शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Saturday, July 21, 2007
देवर्षि का दीन-दुनियां में दखल और दुर्गति!
किंकर्तव्यविमूढ़ नारद। पजल्ड नारद। अपनी कुर्सी पर बैठे मिल गए। वीणा आज हाथ में नहीं थी। टेबल पर एक कोने में पड़ी हुई थी। माथे पर पसीने की बूदें। देखने से लग रहा था जैसे एक महीने से केश-सज्जा के लिए भी समय नहीं मिला है, पूजा-पाठ तो दूर की बात। टेबल पर बहुत सारी नई-पुरानी पोस्ट। उन्ही को खंगाल रहे थे। परेशान बुजुर्ग से शरारती बच्चे जैसे सवाल करते हैं, ठीक वैसा ही सवाल मैंने किया; "क्या हुआ"?
बोले; "पूछो मत। वाट लग गई"।
"वाट लग गई! ये कैसी भाषा मुनिवर"? मैंने अचंभित होते हुए पूछा।
बोले; "ये कैसी भाषा से क्या मतलब तुम्हारा? तुम मुझसे और कैसी भाषा की उम्मीद लगाए बैठे हो"?
मैंने उन्हें बताया कि उनके द्वारा प्रयोग किया गया 'वाट' शब्द मुझे अचंभित कर गया। बोले; "तुम्हें वाट शब्द ने अचम्भे में डाल दिया! और तुम 'ब्लागिये' जिस तरह की भाषा प्रयोग करते हो आजकल, उसके बारे में कुछ नहीं सोचते? हाल में प्रकाशित पोस्ट नहीं पढी क्या? उनकी भाषा पर ध्यान नहीं दिया"? फिर कुछ सोचकर बोले; "ध्यान भी कैसे दोगे। नए ब्लागिये हो। पुराने होते तो रोज चार-पांच घंटे का समय जरूर निकालते पढ़ने के लिए"।
मैंने सोचा ठीक ही तो कह रहे हैं। बड़ी मुश्किल से मैं रोज तीन-चार पोस्ट ही तो पढता हूँ। फिर भी मैंने कुछ साहस जुटाकर पूछा; "बात क्या है, क्यों इतने परेशान लग रहे हैं"?
बोले; "ये पोस्ट देख रहा हूँ। जिसे देखो, आजकल मुझे ही संबोधित करके पोस्ट लिख रहा है। शीर्षक ऐसे कि पढ़कर रातों की नींद चली जाये। लगता है, लोगों के पास लिखने को और विषय नहीं रहे"। मुझे लगा, ठीक ही तो कह रहे हैं। मैंने भी यही महसूस किया है। पिछले दो महीने से लोग दो तिहाई पोस्ट इन्हें ही तो संबोधित करके लिख रहे हैं।
मैंने कहा; "तो इसमें परेशान होने की क्या बात है? हमारे ब्लागिये पोस्ट लिख रहे हैं, ये क्या कम है? वैसे भी आप फीड एग्रीगेटर बने हैं, तो ये सब तो झेलना ही पड़ेगा"।
बोले; "फीड एग्रीगेटर क्या इस लिए बने थे कि रोज सब की गालियाँ सुनने को मिलें? वो भी कैसी-कैसी गालियाँ। सुनते-सुनते मैं 'नारायण-नारायण' कहना भी भूल गया हूँ। कोई कहता है, मैंने चुड़ैल पाल रखी है। कोई कहता है कि मैंने लुच्चे पाल रखे हैं। कोई इस बात पर गाली दे रहा है कि उसके पोस्ट पर किसी ने टिप्पणी नहीं की। अब नहीं की तो मैं क्या कर सकता हूँ। मेरे बस की बात नहीं कि मैं टिप्पणी करने के लिए, दस-बीस लोगों को रिक्रूट कर लूं। क्या करूं, समझ में नहीं आता। कभी-कभी लगता है जैसे 'कलयुग' रोज अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है"।
मैंने कहा; "आपने फीड एग्रीगेटर का रोल लेने से पहले इन बातों के बारे में नहीं सोचा"?
बोले; "सोचा था। लेकिन मुझे क्या मालूम था कि इतनी दुर्गति होने वाली है। अब तो लगता है कि फीड एग्रीगेटर बन कर गलती कर बैठा"।
मैंने कहा; "मुनिवर आप भी गलती करते हैं! मैं तो सोचता था कि आप मुनि हैं। आपको तो सारी बातों की समझ है। आपसे तो गलती हो ही नहीं सकती"।
बोले; “देवलोक में एक ही बार गलती की थी जब विवाह करने के लिए भगवान विष्णु से अच्छा चेहरा माँगा था. लेकिन उन्होने मेरा मजाक बनाने के लिए मुझे बंदर का चेहरा दे दिया था. वहाँ स्वयंवर में क्या कुछ नहीं झेलना पड़ा मुझे. गनीमत ये थी की वहाँ देवों के बीच में था. लेकिन यहाँ! यहाँ तो अब ये भी नहीं कह सकता कि मानवों के बीच में हूँ”।
मैंने पूछा; “तो क्या आप अपनी इस गलती को पृथ्वीलोक पर पहली और आख़िरी गलती मनाते हैं”?
बोले; “पहली गलती तो तब की जब पृथ्वीलोक पर आकर ‘भोला राम’ को पेंशन दिलाने का बीड़ा उठाया था. फीड एग्रीगेटर बन कर तो दूसरी गलती की हैं”. मुझे याद आया. अरे, ठीक ही तो कह रहे हैं. भोला राम को पेंशन दिलाने का बीड़ा उठाया तो क्या था; वीणा ही पेंशन विभाग में घूस में देना पड़ गया था इन्हें।
मैने कहा; “मुनिवर पृथ्वीलोक पर आकर जब एक गलती कर चुके थे, तो दूसरी करने की क्या ज़रूरत थी”?
बोले; “असल में सरकारी विभाग में बाबुओं को झेल कर लगा था की अब तो किसी को भी झेल सकते हैं. लेकिन मुझे नहीं मालूम था की ‘साहित्यकारों’ और 'ब्लॉगरों' को झेलना इतना कठिन काम हैं. अब तो मैं पस्त हो गया हूँ. कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं. भोला राम का पेंशन रिलीज करवाने में तो दुर्गति हो गई थी. लेकिन फीड एग्रीगेटर बनकर तो पूरी ‘वाट’ लग गई”।
बेचारे नारद. ऑफिस में आते-जाते हर चहरे पर अपने लिए तरस ढूँढ रहे हैं. अरे, कोई तो तरस खाओ।
पोस्ट लिखी शिव कुमार मिश्र ने। यह तकनीकी चूक है कि नाम नीचे ज्ञान दत्त पाण्डेय का आ रहा है. शिव कुमार मिश्र सशक्त सटायर लिखते हैं - ज्ञानदत्त पाण्डेय.
नारायण-नारायण.
ReplyDeleteहा हा, सही!!
ReplyDelete‘वाट’ लग गई
ReplyDeleteसो सैड, बेचार नारदमुनि! :(
ReplyDeleteनारायण नारायण!!
फराज ख्वाब नजर आती है दुनिया हमको
ReplyDeleteजो लोग जाने जहां थे, हुए फसाना वो
दुनिया क्षण भंगुर है, ब्लागरों की लायल्टी तो क्षणभंगुर भी नहीं, आधे चौथाई क्षण में कब फिसल जाये, पता नहीं। फिर ब्लाग वाणी ने बहुत आफत मचा रखी है। तुरंत दान महाकल्याण,इधर पोस्ट छापो, उधर एग्रीगेटर पर बांचो। जल्दी ही एक एग्रीगेटर आने वाला है, जो ब्लागरों को बुलाने के लिए मल्लिका सहरावत के आकर्षक पोस्टर देने की योजना बना रहा है। एक क्लिक पर पचास पैसे मिलेंगे। पर नारद को यूं राइट आफ ना करें। नारद जी थोड़ा चुस्त-स्मार्ट हो जायेंगे, तो पुराने बालकों को खींच लायेंगे।
इधर कई ब्लागरों से बात की एग्रीगेटर लायल्टी पर तो जो जवाब मिला, उसका आशय वही था, जो आपके शहर के एक वस्ताद बरसों पहले कह गये थे। अकबर इलाहाबादी ने कहा है
ईमान की तुम मेरे क्या पूछती हो मुन्नी
शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी
बहुत बेहतरीन!! बधाई. सही लिखा है. अब नारद एग्रीगेटर बनेंगे तो और क्या उम्मीद की जा सकती है. :)
ReplyDeleteआपने बताया कि मैं रोज तीन-चार पोस्ट ही तो पढता हूँ। तब एकाध पर टिपिया भी दें तो बड़ा उत्साह बढ़ जायेगा किसी न किसी का. :)
नारायण, नारायण। नारद जी के बहाने आपने अच्छी वाट लगा दी। लेकिन जो भी बड़ा मस्त लिखा है। मजा आ गया। देखिए नारद की पीड़ा देख शायद अब भाषा में कुछ सुधार हो
ReplyDeleteजब् नारद जैसे ज्ञानी की वाट् लगी है तो हमारी कौन् बिसात्! :)
ReplyDeleteये वाट नारद ने खुद लगाई है,आज भी और पहले भी ,जब बंदर का रुप मिला था,तब भी नारद स्वंय की महानता मे मगन था आज भी वही है,देवाशीश के साथ..:)
ReplyDeleteइब्तिदा-ए इश्क है रोता है क्या.
ReplyDeleteआगे आगे देखिए होता है क्या.
बकौले दुष्यन्त-
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गये.
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गये.
दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो,
तमाशबीन दुकानें लगाकर बैठ गये.
शिवकुमारजी अब हमारी ग़ज़ल का मतला अर्ज है-
बे अकल होंगे तेरा नाज़ उठाने बाले.
हम सरेआम तेरी वाट लगाने वाले.
ऋषि के भेष में कातिल ये फिरा करते हैं,
ये हकीकत कब समझेंगे जमाने वाले ?.