Wednesday, December 31, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २०८०

नया साल आने को है. नया साल आने के लिए ही होता है. जाने का काम तो पुराने के जिम्मे है. काश कि ये बात पितामह और चाचा बिदुर जैसे लोग समझ पाते. सालों से जमे हुए हैं. हटने का नाम ही नहीं लेते. कम से कम आते-जाते सालों से ही कुछ सीख लेते. सीख लेते तो दरबार में बैठकर हर काम में टांग नहीं अड़ाते.

रोज नीतिवचन ठेलते रहते हैं. ये करना उचित रहेगा. वो करना अनुचित रहेगा. कदाचित ऐसा करना नीति के विरुद्ध रहेगा. कान पक गए हैं इनलोगों की बातें सुनकर. और इन्हें भी समझने की ज़रूरत है कि अब इनके दिन बायोग्राफी लिखने के हैं. दरबार में बैठकर हर काम में टांग अड़ाने के नहीं.

मैं तो कहता हूँ कि ये लोग पब्लिशर्स खोजें और अपनी-अपनी बायोग्राफी लिखकर मौज लें. पब्लिशर्स नहीं मिलते तो मुझसे कहें. मैं एक पब्लिशिंग हाउस खोल दूँगा. बस ये लोग राज-काज के कामों में दखल देना बंद कर दें. बायोग्राफी लिखने के दिन हैं इनके. ये उन कार्यों में अपना समय दें न. ये अलग बात है कि उनकी बायोग्राफी की वजह से तमाम लोगों की बखिया उधड़ जायेगी.

खैर, ये आने-जाने वाले सालों से कुछ नहीं सीखते तो हम कर भी क्या सकते हैं?

हमें तो नए साल का बेसब्री से इंतजार रहता है. आख़िर नया साल न आए और पुराना न जाए तो पता ही न चले कि पांडवों को अभी कितने वर्ष वनवास में रहना है? पड़े होंगे कहीं भाग्य को रोते. और फिर रोयेंगे क्यों नहीं? किसने कहा था जुआ खेलने के लिए?

जुआ खेला इसलिए वनवास की हवा खानी पडी. जुआ की जगह क्रिकेट खेलते तो ये नौबत नहीं आती. बढ़िया खेलते तो इंडोर्समेंट कंट्रेक्ट्स ऊपर से मिलते. लेकिन फिर सोचता हूँ कि वे तो क्रिकेट खेल लेते लेकिन हम कैसे खेलते? हम तो खेल ही नहीं पाते. आख़िर क्रिकेट इज अ जेंटिलमैन्स गेम.

दुशासन नए साल की तैयारियों में व्यस्त है. व्यस्त तो क्या है, व्यस्तता दिखा रहा है. कभी इधर तो कभी उधर. मदिरा का इंतजाम हुआ कि नहीं? नर्तकियों की लिस्ट फाईनल हुई कि नहीं? काकटेल पार्टी में कौन सी मदिरा का इस्तेमाल होगा? चमकीले कागज़ कहाँ-कहाँ लगने हैं? अतिथियों की लिस्ट रोज माडीफाई हो रही है. नर्तकियों का रोज आडीशन हो रहा है. इसकी तत्परता और मैनेजेरियल स्किल्स देखकर लगता है जैसे गुरु द्रोण ने इसे पार्टी आयोजन पर पी एचडी की डिग्री अपने हाथों से दी थी.

वैसे दुशासन को देखकर आश्वस्त भी हो जाता हूँ कि ये भविष्य में होटल इंडस्ट्री में हाथ आजमा सकता है.

कल उज़बेकिस्तान से पधारी दो नर्तकियों को लेकर आया. कह रहा था ये दोनों वहां की सबसे कुशल नर्तकियां हैं. पोल डांस में माहिर. उनकी फीस के बारे में पूछा तो पता चला कि बहुत पैसा मांगती हैं. कह रही थीं सारा पेमेंट टैक्स फ्री होना चाहिए. उनकी डिमांड सुनकर महाराज भरत की याद आ गई. एक समय था जब उज़बेकिस्तान भी महाराज भरत के राज्य का हिस्सा था. आज रहता तो इन नर्तकियों की हिम्मत नहीं होती इस तरह की डिमांड करने की. लेकिन अब कर भी क्या सकते हैं?

वैसे इन नर्तकियों की नृत्य प्रतिभा देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. अब तो मैंने दृढ़ निश्चय किया है कि जब मैं राजा बनूँगा और अपने राज्य का विस्तार एक बार फ़िर से उज़बेकिस्तान तक करूंगा. केवल इसलिए कि वहां की नर्तकियां बहुत कुशल होती हैं.

शाम को कर्ण आकर गया. मैंने नए साल की तैयारियों के बारे में जानकारी देने की कोशिश की तो उसने कोई उत्सुकता ही नहीं दिखाई. पता नहीं कैसा बोर आदमी है. न तो मदिरापान में रूचि है और न ही नाच-गाने में. इसे देखकर तो नया साल भी बोर हो जाता होगा. मैंने रुकने के लिए कहा तो ये कहकर टाल गया कि सुबह-सुबह पिताश्री के दर्शन करने जाना है. रात को पार्टी में देर तक रहेगा तो सुबह आँख नहीं खुलेगी.

खैर, और कर भी क्या सकते है. कभी-कभी तो लगता है कि कितना अच्छा होता अगर कर्ण इन्द्र का पुत्र होता. इन्द्र के गुण इसके अन्दर रहते और इसके साथ नया साल मनाने का मज़ा ही आ जाता.

जयद्रथ भी बहुत खुश है. शाम से ही केश- सज्जा में लगा हुआ है. दर्पण के सामने से हट ही नहीं रहा है. कभी मुकुट को बाईं तरफ़ से देखता है तो कभी दाईं तरफ़ से. शाम से अब तक मोतियों की सत्रह मालाएं बदल चुका है. चार तो आफ्टरसेव ट्राई कर चुका है. उसे देखकर लग रहा है जैसे उसने आज ऐसा नहीं किया तो नया साल आने से मना कर देगा.

दुशासन ने अवन्ती से मशहूर डीजे केतु को बुलाया है. आने के बाद ये डीजे फिल्मी गानों की सीडी परख रहा है. कौन से गाने के बाद कौन सा गाना चलेगा. दुशासन और जयद्रथ ने अपनी-अपनी फरमाईश इसे थमा दी है. आख़िर एक सप्ताह से ये दोनों डांस की प्रक्टिस करते हलकान हुए जा रहे हैं.

कवियों ने भी नए साल के स्वागत में कवितायें लिखनी शुरू कर दी है. इन कवियों को भी लगता है कि ये कविता नहीं लिखेंगे तो नया साल आएगा ही नहीं. ऐसे क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि उनके अर्थ खोजने के लिए शब्दकोष की आवश्यकता पड़ती है. नए साल को नव वर्ष कहते हैं. एक कवि ने नए साल के दिनों को नव-कोपल तक बता डाला.

पता नहीं कब तक इन शब्दों और उपमाओं को ढोते रहेंगे? वो भी तब जब परसों ही हस्तिनापुर के सबसे वयोवृद्ध साहित्यकार ने घोषणा कर दी कि इस तरह की उपमाएं और साहित्य अब अजायबघर में रखने की चीजें हो गईं हैं. लेकिन इन कवियों और साहित्यकारों की आंखों पर तो काला चश्मा पड़ा हुआ है.

खैर, हमें क्या? कौन सा हमें कविताओं पर डांस करना है? हमारे लिए अवन्ती का डीजे फिल्मी गाने चुनने में सुबह से ही लगा हुआ है.

हम भी चलते हैं अब. जरा केश-सज्जा वगैरह कर ली जाय.

पुनश्च:

अच्छा हुआ आज शाम को सात बजे ही डायरी लिख ली. सोने से पहले लिखने की सोचता तो शायद आज का पेज लिख ही नहीं पाता. आख़िर आज तो सोने का दिन ही नहीं है. आज तो सारी रात जागना है.

Friday, December 26, 2008

बापी दास का क्रिसमस वर्णन


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यह निबंध नहीं बल्कि कलकत्ते में रहने वाले एक युवा, बापी दास का पत्र है जो उसने इंग्लैंड में रहने वाले अपने एक नेट-फ्रेंड को लिखा था. इंटरनेट सिक्यूरिटी में हुई गफलत के कारण यह पत्र लीक हो गया. ठीक वैसे ही जैसे सत्ता में बैठी पार्टी किसी विरोधी नेता का पत्र लीक करवा देती है. आप पत्र पढ़ सकते हैं क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे 'प्राइवेट' समझा जा सके.

पिछले साल क्रिसमस के दिन लिखा और प्रकाशित किया था...

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प्रिय मित्र नेटाली,

पहले तो मैं बता दूँ कि तुम्हारा नाम नेटाली, हमारे कलकत्ते में पाये जाने वाले कई नामों जैसे शेफाली, मिताली और चैताली से मिलता जुलता है. मुझे पूरा विश्वास है कि अगर नाम मिल सकता है तो फिर देखने-सुनने में तुम भी हमारे शहर में पाई जाने वाली अन्य लड़कियों की तरह ही होगी.

तुमने अपने देश में मनाये जानेवाले त्यौहार क्रिसमस और उसके साथ नए साल के जश्न के बारे में लिखते हुए ये जानना चाहा था कि हम अपने शहर में क्रिसमस और नया साल कैसे मनाते हैं. सो ध्यान देकर सुनो. सॉरी, पढो.

तुमलोगों की तरह हम भी क्रिसमस बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. थोडा अन्तर जरूर है. जैसा कि तुमने लिखा था, क्रिसमस तुम्हारे शहर में धूम-धाम के साथ मनाया जाता है, लेकिन हम हमारे शहर में घूम-घाम के साथ मनाते हैं. मेरे जैसे नौजवान छोकरे बाईक पर घूमने निकलते हैं और सड़क पर चलने वाली लड़कियों को छेड़ कर क्रिसमस मनाते हैं. हमारा मानना है कि हमारे शहर में अगर लड़कियों से छेड़-छाड़ न की जाय, तो यीशु नाराज हो जाते हैं. हम छोकरे अपने माँ-बाप को नाराज कर सकते हैं, लेकिन यीशु को कभी नाराज नहीं करते.

क्रिसमस का महत्व केक के चलते बहुत बढ़ जाता है. हमें इस बात पर पूरा विश्वास है कि केक नहीं तो क्रिसमस नहीं. यही कारण है कि हमारे शहर में क्रिसमस के दस दिन पहले से ही केक की दुकानों की संख्या बढ़ जाती है. ठीक वैसे ही जैसे बरसात के मौसम में नदियों का पानी खतरे के निशान से ऊपर चला जाता है.

क्रिसमस के दिनों में हम केवल केक खाते हैं. बाकी कुछ खाना पाप माना जाता है. शहर की दुकानों पर केक खरीदने के लिए जो लाइन लगती है उसे देखकर हमें विश्वास हो जाता है दिसम्बर के महीने में केक के धंधे से बढ़िया धंधा और कुछ भी नहीं. मैंने ख़ुद प्लान किया है कि आगे चलकर मैं केक का धंधा करूंगा. साल के ग्यारह महीने मस्टर्ड केक का और एक महीने क्रिसमस के केक का.

केक के अलावा एक चीज और है जिसके बिना हम क्रिसमस नहीं मनाते. वो है शराब. हमारी मित्र मंडली (फ्रेंड सर्कल) में अगर कोई शराब नहीं पीता तो हम उसे क्रिसमस मनाने लायक नहीं समझते. वैसे तो मैं ख़ुद क्रिश्चियन नहीं हूँ, लेकिन मुझे इस बात की समझ है कि क्रिसमस केवल केक खाकर नहीं मनाया जा सकता. उसके लिए शराब पीना भी अति आवश्यक है.

मैंने सुना है कि कुछ लोग क्रिसमस के दिन चर्च भी जाते हैं और यीशु से प्रार्थना वगैरह भी करते हैं. तुम्हें बता दूँ कि मेरी और मेरे दोस्तों की दिलचस्पी इन फालतू बातों में कभी नहीं रही. इससे समय ख़राब होता है.

अब आ जाते हैं नए साल को मनाने की गतिविधियों पर. यहाँ एक बात बता दूँ कि जैसे तुम्हारे देश में नया साल एक जनवरी से शुरू होता है वैसे ही हमारे देश में भी नया साल एक जनवरी से ही शुरू होता है. ग्लोबलाईजेशन का यही तो फायदा है कि सब जगह सब कुछ एक जैसा रहे.

नए साल की पूर्व संध्या पर हम अपने दोस्तों के साथ शहर की सबसे बिजी सड़क पार्क स्ट्रीट चले जाते हैं. है न पूरा अंग्रेजी नाम, पार्क स्ट्रीट? मुझे विश्वास है कि ये अंग्रेजी नाम सुनकर तुम्हें बहुत खुशी होगी. हाँ, तो हम शाम से ही वहाँ चले जाते हैं और भीड़ में घुसकर लड़कियों के साथ छेड़-खानी करते हैं.

हमारा मानना है कि नए साल को मनाने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं होगा. सबसे मजे की बात ये है कि मेरे जैसे यंग लड़के तो वहां जाते ही हैं, ४५-५० साल के अंकल टाइप लोग, जो जींस की जैकेट पहनकर यंग दिखने की कोशिश करते हैं, वे भी जाते हैं. भीड़ में अगर कोई उन्हें यंग नहीं समझता तो ये लोग बच्चों के जैसी अजीब-अजीब हरकतें करते हैं जिससे लोग उन्हें यंग समझें.

तीन-चार साल पहले तक पार्क स्ट्रीट पर लड़कियों को छेड़ने का कार्यक्रम आराम से चल जाता था. लेकिन पिछले कुछ सालों से पुलिस वालों ने हमारे इस कार्यक्रम में रुकावटें डालनी शुरू कर दी हैं. पहले ऐसा ऐसा नहीं होता था. हुआ यूँ कि दो साल पहले यहाँ के चीफ मिनिस्टर की बेटी को मेरे जैसे किसी यंग लडके ने छेड़ दिया. बस, फिर क्या था. उसी साल से पुलिस वहाँ भीड़ में सादे ड्रेस में रहती है और छेड़-खानी करने वालों को अरेस्ट कर लेती है.

मुझे तो उस यंग लडके पर बड़ा गुस्सा आता है जिसने चीफ मिनिस्टर की बेटी को छेड़ा था. उस बेवकूफ को वही एक लड़की मिली छेड़ने के लिए. पिछले साल तो मैं भी छेड़-खानी के चलते पिटते-पिटते बचा था.

नए साल पर हम लोग कोई काम-धंधा नहीं करते. वैसे तो पूरे साल कोई काम नहीं करते, लेकिन नए साल में कुछ भी नहीं करते. हम अपने दोस्तों के साथ ट्रक में बैठकर पिकनिक मनाने जरूर जाते हैं. वैसे मैं तुम्हें बता दूँ कि पिकनिक मनाने में मेरी कोई बहुत दिलचस्पी नहीं रहती. लेकिन चूंकि वहाँ जाने से शराब पीने में सुभीता रहता है सो हम खुशी-खुशी चले जाते हैं. एक ही प्रॉब्लम होती है. पिकनिक मनाकर लौटते समय एक्सीडेंट बहुत होते हैं क्योंकि गाड़ी चलाने वाला ड्राईवर भी नशे में रहता है.

नेटाली, क्रिसमस और नए साल को हम ऐसे ही मनाते हैं. तुम्हें और किसी चीज के बारे में जानकारी चाहिए, तो जरूर लिखना. मैं तुम्हें पत्र लिखकर पूरी जानकारी दूँगा. अगली बार अपना एक फोटो जरूर भेजना.

तुम्हारा,
बापी

पुनश्च: अगर हो सके तो अपने पत्र में मुझे यीशु के बारे में बताना. मुझे यीशु के बारे में जानने की बड़ी इच्छा है, जैसे, ये कौन थे?, क्या करते थे? ये क्रिसमस कैसे मनाते थे?

Wednesday, December 24, 2008

'हमरे बिरोध का वजह से ही भारत में लोकतंत्र जिन्दा है...

वही रतीराम जी की चाय-पान की दूकान. निंदक जी मिल गए. कड़क चाय बनाने की फरमाईश कर ही रहे थे कि मैं पहुँच गया. मुझे देखते ही चाय बनाने वाले 'कारीगर' को हिदायत देते हुए बोले; " दू ठो बनाओ. मिश्रा जी भी आ गए हैं."

सर्दी बढ़ जाने की वजह से सर्दी की काट के लिए जैकेट से सजे थे. एक दिन पुराना अखबार हाथ में. गले में मफलर लपेटे हुए. चेहरे से लग रहा था जैसे चाय दूकान पर काफी देर से खड़े हैं और थोडी देर पहले ही किसी के साथ किसी मुद्दे पर बहस कर चुके हैं.

मेरी तरफ़ मुखातिब हुए. बोले; "जब से रतीरमवा चाह का दुकान खोला है, इसका त चांदी हो गया है. आ समय भी खुबे चुन के निकाला."

मैं उनकी तरफ़ देखकर मुस्कुराया. मैंने कहा; "क्या मतलब?"

बोले; "वोही, देश में आतंकवादी घटना बढ़ा त चाह का दुकान खोल लिया. शुरू-शुरू में लोग आतंकवादी घटना सब पर बहस करते हुए चाह पीता था. अब इस बात पर बहस करता है सब कि पकिस्तान के साथ युद्ध होना चाहिए या नहीं. एही वास्ते कह रहे हैं कि समय का चुनाव खूब किया है ई."

मैंने कहा; "दिमाग वाले हैं रतीराम जी. वैसे आप क्या सोचते हैं? पकिस्तान के साथ युद्ध होना चाहिए या नहीं?"

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "पाहिले त हम सोचते थे कि युद्ध होना ही चाहिए. ई पकिस्तान को उसका औकात बताना बहुत ज़रूरी है. हम तो चार दिन पाहिले रैली निकालने का सोच रहे थे. देश का इज्जत का सवाल है. लोग बाहर के देश से आकर ताल ठोंककर हमला कर जाता है लेकिन ई दिल्ली में त निकम्मा बैठा हुआ है सब. ई लोग को देश का इज्जत से का लेना-देना? हम त सोच रहे थे कि रैली निकालकर नेतवा सबका बिरोध करना बहुत ज़रूरी है."

मैंने कहा; "लेकिन रैली निकली नहीं आपने."

मेरी बात सुनकर बोले; " अरे का कहें आपसे. सारा तैयारी हो गया था. भाषण तक याद कर लिए थे. बैनर बन गया था. हरिओम पवार का तीन-चार ठो कविता भी कंठस्थ कर लिए थे. अरे वोही, युद्ध वाली सब बीररस की कविता. बाकी मामला गड़बड़ा गया."

मैंने पूछा; "क्यों? क्या अड़चन आ गई?"

वे बोले; "अरे तब तक त सरकारे का मंत्री सब बोलने लगा कि भारत अपना सब आप्शन खोल के रक्खा है. ई लोग खुदे कहना शुरू कर दिया कि भारत युद्ध भी कर सकता है. फिर सुने कि सीमा पर सेना तैनाती चल रहा है. अब अईसे में रैली निकालें भी त बिरोध किसका होगा?"

मैंने कहा; "हाँ, वो तो है. अब तो लग रहा है कि मुम्बई में जब हमला हुआ, उसके दूसरे दिन ही आपको रैली निकालनी चाहिए थी. उस समय रैली को अच्छा कवरेज़ भी मिलता."

मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर पछतावा-भाव उभर आया. बोले; "आप ठीक कह रहे हैं. मौका त ओही समय बढ़िया था."

मैंने कहा; "तो अब आप सरकार के समर्थन में एक रैली निकाल दीजिये."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "समर्थन में रैली निकालने से का मिलेगा? हमें त एस्टेब्लिश्मेंट का विरोध करना है."

मैंने पूछा; "तो अब क्या करेंगे?"

वे बोले; "अब सोच रहे थे कि एक रैली निकालें जिसमें सरकार का युद्ध-नीति का विरोध कर दें. आज देश का अर्थ-व्यवस्था जईसा है, उसमें युद्ध का बात करना कहाँ तक जायज है? सरकार का त कुछ जायेगा नहीं न. पैसा त हमारा और आपका खर्च होगा. एतना पैसा खर्च होगा सब. एतना-एतना लोग मर सकता है. आ फ़िर पकिस्तान भी चूड़ी पहन के थोड़े न बैठा है. आज का डेट में ऊ भी त न्यूक्लीयर पॉवर वाला देश है. परमाणु बमे छोड़ दिया तब? कौन जिम्मेदार होगा इसका?"

मैंने कहा; "ठीक ही कह रहे हैं. वैसे भी मेरा मानना है कि युद्ध करने से नुकशान ही होगा. इससे अच्छा तो ये रहेगा कि आतंरिक सुरक्षा को सुधारने पर ज्यादा ध्यान दिया जाय."

मेरी बात सुनकर मुस्कुराने लगे. उन्हें देखकर लगा जैसे मन में सोच रहे हैं कि; 'एक बार सरकार को युद्ध की बात बंद करने दो. फिर हम इस बात पर रैली निकालेंगे कि जो सरकार पकिस्तान से युद्ध न कर सके, उसे भारतवर्ष पर शासन करने का अधिकार नहीं है.....आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने से कुछ नहीं होगा......'

उनकी मुस्कराहट से लग रहा था जैसे कह रहे हों; 'हमरे बिरोध का वजह से से भारत में लोकतंत्र जिन्दा है...'

Tuesday, December 23, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज १९७१

पता नहीं ये युधिष्ठिर किस तरह से राज्य चला रहा है कि इन्द्रप्रस्थ की ताकत बढ़ती ही जा रही है. इकनॉमिक फॉरम की किसी भी मीटिंग में जाओ, सारे राज्यों के शासक उसका ही गुणगान करते मिलते हैं. इन्द्रप्रस्थ में ये प्रगति हो रही है, इन्द्रप्रस्थ में वो प्रगति हो रही है. इन्द्रप्रस्थ का एक्सपोर्ट्स बढ़ रहा है. इन्द्रप्रस्थ में आर्थिक विकास हो रहा है. इन्द्रप्रस्थ का ह्यूमन कैपिटल अच्छा है. इन्द्रप्रस्थ ने भारी मात्रा में आग्नेय अस्त्रों का भण्डार खड़ा कर लिया है.

प्रगति होगी भी कैसे नहीं? ये केशव इन्द्रप्रस्थ के लिए सब जगह सिफारिश करते फिरते हैं. अपने राज्य का दबाव डालकर इन्द्रप्रस्थ वालों का भला करते रहते हैं. द्वारका से निकलने वाले सारे एक्सपोर्ट्स आर्डर इन्द्रप्रस्थ के उद्योगपतियों और व्यापारियों को मिल रहे हैं. और तो और गायों का इंपोर्ट भी इन्द्रप्रस्थ से ही करते हैं. यही हाल रहा तो हमारा तो जीना दूभर हो जायेगा.

पाँच साल हो गए मुझे इन्द्रप्रस्थ में तोड़-फोड़ की गतिविधियों को बढ़ावा देते लेकिन आर्थिक विकास है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा. ऊपर से वहां दूसरे राज्यों से आए सैलानियों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है.

अभी पिछले महीने ही अपने गुप्तचरों को भेज वहां के एक शापिंग माल में आग लगवाई थी. गुप्तचरों ने एक ही स्थान पर प्रजा के सत्तर लोगों को मार दिया था लेकिन दो दिन बाद उसका असर ख़त्म हो गया.

मामाश्री के सुझाव पर अवन्ती से सेना से रिटायर हुए कुछ अधिरथियों और महारथियों को बुलाकर गुप्तचरों को तोड़-फोड़ और आतंक फैलाने के लिए ऊंचे स्तर की ट्रेनिंग दिलवाई. इन्द्रप्रस्थ में तोड़-फोड़ करवाया. राजमहल पर हमला करवाया लेकिन ये इन्द्रप्रस्थ वाले भी बड़ी मोटी चमड़ी के लोग हैं. तोड़-फोड़ की बातों पर ध्यान नहीं देते. लगे हुए हैं अपने आर्थिक विकास को आगे ले जाने में.

मुझे वो दिन याद हैं जब हस्तिनापुर में प्रजा के बीच असंतोष व्याप्त था. कभी-कभी तो प्रजा को देखकर लगता है जैसे एक दिन राजमहल के ख़िलाफ़ ही लामबंद हो जायेगी. जब मैंने अपनी इस चिंता से मामाश्री को अवगत कराया तो उन्होंने सुझाव दिया था कि राजमहल की तरफ़ से काम करने वाले अराजक तत्वों के ऊपर आंच नहीं आए इसके लिए ज़रूरी है कि प्रजा को भी अराजकता फैलाने दिया जाय.

एक बार प्रजा के लोग ऐसी गतिविधियों में रूचि लेने लगे तो फिर राजमहल की तरफ़ से होने वाली अराजकता पर ध्यान नहीं देंगे.

मामाश्री का कहना बिकुल सही साबित हुआ. हस्तिनापुर के सीमावर्ती इलाकों में हथियारों की खरीद-बिक्री का काम पिछले कुछ सालों से जोरों पर है. बिना लाईसेंस के ही लोग आग्नेय अस्त्रों के कारोबार में लगे हैं.

मामाश्री की दूरदृष्टि गजब की है.

आजकल राजमहल के कार्यों से असंतुष्ट लोगों की आवाज़ कम ही सुनाई देती है. मज़ा तो तब आया जब हथियारों की खरीद-बिक्री में लगे कुछ लोगों को पटाकर मामाश्री ने द्वारका में ही तोड़-फोड़ करवा दिया. द्वारका में तोड़-फोड़ की इस घटना से कृष्ण बड़े गुस्से में था. धमकी तक दे डाली कि हस्तिनापुर पर ही आक्रमण कर देगा. मैंने तो दो टूक जवाब दे दिया. मैंने तो कह दिया कि तोड़-फोड़ करनेवाले लोग हस्तिनापुर के हैं, इस बात का कोई सुबूत नहीं है.

ये लोग हस्तिनापुर के नहीं हैं, इस बात को साबित करने के लिए मामाश्री ने अपने ही गुप्तचरों के द्बारा हस्तिनापुर के ही एक शापिंग माल में विस्फोट करवा दिया. ताकि केशव को विश्वास दिलाया जा सके कि हम भी ऐसे तत्वों से पीड़ित हैं.

द्वारका और इन्द्रप्रस्थ में आतंक फैलाने वाले ये लोग हस्तिनापुर के ही हैं. लेकिन मामाश्री ने सुझाव दिया कि ये अच्छा मौका है कृष्ण से पैसा ऐठने का. मामाश्री ने तो कह दिया कि अगर आतंक फैलाने वाले हस्तिनापुर के हैं तो हम उनको सज़ा देंगे लेकिन इस मामले में कृष्ण हमारी मदद करें. हमें कुछ धन वगैरह मुहैय्या करायें जिससे हम इनलोगों को पकड़ सकें. मामाश्री की बात मानते हुए कृष्ण ने बारह कोटि स्वर्ण मुद्राएं हस्तिनापुर को दी हैं ताकि अराजक तत्वों को सज़ा दी जा सके.

स्वर्ण मुद्राएं हमारे बहुत काम आ रही हैं. हम इन्हे खर्च करके अपनी गुप्तचर शाखा को और मजबूती प्रदान करने में लगे हैं.

आज ही दुशासन की देख-रेख में इन्द्रप्रस्थ पर हमले का एक प्लान फाईनल हुआ है. इन्द्रप्रस्थ में आतंक फैलाने के लिए सत्रह लोगों का एक दल कल ही वहां के लिए रवाना होगा. कुछ स्थानीय लोगों को धन का लालच देकर हमारे लोगों की सहायता के लिए राजी कर लिया गया है. प्लान के मुताबिक इस बार हमला कुछ विद्यालयों और विश्राम स्थलों पर किया जायेगा.

एक बार ये हमला नियोजित ढंग से हो गया तो फिर हमारे पास मौका रहेगा कि हम केशव से और माल ऐंठ सकें.

Tuesday, December 16, 2008

ब्लागाचार्य के खडाऊं का उपयोग श्रेयस्कर रहता...

हर देश के अपनी रीति-रिवाज़ होते हैं. मुझे तो आज ही पता चला कि ईराक में परंपरागत रिवाज़ के अनुसार ईराक वाले 'गुडबाय किस' देने के लिए जूते फेंककर मारते हैं. बढ़िया परम्परा है. अपने देश में जूता शादी-व्याह में चुराकर कर पैसा वसूल करने के काम आता है या फिर हनुमान जी के मन्दिर के सामने चुराए जाने के. एक बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा में मार-पीट के काम आया था लेकिन उसके बाद हमारे विधायक इस परम्परा को आगे नहीं ले जा सके.

आज अखबार में पढ़ा और टीवी पर देखा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के नए राज्य ईराक में किसी पत्रकार ने जॉर्ज बुश के ऊपर जूते फ़ेंक कर 'गुडबाय किस' देने की कोशिश की. ईराक का पत्रकार था, लिहाजा निशाना बिल्कुल सही था. लेकिन जॉर्ज बुश ठहरे अनुभवी आदमी. साल २००० में जब राष्ट्रपति पद के लिए शपथ लेने जाने वाले थे उसी समय इनके पिताश्री ने ईराक की मिसाईलों से बचने की ट्रेनिंग दी थी. लिहाजा बुश बाबू फेंके गए जूते को डाज कर गए. वे फट से अपना सर झुका गए.

ऐसे मौकों पर सिर झुकाना श्रेयस्कर रहता है.

पत्रकार को जूते फेंककर मारने का अधिकार है और राष्ट्रपति बुश को उससे बचने का. इसी को लोकतंत्र कहते हैं.

खैर इस घटना पर देश-विदेश के नेताओं और श्रेष्ठजनों ने अपने-अपने वक्तव्य दिए. पेश है उन्ही वक्तव्यों में से कुछ चुनिन्दा वक्तव्य.

लालू प्रसाद जी: "हम त पहिले ही कह रहे थे कि बजरंग दल और आरएसएस वाले ऐसा कुछ करने के फिराक में हैं. इनलोगों के ऊपर बैन लगना चाहिए. हमें पता है कि ये पत्रकार बजरंग दल का है."

लालकृष्ण आडवानी: "हमारा मानना है कि पोटा जैसे कानून फ़िर से लाने की ज़रूरत है. अगर कठोर कानून नहीं लाये गए तो इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी."

शिवराज पाटिल: "हम इस घटना की 'निर्भर्त्सना' करते हैं. हमें राष्ट्रपति बुश के परिवार के साथ सहानुभूति है. आई बी की रिपोर्ट थी कि जूते फेंके जा सकते हैं लेकिन पत्रकार कौन से पाँव का जूता फेंकेगा, इसके बारे में जानकारी नहीं थी. ऐसे में इस तरह की घटनाओं को रोकना कठिन हो जाता है......."

अमिताभ बच्चन: "अब देखिये जो हो गया उसे भूल जाना चाहिए. हमें याद रखना चाहिए कि बुश भी इसी दुनियाँ में रहेंगे और वो पत्रकार भी.....पूज्यनीय बाबू जी कहा करते थे कि आदमी को भविष्य की और देखना चाहिए. मुझे उनकी कविता याद आ रही है; "जो बीत गई वो बात गई...."

प्रकाश करात: "ये घटना साम्राज्यवाद के मुंह पर जूता है. हमें तो इस बात का पछतावा है कि केवल एक पत्रकार के पास जूता था. हम चीन की सरकार से कहेंगे कि वे सस्ते जूते बनाकर ईराक के पत्रकारों को मुहैया करवाए जिससे आने वाले दिनों में ज्यादा जूते फेंके जा सके."

बाबा रामदेव: "राष्ट्रपति बुश ने जिस तरह से फेंके गए जूते से अपना बचाव किया उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे नियमित कपालभांति और अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते हैं...हे हे हे...बड़ी-बड़ी बीमारी ठीक हो जाती है. हमने देखा है कि ह्रदय-रोग, कैंसर जैसी बीमारियाँ भी प्राणायाम से ठीक हो जाती हैं..... हाँ..हाँ..करो बेटा...करो..."

नटवर सिंह: " ये घटना हमारे लिए अच्छी ख़बर है. अब मैं सोच रहा हूँ कि अपने पुत्र जगत सिंह को एकबार फिर से ईराक भेज दूँ. हमारे पास मौका है कि फ़ूड फॉर आयल प्रोग्राम की तरह ही हम शूज फॉर आयल प्रोग्राम में हिस्सा ले सकते हैं....."

कुलदीप नैय्यर: "इस तरह की घटनाएं विचलित ज़रूर करती हैं लेकिन हमारा मानना है कि भारत और पकिस्तान एक दिन फिर से एक देश हो जायेंगे. जूता फेंकने की ये घटना दोनों देशों की दोस्ती के आड़े नहीं आएगी...."

अटल बिहारी वायपेयी : "राजधर्म नहीं निभाना लोकतंत्र में अच्छी बात नहीं है....केवल राजधर्म निभाना ही ज़रूरी नहीं है...काजधर्म निभाना भी उतना ही ज़रूरी है....मेरी इस बात को ध्यान में रखते हुए पत्रकार ने अपना 'काजधर्म' निभाया...मैंने आज ही एक नई कविता लिखी है;

गीत नया गाता हूँ, मीत नया पाता हूँ
'गुडबाय किस' देने का धर्म निभाता हूँ
हार नहीं मानूंगा, रार भी मैं ठानूंगा
बुश के कपाल पर जूता बरसाता हूँ

गीत नया गाता हूँ....

अर्जुन सिंह: " मैं ईराक की संसद में ये मुद्दा उठाऊंगा कि केवल जूते फेंककर मारने की इजाजत न दी जाए. मैं संसद में ऐसी घटनाओं के लिए चप्पल और सैंडिलों, जिन्हें दलित वर्ग का समझा जाता रहा है, के लिए सत्ताईस प्रतिशत का आरक्षण देने की अपनी मांग रखूंगा... मेरा विचार है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस पत्रकार को मुक़दमा लड़ने के लिए धन मुहैय्या करवाए..हम उसे धन ज़रूर देंगे ताकि वो अपना बचाव कर सके,

सद्दाम हुसैन: "बुश ने ईराक में कुर्दों की तरह रेबेल होने का काम किया. पत्रकार की जगह मैं होता तो बुश के ऊपर पॉँच टन नर्व गैस फेंक मारता..."

कार्ल मार्क्स: "ये एक ऐतिहासिक घटना है जो एक न एक दिन होनी ही थी...."

मार्टिन लूथर किंग: "मैं एक ऐसे ही विश्व की कल्पना करता था जहाँ हर पत्रकार जूते फेंक कर मारने के लिए स्वतंत्र हो...."

जॉर्ज बुश सीनियर: " हमारी कोशिशों की वजह से ईराक में इतनी डेमोक्रेसी आ गई कि पत्रकार भी शासकों के ऊपर जूते फेंक सकते हैं. सद्दाम के रहते ऐसा नहीं हो पाता...."

मनेका गाँधी: "हमने पता लगा लिया है कि फेंका गया जूता चमड़े का था. इसका मतलब किसी एक जानवर को मारकर उसका चमड़ा इस्तेमाल किया गया होगा. हम इस पत्रकार के ख़िलाफ़....."

अमर सिंह: "इस पत्रकार को जूते खरीदने के लिए मैंने पैसा नहीं दिया. माननीय मुलायम सिंह जी ने हमसे कहा होता तो हम ज़रूर उसे पैसा......"

बिल गेट्स: "हम कोशिश करेंगे कि विन्डोज़ के अगले एडिशन में हम ऐसा सॉफ्टवेर इंटीग्रेट करें जिससे जूते फेंकने से पहले सही कोण और रफ़्तार के साथ-साथ सामने वाले के सिर झुकाने के रफ़्तार का सही पता लगाया जा सके."

फिडेल कास्त्रो: "जूता फेंकने के लिए हम इस पत्रकार को एक दर्जन सिगार गिफ्ट करेंगे...."

सचिन तेंदुलकर: "जब तक ये पत्रकार जूता फेंकने को एन्जॉय करता है, इसे फेंकते रहना चाहिए...."

इमाम बुखारी: "एक काफिर के ऊपर जूते फेंकने के लिए हम इस पत्रकार को पाँच करोड़ का इनाम देंगे...."


और अंत में कुछ ब्लॉगर क्या कहते हैं....

अनूप शुक्ल जी: " सही है. मौज लेना चाहिए. फ़िर चाहे वो जूता फेंककर ही क्यों न मिले."

समीर लाल जी: " क्या जूता फेंका है. इसके लिए उस पत्रकार को साधुवाद और बधाई."

आलोक पुराणिक जी: "क्या केने... क्या केने...जमाये रहिये जी.."

डॉक्टर अनुराग आर्य: "रेड लाईट के पास वाले फुटपाथ पर जो जूते मिलते हैं, उन्हें फेंकने में आसानी होगी..."

कुश: " इस प्रहार के लिए ब्लागाचार्य के खडाऊं का उपयोग श्रेयस्कर रहता..."

प्रमोद सिंह जी: "धुंध में बटोरे गए जूतों को अकबका कर फेंकने की....पत्रकार ने सलाम सॉरी सलम वाला काम किया है..."

अजित वडनेरकर जी: "अभी कुछ कह पाना मुश्किल है. पहले मैं जूता और पत्रकार जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति पर पोस्ट लिखूंगा उसके बाद ही इस घटना पर कोई टिप्पणी करूंगा..."

Friday, December 12, 2008

बल्ले-बल्ले...सावा-सावा...मखना...चखणा..

कमलेश बैरागी जी से मुलाक़ात हो गई. रतीराम जी की चाय दूकान पर. एक हाथ में चाय का कुल्हड़ और दूसरे में एक कागज़. एक बार कागज़ को देखते, कुछ बुदबुदाते और चाय की एक चुस्की और ले लेते. मुझे देखते ही उन्होंने कहा; "और बताईये, कैसे हैं?"

मैंने कहा; "मैं तो ठीक-ठाक हूँ. आप कैसे हैं? कोई नई कविता लिखी आपने?"

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "पिछले कुछ दिनों से कोई नई कविता नहीं लिखी. फुरसत ही नहीं मिली."

मैंने कहा; "समय अभी चिंतन करने का है, शायद?"

मेरी बात सुनकर फिर मुस्कुरा दिए. बोले; " एक कवि के लिए हर समय चिंतन का ही रहता है. लेकिन अब आप से क्या छुपाना, असल में आजकल नए फील्ड एक्सप्लोर कर रहा हूँ."

मैंने पूछा; "कवि के लिए नए फील्ड में आजकल क्या-क्या आता है?"

वे बोले; "मैंने सोचा सिनेमा के गीत लिखूं. सोचा, जावेद अख्तर साहब आजकल रियल्टी कम्पीटीशन में जजबाजी करने में बिजी हैं. गुलज़ार साहब भी आजकल सेलेक्टिव ही लिखते हैं. ऐसे में अगर थोड़ा समय दिया जाय तो सिनेमा के गीतकार के रूप में पाँव जमाया जा सकता है."

उनकी बात सुनकर बड़ा अच्छा लगा. अच्छा इसलिए कि अगर वे सिनेमा में जम गए तो हम भी बोल सकेंगे कि एक गीतकार को हम भी जानते हैं. मैंने पूछा; "तो कोई गीत लिखा है आपने?"

वे बोले; "सात दिन नैनीताल में बिता कर आया. ये सोचते हुए कि वहाँ की वादियों से लिखने की प्रेरणा मिलेगी. प्रेरणा मिली भी. गीत भी लिखे. लेकिन जैसा की हमेशा होता है, अच्छी चीजों की कीमत लोग नहीं पहचान पाते."

मैंने कहा; "अच्छी चीजों की कीमत लोग तुंरत तो सचमुच नहीं पहचानते. वैसे क्या हुआ आपके उन गीतों के साथ?"

वे बोले; "मैं एक प्रोडक्शन हाउस को अपने गीत भेजे. उनलोगों ने आउटराइट रिजेक्ट कर दिया."

मैंने पूछा; "क्यों? क्या गीत उन्हें अच्छे नहीं लगे?"

मेरे इस सवाल पर कमलेश जी के चेहरे पर दर्द उभर आया. इतना दर्द कि उससे वे मुकेश साहब के लिए कम से कम दो दर्द भरे नगमें लिख लेते. खैर, दर्द को सँभालते हुए बोले; "फ़िल्म प्रोड्यूसर को गीत में इस्तेमाल किए गए शब्द बकवास लगे. उन्होंने ये कहकर गीतों को रिजेक्ट कर दिया कि आजकल ऐसे गीत फैशन में नहीं हैं."

मैंने सोचा ऐसे कौन से शब्द थे जिन्हें पसंद नहीं किया गया. मैंने उनसे पूछा; "क्या शब्द उन्हें अश्लील लगे?"

कमलेश जी बोले; "आपतो मुझे जानते हैं. मैं कभी अश्लील शब्द इस्तेमाल कर सकता हूँ. ठीक है, व्यावसायिक होना चाहता हूँ लेकिन अश्लीलता तो मेरे लिए एकदम ही ना ना है. बात दरअसल ये हुई कि गीत में सजन, बलम, जान-ए-जनाना जैसे शब्द थे. मैंने ये सोचकर लिखे थे कि पुराने गानों का दौर लौटा लाऊंगा. लेकिन अब क्या कहें?"

मैंने कहा; "ये शब्द तो पहले भी फिल्मी गानों में इस्तेमाल हुए हैं. प्रोड्यूसर को इन शब्दों से गुरेज क्यों हुई?"

वे बोले; "आपको असल बात तो अभी बताया ही नहीं. प्रोड्यूसर साहब ने अपने कमेन्ट में लिखा है कि मेरे गीतों में पंजाबी शब्द एक भी नहीं हैं. और आजकल बिना पंजाबी शब्दों के गाना दो कौड़ी का. कह रहे थे वो ज़माना गया जब हिन्दी फिल्मों में हीरो सजन, बलम, सैयां वगैरह और हिरोइन जान-ए-जनाना और जोहरा-जबीं होती थी. आजकल हीरो मखना होता है और हिरोइन सोणिया."

मैंने कहा; "ठीक ही कह रहे हैं. बदलते समय की निशानियाँ हैं सब. वैसे क्या करेंगे अब? प्रोड्यूसर के हिसाब से गीत लिखेंगे?"

वे बोले; "और कर ही क्या सकते हैं? अगर गीतकार कहलाना है तो यह करना ही पड़ेगा. इसीलिए तैयारी में जुटे हैं."

इतना कहकर उन्होंने हाथ का कागज़ मेरी तरफ़ बढ़ा दिया. कागज़ देखने पर मुझे पंजाबी के करीब बीस-पचीस शब्द लिखे हुए मिले. मखना, सोणिया, चखणा, बल्ले-बल्ले, सावा-सावा, कुड़ी, मुंडा.....और न जाने क्या-क्या.

मैंने पूछा; "ओह, तो कागज़ शब्दों वाला है?"

वे बोले; " हाँ, ये कागज़ शब्दों वाला ही है. ये बीस-पचीस शब्द घोटने की कोशिश कर रहा हूँ. याद हो जाएँ तो इन्हें गानों में फिट करने की कोशिश करूंगा."

कागज़ देखते हुए मैं अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था कि हिन्दी सिनेमा कितना आगे निकल गया है? एक ज़माना था जब किसी फ़िल्म में पंजाबी किरदार भी हिन्दी और लखनवी उर्दू के शब्द यूज करते हुए गाना गाता था और आज यूपी का किरदार भी पंजाबी शब्दों वाले गाने गा रहा है.

ऐसे गानों से प्रोड्यूसर की बल्ले-बल्ले और सावा-सावा हो रही है.

मुझे अचानक साहब बीबी और गुलाम फ़िल्म की याद आ गई. मीना कुमारी जी ने इस फ़िल्म में शराब के नशे में गाना भी गाया है. अरे वही; "न जाओ सैयां, छुडा के बईयां..."

आज गाती तो शायद रहमान साहब के सामने बोलती; " मखना ना जा...ना जा......" आगे शायद ये कह देतीं कि... "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."

Tuesday, December 9, 2008

टिंकू भविष्य की आशा है


शिव कुमार मिश्र की पोस्ट पर तीन चरित्र उभरे हैं – मनोहर और उनके भतीजे रिंकू और टिंकू। मनोहर और रिंकू चिरकुट समाज की उपज और अंग हैं। ये भारत के सेल्फ-अप्वॉइण्टेड नेतृत्व हैं। टिंकू आज की तारीख में अभिजात्य है – एलीट। फ्लैटियाती (समतल होती) दुनिया का पूरा लाभ लेने वाला और तकनीकी जगत को दोहन के लिये सन्नध।
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ज्ञानदत्त पाण्डेय
आगे की पीढ़ी के बारे में सार्थक बात पाठक लोग करेंगे।


आप माने न माने, टिंकुओं की संख्या भविष्य के भारत में बढ़ने वाली है। अर्थव्यवस्था को भले ही अस्थाई सेट-बैक का सामना है, पर अंततोगत्वा भारत का उच्च मध्यवर्ग बढ़ने वाला है।golf

टिंकू चाहे मनोहर चाचा का सम्बन्धी हो या रहमान या रुस्तम अंकल का। पर बम्बई की घटनाओं ने यह अहसास उसको करा दिया है कि वह सेफ नहीं है। आतंक की नजर में अब चिराग दिल्ली, डोम्बीवली, महरौली या दन्तेवाड़ा ही नहीं, ओबेराय और ताज भी हैं। एलीट का सेफ्टी-आइसोलेशन भरभरा कर ढ़ह गया है।

एक तरीके से यह अच्छा ही हुआ है। टिंकू के अगले चुनाव में वोट डालने की सम्भावनायें बढ़ गयी हैं। टिंकू बेहतर मीडिया मैनेजमेण्ट से आतंक के खिलाफ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जनमत मोबिलाइज करने में सन्नध हो गया है। टिंकू अब तक मोमबत्ती जला कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाता था, अब वह बत्ती के वैकल्पिक उपयोग करने के मोड में आ रहा है।

teenager टिंकू पहले इस देश से कट लेने, अमरीके जा कर बस लेने की सोच लेता था। पर अब उत्तरोत्तर यहीं रहने और यहां की समस्याओं से दो-चार होने की सोचेगा। कित्ते टिंकू अमरीके जायेंगे? उच्च मध्यवर्ग अगर बढ़ना है तो भारत और भारत की समस्याओं से जूझे बिना निजात नहीं है।

मनोहर और रिंकुओं से मुझे ज्यादा आशा नहीं है। ये दोनो बड़ा बड़ा बोलते पर प्राइवेटली करते अपोजिट हैं। रिंकू के मां-बाप और रिंकू तो दहेज की आशा में गदगद हुये जा रहे हैं, भले ही कहते हैं कि उनकी कोई डिमाण्ड नहीं है। उसी दहेज से उनका तरण होना है। ये फटीचर आदर्शवाद बूंकते हैं, पर अपनी कुण्ठा और अपनी लार से लाचार हैं।

अब मुझे आशा टिंकू और उसके (उत्तरोत्तर) बाकी समाज से घटते आइसोलेशन से है।   

पोस्ट पर रीविजिट: कौन मनोहर है, कौन रिंकू और कौन टिंकू; इस पर मारपीट हो सकती है। बहुत से हैं जो मनोहर/रिंकू/टिंकू नहीं हैं। मेरे बचपन से अब तक भारत ने वास्तविक अर्थों में प्रगति की है। यह सब मनोहरों के बावजूद हुई है। अनेक टिंकूगण अपनी अभिजात्य स्नॉबरी में इतराते रहे हैं, पर बहुतों ने मौलिक योगदान भी किये हैं।

आगे की पीढ़ी के बारे में सार्थक बात पाठक लोग करेंगे।

Monday, December 8, 2008

आशा है फोन का सदुपयोग होता रहेगा...

अभी तक फोन का 'उचित' उपयोग करके हिन्दी फिल्मों में ही भ्रम च गलतफहमी पैदा की जाती थी. आज से नहीं, सालों से. हम फिल्मों से बहुत कुछ सीखते ही हैं. इसलिए फ़ोन के इस कंट्रीब्यूशन को असली ज़िन्दगी में भी उतारने की कोशिश चलती रहती है.

अभी तक हुई तमाम कोशिशों में हाल के दिनों में एक अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें भी जुड़ गई. सुनने में आया कि किसी अति टैलेंटेड बन्दे ने फोन का सदुपयोग करते हुए प्रणव मुख़र्जी बनकर पकिस्तान के राष्ट्रपति को धमका दिया. बोला; "हम आपके देश पर हमला कर देंगे."

फोन की माया देखिये कि पकिस्तान के राष्ट्रपति भी युद्ध की तैयारी करवाने लग गए. दुनियाँ को बता डाला कि भारत के विदेशमंत्री फ़ोन करके धमकियाते हैं.

मैं तो कहूँगा जी कि जिसने भी ये फ़ोन किया होगा, बड़ा ही टैलेंटेड बन्दा होगा जी. आजतक सुनते आए हैं कि लोग नेताओं और अभिनेताओं की नक़ल का काम स्टेज पर हँसाने के लिए करते हैं. लेकिन फ़ोन करके दूसरे देश के राष्ट्रपति को युद्ध की धमकी का काम पहली बार हुआ है.

वैसे भी नक़ल करने के लिए मिमक्री आर्टिस्ट बड़े लोगों को चुनते हैं. कोई अमिताभ बच्चन की नक़ल करता है तो कोई बाजपेयी जी की. खैर, वे लोग इस तरह से बोलते हैं कि उनकी नक़ल करना आसान है. लेकिन प्रणव मुख़र्जी की नक़ल!

उनकी नक़ल करने के लिए अद्भुत टैलेंट चाहिए. बड़ा कलेजे वाला बन्दा होगा जी. कलेजे वाला नहीं होता तो प्रणव मुख़र्जी की नक़ल कैसे करता? उनकी आवाज़, उनकी ग़लत हिन्दी, उनकी ग़लत अंग्रेजी और न जाने क्या-क्या. पता नहीं कैसे बोला होगा जी प्रणव मुख़र्जी की आवाज़ में?

मैंने तो एक बार सुना था कि मुख़र्जी बाबू ने अमेरिका में अंग्रेजी में भाषण दिया. भाषण ख़त्म हुआ तो किसी अमरीकी नेता ने लिखित अर्जी दी. ये लिखते हुए कि; "इन्होने जो अपने भाषण में कहा उसका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध करवाया जाय."

अब कोई बन्दा ऐसे नेता की नक़ल कर ले तो अति टैलेंटेड होगा ही. कितनी बार बन्दे को "वी" की जगह "उई" बोलना पड़ा होगा. बोला होगा; "उई उविल रेड इयोर कान्ट्री."

बड़ी मेहनत का काम किया होगा बन्दे ने.

एक तरफ़ तो कोई नकली प्रणव मुख़र्जी बनकर फ़ोन करता है और उसे सच मान लिया जाता है. वहीँ दूसरी तरफ़ असली बराक ओबामा किसी कांग्रेस वूमेन को फ़ोन करते हैं तो वो फ़ोन उठाकर रख देती हैं. ये कहते हुए कि; "मुझे मालूम है कि तुम बराक ओबामा नहीं हो."

खैर, अब भाई लोगों ने ट्रेंड सेट कर ही दिया है. आशा है लोग इसे आगे बढायेंगे.

कल को सुनने में आ सकता है कि कोई भारत का सांस्कृतिक मंत्री बनकर पाकिस्तानी सांस्कृतिक मंत्री को फोन कर देगा. बोलेगा; " हमारे मन में इच्छा जागी है कि आपके साथ होली खेलें. आ जाइये."

पाकिस्तान का मंत्री तुंरत हवाई जहाज पकड़कर भारत में. होली खेलने. ऐसे में सांस्कृतिक सहयोग के नए-नए द्वार खुल जायेंगे.

और तब तक खुले रहेंगे जबतक अगला आतंकवादी हमला नहीं होता.

Saturday, December 6, 2008

'टोकेनिज्म इंडस्ट्री' को भी मंदी ने धर दबोचा.

करीब पाँच-छ दिन हुए रतीराम जी ने अपना बिजनेस 'डाईभर्सीफ़ाई' करते हुए चाय की दूकान भी खोल ली है. कल मैं दूकान पर गया तो वहां माहौल पहले से और सुंदर लगा. ढेर सारे लोग. पूरा मेला लगा हुआ था. खुश लोग, दुखी लोग, चिंतित लोग, वंचित लोग, ईजी लोग, बिजी लोग, खड़े लोग, बैठे लोग, साम्यवादी, समाजवादी, क्रियावादी, प्रतिक्रियावादी...सब विचारधारा के लोग मौजूद थे.

चाय दूकान पूरे देश की तस्वीर दिखा रही थी.

मैंने रतीराम जी को चाय की दूकान खोलने पर बधाई देते हुए पूछा; "अच्छा किया आपने चाय की दूकान भी खोल ली. इसे कहते हैं बैकवर्ड इंटीग्रेशन."

मेरी बात सुनकर रतीराम हँस दिए. बोले; " एतना-एतना सिद्धांत जानते हैं, आ फिर भी अर्थ-व्यवस्था का ई हाल है?"

मैंने कहा; "अर्थ-व्यवस्था की तो जाने दीजिये, कौन सा व्यवस्था का हाल अच्छा है?"

मेरी बात सुनकर बोले; "एही वास्ते त चाय दूकान खोले हैं. जब सारा व्यवस्था डगमगाता है त चाय और पान उद्योग का ग्रोथ होता है."

मैंने कहा; "वैसे ये बताईये कि चाय की दूकान खोलने का प्लान पहले से ही था या अचानक ही खोल लिया आपने?"

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "असल में मुलुक में जब से आतंकवादी घटना बढ़ा है, तभिये से महसूस कर रहे थे कि पर्याप्त मात्रा में चिंता व्यक्त करने के लिए मोहल्ला में उचित 'प्लेटफारम' का कमी है. अब देखिये न, पान लगवाना और उसे खाने में ज्यादा बखत नहीं लगता. लेकिन चाय बनने में बखत लगता है. अईसे में डिस्कशन आ चिंता व्यक्त करने के लिए ज्यादा टाइम मिलता है."

उनकी बात से लगा कि मैनेजमेंट कालेज वाले रतीराम जी से कुछ ज्ञान ले सकते हैं.

पान लगवा कर मुंह में रखा तो मनोहर भैया मिल गए. चाय का कुल्हड़ हाथ में लिए खड़े थे. चाय की चुस्की लेते हुए कुछ सोच रहे थे. माथे पर चिंता की रेखायें साफ़ दिखाई दे रही थी.

मनोहर भैया पूरी तरह से चिंता-धर्म के पालन में लीन थे.

मेरी तरफ़ देखा और दुआ-सलाम हुआ. मैंने पूछा; "क्या हाल है?"

बोले; "क्या बताएं, क्या हाल है? देश की हालत से चिंता हो रही है."

मैंने कहा; "देखिये, जो देश के बारे में सोचता है, उसे तो चिंता होगी ही."

मेरी बात सुनकर मनोहर भैया ने माथा झटका. कुछ सोचते हुए बोले; "देखिये बात वो नहीं है. बात ये है कि आजकल के नौजवान बात नहीं समझते. आप कुछ भी कहें तो आपकी सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं."

मैंने पूछा; "ऐसा कुछ हुआ क्या आपके साथ?"

बोले; "अब आपसे क्या कहें? ऐसा ही हुआ है. मेरा भतीजा ही मेरी बात पर सहमत नहीं है. कहता है कि मेरे जैसे लोगों की वजह से ही देश की हालत ख़राब है."

मैंने पूछा; " ये तो बहुत बड़ी बात कह दी उसने. ऐसा क्या हो गया?"

मनोहर भैया बोले; "असल में जब मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ तो मैं और वो बात कर रहे थे. मैंने उससे कहा कि आज देश को एक-जुट रहने की ज़रूरत है तभी आतंकवादियों को पछाड़ा जा सकेगा. मेरी बात सुनकर बोला कि मैं नेता की तरह से हमेशा क्यों बात करता हूँ.? कह रहा था देश तो एक-जुट है ही."

मैंने कहा; "ठीक ही तो कह रहा था. देश की एकता में आतंकवादी हमलों की वजह से कोई समस्या तो नहीं आई अभी तक."

वे बोले; "लेकिन ये बात हमेशा बताते रहना पड़ेगा न. ऊपर से मैंने जब कहा कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता तो बोला ये तो सभी को मालूम है. मुझे तकलीफ तो तब हुई जब बोला कि मैं केवल आदर्शवादी बातें करता हूँ. कह रहा था कि मैंने टोकेन बेचने की दूकान चला रखी है. कभी समाजवाद का टोकेन, कभी आदर्शवाद का टोकेन तो कभी साम्प्रदायिक सद्भाव का टोकेन बेचता रहता हूँ. ....कह रहा था ज़रूरत नहीं रहती तो भी बेचते रहता हूँ. कभी-कभी ओवरसप्लाई हो जाती है....कहता है मेरे जैसे लोग साठ साल से यही कर रहे हैं....बताईये, ये कोई बात है?"

मैंने कहा; "आपको भी उसकी बात सुनने की ज़रूरत है."

वे बोले; "आजतक किसी ने मेरे विचारों पर मुझे नहीं टोका. लेकिन आज की पीढ़ी अपने बुजुर्गों की बात सुनने को तैयार नहीं है. ऐसे में देश का क्या होगा, यही सोचकर चिंतित हूँ."

मुझे लगा मनोहर भैया के विचारों को उनका भतीजा ही खारिज कर दे रहा है. कहीं देश में बदलाव की स्थिति तो नहीं पैदा हो रही है? मुझे लगा उनके भतीजे द्बारा कही गई टोकेन वाली बात को सच मान लिया जाय तो टोकेनिज्म इंडस्ट्री को भी मंदी ने धर दबोचा.

आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश पर 'वैचारिक मंदी' की मार भी आन पड़ी?

Monday, December 1, 2008

टेरर कॉमबैटिंग सेस

पत्रकार : होम मिनिस्टर बनकर कैसा महसूस कर रहे हैं आप?

चिदंबरम: होम मिनिस्टर बनकर बहुत खुश हूँ. काश कि मेरे पास आज वित्त मंत्रालय भी होता तो आज ही टेरर कॉमबैटिंग सेस लगा देता.