हमारे ज्ञान भैया भी गजब हैं. पिछले तीस सालों से हमारी भाभी से चाय बनवा कर पीते हैं और उन्हें ये पता नहीं कि उनकी इस हरकत की वजह से दुनियाँ भर की औरतों के साथ अत्याचार हो रहा है. मजे की बात ये कि अपना अपराध कुबूल भी कर रहे हैं. वो भी ऐसी पोस्ट में जो सबकी समझ में आए. अब भैया जब पोस्ट सबकी समझ में आएगी तो उसपर टिप्पणियां भी आएँगी ही. और जब आएँगी तो बचना मुश्किल होगा ही. वैसे भी इस केस में केवल टिपण्णी से काम चलना मुश्किल था लिहाजा लोगों को पोस्ट तक लिखनी पडी.
मैंने कई बार भैया से कहा है कि ऐसी पोस्ट लिखते ही क्यों हैं, जो सबकी समझ में आ जाए. ऊपर से ऐसे मुद्दों पर लिखते हैं जिनके बारे में सब जानते हैं. अरे भैया, मैं कहता हूँ कि आपको कलकत्ते में होने वाली मीटिंग की फोटो लगाकर पोस्ट लिखनी ही क्यों? और फिर आप किसी समस्या पर डिस्कशन करना ही चाहते हैं तो आठ-दस साल और इंतजार कीजिये. रिटायर होने के बाद ये सारी समस्याओं की लिस्ट लेकर कहीं कोलोम्बिया, ब्राजील, चीन, उज़बेकिस्तान जैसी जगह चले जाईयेगा और वहाँ के लोगों के साथ भारत की आजकी समस्याओं को डिस्कस कर लीजियेगा. कौन रोकता है आपको. डिस्कशन करने से जो निष्कर्ष निकलेगा, उसे पोस्ट दर पोस्ट ठेलते रहियेगा. चाहे वहीं से या फिर भारत आने के बाद. भारत आ गए तो मेरी कोलोम्बिया यात्रा-भाग ५२७ तक ठेलते रहें. अज़दक जी से कुछ सीखिए. देखा नहीं आपने, चीन के एक नदी के किनारे बसे होनसीसी गांव में बैठकर वहाँ की एक बुढ़िया हूँचीची के साथ बिहार के चम्पारण जिले की समस्याएं डिस्कस कर आए. हाल ही में मुम्बई में बैठे-बैठे रूस से आए ब्रजनेव के पोते कसेल्निकोव के साथ भारत की पानी की समस्या डिस्कस किया है उन्होंने. ऐसा कुछ कीजिये.
नेरुदा आपकी समझ में नहीं आते फिर भी उनके बारे में लिखिए, बोलिए. उनकी कवितायें ठेलिए पोस्ट दर पोस्ट. आप रहते थे इलाहबाद के शुकुलपुर गाँव में लेकिन सबको ये बताईये कि आपने बचपन में ही इटली के महान फिल्मकार की १९५० में बनाईं गई फ़िल्म देख ली थी और इस फ़िल्म पर आप पीएचडी कर चुके हैं. आप लोगों को ये बताईये कि जॉर्ज बर्नाड शा के नाटक मैन एंड द सुपरमैन और आर्म्स एंड द मैन की सबसे बढ़िया व्याख्या आपने की है. किसी माडर्न आर्ट के 'पेंटर' की बनाईं गई 'जलेबी' को अपनी पोस्ट पर छापिये और लोगों को ये बताईये कि ये पेंटिंग आपको इस आर्टिस्ट ने भेंट में दी थी. पूरे साल भर पोस्ट में ऐसी भाषा लिखिए जो पाठक तो क्या पाठक की माँ (बाप इसलिए नहीं लिख रहा कि इसको लेकर भी बवाल न खडा हो जाए) की समझ में भी न आए. लेकिन जब किसी को गाली देना हो तो ऐसी भाषा लिखिए तो सबकी समझ में आए.
और आप हैं कि अपने घर और अपनी सच्ची सोच के बारे में पोस्ट ठेल रहे हैं. वो भी ऐसी जो सबकी समझ में आए. थोड़ा मेहनत करके एक 'डुयल पर्सनालिटी' तैयार नहीं कर सकते? माफ़ कीजियेगा, अगर ऐसा नहीं कर सकते तो फिर आप असली ब्लागिंग के लायक कतई नहीं हैं. और छोड़ दीजिये ये ब्लागिंग वागिंग. और हाँ, जो भी लिखिए बहुत सोच-समझ के लिखिए. हो सके तो लिखिए ही मत. क्योंकि आपकी लिखी हुई पोस्ट की एक भी लाइन लोगों को नागवार गुज़री तो भारत का सत्यानाश हो जायेगा. आपको सोचना चाहिए कि आपका लिखा हुआ शाश्वत है. आनेवाले समय में ये कोर्स की किताबों में पढाया जायेगा और इसे छात्रों ने पढ़ा तो भारत का भविष्य चौपट हो जायेगा.
और फिर केवल अज़दक जी से ही क्यों, प्रत्यक्षा जी से भी कुछ सीखिए. अभय भाई ने अपने ब्लॉग पर इन दोनों को शब्द धनी बताया है. देखा नहीं कि प्रत्यक्षा जी मिसेज मजुमदार के बारे में पूरी की पोस्ट लिख डालती हैं. लेकिन क्या लिखती हैं वह मिसेज मजुमदार की माँ की भी समझ में नहीं आएगा. लेकिन अगर आपकी पोस्ट पर आपको धिक्कारने की बात आती है तो ऐसी भाषा लिखती हैं जो गली का कुत्ता भी पढे तो समझ जाए. प्रमोद जी ने अपनी ही पोस्ट में उन्हें हरियाणा में औरतों के साथ होनेवाले जुल्म को लेकर कुछ कहा है. मुझे भी समझ में नहीं आया कि वे कभी वहाँ की औरतों के साथ हो रहे अत्याचार के बारे में क्यों नहीं लिखती? खैर, ये उनका अपना मामला है.
इसलिए भैया, मेरा तो यही कहना है कि आप ख़ुद को बदलिए. ट्राई कीजिये कि ऐसा कुछ लिखिए जो लोगों की समझ में न आए. कम से कम गालियाँ खाने की नौबत तो नहीं आएगी.
बहुत सही लिखा आपने और रख के दिया है.
ReplyDeleteइन लोगों को कोई काम वाम (जो बेमतलब की बातें उठा रहे है) है नही बस उतर गए पोस्ट और कमेन्ट लेकर स्त्री अधिकारों की बात करते हुए. जिस विषय, जिस समस्या का उस पोस्ट मे कोई अस्तित्व ही नही है उसे खोद-खोद कर निकल रहे है.
सब ......... बेवकूफ है. कहते अपने आप को बुद्धिजीवी है.
धिक्कार है मेरा ऐसे बुद्धिजीवियों पर.
भई यहाँ दोगले लोग भरे पड़े है, घर में पत्नि को दो चार लगा कर जाते है नारी सम्मान पर विमर्श करने. अपन ने देखा है. ऐसे लोग भी देखे है जिन्होने धर्मनिरपेक्षता का ठेका ले रखा है और पीछे से हमारे कथित अल्पसंख्यको के बारे में परम पवित्र बाते करते रहते है.
ReplyDeleteतो ऐसी बातो को दिल से न लगा कर लिखते जाना है, सच्ची सच्ची...
बाकि सबका चरित्र पता है हमें.
