सत्तर और अस्सी के दशक के सरकारी नारों को पढ़कर बड़े हुए। उस समय समझ कम थी। अब याद आता है तो बातें थोड़ी-थोड़ी समझ में आती हैं। ट्रक, बस, रेलवे स्टेशन और स्कूल की दीवारों पर लिखा गया नारा, 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' सबसे ज्यादा दिखाई देता था।
भविष्य में इतिहासकार जब इस नारे के बारे में खोज करेंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि 'एक समय ऐसा भी आया था जब अचानक पूरे देश में अनुशासन की कमी पड़ गई थी। अब गेंहूँ की कमी होती तो अमेरिका से गेहूं का आयात कर लेते (सोवियत रूस के मना करने के बावजूद), जैसा कि पहले से होता आया था। लेकिन अनुशासन कोई गेहूं तो है नहीं।' इतिहासकार जब इस बात की खोज करेंगे कि अनुशासन की पुनर्स्थापना कैसे की गई तो शायद कुछ ऐसी रिपोर्ट आये:-
'सरकार' के माथे पर पसीने की बूँदें थीं। अब क्या किया जाय? इस तरह की समस्या पहले हुई होती तो पुराना रेकॉर्ड देखकर समाधान कर दिया जाता। चिंताग्रस्त प्रधानमंत्री ने नैतिकता और अनुशासन को बढावा देने वाली कैबिनेट कमिटी की मीटिंग बुलाई। चिंतित मंत्रियों के बीच एक 'इन्टेलीजेन्ट' अफसर भी था। सारी समस्या सुनने के बाद उसके मुँह से निकला "धत तेरी। बस, इतनी सी बात? ये लीजिये नारा"। उसके बाद उसने 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' नामक नारा दिया। साथ में उसने बताया; "इस नारे को जगह-जगह लिखवा दीजिए और फिर देखिए किस तरह से अनुशासन देश के लोगों में कूट-कूट कर भर जाएगा"।
मंत्रियों के चेहरे खिल गए। सभी ने एक दूसरे को बधाई दी। प्रधानमंत्री ने उस अफसर की भूरि-भूरि प्रशंसा की।एक मंत्री ने नारे के सफलता को लेकर कुछ शंका जाहिर की। उस मंत्री की शंका का समाधान अफसर ने तुरंत कुछ इस तरह किया। "आप चिन्ता ना करें, नारा पूरा काम करेगा। काबिल नारों को लिखने का अपना पारिवारिक रेकॉर्ड अच्छा है। मेरे पिताजी ने ही साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान 'हिंदु-मुस्लिम भाई-भाई' नामक नारा लिखकर किया था"।
इस अनुशासन वाले नारे ने अपना काम किया। लोगों में अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई। हम ऐसे निष्कर्ष पर इस लिए पहुंच सके क्योंकि नब्बे के दशक के बाद ये नारा लगभग लुप्त हो गया। ट्रकों पर नब्बे के दशक में इस नारे की जगह 'नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी' जैसे नारों ने ले ली। जहाँ तक रेलवे स्टेशन की बात है तो वहाँ इस नारे की जगह 'जहर खुरानों से सावधान' और 'संदिग्ध वस्तुओं को देखकर कृपया पुलिस को सूचित करें' जैसे नारों ने ले ली। ये अनुशासन वाला नारा कहीँ पर लिखा हुआ नहीं दिखा। दिखने का कोई प्रयोजन भी नहीं था। जब अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई तो नारे का कोई मतलब नहीं रहा।'
ये तो थी इतिहासकारों की वो रिपोर्ट जो आज से पच्चास साल बाद प्रकाशित होगी और इस रिपोर्ट पर शोध करके छात्र 'इतिहास के डाक्टर' बनेंगे। लेकिन नब्बे के दशक से इस नारे का सही उपयोग हमने शुरू किया।
अनुशासन शब्द का व्यावहारिक अर्थ हो सकता है 'खुद के ऊपर शासन करना' या एक तरह 'लगाम लगाना'। (व्यावहारिकता की बात केवल इस लिए कर रहा हूँ क्योंकि ये नारा केवल हिंदी के डाक्टरों' के लिए नहीं लिखा गया था)। लेकिन शार्टकट खोजने की हमारी सामाजिक परम्परा के तहत हमने इस शब्द का 'शार्ट अर्थ' भी निकाल लिया। हमने इस अर्थ, यानी 'खुद के ऊपर शासन करना' में से 'के ऊपर' निकाल दिया। 'शार्ट अर्थ' का सवाल जो था। उसके बाद जो अर्थ बचा, वो था 'खुद शासन करना'। और ऐसे अर्थ का प्रभाव हमारे सामने है।
हम सभी ने खुद शासन करना शुरू कर दिया। होना भी यही चाहिए। जब अपने अन्दर 'शासक' होने की क्षमता है, तो हम सरकार या फिर किसी और को अपने ऊपर शासन क्यों करने दें? अब हम रोज पूरी लगन से अपनी शासकीय कार्यवाई करते हैं। आलम ये है कि हम सड़क पर बीचों-बीच बसें खडी करवा लेते हैं। इशारा करने पर अगर बस नहीं रुके तो गालियों की बौछार से ड्राइवर को धो देते हैं। आख़िर शासक जो ठहरे। हमारे शासन का सबसे उच्चस्तरीय नज़ारा तब देखने को मिलता है जब कोई मोटरसाईकिल सवार सिग्नल लाल होने के बावजूद सांप की तरह चलकर फुटपाथ का सही उपयोग करते हुए आगे निकल जाता है।
कभी-कभी सामूहिक शासन का नज़ारा देखने को मिलता है। हम बरात लेकर निकलते हैं। पूरी की पूरी सड़क पर कब्जा कर लेते हैं और आधा घंटे में तय कर सकने वाली दूरी को तीन घंटे में तय करते हैं। ट्रैफिक जाम करने का मौका बसों और कारों को नहीं देते। वैसे भी क्यों दें, जब हमारे अन्दर इतनी क्षमता है कि हम खुद ही जाम कर सकते हैं।
सामूहिक शासन के तहत रही सही कसर हमारे धार्मिक शासक पूरी कर देते हैं। बीच सड़क पर दुर्गा पूजा से लेकर शनि पूजा तक का प्रायोजित कार्यक्रम पूरी लगन के साथ करते हैं। पूजा ख़त्म होने के बाद मूर्तियों का भसान और उसके बाद नाच-गाने का 'कल्चरल प्रोग्राम', सब कुछ सड़क पर ही होता है। हर महीने ऐसे लोगों को देखकर हम आश्वस्त हो जाते हैं कि देश में डेमोक्रेसी है।
हमारे इस कार्यवाई में पुलिस भी कुछ नहीं बोलती। बोलेगी भी क्यों? ट्रैफिक मैनेजमेंट का तरीका भी नारों के ऊपर टिका है। रोज आफिस जाते हुए पुलिस द्वारा बिछाए गए कम से कम बीस नारे देखता हूँ। ट्रैफिक के सिपाही को उसके बडे अफसर ने हिदायत दे रखी है कि कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। हाँ, जनता को नारे दिखने चाहिए। बाक़ी तो जनता अनुशासित है ही।
मैं इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि 'पुलिस आफिसर आन् स्पेशल ड्यूटी' होते हैं जिनका काम केवल नारे लिखना है। नारे पढ़कर मैं कह सकता हूँ कि ये आफिसर अपना काम बडे मनोयोग के साथ करते हैं। रोज आफिस जाते हुए मेरी मुलाक़ात कोलकता पुलिस के एक साइनबोर्ड से होती है जिसपर लिखा हुआ है; 'लाइफ हैज नो स्पेयर, सो टेक वेरी गुड केयर'।
इस बोर्ड को सड़क के एक कोने में रखकर ट्रैफिक का सिपाही गप्पे हांक रहा होता है। उसे इस बात से शिक़ायत है कि पिछले मैच में मोहन बागान के स्ट्राईकर ने पास मिस कर दिया नहीं तो ईस्ट बंगाल मैच नहीं जीत पाता।
आशा है कि नारे लिखकर समस्याओं का समाधान खोजने की हमारी क्षमता भविष्य में और भी निखरेगी। नारे पुलिस के लिए भी काम करते रहेंगे। जरूरत भी है, क्योंकि आने वाले दिनों में भी ईस्ट बंगाल मोहन बगान को हराता रहेगा। हम अपने अनुशासन (या फिर शासन) में नए-नए प्रयोग करते रहेंगे।
'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' इस मंत्र का घनघोर असर हुआ. प्रजा अनुशासित हो गई और देश महान हो गया. तब इस बात को "सर्टिफाइड" करते हुए शासन ने दुसरा मंत्र दिया "मेरा भारत महान". जनता गदगद हो गई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व्यंग्य... लोकतंत्र की गाडी नारों पर ही चल रही है .... नेताओं द्वारा कितने झूठे /सही लोकलुभावन नारे फेकें जाते है और जनता उन पर फ़िदा हो जाती है चाहे उपलब्धि कुछ भी न हो .... नारा अब लोकतांत्रिक शब्द बन गया है चाहे जहाँ फिट कर लें ...
ReplyDeleteसाँप की तरह गाड़ी चलाने वालों को देख कर ही शायद साँप लोग कॉपीराइट का दावा करने दिल्ली पहुंच गए हैं और यदा कदा खेलगाँव पहुंच कर अपना विरोध प्रदर्शन भी कर रहे हैं लेकिन सरकार सुने तब न :)
ReplyDeleteअनुशासन का व्यावहारिक अर्थ पहली बार ही जाना. तभी कहूं.
ReplyDeleteबाकी ट्रकों पर तो सारे संसार का ज्ञान लिखा होता है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteदेसिल बयना-नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!
बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
ReplyDeleteमध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ । नाड़ा ही देश को महान बनाता है । नाड़ा टूटा तो बिना नाड़े के पाजामा खुल जाता है । सरेआम बेइज्जती हो जाती है । किसी तरह समय पर पाजामा सँभालने में सफल हो भी जाएं तो हाथ किसी काम के नहीं रहते क्योंकि हाथों से काम किया तो इज्जत जाती है । जब हाथ किसी काम के नहीं रहेंगे तो काम कैसे करेंगे । जब काम नहीं करेंगे तो उत्पादन कैसे होगा ? उत्पादन नहीं होगा तो विदेशों से उधार माँगना पड़ेगा । पहली बात तो कोई उधार देगा नहीं इस मंदी में । अगर देने भी लगा तो लेंगे कैसे ? हाथ तो फैला नहीं सकते किसी के सामने । हाथों से तो पाजामा सँभाला हुआ है । हाथ नहीं फैलाएंगे तो स्वाभिमानी कहलाएंगे । स्वाभिमानी=महान ।
ReplyDeleteअत: कहा जा सकता है कि देश नाड़े के कारण ही महान बनता है । मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ ।
नारों ने तो पूरे देश को बाँध कर रखा है। नारे न रहें तो पता नहीं क्या क्या सरक जायेगा।
ReplyDeleteनारों (राजस्थानी में बैल) से गाड़ी चलती है तो देश जैसी छोटी मोटी चीज क्यों नहीं चल सकती? विचार किया जाय.
ReplyDeletehamra nara hai.....'jai ho'
ReplyDeletepost rapchikatmak......
man kilkitam cha pulkitam bhaya...
pranam swikar ho.
जय हो..
ReplyDeleteएक नारा मेरा भी..
विवेक की टिप्पणी मस्त है...
ओह क्या बात कही है...
ReplyDeleteलाजवाब कर दिया....
छः बार लिखकर मिटा चुकी हूँ टिप्पणी ....ऐसा क्या लिखूं जो तुम्हारे इस आलेख की तरह सार्थक हो...समझ नहीं पड़ रहा...
अनुशासन का यह अनुपम अर्थ ...याद रहेगा हमेशा...
देश हमारा सबसे प्यारा.
ReplyDeleteइसे चाहिये सुंदर नारा.
नारे करते कितना काम.
यही बनाते देश महान..
`उस समय समझ कम थी।'
ReplyDeleteचलो... अब तो समझ आ गई और नारा व नारी का अंतर समझ में आ गया ... और फिर, नारी है तो नाडा भी होगा ही :)
oh , i thot u'll talk about drawstring - desh ke pajame ka nara , btw good read
ReplyDeleteमनोज कुमार जी सभी टिप्पणियों से सहमत! अनुशासन ही देश को महान बनाता है।
ReplyDeleteबंधू बचपन में जिस सरकारी स्कूल में हम पढ़े थे उस में एक बड़ा सा अहाता था जिसकी दीवारों पर इस तरह के कई अव्यवाहारिक नारे लिखे रहते थे जिन्हें हमने सिर्फ परीक्षा में उतीर्ण होने के कारण की रटा था, जीवन में नहीं उतारा, अगर उतार लेते तो उसी स्कूल के बाहर आज बच्चों को चूरन और लेमन ड्राप बेच रहे होते...
ReplyDeleteकुछ चीजें दीवारों पर लिखी ही अच्छी लगती हैं...जीवन में उतारने के लिए और भी बहुत कुछ होता है...ही ही ही ही ही
नीरज
Naare k zariye prshaasan shaasan krta aaya hai..hum is baat ko smjhte zarur hain magar der se tab tak prshaasan naare k upyog se shaasan k singhasan par firse beth chuka hota hai..aur fir ek aur naara...sab repeat mode par chalta hai yu hi...Sach mein desh naaron par hi chalta aaya hai 65 saalo se.....Bahut badiya kaha post k zariye ye aapne....thanks for such writings. :)
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