सालों से हम ऐसी व्यवस्था देखते आ रहे हैं। लेकिन ऐसा क्यों है कि 'स्टिंग ऑपरेशन' देखने के बाद हमारे चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे मिस वर्ल्ड का खिताब जितने के बाद उस सुंदरी के चहरे पर होता है जिसने खिताब जीता है। हम सालों से ऐसी व्यवस्था के शिकार हैं। आंकड़े निकाले जायेंगे तो मिलेगा कि हम सभी न सिर्फ इस व्यवस्था के शिकार हैं, बल्कि इसका हिस्सा भी हैं। न्याय व्यवस्था कि धज्जी उड़ाते हुए किसी को भी देखा जा सकता है। नेता हो या पुलिस, जनता हो या वकील। कोई अछूता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल-विवाद में फैसला दिया। लेकिन कर्णाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने नहीं माना। हड़ताल और बंद को लेकर न्यायालय के फैसले को कौन मानता है? हमारी मौजूदा केंद्र सरकार ने तो पिछले दो-तीन सालों में सुप्रीम कोर्ट के कितने ही फैसले विधेयक पास करके रद्द कर दिए हैं। आये दिन हमारी लोकसभा के स्पीकर न्यायपालिका को धमकी देते रहते हैं। तो फिर 'स्टिंग ऑपरेशन' देखकर चहरे पर ऐसे भाव क्यों हैं? मुझे सत्तर के दशक कि एक हिन्दी फिल्म याद आती है। सुभाष घई ने बनाई थी। नाम था विश्वनाथ। उसमें प्राण साहब ने एक बड़ा ही मजेदार चरित्र निभाया था। गोलू गवाह का चरित्र। एक ऐसा आदमी जिसका काम ही है कोर्ट के बाहर मौजूद रहना और किसी के लिए गवाही देना। हम अंदाजा लगा सकते हैं। जब सत्तर के दशक में ऐसा हाल था, तो फिर आज कैसा होगा। तुलना की बात केवल इस लिए कर रह हूँ क्योंकि सुनाई पड़ता है कि ज़माना और खराब हो गया है। नैतिकता करीब ३० से ४० प्रतिशत और गिर गई है।
१९९१ में इस देश में आर्थिक सुधारों की शरुआत हुई। वैसे मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि अपने शासन को सबसे अच्छा बताने वाले लोगों को अपने द्वारा किये गए कामों में सुधार कि ज़रूरत क्यों महसूस होने लगी। चलिये ये एक अलग विषय है। आर्थिक सुधारों के साथ-साथ क्या सरकार को और बातों में सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। न्याय व्यवस्था में सुधार, पुलिस में सुधार, शिक्षा में सुधार; ये बातें सरकार के कार्यक्रम में नहीं हैं क्या? चलिये सरकार कि बात अगर छोड़ भी दें, तो हमने क्या किया? आरक्षण पाने के लिए हम ऐसा 'आंदोलन' कर सकते हैं, जिसमें लोगों का मरना एक आम बात दिखाई देती है। लेकिन हम ऐसा आंदोलन नहीं कर सकते जिसकी वजह से सरकार से सवाल कर सकें कि हे राजा क्या हमें इन सुधारों कि ज़रूरत नहीं है? और अगर है तो फिर कब शुरू करेंगे आप इन सुधारों को?
हमारी ताक़त केवल आर्थिक सुधारों को रोकने में और आरक्षण पाने के लिए झगड़ा करने में लगी हुई है। टीवी पर बहस करके बात ख़त्म कर दी जाती है। बहस में नेता और विशेषज्ञ आते हैं। साथ में तथाकथित जनता भी रहती है जो सवाल करती है। वास्तव में वह सवाल करने नहीं आती वहाँ पर। आती है ये देखने कि टीवी कि स्क्रीन पर दिखने में मैं कैसा लगता हूँ। टीवी पर एक बहस देखी मैंने। उसमें एक वकील आये थे। उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है। न्याय व्यवस्था कि ऐसी हालत क्यों हैं। क्यों जज और वकील घूस लेते हुए देखे जाते हैं। क्यों गवाह तोड़े जाते हैं या किसी किसी केस में ख़त्म कर दिए जाते हैं। उन्होने इन सवालों का बड़ा रोचक जवाब दिया। उन्होने बताया; वकीलों को बैठने की जगह नहीं है। अदालत में टाईपराइटर ठीक से काम नहीं करते। बुनियादी सुविधाओं कि कमी है। आप खुद सोचिये। सुविधाओं की कमी है, इसलिये लोग घूस लेते हैं। गवाह तोड़े जाते हैं। किसी ने उनसे ये नहीं पूछा कि अगर ऐसी बात है तो फिर आपने क्या किया। कहीँ पर किसी को सुविधाएं बढाने के लिए आवेदन भी किया क्या। शायद अच्छा ही हुआ कि किसी ने नहीं पूछा। उनका जवाब शायद ये होता कि भैया मुझसे क्यों पूछते हो। मैं आम इन्सान हूँ क्या? मैं तो वकील हूँ। मैं न्याय व्यवस्था से तो पीड़ित नहीं हूँ। फिर मुझे क्या पडी है कि मैं सरकार से कहूँ।
जब तक हम टीवी कि तरफ देखेंगे कि वो हमें बताये कि हमारे साथ क्या बुरा हो रहा है; जब तक हम संदेश भेजकर अपना नाम टीवी कि स्क्रीन पर देखने कि ललक मन में रखेंगें; जब तक हमारा 'आंदोलन' टीवी के पैनल डिस्कशन तक आकर रूक जाएगा; तब तक कहीँ भी सुधार की संभावना नहीं है। क्यों कि न्याय वे वकील होने नहीं देंगे।
आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है!
आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है!
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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय