Monday, October 19, 2015

दुर्योधन की डायरी - पेज १४१

बड़ी बमचक मची है कि कवि और साहित्यकार साहित्य अकादमी टाइप संस्थाओं से मिले पुरस्कार लौटा रहे हैं. लोग अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं. दूसरों के विचार काट रहे हैं. तर्क, वितर्क और कुतर्क किये जा रहे हैं. कुछ लोग बता रहे हैं कि जिन कवियों को ये पुरस्कार मिले हैं उनकी कविताएं घटिया हैं. कुछ बता रहे हैं कि कुछ कवियों को पिछले शासकों की बड़ाई लिखने के लिए पुरस्कार मिले हैं. लेकिन मैं आपको बता दूँ कि राजाओं-महाराजाओं का यशगान कवियों का कोई नया शगल नहीं है.



कल मेरी नज़र युवराज दुर्योधन की डायरी के पेज १४१ पर पडी. यहाँ टाइप कर दे रहा हूँ. आप बांचिये कि युवराज क्या लिखते हैं?

"आज हस्तिनापुर साहित्य रत्न से सम्मानित कवि रमाकांत बाजपेयी ने पांडवों को इंद्रप्रस्थ दिए जाने के विरोध में अपना सम्मान लौटा दिया। उधर जयद्रथ और दुशासन ने और कवियों को सम्मान लौटाने के लिए उकसा दिया है. ये कवि और साहित्यकार पुरस्कार लौटाकर पितामह और चाचा विदुर को कैसे परेशान करते हैं, अब हस्तिनापुर यह देखेगा। इतने महान कवि रमाकांत बाजपेयी से शुरुआत हो गई है तो मामला आगे ही बढ़ेगा, पीछे नहीं जाएगा. मुझे आज इस महान कवि की वह रचना याद आ गई जिसके लिए उन्हें पिताश्री ने अपने हाथों से साहित्य-रत्न का पुरस्कार दिया था. जो कुछ ऐसी थी;



जय हो नरेश धृतराष्ट्र सहित युवराज सुयोधन की जय हो,
हमको जिससे सम्मान मिला उस राष्ट्र और धन की जय हो,
जय हो गांधारी-पुत्री की, जय हो दामाद जयद्रथ की,
जय हो घोड़ो की, गदहों की, और उनमें जुते हुए रथ की.

भारत भर का जो है गौरव, ऐसा है कोई राज कहाँ,
जिनपर हो गर्व धर्मपथ को ऐसा है कोई आज कहाँ?
व्यवहार हो जिनका न्यायोचित, जिनसे जीवित मानवता हो,
जो धर्म-कर्म का रखे ध्यान, बस न्यायपथों पर चलता हो,

जिसने अपना सुख त्याग रखा हो प्रजाजनों का ध्यान यहाँ,
जो अहंकार तजकर देता हो बुद्धिमनों को मान यहाँ,
जो कवियों का सम्मान करे, जो बाँटे हमको पुरस्कार,
ऐसे न्यायोचित राजा प्रति हम आज प्रकट करते अभार,

जब पांडु मरे और अकस्मात हो गया हस्तिनापुर अनाथ,
सबको चिंता थी क्या होगा, कैसे जीयेंगे सभी साथ,
तब प्रजाजनों के मुखर बिंदु पर एक नाम बस आया था,
धृतराष्ट्र नाम के उस योद्धा को इसी राष्ट्र ने पाया था,

जो गुण वैभव की खान रहा जिसके जीवन का दान मिला,
जिस राजा के वैभव-प्रताप को दुनियाँ भर में मान मिला,
जिसके सौ पुत्रों ने स्थापित किया धर्म का राज यहाँ,
जिनके बल, बुद्धि और तेज़ से कांपे अधरम आज यहाँ,

जिसने आँखों का किया दान औ दिया प्रजा को बस प्रकाश,
जिसको देखे यह राष्ट्र और फट उर में उसके जगे आस,
जिसके कृपाण की ध्वनि से डरता रहा सदा अन्यायी है,
जिसके भुज के प्रताप पर चढ़कर मानवता निज आई है,

जिसने पुत्रों को दिया ज्ञान कि धर्ममार्ग पर चलना है,
स्थापना धर्म की हो उनको दीपक की भांति ही जलना है
जिसने पांडवों को किया मुक्त जिम्मेवारी की धारा से,
जिसके कारण ये राष्ट्र दूर ही रहा कलंकित कारा से,

जिसके पुत्रों से लाक्षागृह में जली न्याय की अमिट आग,
जिन पुत्रों के चलते जागा है राष्ट्रप्रेम का बड़ा भाग,
यह महाकवि उसके समक्ष अपना यह शीश नवाता है,
और उस नरपति से निजहित में थोड़ा उत्कोच कमाता है.

11 comments:

  1. शिवकुमार मिश्र की जय हो! :)

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  2. हा हा हा हा
    विलक्षण रचना है कविवर की ,अब ऐसी रचना को पुरस्कार नहीं मिलेगा तो फिर किसे मिलेगा ?
    प्रजा के ज्ञान च़क्षुओं को खोलती इस कालजयी रचना के कवि द्वारा पुरस्कार को लौटाना दिल पर गंम्भीर चोट दे गया ।

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  3. हा हा हा हा बहुत बढ़िया

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  4. बहुत शानदार है. इस पर तो साहित्य अकादमी बनता ही है.

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  5. भांडों को तो पुरस्कार मिलना ही चाहिये।

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  6. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'गुरुवार' 25 जनवरी 2018 को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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  7. वाह !!!!! आदरणीय शिव जी - प्रिय ध्रुव जी को कोटिश आभार जो आप तक पहुंचाया | ऐसी रचना तो कभी ना पढ़ी थी कविवर | आपकी लेखनी की जय हो प्रभु !

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय