शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Monday, September 24, 2007
राम के छिद्रान्वेषक कौन लोग हैं?
राम-सेतु को तोड़ने को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है. इसे तोड़ने के पक्ष वाले अपने वक्तव्यों में ऐसा तर्क देते हैं, जो आम आदमी के मनोरंजन के साथ-साथ गुस्से का भी जरिया बनता जा रहा है. पहले केन्द्र सरकार ने कहा कि राम थे ही नहीं. और जब राम ही नहीं थे तो राम-सेतु कैसा. फिर सरकार को याद आया कि नहीं-नहीं राम थे. ये कहते हुए सरकार ने दो अफसरों की छुट्टी कर दी. इन अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे डाला था कि राम नाम के कोई भगवान नहीं थे. मंत्री अम्बिका सोनी जी ने बताया कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि ये अफसर कोई ऐसा हलफनामा दाखिल कराने वाले थे. अगर उन्हें पता चलता तो वे इन अफसरों को बतातीं कि राम थे, क्योंकि "हमारी नेता सोनिया जी और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी हर साल रामलीला देखते हैं".
अभी अम्बिका जी की परेशानी ख़त्म नहीं हुई थी कि करूणानिधि जी मैदान में आ गए. उन्होंने भी पहले कहा कि राम नहीं थे. कह ही सकते हैं. जो आदमी अपने बेटे का नाम स्टालिन रख सकता है, वो कुछ भी कह सकता है. उनके इस वक्तव्य पर बवाल पूरी तरह से शुरू भी नहीं हुआ था कि उन्होंने एक और वक्तव्य दे डाला. बोले; "राम तो थे, लेकिन उन्हें भगवान् क्यों मानना. वो तो 'पियक्कड़' थे." लीजिये, कभी कहते हैं राम थे ही नहीं, फिर कहते हैं, कि थे तो लेकिन 'पियक्कड़' थे. अपनी इस बात के पक्ष में उन्होंने कहा कि "बाल्मीकि ने लिखा है कि राम पियक्कड़ थे." अब बाल्मीकि ने ऐसा लिखा है कि नहीं, ये तो मुझे नहीं मालूम. इसके बारे में शायद वाल्मीकि रामायण के विशेषज्ञ ही कुछ प्रकाश डाल सकें.
लेकिन चलो मान ही लें कि ऋषि बाल्मीकि ने ऐसा लिखा था. अब पता नहीं उन्होंने ऐसा क्यों लिखा. हो सकता है राम से नाराज थे उस समय. लेखक जब-तब किसी से भी नाराज हो सकता है. हो सकता है बाल्मीकि इसलिए नाराज हो गए होंगे कि राम इतने बड़े राजा थे. उनके पास इतना पैसा था, लेकिन उन्होंने बाल्मीकि को अपने कोष से कुछ दान न दिया हो. या फिर उन्होंने नगर में एक प्लाट माँगा हो, और राम ने मना कर दिया हो. या शायद इसलिए नाराज होंगे कि सीता जी और उनके बेटे उनके आश्रम में रहते थे. उनका बड़ा खर्चा वगैरह होता होगा. सुनते हैं बाल्मीकि जी पहले जब रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे, तो डकैती करते थे. हो सकता है अयोध्या में उनके ख़िलाफ़ कोई मुकदमा चल रहा हो, जिसे लेकर उन्हें सजा होने का चांस हो. कारण जो भी हो, करूणानिधि जी को इस बात का ख़्याल रखना चाहिए था कि बाल्मीकि ने राम के बारे में और क्या-क्या लिखा है. क्या उन्होंने राम को आदर्श पुरूष नहीं माना? क्या उन्होंने राम को आदर्श पुत्र नहीं माना? क्या उन्होंने राम को धर्म की पुनर्स्थापना करने वाला नहीं माना? क्या उन्होंने राम को भगवान् का अवतार नहीं माना? अगर इसका जवाब राम के पक्ष में है, तो फिर ये कहाँ तक उचित है कि हम कहीँ उनके ख़िलाफ़ लिखी गयी एक लाईन को लेकर उनका अस्तित्त्व ही ख़त्म कर दें.
