Wednesday, November 7, 2007

और मुशर्रफ़ साहब ने मन को छुट्टी पर भेज दिया.


भूमिका:-

यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया; "सबसे तेज कौन चलता है?"

"मन"; युधिष्ठिर ने जवाब दिया था.

आश्चर्य की बात है. बाकी भाईयों के मन में यह बात नहीं आई लेकिन युधिष्ठिर के मन में ही क्यों आई? शायद इसलिए की अज्ञातवास के दौरान बाकी के भाई तो काम करते थे. जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके लाते थे. खाना बनाते थे. झाडू वगैरह देते थे और युधिष्ठिर आराम से बैठे रहते थे. भीम से पाँव दबवाते थे सो अलग. जो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्मिकता कूट-कूट के भर जाती है. उसके लिए भोजन और भाषण के अलावा आध्यात्मिकता का सहारा रहता है.

एक दिन बैठे-बैठे युधिष्ठिर ने सोचा होगा कि 'अज्ञातवास ख़त्म होने दो, वापस हस्तिनापुर जायेंगे. कृष्ण को बुला लेंगे. उनके साथ बैठकर प्लान बनायेंगे. पहले सीधे-सीधे युद्ध नहीं करेंगे. पहले पाँच गाँव मांगेंगे. दुर्योधन है तो काइयां, इसलिए आराम से तो देगा नहीं. गाली-वाली बकेगा ऊपर से. उसके 'लुक्खेपन' की वजह से हम जनता की सारी सहानुभूति इकट्ठी कर लेंगे. जनता को बताएँगे कि देखो, ये दुर्योधन हमें गद्दी तो छोडो, पाँच गाँव भी नहीं दे रहा. युद्ध की पचास प्रतिशत भूमिका केवल इसी बात पर तैयार कर लेंगे. युद्ध शुरू हो जायेगा तो कौरवों के महारथियों को एक एक करके रास्ते से हटाते जायेंगे. गुरु द्रोण से भी थोडा झूठ बोलना पड़े तो चलेगा. आख़िर युद्ध में सब कुछ जायज है.'

ये सोचते-सोचते अचानक युधिष्ठिर ने यूरेका-यूरेका चिल्लाना शुरू कर दिया होगा. द्रौपदी ने चेहरे पर आश्चर्य के भाव रखकर चिल्लाने का कारण पूछा होगा तो युधिष्ठिर ने बताया होगा कि; "प्रिये अभी-अभी मुझे पता चला कि मन सबसे तेज भागता है."

कालांतर/स्थानांतर:-

मुशर्रफ साहब का मन भी तेज भागा होगा. इमरजेंसी लगाना चाहते हैं, लेकिन कैसे लगाएं. सुप्रीम कोर्ट के चौधरी साहब अलग से तलवार ताने बैठे हैं. नवाज शरीफ वापस आना चाहते हैं. अमेरिका ऊपर से सर पर सवार है. कहता है, जम्हूरियत ले आओ. अरे कहाँ से ले आयें ये जम्हूरियत. जम्हूरियत न हुई टमाटर हो गया कि जेब में पैसे रखो, एक थैला लो और बाजार जाकर खरीद ले आओ. अमेरिका को देते हुए कहो कि; 'लीजिये जम्हूरियत और खाईये.' कौन समझाये इन अमेरिका वालों को कि जम्हूरियत के लिए जनता के साथ-साथ नेता की भी जरूरत होती है. जनता तो है लेकिन नेता नहीं हैं. अब ये नेता कहाँ से ले आयें? मुझे तो कोई नेता समझता ही नहीं. मेरे ऊपर आतंकवादी हमला करते हैं तो लोग शक की निगाह से देखते हैं कि हमला मैंने ही करवाया है, जिससे नेता बन सकूं. सब कुछ कर सकते हैं लेकिन ये नेता पैदा करना बड़ा मुश्किल है, वो भी पाकिस्तान में.'

उनका मन तेज गति से चलना शुरू हो गया होगा. फिर अचानक उन्हें भी यूरेका का दौरा पडा होगा. खयाल आया होगा कि 'नेता इंपोर्ट किया जा सकता है. क्यों न बेनजीर को इंपोर्ट कर लें. एक बना बनाया नेता मिल जायेगा.' लेकिन फिर मन में बात आई होगी कि अगर बेनजीर ने सारी सहानुभूति अपने कब्जे में कर ली, तब क्या होगा? फिर पाँच तारीख को चौधरी साहब लोचा करने के लिए तैयार बैठे हैं. आतंकवादियों ने सैनिकों को अगवा कर लिया है. आतंकवादियों से सैनिकों को वापस नहीं ला पाए तो सेना ही खटिया न खड़ी कर दे. अरे जनता के नेता नहीं है, माना, लेकिन सेना के नेता तो बने रहे.

