Wednesday, September 19, 2007

सामूहिक विवेकगाथा - ट्रक या रेल दहन


अखबार पढ़ रहा हूँ। पहले पन्ने पर एक फोटो छपी है। फोटो में ट्रकों को जलते हुए देखा जा सकता है. संवाददाता ने फोटो के नीचे जानकारी दे दी है. केवल बारह ट्रक जल रहे हैं. और जल सकते थे, लेकिन केवल बारह ही जलाए जा सके. भारतवर्ष के बाकी ट्रक भाग्यशाली रहे कि उस जगह पर नहीं थे.

(समाचारपत्र में छपे ट्रक दहन के चित्र)
आसनसोल की घटना है। एक ट्रक ने मोटरसाईकिल पर सवार एक युवक को 'कुचल' दिया. युवक की मृत्यु हो गई. यही मौका था, समाज के अति उत्साही लोगों के पास कि वे अपने ऊपर से समाज के कर्ज को उतार पाते. सो उन्होंने ट्रकों को जलाकर समाज के कर्ज को उतार दिया. विवेक एक ऐसा गुण है जो जानवरों के अन्दर नहीं पाया जाता, केवल मनुष्य के अन्दर पाया जाता है. यही विवेक मनुष्य को जानवर से ऊंचा दर्जा दिलाता है. रास्ते पर कितने ही जानवर ट्रकों और बसों से कुचले जाते हैं, लेकिन उनके पास विवेक नहीं होता, सो वे ट्रक और बसों को नहीं जला पाते. एक अकेले इंसान का विवेक ऐसे मामलों में देखने को मिलता है. और सामूहिक विवेक के तो क्या कहने!

अब ऐसे अति उत्साही जिम्मेदार नागरिकों से कौन सवाल करे कि; 'भैया एक ट्रक ने कुचल दिया, तो ग्यारह और जलाने की जरूरत कहाँ पड़ गई.' या फिर ऐसा करके क्या मिलेगा. लेकिन पूछे कौन? और अगर किसी ने हिम्मत करके पूछ भी लिया तो उससे क्या होने वाला है? इन जिम्मेदार नागरिकों ने अपना काम तो कर दिया.

पर एक बात जरूर है. अपने काम को ठीक बताने के लिए ये लोग कुछ भी तर्क दे सकते हैं. फर्ज करें कि किसी पत्रकार ने अगर पूछ लिया तो वार्तालाप शायद कुछ ऐसा होगा:

पत्रकार; "ये क्या किया आपने? इससे क्या फायदा हुआ?"
नागरिक ;" आपको नहीं मालूम। ये ट्रक बड़े बदमाश हैं। इन्होने जान बूझकर उस लडके को मार डाला।"
पत्रकार; "लेकिन गलती तो उस लडके की भी हो सकती है"।
नागरिक; "उस लडके की गलती कैसे हो सकती है? ट्रक बड़ा है कि मोटरसाईकिल?"
पत्रकार; "ट्रक बड़ा है।"
नागरिक; "तो जब आप मान रहें है कि ट्रक बड़ा है, तो फिर गलती मोटरसाईकिल वाले की कैसे हो सकती है"।
पत्रकार; "हो सकता है कि उस मोटरसाईकिल वाले ने सड़क के नियमों का पालन न किया हो।"
नागरिक; "हो ही नहीं सकता। आपको आईडिया नहीं है। छोटी सवारी वाले हमेशा सड़क के नियमों का पालन करती हैं। आपको इतना भी नहीं मालूम? किसने आपको पत्रकार बना दिया?"
पत्रकार; "चलिए मैंने मान लिया कि मुझे आईडिया नहीं है। लेकिन ऐसा करके आपने तो कितने लोगों का नुकसान कर दिया। ये करना तो ठीक नहीं रहा. ट्रक तो कोई इंसान ही चला रहा होगा."
नागरिक; "आपको नहीं मालूम. ट्रक का ड्राईवर धीरे-धीरे चला रहा था. लेकिन इस ट्रक ने ही जिद की, तेज चलाने की."

पत्रकार अपना माथा पीट लेगा। ये सोचते हुए वहाँ से चला जायेगा कि; 'यही मोटरसाईकिल सवार अगर सकुशल अपने मुहल्ले पहुँच जाता तो इस समय दोस्तों के बीच बैठे डीगें हांक रहा होता कि आज उसने एक ट्रक के साथ रेसिंग की और जीत गया’.

'सामूहिक विवेक' की बात पर एक घटना और याद आ गई। १४ सितंबर के दिन कुछ कावरियों को ट्रेन ने 'कुचल' दिया. धर्म यात्रा पर निकले ये लोग सरयू किनारे रेलवे के एक पुल को स्टेशन समझकर उतर गए. मैंने तो यहाँ तक सुना कि चेनपुलिंग करके उतरे थे क्योंकि पुल पर से 'मंज़िल' तक पहुचना आसान होता. पुल पर उतरने के बाद सामने से आती एक रेलगाड़ी ने इन्हें कुचल दिया. कुछ तो जान बचाने के लिए नदी में कूद गए. क़रीब बीस लोग मारे गए. यहाँ भी वैसा ही हुआ, जैसा आसनसोल में हुआ था. कुछ लोगों का सामूहिक विवेक जाग गया और उन्होंने रेलवे संपत्ति को जला डाला. ये लोग स्टेशन तक जला देने पर उतारू थे, लेकिन बाद में केवल थोड़ी सी संपत्ति जलाकर संतोष कर लिया.

इनसे अगर कोई पत्रकार इनकी हरकतों के बारे में सवाल पूछता तो वार्तालाप शायद कुछ ऐसा होता:

पत्रकार; "आप लोगों ने रेलवे का इतना नुकसान कर दिया, इससे क्या मिला?"
कांवरिया; " ये तो होना ही था. एक रेलगाड़ी हमें मार डाले और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, ऐसा कैसे हो सकता है?"
पत्रकार; "लेकिन आप लोगों को उस पुल पर उतरना नहीं चाहिए था. वहाँ तो पैदल चलने का रास्ता भी नहीं था".
कांवरिया; "हम भोले बाबा के दर्शन के लिए जा रहे हैं. कौन से रास्ते से जाना है ये हम तय करेंगे. धर्म के काम में रेलवे तो क्या किसी को भी हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है."
पत्रकार; "लेकिन इतना तो सोचना चाहिए थे कि ख़तरा है."
कांवरिया; "धर्मपालन में खतरों से डरेंगे तो कैसे चलेगा. भोले बाबा के दर्शन के लिए हम किसी भी खतरे का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं."
पत्रकार; "लेकिन आपको बचाने की कोशिश तो उस ट्रेन के ड्राईवर ने की. उसने ब्रेक लगाया तो था।"
कांवरिया; "पूरी कोशिश नही की. अगर ब्रेक लगाने से काम नहीं बना तो ड्राईवर का कर्तव्य था कि वो ट्रेन को मोड़ लेता. ऐसी आधी-अधूरी कोशिश से क्या फायदा."

यहाँ भी पत्रकार अपना माथा पीट लेगा। ये सोचते हुए चला जायेगा कि; ' ये कांवारिये अगर भोले बाबा के दर्शन करके खुशी-खुशी घर पहुच जाते तो अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से शेखी बघारते कि पूरे एक सौ मील पैदल चलकर बिना खाए-पीये गये और भोले बाबा का दर्शन किया। पाँव पूरे छाले से भर गए.'

8 comments:

  1. भीड़/समूह तो हमेशा ही पागलपन से लबरेज़ होता है.. नियमतः..ऐसा नीत्शे ने कहा है.. (मैंने पैराफ़्रेज़ किया है)

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  2. दिल्ली में कांवरिये भी एक महीने सड़कों की ऐसी-तैसी किये रहते हैं। यह देश आस्था, बेवकूफी, पागलपने और चिरकुटई और भोलेपन का विकट कालोबोरेशन है। इसमें हम भी शामिल हैं जी।

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  3. ग्रेट भाई जी,

    बहुत बढ़िया लिखा.बिल्कुल सही है.अपने देश मे कुछ कर गुजरने का जज्बा हमेशा ही मौजूद रहा है.उसमे भी यदि किसी का साथ मिल जाए और एक भीड़ जुट जाए तो फ़िर क्या कहने.यही भीड़ जब सकारात्मक रस्ते पर चली तो जान प्राण दे देश को gulami से nizat dilwa देती है और जब dishaheen हो jati है तो talibani banne मे एक pal भी नही लगता इसे.सच पूछिये तो आजकल हम अपनी आजादी का भरपूर फायदा उठाने की एक तरह से होड़ मे हैं और अपना frustration और जिम्मेदारी दोनों को इस तरह के मौकों पर निकल खुश और संतुष्ट हो लेते हैं.aajkal तो charon or जिस तरह के नित नए तांडव होते रहते हैं,की समाचार पत्र या टीवी किसी भी मध्यम से समाचार पढने देखने के नाम से ही घबराहट होने लगती है.

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  4. सही!!

    रचना जी के कथन से सहमत हूं।

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  5. आपमें पत्रकार बनने के पूरे गुण हैं.:-)

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  6. काकेश -'आपमें पत्रकार बनने के पूरे गुण हैं.:-)'

    @ काकेश जी,

    कहाँ सर.पूरे नहीं हैं. अभी 'स्टिंग' आपरेशन नहीं सीख पाया हूँ......:-)

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  7. बंधु

    बहुत सही बात कही है आपने भीड़ का न कोई मज़हब होता है और न ही कोई सिधान्त ! हम विवेक हीनता के स्वर्णकाल का हिस्सा हैं ! अफ़सोस इस बात का है की आप की बात पढने वाले और समझने वाले अब लुप्त पराये श्रेणी के लोग हैं जो आप के ब्लॉग रूपी अभ्यारण मैं शरण लेने आ टपकते हैं !

    लोगों के पास इतना समय है की यदि वे उसे इस प्रकार के सामाजिक कामों मैं खर्च न करें तो बताईये कहाँ करें ? ट्रक कार ट्रेन इत्यादी तो जायेका बदलने को जलाये जाते हैं वरना नेताओं के पुतले जलाना ही सदा बहार काम है इन लोगों का ! ये लोग ज्वलन शील समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं !

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  8. भीड़ की मानसिकता बगैर सर पैर की होती है और किसी ओर भी लुढ़क जाने मे सक्षम. अच्छा आलेख लाये आप इस विषय पर.

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय