जानकार लोग बताते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. साहित्य रुपी इस दर्पण में समाज अपनी तस्वीर देख सकता था लेकिन सच्चाई यह है कि कभी देखा नहीं. तस्वीर में ख़ुद को देखकर तकलीफ होती होगी इसीलिए साहित्य को समाज ने देखना ही बंद कर दिया. साहित्यकार कहते रह गए कि; "हम दर्पण लाये हैं, देख लो" लेकिन समाज कहाँ सुनने वाला? उसे मालूम था कि दिनों-दिन उसका चेहरा ख़तम होता जा रहा है. ऐसे में देखना उचित नहीं रहेगा. डर जाने का चांस रहता था.
उन दिनों के दर्पण भी ऐसे थे कि झूठ बोलना नहीं जानते थे. समाज को भी मालूम था कि ये विकट ईमानदार दर्पण हैं, झूठ नहीं बोलते. असली कांच के बने थे. पीछे में सॉलिड सिल्वर कोटिंग. ऐसे में इसे देखेंगे तो तकलीफ नामक बुखार के शिकार हो जायेंगे. साहित्यकार भी ढिंढोरा पीटते रह गए. वे ख़ुद ईमानदार भी थे. समाज को लगा कि ईमानदार साहित्यकार का दर्पण मिलावटी नहीं होगा. ऐसे में इस दर्पण को घूस देकर हम इससे झूठ नहीं बुलवा सकते. ऐसे में ये दर्पण तो हमें सुंदर दिखाने से रहा. हटाओ, क्या मिलेगा देखने से? कौन अपना ख़तम होता चेहरा देखना चाहेगा? दर्पण की बिक्री बंद. साहित्य का साढ़े बारह बज गया.
वैसे साहित्य समाज का दर्पण है, यह बात पहले के जानकार बताते थे. बाद के जानकारों ने बताया कि अब भारत आगे निकल चुका है. अब सिनेमा समाज का दर्पण है. इतिहास गवाह है कि हर थ्योरी की काट भी पेश की जाती है. काट पेश न की जाए तो इतिहास का निर्माण नहीं हो सकेगा. इसी बात को ध्यान में रखकर बड़े ज्ञानियों और जानकारों ने बताया कि सिनेमा समाज का नहीं बल्कि समाज सिनेमा का दर्पण होता है. विकट कन्फ्यूजन.
जानकारों का काम ही है कन्फ्यूजन बनाए रखना.
बाद में सिनेमा के गानों को समाज का दर्पण बनाने की कवायद शुरू हुई. मनोरंजन का साधन? आकाशवाणी. बिनाका गीतमाला. रात को खाना मिले या न मिले, रेडियो लेकर तकिया के पास ज़रूर रख सकते हो. इसलिए रख लो, मनोरंजन होता रहेगा.
रेडियो चालू हुआ और इधर खटिया पर आकर जानकार जी बैठ गए. देश में भ्रष्टाचार की बात शुरू ही होती कि तीन हफ्ते से तीसरे पायदान पर बैठा गाना बज उठता; "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती. मेरे देश की धरती."
सुनने वाला भौचक्का! सोचता; "देश की धरती इतना सोना और हीरा-मोती उगल रही है तो वो जा कहाँ रहा है?"
लेकिन किससे करे ये सवाल? अब ऐसे में कोई बुद्धिजीवी और जानकार टाइप आदमी आ जावे तो उससे पूछ लेता; " अच्छा ई बताओ, ये देश की धरती इतना सोना, हीरा वगैरह उगल रही है तो ये कहाँ जा रहा है?"
जानकार के पास कोई जवाब नहीं. कुछ देर सोचने की एक्टिंग करता होगा और बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे कह देता होगा; "अरे सोना, हीरा वगैरह उगल रही है, यही क्या कम है? तुमको इस बात से क्या लेना-देना कि किसके पास जा रहा है. तुम तो यही सोचकर खुश रहो कि उगल रही है. आज जाने दो जिसके पास जा रहा है. कल तुम्हारा नंबर भी आएगा. रहीम ने ख़ुद कहा है कि; रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन के फेर...."
सवाल को दफना दिया? नहीं. डाऊट करने वाले इतनी जल्दी हार नहीं मानते. अगला सवाल दाग देता होगा; "अच्छा, ये गेंहूं की बड़ी किल्लत है. अमेरिका से जो गेहूं आया है, वो खाने लायक नहीं है. क्या होगा देश का?"
जानकार कुछ कहने की स्थिति में आने की कोशिश शुरू ही करता होगा कि रेडियो में दूसरे पायदान का गाना बज उठता होगा; 'मेरे देश में पवन चले पुरवाई...हो मेरे देश में.'
जानकार को सहारा मिल जाता होगा; "ले भैये गेहूं की चिंता छोड़ और इस बात से खुश हो जा कि तेरे देश में पुरवाई पवन चलती है. बाकी के देशों में पछुआ हवा धूम मचाती है. वे साले निकम्मे हैं. भ्रष्टाचारी हैं. पश्चिमी सभ्यता वाले. देख कि हम कितने भाग्यवान हैं जो हमारे देश में पुरवाई पवन चलती है. ये गेंहूं की चिंता छोड़ और इस पुरवाई पवन से काम चला. इसी को खा जा."
डाऊट करने वाले के पास एक और सवाल है. पूछना चाहता होगा कि लोगों के रहने के लिए मकान नहीं है. सरकार कुछ कर दे तो मकान मिल जाए. सोच रहा है कि बुद्धिजीवी ज़ी से ये बात पूछे कि नहीं? अभी सोच ही रहा है कि रेडियो का रंगारंग कार्यक्रम चालू हो गया. गाना सुनाई दिया; 'जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा...' वगैरह-वगैरह.
डाऊट करने वाला हतप्रभ. मन में सवाल पूछ रहा है कि गुरु भारत देश में चिड़िया डाल-डाल पर बसेरा करती है. और बाकी के देशों में? वहां क्या चिड़िया के रहने के लिए दस मंजिला इमारत होती है?
ये वे दिन थे जब भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा रहा था. लेकिन देशवासी गाने सुनकर खुश थे. देश में पवन पुरवाई चलती थी और देश की धरती सोना वगैरह उगल रही थी. किसी को नहीं मालूम कि उगला हुआ इतना सोना वगैरह कौन दिशा में गमनरत है?
कोई अगर किसी दिशा की तरफ़ तर्जनी दिखा देता तो चार बोल उठते; "छि छि. ऐसा सोचा भी कैसे तुमने? जिस दिशा को तुमने इंगित किया है, उस दिशा में सारे ईमानदार लोगों के घर हैं. उनकी गिनती तो बड़े त्यागियों में होती है. तुम्हें शर्म नहीं आती ऐसे त्यागियों को इस तरह से बदनाम करते? देशद्रोही कहीं के."
यह नहीं देखा कि त्यागियों ने भवन देकर देश ही हथिया लिया.
उसी समय रेडियो पर बज उठता होगा; 'है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूँ.........'
ऐसे ही रेडियो गाता रहा और हम ..........आज भी गा रहा है. फर्क सिर्फ इतना कि आज आई पी एल के स्कोर बताता है.
त्यागियों ने भवन देकर सारा देश ही हड़प लिया। क्या व्यंग्य कसा है? आनन्द आ गया, आनन्द भवन याद आ गया। बढिया।
ReplyDelete" अच्छा ई बताओ, ये देश की धरती इतना सोना, हीरा वगैरह उगल रही है तो ये कहाँ जा रहा है?"..आज जाने दो जिसके पास जा रहा है. कल तुम्हारा नंबर भी आएगा. रहीम ने ख़ुद कहा है कि; रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन के फेर...." सुबह सुबह ऐसे तरावट मिलेगी ..सोचा नहीं था...मज़ा आ गया ...
ReplyDelete90% bhartiya gane ke 'avidha' me hi magan rahe.....bakiya 10% log gane ke
ReplyDelete'vyanjana' 'lakshna' ko gahte rahe...
kya bidmbna rahi......
pranam.
इस पर एक कमेटी बैठे कि देश की धरती कहाँ सोना उगल रही है और जहाँ पर उगल रही है वहाँ से कहाँ भागा जा रहा है वह सोना।
ReplyDeleteसिनेमा और समाज में कन्फ्यूजन है ही नहीं. If A=B than B=A ...
ReplyDeleteआपने कहां इतने अच्छे गीतों को इन कुटिल राजनीतिबाजों के साथ मिला दिया...
व्यंग्य बढ़िया है...
` आकाशवाणी. बिनाका गीतमाला. ... वो भूली दास्तां, लो फिर याद आ गई...ऐसे ही रेडियो गाता रहा और हम ........:)
ReplyDeleteहमको तो ये लाइन याद आ रही है: 'अपना भारत वो भारत है....'
ReplyDelete(इतना ही याद आ रहा है. आगे आप खुद समझदार हैं, भर लीजिये)
आपके व्यंग की धार तेज से तेजतर होती जा रही है...गज़ब का लिखे हैं आप...इत्ता गंभीर व्यंग लिखना बच्चों का खेल नहीं...वाह...जिए बंधू जियो...
ReplyDeleteनीरज
यह नहीं देखा कि त्यागियों ने भवन देकर देश ही हथिया लिया.
ReplyDeleteसही सही कह दिया अब आपकी खैर नही ।
जबरदस्त ।
कमाल कमाल कमाल क्या सूर सुनाये हैं बस गीत मन मे बज रहा है--- हैं शुभकामनायें।
ReplyDeleteओह क्या लिखा है...जियो...
ReplyDeleteएकदम सटीक...दुखती रग का दर्द शब्दों में पिरो ढाल दिया भाई...जियो...
इसे कहते हैं सार्थक व्यंग्य...
ये रेडियो सर्विस चकाचक है।
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