बेचारे एक तानाशाह का मन कितने कोनों में दौडेगा? उन्होंने सोचा होगा; 'मन तो चंचल है लेकिन इसके दौड़ने की भी तो सीमा होगी. इसलिए दौडाने से अच्छा है इसे स्थिर रखो. फैसला लो, और इमरजेंसी लगा दो. मन को थोड़े दिन की छुट्ठी दो. उसे भी आराम मिलेगा और मुझे भी.'

नतीजा सामने है.


(मेरा मन दौड़ा तो पांच हजार साल और हजारों किलोमीटर घूम आया. मेरी गलती नहीं है. मैं तो युधिष्ठिर के हवाले से जानता हूँ, कि 'मन सबसे तेज होता है'।)

10 comments:

  1. आपकी बात से इत्तेफाक नहीं है.

    टमाटर के भाव देखें है आपने. आजकल टमाटर लाना कठिन है जम्हूरियत लाना सरल है. यदि आप इंडिया की बात कर रहे हैं तो.पाकिस्तान की बात कर रहे हैं तो बात अलग है.:-)

    मन सचमुच बहुत तेज दौड़ा आपका. आज हमारा मन भी तेज दौड़ा था लोकतंत्र में थोड़ा देख कर बतायें. कितना तेज.

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  2. मन की गति सच्ची तेज है लेकिन बेचारी टमाटर का मोह नहीं छोड़ पाता :)

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  3. काकेशजी की बात पर ध्यान दें। भई क्या जुमला है जम्हूरियत लाना सरल है, टमाटर लाना मुश्किल है। सच्ची में जम्हूरियत का सिर्फ इतना फायदा होना है कि जो काम वर्दी वाले कर रहे हैं, वो खादी वाले करते हैं। बस पब्लिक को भौंकने की आजादी होती है। वैसे यह आजादी भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
    चोर आये चोरी की सब कुछ चुरा के ले गये
    कर ही क्या सकता था लेखक भौंकने के सिवाय
    ओरिजनल शेर अकबर इलाहाबादी साहब का है
    चोर आये, चोरी की सब कुछ चुरा के ले गये
    कर ही क्या सकता था बंदा खांसने के सिवाय

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  4. वाह शिव भैया क्या दूर की सोची, मुशर्र्फ़ ने खुद भी नही सोचा होगा ऐसा।

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  5. हा हा!!! टमाटर और ये हाल? :) क्या कहूँ..

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  6. एक बार मुशर्रफ़ साहब भारत से भी बात चलाकर देख सकते थे. नेताओं की बाढ़ मे अगर पाकिस्तान न बह जाता तो कहते. अरे सर सब रकम के, आकर के, गंध के, नेता यंहा बहुतायत मे पाये जाते है छाँट -छाँट के माल उठा सकते थे पर वो ठहरे भारत विरोधी शायद इसीलिए यंहा के नेता उन्हें मंजूर ना हुए. खैर कोई बात नही. वैसे टमाटर और जम्हूरियत जोरदार रहा. आपने अच्छा और उच्चकोटि का व्यंग्य लिखा.

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  7. मस्त है!!

    देखिए, ज़रा ई बताइए कि पांच हजार साल और हजारों किमी घूम आने के दौरान आपका ई मनवा कित्थे कित्थे स्टॉपेज़ लिया था इसका डिटेल तो आपने दिया नई अभी, कब देंगे!!

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  8. भाई जी,
    ईश्वर आपके मन को २-४ जोड़े पंख और प्रदान करें,जो निरंतर इस से भी अधिक गति से दौड़ लगाया करे ताकि हमे ऐसे ही लेखों का रसास्वादन कर पाएं.बहुत ही उत्तम है.
    शुभकामनाएं.

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  9. मन के घोड़े दौड़ाते रहें..….रोचक प्रयास

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  10. भई हमने तो सूना था की मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
    अबा अगर मन को ही छुट्टी पर भेज दिया तो मैच तो ड्रा ही होगा ना..

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय