Tuesday, July 24, 2007

संसाधन, मनोरंजन, आपसी समझ और ब्लॉगरी


समाज प्रगति कर रहा है. संसाधन बढ़ रहे हैं. अनुभूतियों की क्षमता कम हो रही है. स्वाथ्य के साधन बढ़ रहे हैं. पर मानव नैसर्गिक तरीके से स्वास्थ्य संतुलित रखना भूल रहे हैं. मनोरंजन के साधनों मे तो क्रांति हो रही है. पर सामान्य स्थितियों में मनोरंजन ढ़ूढ़ पाना कठिन होता जा रहा है. टेलीवीजन नये-नये हास्य/सीरियल/गेम/प्रतियोगितायें परोस रहा है पर जीवन में अवसाद से लड़ने की क्षमता कमतर होती जा रही है.

मनोरंजन व्योममण्डल में व्याप्त हो रहा है पर मन छीज रहा है. क्या कर सकते हैं हम? शायद वही जो शिव कुमार मिश्र करते हैं. शायद वही जो आलोक पुराणिक करते हैं. इन सज्जनों को हास्य बिखरा नजर आता है. हमें वह नहीं दीखता पर ये हर परिस्थिति में कुछ ऐसा देख लेते हैं जिसमें छिपा होता है हास्य और मनोरंजन.

लोग समूह में हों और एक परस्पर समझ की अंतर्धारा हो तो हास्य/मनोरंजन स्वत: चला आता है. एक दूसरे पर व्यंग भी बड़ी सहजता से लिया जाता है. पर जब वह अंतर्धारा न हो तो वैसा कुछ होता है जैसा हाल ही के ब्लॉगरों के जमावडों में और जमावड़ों के पहले और बाद में उपजी चर्चाओं में दिखाई पड़ा है. इस अंतर्धारा को अवरुद्ध करने में बहुतों ने बहुत प्रकार से योगदान दिया है. उसका लेखा-जोखा लेना तो विवाद बढ़ायेगा ही, सुलझायेगा नहीं.

आपसी समझ का अभाव मनोरंजन के अभाव का सूचक तो है ही, उसकी अंतत: विभेद में परिणति निश्चयात्मक है. संसाधन का विकास, और बेहतर तकनीक उस विभेद की प्रक्रिया को तेज ही करते हैं.

समझ टेलीवीजन नहीं बांटता. विकीपेडिया और अन्य ज्ञान के स्रोतों से युक्त इण्टरनेट भी नहीं बांटता. पुस्तकों का पढ़ना भी नहीं बांटता. वह तो मानव के अन्दर से उपजती है. मनोरंजन भी मानव के अन्दर से उपजता है.

जी हां; उटकमण्ड में फिल्माये गये दृष्यों में हास्य है, टीवी की खबर में हास्य है, शमशान में हास्य है, ट्रांसफार्मर में हास्य है. मनोरंजन ही मनोरंजन बिखरा है – पर दृष्टि कहां है?

आइये उस दृष्टि के लिये विज्ञापन दें – और ब्लॉगरी में वह विज्ञापन उत्कृष्ट रचनात्मकता, सहिष्णुता के लेखन और समझ के माध्यम से ही आ सकता है. अगर हर एक लिखने वाला यह तय कर चले कि विवाद पर कुछ समय के लिये मोरेटोरियम लगा देगा और हर टिप्पणी करने वाला अपनी तल्ख टिप्पणी की बजाय मौन रख लेगा या कुछ ऐसा ढ़ूढ़ लेगा जो सकारात्मक हो, तो बात बन जायेगी. फिर तो प्रसन्नता और मनोरंजन के प्रवाह को कौन रोक पायेगा!
स्टीफन कोवी द्वन्द्व (Conflict) को सुलझाने के लिये अरुण गांधी (गांधी जी के पौत्र) के भाषण को उद्धृत कर तीन विकल्पों की बात करते हैं (The 8th Habit, Chapter 10, Page 186-188):
  • क्रोध, झल्लाहट, आंख के बदले आंख निकालने के संकल्प का विकल्प.
  • समस्या से दूर भागने, पलायन का विकल्प.
  • रचनात्मक तीसरा विकल्प. यह दो या दो से अधिक लोगों के खुले विमर्श से आता है. यह उनकी परस्पर सुनने की क्षमता और और खोज करने की जीजीविषा से विकसित होता है. कोई नहीं जानता कि यह अंतत: क्या होगा. बस इतना तय है कि यह वर्तमान से बेहतर होगा. अंतत: खुले विमर्ष से (1) समाधान का स्वरूप, (2) उसकी आत्मा और (3) सम्बन्धित लोगों की मंशा में परिवर्तन आ सकता हैं. कम से कम इन तीन में से एक बदलाव तो आयेगा ही.

मैं इस तीसरे विकल्प की बात कर रहा हूं.



5 comments:

  1. सत्य वचन महाराज।

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  2. ..."अगर हर एक लिखने वाला यह तय कर चले कि विवाद पर कुछ समय के लिये मोरेटोरियम लगा देगा और हर टिप्पणी करने वाला अपनी तल्ख टिप्पणी की बजाय मौन रख लेगा या कुछ ऐसा ढ़ूढ़ लेगा जो सकारात्मक हो, तो बात बन जायेगी. फिर तो प्रसन्नता और मनोरंजन के प्रवाह को कौन रोक पायेगा!"...

    सोलह आने खरी बात कही है आपने (यँ तो खरी बात को किसी की सनद की आवश्यकता नहीं होती है :-) )

    मनोरंजन व्योममण्डल में व्याप्त हो रहा है पर मन छीज रहा है. क्या कर सकते हैं हम?

    मैने पिछले हफ़्ते साईकल खरीदी और हफ़्ते में आधे दिन स्कूल का सफ़र कार की बजाय साईकिल से तय करने का सोच रहा हूँ, दो ही दिन में इतना कुछ नया दिखा है जो दो सालों से उसी रास्ते पर आते जाते नहीं दिखा । शायद कभी कभी तेज रफ़्तार जिन्दगी के निचले गीयर में जीने से कई सुखद पल मिल जाते हैं । और शायद यही सुखद पल जीवन में आने जाने वाले अवसाद के क्षणों में मन को खुशनुमा बना सकते हैं ।

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  3. सही कहा आपने । हमें वही करना चाहिये जो शिवकुमार मिश्र और आलोक भाई कर रहे हैं । आजकल मुझे भी यही शिकायत है कि मेरे मित्र चीज़ों से उत्‍पन्‍न हुए हास्‍य को समझते नहीं, इतने सूखे और पत्‍थर कहां से हो गये लोग । बरसों पहले सुना हुए शेर मौज़ूं है इस परिदृश्‍य के लिए-- गये वो दिन जब पहलू में दिल धड़कते थे ये किसने दिलों की जगह रख दिया मशीनों को

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  4. बहुत अच्छा ज्ञान मिला जी आज,मुझे भी तीसरा विकल्प अच्छा लगा ,आपने इतनी अच्छी कोट के साथ मेरा नाम दिया धन्यवाद,पर आप पीछे अरोडा के बजाय बेध्यानी मे गांधी लगा गये ..:)

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  5. बिल्कुल सही फरमाया, ज्ञानदत्त जी. पसंद आई आपकी सलाह.

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