Tuesday, February 5, 2008

नारे ने काम किया, देश महानता की राह पर अग्रसर है

आज सुबह आफिस आते हुए सड़क पर कुछ लोगों को झगड़ते देखा. दो लोग झगड़ रहे थे क्योंकि दोनों की कारें टकरा गई थीं. कोई अपनी गलती मानने के लिए तैयार नहीं था. पिछले दिनों मुम्बई में जो कुछ भी हुआ उससे लगता है जैसे हमलोग अनुशासन को नए आयाम देने पर उतारू हैं. प्रस्तुत है मेरी एक पोस्ट जो मैं पहले भी पब्लिश कर चुका हूँ लेकिन एक बार फिर से पब्लिश कर रहा हूँ.....

सत्तर और अस्सी के दशक के सरकारी नारों को पढ़कर बड़े हुए। उस समय समझ कम थी। अब याद आता है तो बातें थोड़ी-थोड़ी समझ में आती हैं। ट्रक, बस, रेलवे स्टेशन और स्कूल की दीवारों पर लिखा गया नारा, 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' सबसे ज्यादा दिखाई देता था। भविष्य में इतिहासकार जब इस नारे के बारे में खोज करेंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि 'एक समय ऐसा भी आया था जब अचानक पूरे देश में अनुशासन की कमी पड़ गई थी। अब गेंहूँ की कमी होती तो अमेरिका से गेहूं का आयात कर लेते (सोवियत रूस के मना करने के बावजूद), जैसा कि पहले से होता आया था। लेकिन अनुशासन कोई गेहूं तो है नहीं।' इतिहासकार जब इस बात की खोज करेंगे कि अनुशासन की पुनर्स्थापना कैसे की गई तो शायद कुछ ऐसी रिपोर्ट आये:-

'सरकार' के माथे पर पसीने की बूँदें थीं। अब क्या किया जाय? इस तरह की समस्या पहले हुई होती तो पुराना रेकॉर्ड देखकर समाधान कर दिया जाता। चिंताग्रस्त प्रधानमंत्री ने नैतिकता और अनुशासन को बढावा देने वाली कैबिनेट कमिटी की मीटिंग बुलाई। चिंतित मंत्रियों के बीच एक 'इन्टेलीजेन्ट' अफसर भी था। सारी समस्या सुनने के बाद उसके मुँह से निकला "धत तेरी। बस, इतनी सी बात? ये लीजिये नारा"। उसके बाद उसने 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' नामक नारा दिया। साथ में उसने बताया; "इस नारे को जगह-जगह लिखवा दीजिए और फिर देखिए किस तरह से अनुशासन देश के लोगों में कूट-कूट कर भर जाएगा"।

मंत्रियों के चेहरे खिल गए। सभी ने एक दूसरे को बधाई दी। प्रधानमंत्री ने उस अफसर की भूरि-भूरि प्रशंसा की।एक मंत्री ने नारे के सफलता को लेकर कुछ शंका जाहिर की। उस मंत्री की शंका का समाधान अफसर ने तुरंत कुछ इस तरह किया। "आप चिन्ता ना करें, नारा पूरा काम करेगा। काबिल नारों को लिखने का हमारा पारिवारिक रेकॉर्ड अच्छा है। मेरे पिताजी ने ही साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई नामक नारा लिखकर किया था"।

इस अनुशासन वाले नारे ने अपना काम किया। लोगों में अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई। हम ऐसे निष्कर्ष पर इस लिए पहुंच सके क्योंकि नब्बे के दशक के बाद ये नारा लगभग लुप्त हो गया। ट्रकों पर नब्बे के दशक में इस नारे की जगह 'विश्वनाथ ममनाथ पुरारी, त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी' और 'नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी' जैसे नारों ने ले ली। जहाँ तक रेलवे स्टेशन की बात है तो वहाँ इस नारे की जगह 'जहर खुरानों से सावधान' और 'संदिग्ध वस्तुओं को देखकर कृपया पुलिस को सूचित करें' जैसे नारों ने ले ली। ये अनुशासन वाला नारा कहीँ पर लिखा हुआ नहीं दिखा। दिखने का कोई प्रयोजन भी नहीं था। जब अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई तो नारे का कोई मतलब नहीं रहा।'

ये तो थी इतिहासकारों की वो रिपोर्ट जो आज से पचास साल बाद प्रकाशित होगी और इस रिपोर्ट पर शोध करके छात्र 'इतिहास के डाक्टर' बनेंगे। लेकिन नब्बे के दशक से इस नारे का सही उपयोग हमने शुरू किया। अनुशासन शब्द का व्यावहारिक अर्थ हो सकता है 'खुद के ऊपर शासन करना' या एक तरह 'लगाम लगाना'। (व्यावहारिकता की बात केवल इस लिए कर रहा हूँ क्योंकि ये नारा केवल हिंदी के डाक्टरों' के लिए नहीं लिखा गया था)। लेकिन शार्टकट खोजने की हमारी सामाजिक परम्परा के तहत हमने इस शब्द का 'शार्ट अर्थ' भी निकाल लिया। हमने इस अर्थ, यानी 'खुद के ऊपर शासन करना' में से 'के ऊपर' निकाल दिया। 'शार्ट अर्थ' का सवाल जो था। उसके बाद जो अर्थ बचा, वो था 'खुद शासन करना'। और ऐसे अर्थ का प्रभाव हमारे सामने है।

