शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Monday, August 6, 2007
नारे ने काम किया, देश महानता की राह पर अग्रसर है।
सत्तर और अस्सी के दशक के सरकारी नारों को पढ़कर बड़े हुए। उस समय समझ कम थी। अब याद आता है तो बातें थोड़ी-थोड़ी समझ में आती हैं। ट्रक, बस, रेलवे स्टेशन और स्कूल की दीवारों पर लिखा गया नारा, 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' सबसे ज्यादा दिखाई देता था। भविष्य में इतिहासकार जब इस नारे के बारे में खोज करेंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि 'एक समय ऐसा भी आया था जब अचानक पूरे देश में अनुशासन की कमी पड़ गई थी। अब गेंहूँ की कमी होती तो अमेरिका से गेहूं का आयात कर लेते (सोवियत रूस के मना करने के बावजूद), जैसा कि पहले से होता आया था। लेकिन अनुशासन कोई गेहूं तो है नहीं।' इतिहासकार जब इस बात की खोज करेंगे कि अनुशासन की पुनर्स्थापना कैसे की गई तो शायद कुछ ऐसी रिपोर्ट आये:-
'सरकार' के माथे पर पसीने की बूँदें थीं। अब क्या किया जाय? इस तरह की समस्या पहले हुई होती तो पुराना रेकॉर्ड देखकर समाधान कर दिया जाता। चिंताग्रस्त प्रधानमंत्री ने नैतिकता और अनुशासन को बढावा देने वाली कैबिनेट कमिटी की मीटिंग बुलाई। चिंतित मंत्रियों के बीच एक 'इन्टेलीजेन्ट' अफसर भी था। सारी समस्या सुनने के बाद उसके मुँह से निकला "धत तेरी। बस, इतनी सी बात? ये लीजिये नारा"। उसके बाद उसने 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' नामक नारा दिया। साथ में उसने बताया; "इस नारे को जगह-जगह लिखवा दीजिए और फिर देखिए किस तरह से अनुशासन देश के लोगों में कूट-कूट कर भर जाएगा"।
मंत्रियों के चेहरे खिल गए। सभी ने एक दूसरे को बधाई दी। प्रधानमंत्री ने उस अफसर की भूरि-भूरि प्रशंसा की।एक मंत्री ने नारे के सफलता को लेकर कुछ शंका जाहिर की। उस मंत्री की शंका का समाधान अफसर ने तुरंत कुछ इस तरह किया। "आप चिन्ता ना करें, नारा पूरा काम करेगा। काबिल नारों को लिखने का अपना पारिवारिक रेकॉर्ड अच्छा है। मेरे पिताजी ने ही साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान 'हिंदु-मुस्लिम भाई-भाई' नामक नारा लिखकर किया था"।
इस अनुशासन वाले नारे ने अपना काम किया। लोगों में अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई। हम ऐसे निष्कर्ष पर इस लिए पहुंच सके क्योंकि नब्बे के दशक के बाद ये नारा लगभग लुप्त हो गया। ट्रकों पर नब्बे के दशक में इस नारे की जगह 'विश्वनाथ ममनाथ पुरारी, त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी' और 'नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी' जैसे नारों ने ले ली। जहाँ तक रेलवे स्टेशन की बात है तो वहाँ इस नारे की जगह 'जहर खुरानों से सावधान' और 'संदिग्ध वस्तुओं को देखकर कृपया पुलिस को सूचित करें' जैसे नारों ने ले ली। ये अनुशासन वाला नारा कहीँ पर लिखा हुआ नहीं दिखा। दिखने का कोई प्रयोजन भी नहीं था। जब अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई तो नारे का कोई मतलब नहीं रहा।'
ये तो थी इतिहासकारों की वो रिपोर्ट जो आज से पच्चास साल बाद प्रकाशित होगी और इस रिपोर्ट पर शोध करके छात्र 'इतिहास के डाक्टर' बनेंगे। लेकिन नब्बे के दशक से इस नारे का सही उपयोग हमने शुरू किया। अनुशासन शब्द का व्यावहारिक अर्थ हो सकता है 'खुद के ऊपर शासन करना' या एक तरह 'लगाम लगाना'। (व्यावहारिकता की बात केवल इस लिए कर रहा हूँ क्योंकि ये नारा केवल हिंदी के डाक्टरों' के लिए नहीं लिखा गया था)। लेकिन शार्टकट खोजने की हमारी सामाजिक परम्परा के तहत हमने इस शब्द का 'शार्ट अर्थ' भी निकाल लिया। हमने इस अर्थ, यानी 'खुद के ऊपर शासन करना' में से 'के ऊपर' निकाल दिया। 'शार्ट अर्थ' का सवाल जो था। उसके बाद जो अर्थ बचा, वो था 'खुद शासन करना'। और ऐसे अर्थ का प्रभाव हमारे सामने है।
हम सभी ने खुद शासन करना शुरू कर दिया। होना भी यही चाहिए। जब अपने अन्दर 'शासक' होने की क्षमता है, तो हम सरकार या फिर किसी और को अपने ऊपर शासन क्यों करने दें? अब हम रोज पूरी लगन से अपनी शासकीय कार्यवाई करते हैं। आलम ये है कि हम सड़क पर बीचों-बीच बसें खडी करवा लेते हैं। इशारा करने पर अगर बस नहीं रुके तो गालियों की बौछार से ड्राइवर को धो देते हैं। आख़िर शासक जो ठहरे। हमारे शासन का सबसे उच्चस्तरीय नज़ारा तब देखने को मिलता है जब कोई मोटरसाईकिल सवार सिग्नल लाल होने के बावजूद सांप की तरह चलकर फुटपाथ का सही उपयोग करते हुए आगे निकल जाता है।
कभी-कभी सामूहिक शासन का नज़ारा देखने को मिलता है। हम बरात लेकर निकलते हैं। पूरी की पूरी सड़क पर कब्जा कर लेते हैं और आधा घंटे में तय कर सकने वाली दूरी को तीन घंटे में तय करते हैं। ट्रैफिक जाम करने का मौका बसों और कारों को नहीं देते। वैसे भी क्यों दें, जब हमारे अन्दर इतनी क्षमता है कि हम खुद ही जाम कर सकते हैं। सामूहिक शासन के तहत रही सही कसर हमारे धार्मिक शासक पूरी कर देते हैं। बीच सड़क पर दुर्गा पूजा से लेकर शनि पूजा तक का प्रायोजित कार्यक्रम पूरी लगन के साथ करते हैं। पूजा ख़त्म होने के बाद मूर्तियों का भसान और उसके बाद नाच-गाने का 'कल्चरल प्रोग्राम', सब कुछ सड़क पर ही होता है। हर महीने ऐसे लोगों को देखकर हम आश्वस्त हो जाते हैं कि देश में डेमोक्रेसी है।
हमारे इस कार्यवाई में पुलिस भी कुछ नहीं बोलती। बोलेगी भी क्यों? ट्रैफिक मैनेजमेंट का तरीका भी नारों के ऊपर टिका है। रोज आफिस जाते हुए पुलिस द्वारा बिछाए गए कम से कम बीस नारे देखता हूँ। ट्रैफिक के सिपाही को उसके बडे अफसर ने हिदायत दे रखी है कि कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। हाँ, जनता को नारे दिखने चाहिए। बाक़ी तो जनता अनुशासित है ही। मैं इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि 'पुलिस आफिसर आन् स्पेशल ड्यूटी' होते हैं जिनका काम केवल नारे लिखना है। नारे पढ़कर मैं कह सकता हूँ कि ये आफिसर अपना काम बडे मनोयोग के साथ करते हैं। रोज आफिस जाते हुए मेरी मुलाक़ात कोलकता पुलिस के एक साइनबोर्ड से होती है जिसपर लिखा हुआ है; 'लाइफ हैज नो स्पेयर, सो टेक वेरी गुड केयर'। इस बोर्ड को सड़क के एक कोने में रखकर ट्रैफिक का सिपाही गप्पे हांक रहा होता है। उसे इस बात से शिक़ायत है कि पिछले मैच में मोहन बागान के स्ट्राईकर ने पास मिस कर दिया नहीं तो ईस्ट बंगाल मैच नहीं जीत पाता।
आशा है कि नारे लिखकर समस्याओं का समाधान खोजने की हमारी क्षमता भविष्य में और भी निखरेगी। नारे पुलिस के लिए भी काम करते रहेंगे। जरूरत भी है, क्योंकि आने वाले दिनों में भी ईस्ट बंगाल मोहन बगान को हराता रहेगा। हम अपने अनुशासन (या फिर शासन) में नए-नए प्रयोग करते रहेंगे।
नारों की नाली में देश में लुटिया डूब रही है। पर लुटिया की चिंता अब करना बेकार है। भाई लोगों का मानना है कि लुटिया डूब ले, तो हम अमेरिका से मग इंपोर्ट कर लेंगे। इधर दिल्ली की दीवारों पर कुछ नारे इस तरह के हैं-डेंगू के मच्छरों को अपने घर में जमा न होने दें। जिस घऱ में मच्छर पाये जायेंगे, उन पर जुर्माना। मैंने नगर निगम के एक अधिकारी से पूछा कि गुरु ये नोटिस मच्छर तो न पढ़ पायेंगे। और पब्लिक के लिए तो ये नोटिस बेकार है कोई मच्छर पालो अभियान तो चलाता नहीं है। बैंक-ऊक लोन भी नहीं ना देते, मच्छर पालन स्कीम के लिए। नगर निगम अफसर हंसने लगा, बोला कि बजट है करीब बीस करोड़ का, मच्छरों के बारे में चेतना फैलानी है। सो साहब नारे फैल रहे हैं,नारों का बजट फैल रहा है, उन्हे लागू करने वाले अफसर फैल रहे हैं।
ReplyDeleteवैसे रेलों में लिखा एक नारा मजेदार है-और काम का है उन अफसरों के लिए जो रिश्वत खाते -पीते हैं और जिन पर स्टिंग आपरेशनों की तलवार मंडराती रहती है।
रेल में नारा लिखा होता है-कुछ खिलाने वालों से सावधान।
सारे रिश्वत खोर अफसर इसे सूत्रवाक्य बना लें, तो कभी स्टिंग आपरेशन में नहीं फंसेगे, कुछ खिलाने वालों से सावधान,स्टिंग आपरेशन में धरपकड़ हो सकती है।
खायें, इस तरह से खायें कि पकड़ में ना आयें। जिससे भी खायें उसकी नंगाझोली इस तरह से लें कि उसके शरीर पर बनियान तक न बचे, लेटेस्ट खबर के मुताबिक बनियान तक में छिपे हुए कैमरे आते हैं।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जिससे खायें, उसके कपड़े तक धऱवा लें, कर बेट्टा कैसे करेगा स्टिंग आपरेशन। यानी कम पर संतोष करने वाला अफसर फंस जाता है, पर सामने वाली पार्टी के पूरे कपड़े उतरवा कर रखने वाला अफसर कभी भी स्टिंग आपरेशन में नहीं ना फंसता।
जो गजब लेख वो अजब आलोक भाई की टीप,वाह, क्या गजब जुगल बंदी है. बहुत खूब.
ReplyDeleteउम्मी्द पर दुनिया तो बाद में पहले भारत की सरकार कायम रहती है सरकार तो फ़िर आपका आशा करना बिलकुल ज़ायज़ है!!
ReplyDeleteरही सही कसर आलोक जी ने टिपिया कर पूरी कर दी है!
बहुत खूब! मजा आ गया पढ़कर! मन खुश हो गया। फोटो शानदार है। आलोक पुराणिक की टिप्पणी भी मौजूं है।
ReplyDeleteबंधु
ReplyDeleteआप का नाम बिल्कुल सही है "शिव" याने भोले नाथ . आप भोले ही तो हैं जो आज के युग मॆं अनुशासन जैसे चुक गए विषय पर सोचते और लिखते हैं. जय हो.
अब जो कीकर के पेड़ से आम की उम्मीद रखे उसे सभ्य भाषा मॆं भोला और सीधी भाषा मॆं मूर्ख कहा जता है.
बंधु क्यों अपना और हमारा समय ऐसे विषयों पे लिख के करते हैं जो जीवन मॆं किसी काम नहीं आने वाले. लिखने के लिए क्या और विषय नहीं बचे हैं? अभी तो इश्वर की कृपा से राखी सावंत जिंदा है उस पर लिख के ही वाह वाही लूटो. आप भी ना लगता है मोहन्जोदारो और हराप्पा की खुदाई मॆं से निकले लगते हैं.
हम तो टट पूंजिये टाईप के शायर हैं , आप के नायाब लेख की तरह जिसे कोई नहीं पढता
हम भी आप को अपनी कुछ लाईने सुना के भडास निकल लेते हें
"है खेल सियासत का हमने तो यही देखा
कौव्वे ये आजकल के कोयल से गीत गायें
बेशर्म कौम सारी अब बन गयी मदारी
तेह्जीब को सड़क पे बंदर सा ये नाचायें "
नीरज
बंधु
ReplyDeleteआप का नाम बिल्कुल सही है "शिव" याने भोले नाथ . आप भोले ही तो हैं जो आज के युग मॆं अनुशासन जैसे चुक गए विषय पर सोचते और लिखते हैं. जय हो.
अब जो कीकर के पेड़ से आम की उम्मीद रखे उसे सभ्य भाषा मॆं भोला और सीधी भाषा मॆं मूर्ख कहा जाता है.
बंधु क्यों अपना और हमारा समय ऐसे विषयों पे लिख के बरबाद करते हैं जो जीवन मॆं किसी काम नहीं आने वाले. लिखने के लिए क्या और विषय नहीं बचे हैं? अभी तो इश्वर की कृपा से राखी सावंत जिंदा है उस पर लिख के ही वाह वाही लूटो. आप भी ना लगता है मोहन्जोदारो और हराप्पा की खुदाई मॆं से निकले लगते हैं.
हम तो टट पूंजिये टाईप के शायर हैं , आप के नायाब लेख की तरह जिसे कोई नहीं पढता
हम भी आप को अपनी कुछ लाईने सुना के भडास निकल लेते हें
"है खेल सियासत का हमने तो यही देखा
कौव्वे ये आजकल के कोयल से गीत गायें
बेशर्म कौम सारी अब बन गयी मदारी
तेह्जीब को सड़क पे बंदर सा ये नचाएं "
नीरज