Friday, June 8, 2007

न्याय हम होने नहीं देंगे, क्योंकि व्यवस्था हमारे हाथ में है।

करीब एक सप्ताह हो गया, देश की जनता का इस देश की न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया हैवो भी इसलिये कि, देश के दो विख्यात वकील एक 'स्टिंग ऑपरेशन' में कुछ ऐसा करते दिखे जो न्याय व्यवस्था के हिसाब से ठीक नहीं माना जाताटीवी चैनल ने इन वकीलों की करतूत दिखाने के साथ-साथ जनता के सामने एक सवाल भी दाग दिया। 'इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद आपका विश्वास क्या देश कि न्याय व्यवस्था से उठा गया है?' टीवी चैनल जब भी ऐसे सवाल करते हैं, जनता फूली नहीं समातीजनता को लगता है कि देश के लिए कुछ करने का असली मौका आज हाथ लगा हैअगर उसने संदेश नहीं भेजे तो देश रसातल में चला जाएगानतीजा ये हुआ कि जनता ने संदेशों कि झड़ी लगा दीटीवी चैनल को बताया कि 'आपने ये दिखाकर हमारी आंखें खोल दींकमाल कर दिया आपनेहमारा विश्वास सचमुच ऐसी न्याय व्यवस्था से उठ गया। ' मानो कह रहे हो कि आज सुबह तक हम अपने देश कि कानून व्यवस्था को दुनिया में सबसे अच्छा मानते थेलेकिन आज हमने ऐसा मानने से इनकार करना शुरू कर दिया हैटीवी चैनल भी कुछ ऐसा बर्ताव करता है कि 'देखाअगर हम नहीं दिखाते तो तुम्हें क्या पता चलता कि हमारे देश में क्या हो रहा है?'


सालों से हम ऐसी व्यवस्था देखते रहे हैंलेकिन ऐसा क्यों है कि 'स्टिंग ऑपरेशन' देखने के बाद हमारे चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे मिस वर्ल्ड का खिताब जितने के बाद उस सुंदरी के चहरे पर होता है जिसने खिताब जीता हैहम सालों से ऐसी व्यवस्था के शिकार हैंआंकड़े निकाले जायेंगे तो मिलेगा कि हम सभी सिर्फ इस व्यवस्था के शिकार हैं, बल्कि इसका हिस्सा भी हैंन्याय व्यवस्था कि धज्जी उड़ाते हुए किसी को भी देखा जा सकता हैनेता हो या पुलिस, जनता हो या वकीलकोई अछूता नहीं हैसुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल-विवाद में फैसला दियालेकिन कर्णाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने नहीं मानाहड़ताल और बंद को लेकर न्यायालय के फैसले को कौन मानता है? हमारी मौजूदा केंद्र सरकार ने तो पिछले दो-तीन सालों में सुप्रीम कोर्ट के कितने ही फैसले विधेयक पास करके रद्द कर दिए हैंआये दिन हमारी लोकसभा के स्पीकर न्यायपालिका को धमकी देते रहते हैंतो फिर 'स्टिंग ऑपरेशन' देखकर चहरे पर ऐसे भाव क्यों हैं? मुझे सत्तर के दशक कि एक हिन्दी फिल्म याद आती हैसुभाष घई ने बनाई थीनाम था विश्वनाथउसमें प्राण साहब ने एक बड़ा ही मजेदार चरित्र निभाया थागोलू गवाह का चरित्रएक ऐसा आदमी जिसका काम ही है कोर्ट के बाहर मौजूद रहना और किसी के लिए गवाही देनाहम अंदाजा लगा सकते हैंजब सत्तर के दशक में ऐसा हाल था, तो फिर आज कैसा होगातुलना की बात केवल इस लिए कर रह हूँ क्योंकि सुनाई पड़ता है कि ज़माना और खराब हो गया हैनैतिकता करीब ३० से ४० प्रतिशत और गिर गई है


१९९१ में इस देश में आर्थिक सुधारों की शरुआत हुईवैसे मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि अपने शासन को सबसे अच्छा बताने वाले लोगों को अपने द्वारा किये गए कामों में सुधार कि ज़रूरत क्यों महसूस होने लगीचलिये ये एक अलग विषय हैआर्थिक सुधारों के साथ-साथ क्या सरकार को और बातों में सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं हुईन्याय व्यवस्था में सुधार, पुलिस में सुधार, शिक्षा में सुधार; ये बातें सरकार के कार्यक्रम में नहीं हैं क्या? चलिये सरकार कि बात अगर छोड़ भी दें, तो हमने क्या किया? आरक्षण पाने के लिए हम ऐसा 'आंदोलन' कर सकते हैं, जिसमें लोगों का मरना एक आम बात दिखाई देती हैलेकिन हम ऐसा आंदोलन नहीं कर सकते जिसकी वजह से सरकार से सवाल कर सकें कि हे राजा क्या हमें इन सुधारों कि ज़रूरत नहीं है? और अगर है तो फिर कब शुरू करेंगे आप इन सुधारों को?


हमारी ताक़त केवल आर्थिक सुधारों को रोकने में और आरक्षण पाने के लिए झगड़ा करने में लगी हुई हैटीवी पर बहस करके बात ख़त्म कर दी जाती हैबहस में नेता और विशेषज्ञ आते हैंसाथ में तथाकथित जनता भी रहती है जो सवाल करती हैवास्तव में वह सवाल करने नहीं आती वहाँ परआती है ये देखने कि टीवी कि स्क्रीन पर दिखने में मैं कैसा लगता हूँटीवी पर एक बहस देखी मैंनेउसमें एक वकील आये थेउनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता हैन्याय व्यवस्था कि ऐसी हालत क्यों हैंक्यों जज और वकील घूस लेते हुए देखे जाते हैंक्यों गवाह तोड़े जाते हैं या किसी किसी केस में ख़त्म कर दिए जाते हैंउन्होने इन सवालों का बड़ा रोचक जवाब दियाउन्होने बताया; वकीलों को बैठने की जगह नहीं हैअदालत में टाईपराइटर ठीक से काम नहीं करतेबुनियादी सुविधाओं कि कमी हैआप खुद सोचियेसुविधाओं की कमी है, इसलिये लोग घूस लेते हैंगवाह तोड़े जाते हैंकिसी ने उनसे ये नहीं पूछा कि अगर ऐसी बात है तो फिर आपने क्या कियाकहीँ पर किसी को सुविधाएं बढाने के लिए आवेदन भी किया क्याशायद अच्छा ही हुआ कि किसी ने नहीं पूछाउनका जवाब शायद ये होता कि भैया मुझसे क्यों पूछते होमैं आम इन्सान हूँ क्या? मैं तो वकील हूँमैं न्याय व्यवस्था से तो पीड़ित नहीं हूँफिर मुझे क्या पडी है कि मैं सरकार से कहूँ


जब तक हम टीवी कि तरफ देखेंगे कि वो हमें बताये कि हमारे साथ क्या बुरा हो रहा है; जब तक हम संदेश भेजकर अपना नाम टीवी कि स्क्रीन पर देखने कि ललक मन में रखेंगें; जब तक हमारा 'आंदोलन' टीवी के पैनल डिस्कशन तक आकर रूक जाएगा; तब तक कहीँ भी सुधार की संभावना नहीं हैक्यों कि न्याय वे वकील होने नहीं देंगे
आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है!

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय