अस्सी के दशक में एक जगह के बारे में बहुत सुनते थे. नाम था सियाचीन. आए दिन वहाँ कब्जा करने का साप्ताहिक कार्यक्रम चलता रहता था. कभी भारत का कब्जा तो कभी पाकिस्तान का. ये 'कब्जात्मक' कार्यवाई सालों चली. उन दिनों भूगोल के प्रश्नपत्र में सियाचीन को लेकर प्रश्न नहीं पूछा जाता था. छात्रों की हालत ख़राब हो जाती. शायद भारत और पाकिस्तान के शिक्षा मंत्रियों ने आपस में समझौता कर लिया था कि; 'स्कूल की परीक्षाओं में सियाचीन को लेकर सवाल नहीं पूछे जायेंगे.'
कुछ दिनों के बाद सियाचीन पर कब्जे की समस्या जाती रही. बाद में ये समस्या शहरों में लोगों के मकान पर गुंडों और किरायेदारों द्वारा किए गए कब्जे तक सीमित रही. अखबार और टीवी चैनल पर ऐसी समस्याएं न पाकर लोग बोर होने लगे. 'कब्जात्मक' कार्यक्रम में आया सूखा अब जाकर ख़त्म हुआ है. हमारे राज्य में एक जगह है नंदीग्राम. आज का सियाचीन. अन्तर केवल इतना है कि सियाचीन में कब्जे का फेर-बदल दो देशों के बीच होता था लेकिन यहाँ दो दलों के बीच.
नन्दीग्राम बनाम सियाचिन - कब्जे की लड़ाई ।
हम तो यह सोचते थे की नंदीग्राम नामक जगह हमारे देश में ही है. इसलिए यहाँ भी देश का कानून और संविधान चलेगा. लेकिन यह क्या? पश्चिम बंगाल सरकार पिछले कई महीनों से बता रही है कि वहाँ सरकार का राज नहीं रहा. पुलिस वहाँ जा नहीं सकती. सी पी एम को समर्थन देने वालों को वहाँ से बाहर कर दिया गया है. बेचारे अपना घर-बार छोड़कर स्कूल में रह रहे हैं. स्कूल बंद हैं. बच्चे महीनों से स्कूल नहीं गए. कभी किसी ने नहीं सोचा होगा कि हमारे ही देश में एक ऐसी जगह होगी जहाँ देश का क़ानून नहीं चलेगा. आए दिन यहाँ कब्जा बदलता रहता है. कभी सीपीएम वाले कब्जा कर लेते हैं कभी उनके विरोधी. गोलियों का आदान-प्रदान महीनों से जारी है.
स्थानीय स्तर पर अपने कैडरों को क़ानून अपने हाथ में लेने की छूट देने वाली सीपीएम पार्टी ने शायद ही सोचा हो कि बात-बात पर कानून को हाथ में लेने वाले ये कैडर इतने आगे निकल जायेंगे कि कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. ऐसा पहली बार हुआ है कि इन महारथियों को टक्कर देने वाले और भी लोग खड़े हो गए हैं. ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग इनके विरोध में खड़े हुए हैं, वे लोग भी कुछ महीने पहले शायद सी पी एम् पार्टी के कार्यकर्ता थे. कितने लोग मारे जा चुके हैं, किसी को नहीं पता. पता भी कैसे चले जब वहाँ प्रशासन का तंत्र जा ही नहीं सकता.
हमारे राज्य में एक नेता पाई जाती हैं. नाम है ममता बनर्जी. ममता जी जब कलकत्ते में रहते-रहते बोर होने लगती हैं तो पिकनिक मनाने नंदीग्राम चली जाती हैं. इनके आने-जाने में कई लोगों की जान खर्च हो जाती है. वहाँ भूमि के अधिग्रहण की खिलाफत करने वाली एक संस्था है. ममता जी इस संस्था को समर्थन देती हैं. सरकार का कहना है कि; 'जब हमने जमीन न लेने का एलान कर दिया है तो फिर ऐसी किसी संस्था की जरूरत नहीं है. भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने भी कह दिया है कि नंदीग्राम में किसानों की जमीन नहीं ली जायेगी.'
सरकार चाहती है कि उनका यह लॉजिक ममता बनर्जी समझ जाएँ. लेकिन दूसरों की लॉजिक न समझने वाली सी पी एम पार्टी को कौन समझाये कि 'जैसे आप अपने 'तर्कों' से दूसरों की बातें नहीं समझते, ठीक वैसे ही ममता बनर्जी भी नहीं समझेंगी.' इन लोगों को अब समझ में आ रहा होगा कि 'अगर सामने वाला लॉजिक समझने के लिए तैयार न हो, तो कोई उसे समझाया नहीं सकता.' कुछ दिनों पहले राज्य के मुख्यमंत्री को थोडा जोश आया तो उन्होने केन्द्र सरकार से सुरक्षा बलों की माँग कर डाली. अब कह रहे हैं कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों को नंदीग्राम में घुसने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. शायद नवम्बर महीने का असर है. सुना था इसी महीने में 'क्रांति' हुई थी. लगता है राज्य सरकार सोच रही है कि नंदीग्राम में भी कोई क्रांति हो जाये और स्थिति सुधर जाये.
बड़ी अजीब स्थिति है. सालों से लोग गुजरात और मोदी के पीछे पड़े हैं. कहते हैं मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया. लेकिन नंदीग्राम के बारे में राजधर्म का पालन करने के लिए कहने वाला कोई नहीं है.
नीरो पश्चिमी देश के सम्राट थे. जाहिर है कि उनकी तुलना केवल पश्चिमी प्रदेश के किसी 'शासक' के साथ होनी है. हमें तो केवल ये देखना है कि नीरो का नाम दूरी तय कर के पूरब तक पंहुचता है कि नहीं.
मोदी बुद्धदेव मौसेरे भाई। सारे राजा लोग मौसेरे भाई होते हैं।
ReplyDeleteबहुत सही!!!
ReplyDeleteआलोक पुराणिक जी ने सही टिप्पणी की है!!
मै मोदी का प्रशंसक नही पर मुझे लगता है कि गुजरात का उल्लेख और मोदी की आलोचना सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिए की जाती है ताकि अपने को धर्मनिरपेक्ष दिखाया जा सके, शायद हिंदू हो कर भी कट्टर हिंदूत्व की आलोचना ही धर्मनिरपेक्ष होने का पैमाना बन गया है आजकल!!
समझ में नही आता कि ये हमारा मीडिया या अन्य स्वयंभू आलोचक, इन्हे देश के अन्य हिस्सों का कुराज या हिंसा क्यों नही दिखती!! इनकी नजर में शायद गुजरात को छोड़कर बाकी जगह अमन चैन की बंसी बज रही है!!
आपने अपने लेख में वास्तविक चित्रण किया है, नंदीग्राम को लेकर जिस प्रकार राजनीति खेली जा रही है उसमें पिसी जा रही है सिर्फ जनता।
ReplyDelete'अगर सामने वाला लॉजिक समझने के लिए तैयार न हो, तो कोई उसे समझाया नहीं सकता.'
ReplyDeleteशाश्वत सत्य लिख दिए हैं आप, इसके आगे और किछु और लिखने की दरकार नहीं है.
नीरज
नंदीग्राम ने माकपा के फासीवादी चेहरे को बेनकाब कर दिया है। जनता का संघर्ष रंग लाएगा। नंदीग्राम के मुददे पर पिछले 35 वर्षों से कब्जा जमाए बैठे माकपा के छात्र संगठन एसएफआई का सूपडा साफ हो गया है। अपना हक मांग रहे किसानों पर सीपीएम जैसा बर्बर जुल्म ढा रही है उससे जालियांवाला नरसंहार भी लज्जित हो गया है।
ReplyDeleteनंदीग्राम के मुददे पर पिछले 35 वर्षों से जेएनयू छात्र संघ पर कब्जा जमाए बैठे माकपा के छात्र संगठन एसएफआई का सूपडा साफ हो गया है।
ReplyDeleteबस अभी अभी नंदीग्राम को लीड लगाकर ही दफ्तर से लौटे हैं। नीरो तो सत्ता की मानसिकता में बैठा कीटाणू है। उसे पूरब पच्छिम से क्या लेना-देना। यहां भी दर्शन होते ही रहते हैं।
ReplyDeleteनंदीग्राम की स्थिति पर बहुत ही विचारोत्तेजक लेख लिखा आपने शिव भाई.
ReplyDeleteहमारे राज्य में एक जगह है नंदीग्राम. आज का सियाचीन. अन्तर केवल इतना है कि सियाचीन में कब्जे का फेर-बदल दो देशों के बीच होता था लेकिन यहाँ दो दलों के बीच.
सही कहा आपने. सिर्फ़ दलों की प्रभुत्व की लड़ाई मे आम जनता पिस रही है.