महत्वपूर्ण तबके को आप सब भूल गए - जनता। अच्छे साहित्य को जनता जीवित रखती है। नहीं तो रामचरितमानस, कबीर, सूर आदि का साहित्य जो शूरू में लिखे ही नहीं गए थे मौखिक रूप में ही उनका अस्तित्व था, आज हमारे आस्वादन के लिए उपलब्ध ही नहीं रहते।
ब्लोगरों को अच्छा न लगना स्वाभाविक है कि उनका लिखा साहित्य नहीं है। इतनी तीखी प्रतिक्रिया जो आई है, वही साबित करती है कि मन ही मन वे यह चाहते हैं कि उनका लिखा साहित्य माना जाए। यह अच्छी बात भी है। पर साहित्य क्या है यह समझना भी जरूरी है। मैंने इसे परिभाषित करने की अपनी क्षमता के अनुसार कोशिश की है। जो लेखन कल्याणकारी हो, जो किसी वर्ग-विशिष्ट मात्र का पोषक न हो, वह लेखन साहित्य है। इसके साथ ही उसमें सौंदर्य, संप्रेषेणीयता, गरिमा, आदि अन्य गुण भी होने चाहिए। मैं सब ब्लोगों को नहीं पढ़ता हूं, संभव भी नहीं है, कुछ 10,000 ब्लोग हैं हिंदी के, पर निश्चय ही इनमें ऐसा काफी कुछ लिखा जाता होगा, जो साहित्य है, उसे बाहर लाना चाहिए, पहचानना चाहिए, और जनता के सम्मुख रखना चाहिए, यदि वह उनके काम की चीज हो, क्योंकि जनता अभी ब्लोगों तक पहुंचने की स्थिति में नहीं है।
मेरे विचार से साहित्य में रचना धर्म का निर्वहन होता है और ब्लॉग पूर्णतः सम्प्रेषण के कर्म का निर्वहन कर सकता है। इनमें समानता या असमानता ढूढ़ना फिजूल है..
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