शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Wednesday, May 11, 2011
समय का अभाव है.....
इस वर्ष हम श्री रबीन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पचासवीं जयन्ती मना रहे हैं. इस शुभ अवसर पर तमाम कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं. प्रस्तुत है ऐसे ही एक कार्यक्रम में एक विद्वान द्वारा दिया गया लेक्चर. आप बांचिये;
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मंच पर विराजमान अध्यक्ष महोदय, अग्रज प्रोफ़ेसर धीरज लाल ज़ी और मंच के सामने बैठे सज्जनों, मैं आभारी हूँ आयोजकों का जिन्होंने गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पच्चासवीं जयन्ती पर मुझे यहाँ आमंत्रित किया. उससे भी ज्यादा मैं आयोजकों का इस बात के लिए आभारी हूँ कि मेरी बात मानकर उन्होंने मुझे यहाँ बोलने का अवसर दिया. दरअसल आयोजक चाहते थे कि मैं यहाँ आकर औरों को सुनूं परन्तु मैंने उन्हें याद दिलाया कि हमारी संस्कृति में विद्वान सुनते नहीं बल्कि बोलते हैं. ऐसे में अगर मुझे बोलने के लिए आमंत्रित न किया गया तो मैं नहीं आऊंगा. फिर जयन्ती रबीन्द्रनाथ की हो या फिर तुलसीदास की, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि मैं बोलने के लिए ही विद्वान बना हूँ, अगर मुझे सुनना ही होता तो फिर विद्वान क्यों बनता?
खैर, उन्होंने मेरी बात मान ली और मुझे इस मंच से बोलने का अवसर दिया. इसके दो फायदे हुए जिन्हें हम आपस में बाँट सकते हैं. आपको इस बात का फायदा हुआ कि आप मुझे सुन सकेंगे और मुझे इसका यह फायदा हुआ कि मुझे एक बार फिर से विद्वान मान लिया गया. उस विचारधारा का विद्वान जिसके अनुसार विद्वत्ता की जो छटा बोलने में उभर कर आती है वह किसी और कर्म में नहीं उभरती. लिखने में भी नहीं.
मित्रों जैसा कि अध्यक्ष महोदय ने बताया कि समय का अभाव है और मुझे अपनी बात रखने के लिए सिर्फ पंद्रह मिनट मिले हैं, ऐसे में आपका ज्यादा समय न लेते हुए मैं अपनी बात रखना चाहूँगा. आज जब पूरी दुनियाँ संकट के दौर से गुजर रही है तब हमें रबीन्द्रनाथ याद आ रहे हैं और हम अपने आपसे सवाल कर रहे हैं कि रबीन्द्रनाथ आज के दौर में प्रासंगिक हैं या नहीं? पर मित्रों मुझे लगता है यह सवाल अपने आप में बेमानी है क्योंकि अगर रबीन्द्रनाथ की प्रासंगिकता कहीं खो जाती तो क्या आज हमलोग़ यहाँ इकत्रित होते? रबीन्द्रनाथ की प्रासंगिकता इस बात में है कि उनकी बदौलत हम साल में एक बार मिलते हैं. भाषण देते हैं. बहस करते हैं. दुनियाँ पर मंडरा रहे संकट की बात करते हैं. आप ही सोचिये, आज अगर रबीन्द्रनाथ की जयन्ती नहीं होती तो हमें क्या याद रहता कि आज पूरी दुनियाँ एक संकट के दौर से गुज़र रही है?
यह रबीन्द्रनाथ की प्रासंगिकता का ही कमाल है कि हम मिलते हैं और दुनियाँ के ऊपर छाये संकट को पहचान पाते हैं. आज हमें यह सोचने की ज़रुरत है कि अगर वे प्रासंगिक नहीं होते तो क्या दुनियाँ पर संकट मंडराता? मेरा मानना है कि ऐसा नहीं हो पाता. फिर सवाल यह उठता है कि रबीन्द्रनाथ परंपरा और आधुनिकता के बीच कहाँ है? मित्रों, रबीन्द्रनाथ परंपरा और आधुनिकता के बीच नहीं अपितु वे खुद परंपरा भी हैं और आधुनिकता भी हैं. उन्होंने परंपरा से अपने लिए पूरी तरह से एक नया दर्शन खोजा और उसी में रहकर अपने लिए आधुनिकता का रास्ता चुना और आधुनिकता में रहकर वे परंपरा को भी सुदृढ़ करते रहे.
सवाल उठता है कि आधुनिकता क्या है और परंपरा क्या है? क्या हमारी और रबीन्द्रनाथ की आधुनिकता और परम्परा की परिभाषा एक ही है? शायद ऐसा नहीं है. जो उनके लिए आधुनिकता थी वही दूसरों के लिए परंपरा हो सकती है और जो दूसरों के लिए आधुनिकता हो सकती है वही रबीन्द्रनाथ के लिए परंपरा हो सकती है. जैसा कि मुझसे पहले बोलने वाले अग्रज विद्वान प्रोफ़ेसर ने कहा, यह रबीन्द्रनाथ की विद्वत्ता ही थी जिसकी वजह से वे आधुनिकता से परम्पराएं और परम्पराओं से आधुनिकता निकाल पाए. कह सकते हैं कि रबीन्द्रनाथ आधुनिकता और परंपरा का संगम थे.
परन्तु आज यह सवाल मुँह बाए खड़ा है कि आज की तारीख में संगम कितना प्रासंगिक है? जिस संगम की कल्पना रबीन्द्रनाथ ने की थी क्या आज हमारे पास वही संगम है? क्या आज हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारे पास एक आदर्श संगम है? क्या यह वही संगम है जिसकी बात पर उन्होंने लिखा था.....मुझे लगता है आज हम उस आदर्श संगम से दूर जा चुके हैं जिसमें गंगा, यमुना और सरस्वती का जल सामान रूप से रहता. इसका नतीजा यह हुआ है कि देश पर एक तरह का जल संकट छा गया है. जल की बात पर मुझे सन १९०५ में बंग भंग के अवसर पर लिखी गई उनकी कविता याद आती है जिसमें उन्होंने लिखा;
बांग्लार माटी बांग्लार जल
बांग्लार वायु बांग्लार फल
पूर्ण होक...
(तभी अध्यक्ष महोदय ने समय की कमी का इशारा किया...)
मित्रों जैसा कि आपने देखा, समय का अभाव है इसलिए मैं अपनी बात संक्षेप में कहते हुए यह याद दिलाना चाहूँगा कि रबीन्द्रनाथ ने स्वतंत्र विचारों को फलने-फूलने की जगह दी. उन्होंने इस बात में कभी भी कमी नहीं होने दी. वैसे कमी की बात पर यह कहना चाहूँगा कि आज कमी किस चीज की नहीं है? गरीब के लिए आज पानी की कमी है. भोजन की कमी है. समाज के लिए आज ईमानदारी की कमी है. सत्य की कमी है. इस कठिन समय में मित्रों सबसे बड़ी कमी तो मानवता की हो गई है. मानवता की कमी वाले इस निष्ठुर समय में रबीन्द्रनाथ और प्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि वे मानवतावादी थे. राष्ट्रवाद से आगे जाकर उन्होंने मानवतावाद को ही सर्वोपरि माना. वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खतरे से वाकिफ थे. खतरे की बात चली है तो हमें यह देखने की ज़रुरत है कि आज हम अपने चारों तरफ खतरा ही खतरा देखते हैं. जो खतरा हम आज देख रहे हैं, आप सोचिये कि रबीन्द्रनाथ वही खतरा कितना पहले भांप गए थे? अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वे लिखते कि;
चित्त......
(अध्यक्ष महोदय ने फिर से समय की कमी का इशारा किया...)
मित्रों, जैसा कि आप देख रहे हैं कि माननीय अध्यक्ष महोदय ने एक बार फिर से समय का अभाव की तरफ ध्यान आकर्षित किया है इसलिए मैं अपनी बात संक्षेप में रखते हुए आपके सामने दो-तीन बातें रखूँगा. तो मैं बात कर रहा था उस भयमुक्त समाज की जिसकी कल्पना गुरुदेव ने की थी. प्रश्न उठता है कि भयमुक्त समाज क्या है? क्या वह समाज जो भय से मुक्त हो या वह समाज जिसमें भय हो ही नहीं? इस विषय पर विद्वानों का अलग-अलग मत रहा है. मित्रों कुछ लोग तो भयमुक्त समाज की बात पर भय-मुफ्त समाज की बात करते हैं और हमें गुमराह करते हैं.
फिर वही बात है कि अगर अलग-अलग मत न हो तो हमें वह समाज ही नहीं मिलेगा जिसकी कल्पना गुरुदेव ने की थी. उनकी कल्पना उनकी कविताओं में, गीतों में, निबंधों में हर जगह व्याप्त है. यह उनकी महानता ही थी कि गाँधी ज़ी ने रबीन्द्रनाथ को गुरुदेव कहना शुरू किया था. वही रबीन्द्रनाथ ने गाँधी को महात्मा कहना शुरू किया था. दोनों एक दूसरे को बहुत सम्मान देते थे. यह अलग बात है कि बहुत से मुद्दों पर दोनों के मतभेद परिलक्षित थे. छिपे हुए नहीं थे. याद की कीजिये वह समय जब गाँधी जी के आह्वान पर देश में आन्दोलन हो रहा था, जब गाँधी ज़ी सत्याग्रह आन्दोलन कर रहे थे तब रबीन्द्रनाथ ने उन्हें सहयोग नहीं दिया था. वे इस आन्दोलन के खिलाफ थे. वे सत्याग्रह से भविष्य में होने वाले खतरे को भांप गए थे.
प्रश्न यह उठता है कि जो सत्याग्रह गाँधी ज़ी ने किया और जो सत्याग्रह अभी हाल में अन्ना हजारे ने किया, उसमें मूलतः क्या समानता है? अगर हम याद करें तो पायेंगे कि गाँधी ज़ी के सत्याग्रह को रबीन्द्रनाथ का समर्थन नहीं मिला था. वहीँ अन्ना हजारे के सत्याग्रह को भी रबीन्द्रनाथ का समर्थन.....
(अध्यक्ष महोदय समय की कमी का इशारा फिर से करते हैं....)
मित्रों समय के अभाव के चलते मैं संक्षेप में दो-तीन बातें कहकर अपना वक्तव्य समाप्त करना चाहूँगा. तो प्रश्न यह है कि गाँधी ज़ी के सत्याग्रह को रबीन्द्रनाथ का समर्थन क्यों नहीं मिला? कई बातों पर मतभेद के चलते दोनों के बीच सत्याग्रह को लेकर भी मतभेद था. कहा तो यहाँ तक जाता है कि रबीन्द्रनाथ ने अपने शिक्षकों और विद्यार्थियों को गाँधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन को समर्थन न दिए जाने पर जोर दिया था. परन्तु क्या यह मामला उतना सरल है जितना हम समझते हैं?
सरलता की बात चली है तो यह कहना चाहूँगा कि रबीन्द्रनाथ के अन्दर एक बालक की सी सरलता था. आप उनके छंद देखिये. उनकी कवितायें देखिये जिसके केंद्र में केवल और केवल मनुष्य था. केवल और केवल मनुष्य का मन था. वे इस बात के आग्रही थे कि मनुष्य को सम्पूर्ण नीला आकाश मिलना चाहिए जिससे वह जहाँ तक चाहे उड़ान भर सके. लेकिन क्या आज की दुनियाँ में मनुष्य को वह उड़ान भरने की सहूलियत है जिसकी बात रबीन्द्रनाथ अपने लेखन में करते हैं?
जब उनके लेखन की बात चलती है तो हम पाते हैं कि वे अपने लेखन से स्वच्छंद आकाश में विचरते थे. इस गीत पर ध्यान दीजिये. वे लिखते हैं;
पागला हवा बादोल दिने
पागल आमार मोन जेगे उठे
खुद सोचिये कि कवि की दृष्टि से उन्हें प्रकृति से कितना प्रेम था? उनकी कविताओं में, गीतों में उनका प्रकृति प्रेम झलकता है. बांग्ला में जिन्हें गान कहते हैं वह उन्होंने लिखा. गान की बात चली है तो आपको याद दिलाना चाहूँगा कि रबीन्द्रनाथ ने ही हमारे राष्ट्रगान को लिखा. मित्रों हमारे राष्ट्रगान की कहानी बड़ी लम्बी है.
(एक बार फिर से अध्यक्ष महोदय समय की कमी.......)
मित्रों बस मैं अपनी बात संक्षेप में कहकर ख़त्म करना चाहूँगा कि इस वर्ष हमारे राष्ट्रगान को पूरे एक सौ वर्ष हो गए. परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि इस महान अवसर पर देश की मीडिया में इस बात पर चर्चा नहीं हुई. वैसे अगर आप राष्ट्रगान का इतिहास देखेंगे तो पायेंगे कि वह भी कभी विवादों से परे नहीं रहा. कुछ लोगों का अनुमान है कि रबीन्द्रनाथ ने यह राष्ट्रगान जार्ज पंचम की सराहना करते हुए लिखा था. परन्तु यह कहना उचित न होगा. आपको याद हो तो उस समय के कवि बुद्धदेब बसु ने रबीन्द्रनाथ की बहुत आलोचना की थी लेकिन रबीन्द्रनाथ ने अपने एक पत्र में लिखा है...एक मिनट मैं वह पत्र पढ़कर आपको सुनाता हूँ. यह पत्र रबीन्द्रनाथ ने सन १९३६ में ......
(इस बार अध्यक्ष महोदय ने समय की कमी का इशारा नहीं किया. इस बार उन्होंने विद्वान से अपना भाषण ख़त्म करने के लिए कहा. उन्होंने यह कहते हुए भाषण ख़त्म किया; )
मित्रों जैसा कि आप देख रहे हैं, समय का अभाव है इसलिए मैं अपनी बात ख़त्म करते हुए आपको बताना चाहूँगा कि
आज मेरा विषय था "रबीन्द्रनाथ और वैश्विक मानवतावाद" परन्तु समय के अभाव में आज मैं उस विषय तक पहुँच ही नहीं सका. मुझे विश्वास है कि अगले वर्ष रबीन्द्र जयंती के शुभ अवसर मैं अपने इस पसंदीदा विषय पर अवश्य बोलूंगा. मैं धन्यवाद देता हूँ आयोजकों का जिन्होंने.....
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रबीन्द्र साहित्य को लेकर मेरा विचार यह है कि अगर आलोचकों, ज्ञानियों और जानकारों की ज्यादातर बातों को दरकिनार करके रबीन्द्र साहित्य पढ़ा जाय तो समझने में मुश्किल नहीं होगी. पढ़ने का आनंद मिलेगा सो अलग.
Bahut khoob. Samay ke abhaav ke karan poora padh liya.
ReplyDeleteऐसे विद्वानों को अध्यक्ष बनाना चाहिए जिससे कार्यक्रम के अन्त में बोलने का अवसर मिले। कई बाते नेपथ्य से कही गयी हैं। महान देश की महान संताने समझ कर भी अनजान बनी रहती हैं। क्या करें?
ReplyDeleteगुरुदेव को ऐसे भी याद किया जा सकता है ये मैंने सोचा नहीं था.. मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ.. आपकी कर रहा हु.. :)
ReplyDeleteबेचारा विद्वान।
ReplyDeleteइससे तो मुझे ही बुला लिया होता।
गुरुदेव, हम आप पर बरसी त्रासदी को भली-भाँती समझ गए.
ReplyDeleteआशा है इनके बाद और किसी विद्वान इस प्रकार की चेष्ठा नहीं की होगी.
इस प्रकार का भाषण-ज्ञान और क्षमता उन्हें कॉर्पोरेट जगत में कहाँ से कहाँ ले जा सकती है. और शायद ज्ञानि-समाज में भी अच्छा रुतबा प्राप्त है.
एन्साई-कलो-पीडिया की तरह हर विषय पे बोल गए, सिर्फ मुख्य विषय छोड़ कर.
इन् से काफी कुछ सीखा जा सकता है, बस सब समझ आ जाए उसके उपरान्त.
इस्ससे अधिक लिखने और कहने की हममे क्षमता नहीं है.
आप झेल गए. आपके धैर्य को प्रणाम!
अत्यंत ही ज्ञानवर्धक संभाषण!!
ReplyDeleteवक्ता का काम बोलना होता है और अध्यक्ष का काम घड़ी देखने का। दोनों अपना अपना रोल निभाते है ठीक उसी तरह जिस तरह श्रोता सुनने का। एक समय आता है जब वक्ता बोलता रहता है, अध्यक्ष घड़ी दिकाता रहता है और श्रोता चलता बनता है :)
ReplyDeleteआपकी पोस्ट डेल कार्नेगी संस्थान के पब्लिक स्पीकिंग कोर्स के लिये अनुशंसित कर दी गयी है!
ReplyDeleteएक और संचालक भी इशारा कर रहा है कि समय कम है।
ReplyDelete:)
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ReplyDeleteहम तो सो गए आपका भाषण सुनते सुनते गुरु देव !
अब गुरुदेव की बात चली तो कहने को तो यहाँ कई गुरु हैं , गुरुघंटाल भी है मगर आप जैसी बात कहीं नहीं ! न किसी की मज़ाक उड़ाना, न कहीं अधिक मुखरता, शांत चित्त शिव कुमार शर्मा !
सत्यम शिवम् सुन्दरम !
दिल से निकला है आपके लिए ... :-)
शुभकामनायें !
जन्म जन्मान्तर के कर्म से , बड़े (दुर) भाग्य से ऐसे संभाषण श्रवन का सुअवसर मिलता है...
ReplyDeleteगोड़ न धर लिए महापुरुष के ???? जल्द जाकर धर लो...क्योंकि इनका उच्च पद प्रतिस्था को प्राप्त करना असंदिग्ध है...आज के समय के हैं महानुभाव...आज ऐसे ही लोग विद्वान् माने,पूजे जाते हैं...
yahan hum bhashan sunte-sunte unniden
ReplyDeleteho gaye se hain.....so, satish bhaiji
se poori tarah sahmat ho lete hain...
dev ise S factor samajh len......
pranam.
बाप रे... कितना धीरज है आपमे... पहले तो पूरा सुना... फिर लिखा... और हमसे पढवाया.... :)
ReplyDeleteमजेदार लेख है। पढ़ा था पहले लेकिन टिपियाने के पहले ब्लागर मेन्टिनेंस ब्रेक में चला गया। शिवकुमार शर्मा का वैकल्पिक नाम मिलने की बधाई!
ReplyDeletevah samaj jo bhay se mukt ho ya vah samaj jismein bhay ho hi nahin...baat to sahi hai...kabhi aisai sochi hi nahin...Dhanywad aisi posts k liye :-) Bahut khoob.
ReplyDeleteशाहदत, अगले वर्ष की रविन्द्र जयंती में क्या हुआ, विषय तक पहुंचे या नहीं भैया
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