भगवान श्री राम का वनवास.
वनवास के दौरान श्री राम अनुज लक्ष्मण और सीता जी के साथ गंगा किनारे खड़े हैं. वे आज ही गंगापार करके आगे बढ़ जाना चाहते हैं. घाट पर केवट जी की नाव पानी में लंगर के सहारे खड़ी हुई है. नाव के मालिक केवट जी भी खड़े हैं. सीता जी के माथे पर चिंता की लकीरें हैं. लक्ष्मण जी कुछ नाराज़ टाइप लग रहे हैं. श्री राम ने समर्पण वाली मुद्रा इख्तियार कर ली है. कुल मिलाकर बड़ी टेंशन वाली स्थिति बन गई है.
हुआ ऐसा कि गंगा पार कर लेने की इच्छा लिए जब श्री राम, श्री लक्ष्मण और सीता जी घाट पर पहुंची तब नाव बंधी थी लेकिन केवट जी वहाँ नहीं थे. घाट तक पहुँचने से पहले तीनों ने मन ही मन कितना कुछ सोच रखा था. तीनों को इस बात का विश्वास था कि वहाँ पहुँचते ही केवट जी न केवल उनका स्वागत करेंगे बल्कि पूरे परिवार के साथ उपस्थित रहेंगे. रास्ते की थकान दूर करने के लिए वे तीनों के पाँव धोयेंगे और घर से आया बढ़िया शरबत पिलायेंगे. परन्तु घाट पर पहुँचने के बाद तीनो को उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने देखा कि नाव अकेली खड़ी है और केवट जी गायब है. पास ही कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे. श्री राम ने उनमें से एक को यह कहकर भेजा कि वह केवट जी को उनके घर से बुला लाये.
केवट जी आये. उन्होंने श्री राम का अभिवादन किया. रामचन्द्र जी ने उन्हें बताया कि वे लक्ष्मण और सीता जी के साथ उसी समय पार जाना चाहते हैं. यह कहकर जैसे ही उन्होंने नाव की तरफ कदम बढ़ाया केवट जी ने उन्हें रोक दिया. भगवान राम को लगा कि शायद केवट जी इस बात से डर गए हैं कि नाव पर पाँव रखते ही नाव कहीं पत्थर की न हो जाए. उन्होंने केवट जी से कहा; "डरो मत भाई. कुछ नहीं होगा. मेरे छूने से यह नाव पत्थर की नहीं होगी. क्या तुम पिछली बात भूल गए जब तुमने हम तीनों को पार उतारा था? क्या पिछली बार तुम्हारी नाव पत्थर की हुई थी?"
यह सुनकर केवट जी बोले; "प्रभु यह तो हमें पता है. पिछली बार हम अवश्य डर गए थे लेकिन इस बार डरने का कोई कारण नहीं है. मेरे पुत्र ने विकिपीडिया पढ़कर हमें बता दिया है कि पिछली बार मेरे अन्दर फालतू का डर समा गया था."
भगवान राम बोले; "फिर तुम मुझे नाव पर पाँव रखने से क्यों रोक रहे हो अनुज?"
उनकी बात सुनकर केवट जी ने सिर लटका कर कहा; "प्रभु, हम आपको पार तो उतार देते लेकिन समस्या यह है कि अब हम नाव खेने का काम नहीं करते. गंगा में खड़ी यह नाव जो आप देख रहे हैं यह तो हमने इसलिए खड़ी कर रखी है ताकि कोई इसे खरीद ले. आपने शायद इसपर लगा फॉर सेल का बोर्ड नहीं देखा."
भगवान राम ने पूछा; "नाव खेने का काम नहीं करते? तो फिर तुम नाविकों की रोजी-रोटी कैसे चलती है?"
केवट जी ने भगवान राम की तरफ देखते हुए कहा; "शायद प्रभु को मनरेगा के बारे में नहीं पता. हे भगवन, जब बिना मेहनत किये हमें मजदूरी मिल जाय तो फिर कोई बेवकूफ ही होगा जो मेहनत करके नाव चलाए और लोगों को पार उतारे."