राम को 'पियक्कड़' बताकर करूणानिधि का मन नहीं भरा था, सो उन्होंने राम के बारे में और भी सवाल कर दिए. उन्होंने पूछा; "कौन से इंजीनियरिंग कालेज से राम ने सिविल इंजीनियरिंग का कोर्स किया था?" लीजिये करिये बात इनसे. किसी ने कहीँ नहीं कहा कि राम ने दिन-रात मेहनत करके ये सेतु बनाया था. सब ये बात जानते हैं कि ये काम नल-नील ने किया था. नल-नील ही राम के इंजीनियर थे. उन्हें उस समय उत्प्लावन बल के सिद्धांत की जानकारी थी. उन्होंने ये काम किया था. और राम को इंजीनियरिंग करने की जरूरत भी नहीं थी. वे तो भगवान् थे. जिनका बनाया हुआ सारा ब्रह्माण्ड है, उन्हें पढने-लिखने की क्या जरूरत? लेकिन चूंकि उन्हें आदर्श मनुष्य के रूप में रहकर दुनिया को दिखाना था, सो उन्होंने न केवल पढाई-लिखाई की, बल्कि नल-नील से सेतु बनाने का आग्रह किया.
अब मेरा सवाल करूणानिधि जी से है. सुना है आप लिखते-विखते हैं. फिल्मों की कहानियाँ लिखते हैं. आप राजनीति में आ गए. शासन कर रहे हैं. कई साल हो गए आपको शासन करते. सरकार, आपने कौन से कालेज से राजनीतिशास्त्र की डिग्री ली थी. आप इतने बड़े राज्य पर शासन करते हैं, आपकी क्या योग्यता है? और जहाँ तक लिखने की बात है तो बहुत सारे पत्रकार आपके बारे में भी बहुत कुछ लिखते रहते हैं. अब अगर सारी बातों को सच मान लें तो आपको तो ३०-३५ सालों की सजा हो जायेगी. पत्रकारों ने यहाँ तक लिखा है कि आपके वीरप्पन जी से सम्बन्ध थे और वे आपकी आर्थिक मदद करते थे. इसे सच मान लें? राजीव गाँधी की हत्या की जांच करने वाले जैन साहब ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि आपकी पार्टी और आपकी जांच होनी चाहिए. राजीव गाँधी की हत्या में आप लोगों का हाथ हो सकता है. क्या करें, इसे सच मान लें? आप जिस राज्य से हैं, वहाँ नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनाकर जगह-जगह गाड़ दिया जाता हैं. आज से सौ साल बाद अगर कोई सरकार आपकी मूर्तियों को ये कहकर तोड़े कि ऐसा लिखा गया है कि आपके सम्बन्ध वीरप्पन से थे, तो आपके परपोतों को कैसा लगेगा? आपके बारे यहाँ तक सुना गया है कि इस सेतु के टूटने पर आपको लाभ होगा क्योंकि आपकी शिपिंग कम्पनी वगैरह है. इसे सही मान लिया जाय?
एक और महानुभाव को देखा टीवी पर बहस करते हुए. नाम है राजेन्द्र यादव. ये भी लेखक हैं. करूणानिधि और इनमें समानता ये है कि दोनों काला चश्मा लगाते हैं. यादव साहब टीवी पर डिस्कशन पैनल में क्यों थे, मुझे नहीं पता. यादव साहब भी कन्फ्युजियाये हुए थे. पहले बोले राम थे ही नहीं. फिर बोले राम थे, लेकिन उन्होंने सामंतवाद को बढ़ावा दिया. लीजिये, अब इनके बारे में क्या कहें. लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आई, कि यादव साहब किस कैपेसिटी में थे वहाँ. पर्यावरणविद वो हैं नहीं और न ही अर्थशास्त्री. साईंस-दान भी नहीं हैं. फिर याद आया कि अरे इन्होने ही तो हनुमान जी को विश्व का प्रथम आतंकवादी कहा था. शायद इसीलिये ये साहब वहाँ बैठे थे. ये दोनों महानुभाव लेखक होने के साथ-साथ काला चश्मा भी पहनते हैं. अपने सिवा बाकी लोगों को किस दृष्टि से देखते होंगे, समझा जा सकता है.
इसी पैनल डिस्कशन में अरुण गोविल भी थे. वे वहाँ इस लिए थे क्योंकि उन्होंने राम का रोल लिया था, रामायण में. मुझे याद आया, कि इलाहाबाद में एक चुनाव के दौरान ये साहब राम का रूप धारे कांग्रेस पार्टी का चुनाव प्रचार करते हुए देखे गए थे. वही कांग्रेस पार्टी जिसने कहा है कि राम थे ही नहीं. अरुण गोविल कह रहे थे कि ये आस्था का मुद्दा है और आस्था का सम्मान करना चाहिए. यादव जी अपनी बात पर अड़े हुए थे कि विज्ञान के युग में आस्था के लिए जगह नहीं है. यादव जी की सोच के हिसाब से देखें तो विश्व के जितने भी वैज्ञानिक हैं, वो सारे नास्तिक हैं. उनके मन में धर्म को लेकर कोई आस्था नहीं है. मेरे मन में एक बात है जो मैं बताता चलूँ. मेरा मानना है कि अगर आस्था के युग में विज्ञान के लिए जगह हो सकती है, तो फिर विज्ञान के युग में आस्था के लिए जगह क्यों नहीं हो सकती.
हमारी समस्या ये है कि हमारे देश में इस तरह के मुद्दों पर बात करते हुए ऐसे लोगों को देखा जा सकता है जिसे मुद्दों के बारे में दूर-दूर तक जानकारी नहीं है.
करुणानिधि राजनेता हैं और अपने लोकल वोट बैंक के लिए ऐसा बोल रहे होंगे। उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में वैसे भी कभी स्वीकृत नहीं किया जाएगा। रही आस्था की बात तो इसे व्यक्ति तक सीमित रहना चाहिए। सामूहिक और सार्वजनिक हित के मुद्दे पर आस्था की टंगड़ी फंसाने की इजाजत किसी को नहीं दी जानी चाहिए।
ReplyDeleteअनिल रघुराज - सामूहिक और सार्वजनिक हित के मुद्दे पर आस्था की टंगड़ी फंसाने की इजाजत किसी को नहीं दी जानी चाहिए।
ReplyDeleteसही है. और अपने कुभावों के चलते आस्था (मैं आस्था की बात कर रहा हूं, उसके मैनिपुलेशन की नहीं) पर कालिख पोतने वालों की भी उतनी ईमानदारी से निन्दा की जानी चाहिये.
बिल्कुल चकाचक बात कही है आपने।
ReplyDeleteतरह तरह के फैले रोग,
काला चशमा गोरे लोग,
राम-देव की जय जय बोल,
तन मन दमके कर ले योग।
रही बात सेतु की तो साहब हम भी शीघ्र एक कविता लेकर उपस्तिथ होने वाले हैं ।
मसले दुकानों के हैं।
ReplyDeleteराम के नाम की दुकान से कुछ कमाते खाते हैं।
राम के नाम के विरोध की दुकानों से भी कुछ खाते-पीते हैं।
राम नाम के घाट पे भई लुच्चन की भीर
तुलसी माथा पीटें और रोवन लागै कबीर
सही लिखे हो.
ReplyDeleteसही!! अंतिम लाईन तो एकदमे सटीक!!
ReplyDeleteआलोक पुराणिक ने बिल्कुल ठीक कहा है. यह दूकानदारी के अलावा कुछ और है नहीं.
ReplyDeleteबंधु
ReplyDeleteआप की अन्तिम लाइन पर हमें आपत्ति है ! हमारे यहाँ लोगों को मुद्दों की जानकारी तो है लेकिन अधकचरी ! आप ने तो पढ़ा ही होगा की" अध् भरी गगरीया छल्कत जाए " अब इन लोगों की गागरिया छलकने से रोकने का एक ही उपाय है की या आप तो आप इनकी गागरिया भर दें या फिर पूरी खाली कर दें !
एक बात और है हमारे देश मैं लोगों के पास बहुत समय है और किसी भी तरह कटे नहीं कटता तो समय गुजारने के लिए एक विषय तो चाहिए ही न फिर राम से सुविधाजनक विषय और कहाँ मिलेगा? हमारे यहाँ सार्थक विषयों पर बात करने की परम्परा नहीं है समय काट जाए किसी तरह ये ही परम्परा रही है !
अब बाल्मीकि जी की रामायण सही थी या नहीं वो नाराज़ थे या नहीं ये कहना मुश्किल है लेकिन एक बात तो है की कुछ न कुछगड़बड़ ज़रूर रही होगी उसमें वरना तुलसीदास जी उसे दोबारा क्यों लिखते?
कुछ भी कहो आप की बात मैं दम है रे !!!!
नीरज
"यादव जी अपनी बात पर अड़े हुए थे कि विज्ञान के युग में आस्था के लिए जगह नहीं है. यादव जी की सोच के हिसाब से देखें तो विश्व के जितने भी वैज्ञानिक हैं, वो सारे नास्तिक हैं. उनके मन में धर्म को लेकर कोई आस्था नहीं है. मेरे मन में एक बात है जो मैं बताता चलूँ. मेरा मानना है कि अगर आस्था के युग में विज्ञान के लिए जगह हो सकती है, तो फिर विज्ञान के युग में आस्था के लिए जगह क्यों नहीं हो सकती."
ReplyDeleteमिश्र जी मैं आपको एक खास बात बताता हूँ। विज्ञान और धर्म में विरोध है, ऐसी बात वे ही करते हैं जिन्होंने विज्ञान पढ़ा ही नहीं। स्नातक स्तर तक विज्ञान पढ़ने के बावजूद कभी मुझे कोई ऐसा सूत्र, नियम नहीं दिखा जो धर्म, भगवान का खण्डन करता हो।
मैं ना तो राम के पक्ष में हूं और ना ही उनका विरोधी, ना ही मैं भगवान मे भरोसा करने वालों में से हूं.. मैं हर पक्ष को तर्क पर कसना चाहता हूं, लेकिन मैं अन्य लोगों को इतनी जगह तो जरूर देना चाहता हूं कि वो अपनी आस्था पर टिके रहें.. और उनके ही आस्था का सम्मान करते हुये मैं इस सेतुसमुंद्रम के विरोध में हूं.. और तर्क की कसौटी पर भी इसे कसने पर भी मैं इसके पक्ष में नहीं जा सकता हूं.. सुनामी जैसे संकट की घड़ी में इसी राम सेतु ने जो काम किया था उसे सुनामी से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य के मुख्यमंत्री कैसे भूल रहें हैं पता नहीं..
ReplyDeleteअगर आप मान्यवरों में से किसी ने मिथिला साहित्य के गौरव हरिमोहन झा की कृति 'खट्टर काका' पढा होगा तो उन्हें पता होगा कि उसके पहले ही अध्याय में उन्होंने किस तरह राम जी का मजाक उड़ाया था और अंत में कहा था की हम तो उनके ससुराल वालों में से हैं और हमें उनसे मजाक करने का पूरा हक है..
पहली बात तो राम थे नहीं . थे तो किसी इंजीनियरिंग कॉलेज का सर्टीफ़िकेट नहीं था उनके पास . और हमेशा आंखें छुपाने वाला एक राजनेता यह भी कहता है कि वे 'पियक्कड़' थे . उसके पास वाल्मीकी की गवाही भी है . सामने एक और दल है उसके पास राम का स्वत्वाधिकार है . वह उनके पवित्र नाम को युद्धघोष की तरह उछालता है . उस दल का उत्साहातिरेक ऐसा है मानो राम उसी की वजह से बचे हुए हों .
ReplyDeleteराम पियक्कड़ होने के बावजूद मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जनमानस में स्थापित हैं . और हम बिना पिये इतने शर्मिंदा हैं कि अपने लोगों से आंखें मिलाते लजाते हैं . क्या हम इतने बड़े लुच्चे हैं ?