बाद में करीब दो घंटे बाद उन्होंने ख़ुद ही फ़ोन किया. मैंने पूछा; "क्या बात है, आज सोमवार के दिन फ़िल्म देखने कैसे चले गए? इस तरह से तो कभी मैंने नहीं सुना कि सप्ताह के पहले ही दिन फ़िल्म देखने गए हो कभी."
बोले; "आजा नच ले देखने गया था."
मैंने कहा; "लेकिन ऐसा भी क्या हो गया कि सोमवार के दिन बारह बजे ही चले गए. मुझे भी बताते तो मैं भी साथ में चलता. हम शाम को भी जा सकते थे."
बोले; "मैंने सोचा पहले ही देख लो. क्या पता कब बैन लग जाए."
मैंने कहा; "अब तो बैन करने वाली कोई बात तो रही नहीं. कुछ राज्यों में सरकार ने बैन किया था. लेकिन अब तो बैन होने का सवाल ही नहीं है. जाति सूचक शब्द थे लेकिन अब तो मामला शांत हो गया."
बालकिशन बोले; "अरे भैया, गाने में दो जातियों के लिए दो शब्द इस्तेमाल किए गए थे. जाति-सूचक शब्द की सूचना केवल एक जाति के लोगों को मिली सो उन्होंने फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगवा दिया. लेकिन दूसरी जाति वालों ने तो अभी कुछ किया ही नहीं. मैंने सोचा कहीं उन्हें भी सूचना मिल गई तो."
मैंने सोचा, ठीक ही तो कह रहे हैं. ऐसा तो हो ही सकता है. 'सूचना का अधिकार' तो दूसरी जाति के लोगों को भी है. जब भी वे अपने अधिकार का प्रयोग करेंगे, फ़िल्म पर एक बैन और लग ही सकता है.
नचा दिया आपने तो जी। कहीं ऐसे लिखा जाता है। :)
ReplyDeleteशिव भईया अब आप अकेले ही इसे देख लेवें आपको यदि ये अपनी वाली यानी हम 40 के जवानो वाली माधुरी के जलवे आपके पिछले पोस्ट एवं ज्ञान जी के तिस पर पोस्ट जैसी होगी तो हम भी देखने जरूर जायेंगे ।
ReplyDeleteआरंभ
आप ने फ़िल्म देखी कि नहीं फ़िर …कहीं बैन न लग जाये
ReplyDeleteडेंजरस पोस्ट है जी।
ReplyDeleteसेंसर बोर्ड की तर्ज पर बैन बोर्ड से भी पास होनी चाहिये फिल्म। बैन बोर्ड के सभी बहनजी - भाईजी सर्टीफाई करें तभी फिल्म रिलीज हो। इतना पैसा खर्च होता है बनाने में, कम से कम यह कवर तो होना चाहिये।
ReplyDeleteया फिर इंश्योरेंस कम्पनी को बैन इंश्योरेंस करना चाहिये।
बैन-बोर्ड का समर्थन करते है. आप भी देख आये क्या पता कब बैन हो जाये.
ReplyDeleteफिल्म देखी या नही ?
ReplyDeleteहम तो फिर भी देखने नहीं गए जी और देखेंगे भी नहीं.
ReplyDeleteसटीक!!!
ReplyDeleteभैय्या फ़िलम को मारो गोली, ई बताओ कि कई साल बाद माधुरी के ठुमके देखे कि नई, और देखे तो कईसा लगा?
वैसे अपन ने नई देखी है, और पता नई कि देखेंगे भी या नई इस फ़िलम को!!
बंधू
ReplyDeleteहमने देखी ये फ़िल्म और खूब देखी.
बहुतही मज़ा आया. मुझे देशवासियों पर तरस आता है कि बिना सोचे समझे ज़रा सी बात का बतंगड़ बना देते हैं.एक अच्छी फ़िल्म के बिना बात पीछे पड़ गए.हम आम बोलचाल में किस का कितना अपमान करते हैं क्या ये किसी से छुपा है?
मेरी सबसे यही बिनती है कि सब कुछ भूल के फ़िल्म का आनंद लें और माधुरी से सीखें कि अगर जीना का ज़ज्बा हो तो उमर आड़े नहीं आती. अरे निकलो अपनी पुरातनपंथी सोच से और ठुमके लगाओ.
नीरज
भाई,
ReplyDeleteमैं फ़िल्म देखने गया था, ये बिल्कुल ही पर्सनल बात थी. आपने इसे सार्वजनिक करके अच्छा काम नहीं किया. लेकिन चूंकि आपकी पोस्ट में मेरा भी नाम आ गया है, सो हमें ज्यादा कुछ शिकायत नहीं है.
हम तो जगह-जगह अपना नाम देखकर ही खुश हो लेते हैं. ठीक उसी तरह जैसे टीवी के कैमरे के सामने मुहल्ले का 'राजू भाई' खुश हो जाता है.
सही लिखा है! भारत में सेकुलरिस्म की बीमारी आखिर कब खत्म होगी? चलो ये तो फिल्मी गाने के बोलों का मामला था लेकिन जब प्रेमचंद की कहानी को कुछ शब्दों के कारण पाठ्यक्रम से निकाल दिया जाए तो ऐसी मानसिकता को गंभीरता से लेना चाहिए:
ReplyDeletehttp://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/09/070929_uttarakhand_premchand.shtml
हा हा... आपको ये माधुरी को भेजना ज़रूर चाहिऐ।
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