यह कहकर केवट जी चलते बने. भगवान राम ने लक्ष्मण जी से बात की और तीनों ने तय किया कि वे पैदल चलकर लॉर्ड कर्जन पुल से गंगा पार कर लेंगे ताकि शिवकुटी पहुँचा जा सके.
पांडवों का वनवास
वन में चलते-चलते पांडव थक चुके थे. थकते भी न कैसे? पेड़ों के कट जाने से वन में ऑकसीजन की कमी हो गई थी. इस वन में फैले पल्यूशन को लेकर अदालत की ग्रीनबेंच कई मुक़दमे देख रही थी. सभी भाइयों को प्यास लग चुकी थी. कहीं आस-पास पानी दिखाई नहीं दे रहा था. कारण यह भी था कि मनरेगा से तालाबों का जो ब्यूटिफिकेशन हुआ था उसकी वजह से बरसात का पानी तालाब तक पहुचने से मना कर देता था. इलाके के कुँए भी सूख चुके थे. यह बात और थी कि वन के रास्ते में भी उन्हें जग-प्रसिद्द विदेशी कोला धोखा कोला की कई होर्डिंग्स दिखाई दी थीं. पूरे राष्ट्र का यही हाल था. पीने का स्वच्छ पानी कहीं मिले या न मिले, धोखा कोला हर जगह मिलता था. गाँवों और जंगलों में भी धोखा कोला की दूकाने खुल गईं थीं. देखकर लगता था जैसे लोग़ स्नान वगैरह के लिए भी कोला का ही उपयोग करते थे.
जब उन्हें लगा कि और आगे जाना मुश्किल है, तब सारे भाई एक जगह बैठ गए. प्यास इतनी कि कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे. मन में आया कि किसी दूकान से धोखा कोला खरीद कर ही पी लें लेकिन माताश्री का डर था कि शायद वे नाराज़ न हो जायें. बैठे-बैठे वे कुछ सोच रहे थे तभी नकुल युधिष्ठिर से बोले; "भ्राताश्री, सोचने से तो प्यास और बढ़ती जा रही है. हम जैसे-जैसे सोचते जा रहे हैं, शरीर से पसीना और भी बह रहा है. मैं जाकर किसी तालाब पर अपनी प्यास बुझाता हूँ और आपसब के लिए भी पानी ले आता हूँ."
इतना कहकर नकुल वहाँ से चल दिए. करीब एक किलोमीटर पैदल चलकर वे एक तालाब के किनारे पहुंचे. तालाब देखकर उन्हें बड़ी ख़ुशी हुई. अभी उन्होंने तालाब से पानी लेने के लिए अंजुली आगे की ही थी कि पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर अनाउन्समेंट हुआ; "सावधान नकुल, तुम्हें इस तालाब से पानी पीने का अधिकार नहीं है."
अपने पिछले अनुभव से नकुल को पता था कि तालाब यक्ष का है सो यक्ष प्रश्न करेगा ही. वे पूरी तैयारी के साथ आये थे. यक्ष द्वारा पिछली बार किये गए प्रश्नों का उत्तर तो उन्होंने रट ही लिया था, साथ ही उपकार गाइड पढ़कर और ढेर सारे प्रश्नों का उत्तर रटकर पूरी तैयारी कर ली थी. आवाज़ सुनते ही उनका मन एक साथ सारे प्रश्न और उनके उत्तरों पर कुछ ही क्षणों में घूम-फिर कर वापस आ गया. नकुल जी भी इस बात से अस्योर्ड हुए कि मन सबसे तेज भागता है. इतना तेज कि कुछ ही क्षणों में हजारों प्रश्न और उनके उत्तरों पर घूम-फिर ले.
उन्होंने अपना हाथ तालाब के पानी के पास से खींचते हुए कहा; "प्रणाम यक्ष. मुझे पता था कि तालाब से जल लेने से पहले आप मुझसे प्रश्न करेंगे. पूछिए प्रश्न. मैं इसबार पूरी तैयारी के साथ आया हूँ."
नकुल की बात सुनकर पब्लिक एड्रेस सिस्टम से फिर आवाज़ आई; "हे युधिष्ठिर के अनुज नकुल, शायद आपको पता नहीं कि अब यह तालाब यक्ष का नहीं रहा. हमारी कंपनी धोखा कोला ने अब यह तालाब यक्ष से खरीद लिया है. कहने का तात्पर्य यह है कि अब इस तालाब के पानी का कार्पोरेटाईजेशन हो चुका है. वैसे तो इस तालाब के पानी का उपयोग अब केवल कोला बनाने के लिए होता है लेकिन फिर भी चूंकि आप थके और प्यासे हैं और साथ ही आप धर्मराज युधिष्ठिर के अनुज भी हैं, इसलिए हम आपको इसका पानी दे सकते हैं. शर्त केवल एक ही है कि आपको एक लीटर पानी के लिए पंद्रह स्वर्ण मुद्राएं देनी पड़ेंगी."
नकुल के टेंट में इस समय स्वर्ण मुद्राएं कहाँ से आती? उन्हें लगा कि अगर मुद्रा न रहने के कारण उन्हें पानी न मिला तो वे प्यासे मार जायेंगे. उन्होंने कंपनी के कर्मचारी की बात को अनसुना करके तालाब से पानी लेने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि पीछे से दो सिक्यूरिटी गार्ड्स ने उन्हें पकड़ लिया. दोनों ने मिलकर नकुल जी के हाथ में हथकड़ी पहना दी और उन्हें लेकर वहीँ बने धोखा कोला कंपनी के तालाब रक्षा केंद्र में चले गए.
इधर जब बहुत देर तक नकुल नहीं लौटे तब बारी-बारी से सहदेव, भीम और अर्जुन भी तालाब के किनारे गए और जबरदस्ती पानी लेने के आरोप में अरेस्ट कर लिए गए. सबसे अंत में धर्मराज युधिष्ठिर ने माताश्री को प्रणाम किया और अपने चारों भाइयों की खोज में निकले.
वे जब तालाब के किनारे पहुंचे तो उनके अन्दर उनका कांफिडेंस कुलांचें मार रहा था. आखिर प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए उन्हें तो उपकार गाइड भी रटने की ज़रुरत नहीं थी. अपना कांफिडेंस लिए वे तालाब के किनारे पहुंचे और बोले; "यक्ष जी को पांडु नंदन युधिष्ठिर का प्रणाम पहुंचे. मैं आपके सारे प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार हूँ परन्तु मुझे अपने मृत भाई कहीं दिखाई नहीं दे रहे. आप उन्हें हमारे सामने प्रस्तुत करें और अपने प्रश्नों के उत्तर लेकर उन्हें फिर से जीवन देने की फॉरमेलिटी पूरी करें ताकि मैं जल पी सकूँ, उन्हें भी पिला सकूँ और माताश्री के लिए भी ले जा सकूँ."
धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर एक सिक्यूरिटी गार्ड ने उन्हें सारी बातें बताई कि कैसे उनके सभी भाई अरेस्ट हो चुके हैं और यह कि बिना मुद्रा दिए उस तालाब से पानी लेना कानूनन जुर्म है. धर्मराज वहाँ से चल दिए. किसी वकील की तलाश में ताकि भाइयों की बेल करवाई जा सके.
पोस्ट अपलोड होते ही फटाक से पढने का सोभाग्य प्राप्त हो गया |
ReplyDeleteकरार व्यंग ..नरेगा और धोका कोला ...सजीव चित्रण किया हैं |
जुलाई महिना बढ़िया जा रहा हैं ..पोस्ट दर पोस्ट आनंद आ गया |
हे भ्राता, कर्जन पुल पर कांवरियों ने राम-सीता-लखन लाल को सकुशल गंगा पार करने दिया? और भ्राता, क्या धर्मराज अन्तत: सुप्रीम कोर्ट से अपने भाइयों को छुड़ाने में समर्थ रहे या भाई अभी भी तिहाड़ में हैं?
ReplyDeleteआपका प्रश्न/आश्चर्य एकदम प्रासंगिक है ज्ञान भैया...
Deleteकुछ बोलने लायक स्थिति छूटे तभी तो कोई कुछ बोले..
ReplyDeleteऐसा करारा व्यंग्य कि ओह...!!!!
जियो...जियो...जियो...
कर्जन ने भी सोचा होगा कि काहे भविष्य में तर्क कुतर्क हो, अच्छा है कि पुल बनवा दिया जाये।
ReplyDeleteपौराणिक पात्रों पर सटायर लिखने के लिए विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है जिससे तीर निशाने पर लगे और किसी को ठेस भी नहीं पंहुचे. इसमें तो आपको महारत हासिल है.
ReplyDeleteआपने अमूल्य संसाधनों के विदेशी लूट और कांग्रेस के वोट के बदले घूस कार्यक्रम-मनरेगा पर गहरी चोट की है.
बंधू आपकी सोच विलक्षण है...कहाँ कहाँ से आप अनूठे प्रसंग ढूंढ लाते हैं...कमाल है...काश नितीश कुमार आपका ये वक्तव पढ़ लें तो उनकी आँखें खुल जाएँ:- " शायद प्रभु को मनरेगा के बारे में नहीं पता. हे भगवन, जब बिना मेहनत किये हमें मजदूरी मिल जाय तो फिर कोई बेवकूफ ही होगा जो मेहनत करके नाव चलाए और लोगों को पार उतारे." और ये भी " कारण यह भी था कि मनरेगा से तालाबों का जो ब्यूटिफिकेशन हुआ था उसकी वजह से बरसात का पानी तालाब तक पहुचने से मना कर देता था" ऐसे लपेट लपेट के मारते हैं के पीटने वाला कहता है दर्द हो रहा है लेकिन मज़ा भी आ रहा है :-)
ReplyDeleteकमाल की पोस्ट...धन्य हैं आप...
नीरज
वाह ...
ReplyDeleteहमेशा की तरह अद्भुत !!
और सब तो ठीक है पर "आगे क्या हुआ" वाली जिज्ञासा का कुछ उपाय कीजिये ... इस पोस्ट को ठेल कर आप अज्ञात वास में मत जाइयेगा और इसके आगे की कथा भी पोस्ट कीजियेगा :)
ऐसा लोट-पोत हुये जा रहे हैं हम क क्या कहें.... एकदम ज़बरदस्त मसाला है इसमें--
ReplyDeleteविकिपीडिया, लार्ड कर्जन पुल, फिर मनरेगा, धोका कोला... ओह.. हँसते-हँसते अचानक से इन सच्चाइयों में खो गए!
बेहतरीन ढंग से आपने लिखा, सचमुच ये "मनरेगा" इस देश को ले डूबेगी !
ReplyDeleteवाह आदरणिय वाह...और इससे ज्यादा क्या कहें।
ReplyDeleteसाथ ही उपकार गाइड भी :)
ReplyDeleteइन नव कथाओं को पढ़कर तो ज्ञान चक्षु खुल गए हैं हे मित्र श्रेष्ठ.
ReplyDeleteअद्भुत! अकल्पनीय!! अविस्मरनीय!
हम सब धन्य है की आपका अवतरण इस युग में हुआ हे मित्र श्रेष्ठ.
धोखा कोला ,मनरेगा और प्रभु राम और युधिष्ठिर । राम जी को तो कर्जन पुल मिल गया लेकिन युधिष्ठिर वकील के लिये स्वर्ण मुद्राएं कहां से लायेंगे । दबर दस्त व्यंग राम जी और पांडव सब दाद दे रहे होंगे आप के कलम की ।
ReplyDeletelol :) सर मेरे से ऊपर मैं किसी वर्तमान काल के व्यंग्य लेखक का फैन हूँ तो वो आप हैं। केवट और धोका कोला :P
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