हम सभी ने खुद शासन करना शुरू कर दिया। होना भी यही चाहिए। जब अपने अन्दर 'शासक' होने की क्षमता है, तो हम सरकार या फिर किसी और को अपने ऊपर शासन क्यों करने दें? अब हम रोज पूरी लगन से अपनी शासकीय कार्यवाई करते हैं। आलम ये है कि हम सड़क पर बीचों-बीच बसें खड़ी करवा लेते हैं। इशारा करने पर अगर बस नहीं रुके तो गालियों की बौछार से ड्राइवर को धो देते हैं। आख़िर शासक जो ठहरे। हमारे शासन का सबसे उच्चस्तरीय नज़ारा तब देखने को मिलता है जब कोई मोटरसाईकिल सवार सिग्नल लाल होने के बावजूद सांप की तरह चलकर फुटपाथ का सही उपयोग करते हुए आगे निकल जाता है।

कभी-कभी सामूहिक शासन का नज़ारा देखने को मिलता है। हम बरात लेकर निकलते हैं। पूरी की पूरी सड़क पर कब्जा कर लेते हैं और आधा घंटे में तय कर सकने वाली दूरी को तीन घंटे में तय करते हैं। ट्रैफिक जाम करने का मौका बसों और कारों को नहीं देते। वैसे भी क्यों दें, जब हमारे अन्दर इतनी क्षमता है कि हम खुद ही सड़क पर जाम कर सकते हैं। सामूहिक शासन के तहत रही सही कसर हमारे 'धार्मिक शासक' पूरी कर देते हैं। बीच सड़क पर दुर्गा पूजा से लेकर शनि पूजा तक का प्रायोजित कार्यक्रम पूरी लगन के साथ करते हैं। पूजा ख़त्म होने के बाद मूर्तियों का भसान और उसके बाद नाच-गाने का 'कल्चरल प्रोग्राम', सब कुछ सड़क पर ही होता है। हर महीने ऐसे लोगों को देखकर हम आश्वस्त हो जाते हैं कि देश में डेमोक्रेसी है।

हमारे इस कार्यवाई के ख़िलाफ़ पुलिस भी कुछ नहीं बोलती। बोलेगी भी क्यों? ट्रैफिक मैनेजमेंट का तरीका भी नारों के ऊपर टिका है। रोज आफिस जाते हुए पुलिस द्वारा बिछाए गए कम से कम बीस नारे देखता हूँ। ट्रैफिक के सिपाही को उसके बडे अफसर ने हिदायत दे रखी है कि कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। हाँ, जनता को नारे दिखने चाहिए। बाक़ी तो जनता अनुशासित है ही। मैं इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि 'पुलिस आफिसर आन् स्पेशल ड्यूटी' होते हैं जिनका काम केवल नारे लिखना है। नारे पढ़कर मैं कह सकता हूँ कि ये आफिसर अपना काम बडे मनोयोग के साथ करते हैं। रोज आफिस जाते हुए मेरी मुलाक़ात कोलकाता पुलिस के एक साइनबोर्ड से होती है जिसपर लिखा हुआ है; 'लाइफ हैज नो स्पेयर, सो टेक वेरी गुड केयर'। इस बोर्ड को सड़क के एक कोने में रखकर ट्रैफिक का सिपाही गप्पे हांक रहा होता है। उसे इस बात से शिक़ायत है कि पिछले मैच में मोहन बागान के स्ट्राईकर ने पास मिस कर दिया नहीं तो ईस्ट बंगाल मैच नहीं जीत पाता।

आशा है कि नारे लिखकर समस्याओं का समाधान खोजने की हमारी क्षमता भविष्य में और भी निखरेगी। नारे पुलिस के लिए भी काम करते रहेंगे। जरूरत भी है, क्योंकि आने वाले दिनों में भी ईस्ट बंगाल मोहन बगान को हराता रहेगा। हम अपने अनुशासन (या फिर शासन) में नए-नए प्रयोग करते रहेंगे।

5 comments:

  1. धन्यवाद री-पोस्ट के लिये. चलिये हम भी एक नारा देते हैं.

    रघुपति राघव राजा राम, जितना पैसा उतना काम

    बांकी आप समझदार है.

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  2. बंधू
    आप की ये पोस्ट दुबारा पढ़ के भी उतना ही आनंद आया जितना की पहली बार में आया था. कुछ बातें शाश्वत होती हैं..आप की ये पोस्ट भी उसी श्रेणी की है... जितनी बार पढो नयी लगती है... धन्य हो.
    नीरज

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  3. एक से मन नही भरा.एक के साथ एक और फ्री लो.......

    "जबतक सूरज चाँद रहेगा,
    बचवा तेरा नाम रहेगा..."
    गंगा जमुना का पानी जब बिला जाएगा, तो सूरज चाँद वाला काम आएगा.ठीक है ना???????

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  4. Itna kya vyangya par kalam ghise ja rahe ho,thoda kavita vavita bhi likhoge.Dekho kaise log dhuan dhaar kavita likhe ja rahe hain aur kavi banne ka sankalp uthaye ja rahe hai.Abhi baar ek vajandaar kavita likho.

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  5. अच्छा लिखा [जिन्दाबाद, जिन्दाबाद(:-)]- याद आया - उन दिनों का एक और नारा था - "एक ही जादू / कड़ी मेहनत / दूर दृष्टि / पक्का इरादा" हमारी तरफ़ उसका लोकार्पण होते होते हुआ "एक ही जादू / हमरे बाद हमार दादू" (दादू, विन्ध्य प्रदेश में लड़के को कहते हैं) - मनीष [ कुछ दिनों आपका ब्लॉग आमंत्रण वाला हो गया था ? ]

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय