आज की सुबह भी ऎसी ही थी।
बेकारी की समस्या केवल पश्चिम बंगाल मैं है, ऎसी बात नहीं। देश के बाकी राज्यों में भी ये समस्या है। लेकिन देश के अन्य राज्यों की तुलना अगर पश्चिम बंगाल से करें तो एक अंतर स्पष्ट दिखेगा। यहाँ के बेकार लोगों में बहुत सारे ऐसे हैं जो पिछले दशकों में कारखानों के बंद होने से बेकार हो गए हैं। जिनके पास पहले काम था लेकिन अब नहीं है। कारखाने बंद करने में किसका हाथ है, ये बहस का मुद्दा नहीं रहा अब। ऊपरी तौर पर सबसे बड़ा हाथ मजदूर संगठनों का था। कुछ अदूरदर्शी उद्योगपति, उद्योग के प्रति सरकार की नीति, और बुनियादी सुविधाओं की कमी वगैरह का नंबर बाद में आता है। सभी पक्षों से गलतियाँ हुईं, क्योंकि सभी अपना-अपना एजेंडा लेकर चल रहे थे और एक दूसरे के विरुद्ध काम करने पर आमादा थे। सरकार का एक ही एजेंडा था; किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना। मजदूर संगठनों का एजेंडा था, अपनी ताक़त दिखाना और सपने देखना कि मजदूर एक दिन सारी दुनिया पर राज करेगा। उद्योगपतियों का एजेंडा कारखाने बंद कर देना, वित्तीय संस्थानों से लिया गया कर्ज़ हज़म कर जाना और कहीँ और जाकर वहाँ मिल रही सरकारी छूट की लूट का उपभोग करना था।
गलतियों को सुधारा जा सकता था। लेकिन सुधार की प्रक्रिया में पहला कदम तब उठता जब सारे पक्ष अपनी-अपनी गलतियों को मानते। समस्या है, अगर इस बात को पूरी तरह खारिज कर दिया जाय, तो फिर समाधान खोजने की पहल हो ही नहीं सकती। नतीजा ये हुआ कि कारखाने बंद होते गए और बेकारी बढती गई।
कारखाने बनाने का काम कोई छोटा काम नहीं होता। बड़ी मेहनत होती है, बहुत सारे लोगों की कोशिश होती है, बहुत सारा समय और पैसा लगता है। तब जाकर कारखाने तैयार होते हैं। लेकिन बनने के बाद उन्ही कारखानों का ख़त्म हो जाना, वो भी कुछ लोगों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते, बड़ा दुखद रहा। किताबों में लिखी गई बातों पर लकीर के फकीर की तरह अमल, अपने 'सिद्धांतों' के आगे और कुछ नहीं देखने की जिद और कुछ नारों ने व्यावहारिकता को दबा दिया।
नतीजा? 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'।
क्या भाईसाहब आज सारी पोस्ट पोस्ट कर देगे हम आपकी नमस्ते को स्माईली लगा कर पढ रहे है.आपकी पोस्ट की स्पीड देख कर लग रहा है ब्लोगिंग से ही नमस्ते करने की फ़िराक मे है कि जितना ड्राफ़ट था सारा छाप दो कल सुबह से नही करना है ब्लोगिंग.अगर आप हमसे या हमारी पोस्ट से नाराज है तो हम वापस लेने को भी तैयार है बस आप बतादे :)
ReplyDeleteमाफ़ कीजीयेगा मै अब सोने जा रहा हू अब के बाद गई पोस्ट पर सुबह ही टिपिया सकूगा :)
मुसकुराहट की कोई कीमत नही है आप भी कही भी कभी भी मुस्कुरा सकते है. बस किसी केले के छिलके पर फ़िसलते हुये बंदे को देख कर नही ये खतर्नाक हो सकता है. :)
काफी हद तक इस तरह के उद्योग को बंद होने में सरकारी नितियों, इन्सपेक्टर राज, लालफीता शाही का भी हाथ रहा है और फिर मौके की नजाकत का फायदा उठाना तो उद्योगपतियों का धर्म रहा है. समस्या जरुर विकराल है.
ReplyDeleteसही है। कोई कारखाना जब बंद होता है तो केवल उसके कर्मचारी ही बेरोजगार नहीं होते। उससे जुड़े हुये और कई गुना लोग इससे प्रभावित होते हैं।
ReplyDeleteलगता है अब कम्यूनिस्टों को अपने किये महापाप का ज्ञान हो गया है। आदनी जभी जागे तभी सबेरा..
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