अगर आप को ऐसा लगता हैं कि ज्ञान जी के ब्लोग पर जिन महिलाओ नए कमेन्ट दिये है वह ज्ञान जी के लेखन को दिये है तो आप को उन कमेंट्स को पुनेह पढना होगा । वहाँ कमेंट्स केवल एक रुदिवादी मानसिकता को दिये गए हैं । आधी महिला ब्लोग्गेर्स तो रीता जी यानी ज्ञान जी की पत्नी को जानती भी नहीं है फिर भी उन्होने इस सोच का विरोध किया । और इस प्रकार का लेखन पहले भी ब्लोग पर हुआ है जब नीलिमा को अपने ब्लोग पर इस मानसकिता के विरोध मे लिखना पडा था ।
ReplyDeleteउस पोस्ट का लिंक आपकी गंधाती पुलक से कहीं बेहतर है, उनकी भड़ास हैं वहाँ भी आप पुनेह देख सकते है । http://vadsamvad.blogspot.com/2007/08/blog-post_10.html
विरोध लेखन या लेखक का शायद कभी भी नहीं होता है , विरोध होता है उस सोच का जो उसके पीछे होती है । ये सही है की अगर ज्ञान जी अपनी पत्नी से चाय बनवा कर पीते है तो दुनियाँ भर की औरतों के साथ अत्याचार नहीं होता है पर फरक है सोच का ।
पत्नी से चाय बनवा कर पीना और पत्नी द्वारा बनी हुई चाय पीना दो अलग अलग बाते होती है ।
छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात। हम तो उत्पात करबै करेंगे। आप लोग बड़े है तो हमारी चंचलता पर मजे लीजिए, सर धुनिए। काहे खाली-पीली खीझे जा रहे हैं।
ReplyDelete"काहे खाली-पीली खीझे जा रहे हैं।"
ReplyDelete@ अनिल रघुराज जी,
सर, यही बात तो आप प्रमोद सिंह जी की पोस्ट पर लिख सकते थे. उनकी खीज नहीं दिखी आपको? उनकी पोस्ट में आपको चुटकी दिखी?
अपने कमेंट को एक बार फिर ध्यान से पढिएगा. और हाँ, आप छोटे नहीं हैं, आपलोग बड़े हैं.
भैया, मैं नन्हा बालक पतली गली से सटक लेता हूं, बड़े भैया लोगों का मिज़ाज़ कुछ ठीक नई दिख रहा ;)
ReplyDeleteशिव भैया आप ज्ञान जी के पोस्ट पर आयी टिप्पणियों से दुखी हुए, हम समझ सकते है॥ आप अपनी जगह सही हैं।
ReplyDeleteइतना बडा देश, इतनी सारी समस्याए। इतना छोटा ब्लाग परिवार, इतने कम लोग। ऊपर से धकियाने वाली नारी जमात का आतंक। तौबा रे तौबा। इन देवियो को पूरे भारत मे हो रहे अत्याचार नही दिखते जो यहाँ बात बे बात टपक़ पडती है लडने। बडी अराजक स्थिति है। हमारे मन मे नारियो के लिये जो इज्जत है वो इनकी दादागिरी (दादीगिरी) देखकर खतम हुयी जा रही है। सात घर तो छोडिये आप लोग कम से कम। हमारे नाम पर कीचड न उछाले इसलिये बेनामी बनकर पोस्ट कर रहा हूँ। इन्हे तो अपनी इज्जत की परवाह नही। तौबा रे तौबा।
ReplyDeleteशब्द धनी तो आप किताबें घोंट कर बन सकते हैं। मर्म धनी बनने के लिये एक स्तर पर पुस्तकें भी छोड़नी पड़ती हैं।
ReplyDeleteशिव, मैं अपनी पुस्तकों की अलमारियों के सामने कुछ समय तक चुपचाप खड़ा रहा। कुछ समय तक पुस्तकें खोल पन्ने पलटे।
एक बार यह लगा कि यह निधि मेरे मन-शरीर-प्राण का अंग है। लगा कि पुस्तकों से ज्ञान ग्रहण कर मनन किया जाना चहिये; पर पुस्तकों को आइने की तरह दूसरे को चकाचौंध करने के लिये चमकाना अपने को और पुस्तकों को छोटा करना है।
मैं कबीर को याद करता हूं, तुकाराम को याद करता हूं, रामकृष्ण परमहंस को याद करता हूं। ये सब हमें दीपक दिखाने वाले थे, हम पर आइना फ्लैश करने वाले नहीं।
लगभग एक दशक से ऊपर हो गया, इन तथाकथित बुद्धिजीवियों और मीडिया पर बड़ा-बड़ा बोलने वालों का वास्तविक स्तर पता चले। संजय बेंगानी उन्ही को रेफर कर रहे हैं। लिहाजा वे जो भी खीझना/बोलना/उबलना चाहें; उसका प्रताप उन्ही के पास रहेगा।
बाल किशन की भाषा में आपने रख के दिया है। कुछ बचा कर रखा है या नहीं?!
देखता हूं आपके सुझाव का क्या कर सकता हूं। फिलहाल 'सिर खुजाऊ लेखन' कर पाना कठिन लगता है। पर्सोना इतना भी तो नहीं बदला जा सकता!
हमारी भी माँग है कि ज्ञान जी बदलें और थोड़ा प्रगतिशील हो जायं..
ReplyDeleteभैया दिल पर मत लो! प्रमोदसिंह की उलझी शैली है, वरना बात सही कह रहे हैं व्यक्तिगत बातों से भी अगर समाज की भलाई का रुख हो जाए तो क्या बुराई है?
ReplyDeleteउलझी शैली लेकर बढ़िया भला किए हैं समाज का. वाह!
ReplyDeleteइस संदर्भ में एक आत्मस्वीकारोक्ति है कि वैचारिक सहमति-असहमति के बावजूद मुझे प्रमोद, अभय, ज्ञानजी,अनिल रघुराज, प्रत्यक्षा, शिवकुमार सबका लिखा बहुत प्रिय है . बीच-बीच में अपनी समझ मुताबिक सहमति-असहमति की अच्छी-बुरी टिप्पणियां भी करता रहता हूं . जब सरल और कठिन की -- समझ में आने वाले और न आने वाले लेखन की -- ऐसी खेमेबंदी होती देखता हूं तो अपने पर घबराहट होती है और थोड़ा डर भी लगता है कि मेरे व्यक्तित्व में कुछ गड़बड़ है क्या ? क्या मेरे भीतर अलग-अलग खाने -- कम्पार्टमेंट्स -- बने हैं ? क्या मेरी दिमागदानी में कोई मैन्युफ़ैक्चरिंग डिफ़ैक्ट है ? बहुत चिन्ता में पड़ गया हूं ( बांग्लाभाषी दोस्तों की हिंदी में कहूं तो चिन्ता में गिर गया हूं)
ReplyDeleteक्या मैं वास्तव में गिर गया हूं ? क्या मेरा रुचिबोध सुअर का-सा हो गया है और मैं भक्ष्य-अभक्ष्य सब पर मुंह मारने लगा हूं ? अपने को लेकर गहरे संशय में हूं . समस्या क्रिटिकल है . सुधीजन मदद करें !
भाई, इतनी सारी टिप्पणियों और तुम्हारे पोस्ट से भी अधिक परेशान किया तुम्हारी बातो ने. जो बालक कल तक बार बार कह रहा था की दीदी तुम्हारी भी एक ब्लॉग बना देता हूँ, वो मुझे तो मना कर ही रहा है और कह रहा है कि लिखना छोड़ दूंगा. मुझे वह दिन याद आया,जब घर और ऑफिस मे ताल-मेल बिठाते बिल्कुल भी समय नही मिलता था कि कुछ अच्छा पढ़ सकूं. एक से बढ़ एक वातानुकूलित किताबघर छान मारे पर हिन्दी सेक्शन मे अपनी मातृभाषा में मतलब की किताबें खोजना कितना दुष्कर कार्य है, तुम भी जानते हो. कंप्यूटर पर 'रोमन साम्राज्य' का ही सर्वाधिकार था. १५-१६ घंटे ऑफिस मे रहने के दरम्यान जब कभी समय का छोटा सा टुकड़ा खाली मिल जाता था तो बड़ी उत्कट अभिलाषा होती थी कि कभी क्या वह दिन आएगा जब नेट पर बैठे अपनी हिन्दी भाषा मे पठनीय सामग्री उपलब्ध होंगी?. खली समय मे इसी अभियान में लगी रहने के दरम्यान अनुभूति तथा ऐसे ही कुछ साईट जब कुछ वर्षों बाद मिले तो ऐसा लगा जैसे बरसों से सूखी पड़ी बंजर जमीन पर रिमझिम बरसात हो गई.
ReplyDeleteइधर के कुछ वर्षों मे तो जो हालात बदले उसे देख बड़ा सुख मिलता है. पर ऐसा है न भाई , कोई भी तकनीक हो उसका हमेशा सदुपयोग ही तो नही होता ना. और सबसे बड़ी समस्या होती है जब 'घरेलू नुस्खे' और 'ब्यूटी टिप्स' जैसे विषयों पर लिख पाने का सामर्थ्य रखने वाले लोग भी सिर्फ़ लिख पाने के काबिलियत के वजह से अपने को महान साहित्यकार और समाज सुधारक, चिन्तक, दार्शनिक और सब कुछ मानने लगते हैं. लेकिन ऐसे लोगों की बातों से घबराया नही करते.
मेरी एक जेठानी हैं. बड़ी अच्छी हैं, पर एक बीमारी से ग्रस्त हैं. उन्हें बहुत बुरी तरह कपड़े धोने की बीमारी है. सारे घर के सदस्यों के कपड़े से लेकर चादर मच्छरदानी तक रोज धो डालती हैं. चाहे वो कहीं बाहर जायें या कोई दूसरा बाहर से घर आए. सबसे पहले वो उसके कपड़े उतरवा कर धोती हैं, तभी किसी को बैठने या पानी के लिए पूछती है. उन्हें सारी दुनिया अशुद्ध और हवा, पानी और जमीन वगैरह के सम्पर्क में आए वस्त्र मैले लगते हैं. बाकी, वो पागल नहीं हैं. पूरी तरह से नॉर्मल हैं. एकदम नॉर्मल. पर उनकी इस बीमारी का कोई क्या करे??
पता है, मुझे धोबी से बहुत अधिक शिकायत रामजी से है. उन्होंने जो किया वह सरासर अन्याय था. न राजा के रूप मे उन्होंने सही किया और न ही मनुष्य के रूप मे. एक मनुष्य के रूप मे उनका कर्तव्य था कि वे हर रूप मे अपने दायित्वों का पालन करें. सारे लोगों के प्रति दायित्वों का पालन किया और अपनी गर्भवती स्त्री को दर दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया. कौन सी बहादुरी और न्याय किया उन्होंने? अपने विश्वास, अपने पूरे परिवार और देश के सभी मनुष्यों से ज्यादा अहमियत एक धोबी की बात को दे डाला??????
रजा के रूप मे भी सिर्फ़ धोबी ही उनकी प्रजा और जिम्मेदारी नही था. पत्नी भी प्रजा और जिम्मेदारी थी.उनको तो करना यह चाहिए था की धोबी को बुलाकर चार जूते लगवाते और कहते, साले अगर अपनी बीबी का या मेरी बीबी का अपमान करने की सपने मे भी जुर्रत की तो तेरी भी अग्नि परीक्षा ले लूंगा. तुझे तो पता है, परीक्षा लेने-देने मे मैं कितना माहिर हूँ.......... धोबी के लिए इतना काफ़ी था....
साहित्य मनोरंजन नही, एक संस्कार है. और जो इसकी समझ रखता है वह बस राजा राम सा ही होता है. उसे देखकर चलना पड़ेगा कि एक पाठक और रचयिता के रूप मे उसका कर्तव्य और अधिकार क्या है. दायित्व क्या है. इसके साथ ही यह भी देखना पड़ेगा कि किन बातों से विचलित होना चाहिए और किन बातों से नही.
उम्मीद है मेरा आशय स्पष्ट हो गया है. जो कोई भी सत्साहित्य का सेवक है, कुछ सार्थक लिख सकता है,उसे अपने धर्म से कदापि पीछे नही हटना चाहिए. यूं ही ज़माने की जो हवा है, हिन्दी साहित्य को मिटा देने की हर सम्भव कोशिश हर ओर से की जा रही है. अब तो बस यही रह गया है की 'योग', 'रिकी' इत्यादी कि तरह, किसी नाम से जब कोई इसका पेटेंट करा लेगा और अपने हिसाब से अपने प्रोडक्ट मार्केटिंग के लिए इसे इस्तेमाल करेगा. तबतक अपने भर जो हम कर सकते हैं इसके लिए करें तो जो कुछ हमने इस से पाया है उसके शतांश कर्जे से मुक्त हो पाएं शायद.
यह मारक था. रंजना जी और ज्ञान जी की टिप्पणी भी अच्छी है. बहुतों ने नहीं पढ़ी होगी. इसे के पोस्ट के रूप में दीजिये ना...वरना हम तो हैं ही टिप्पणी चोर :-)
ReplyDeleteभैया से कहा है कि ऐसी पोस्ट लिखते ही क्यों हैं, जो सबकी समझ में आ जाए
ReplyDeleteबंधू
आप में ये बड़ी खराबी है, देखिये शरीफ लोग जो होते हैं वो लपेट लपेट कर मारते हैं और आप आव देखते हैं ना ताव बस दे दनादन मारे चले जाते हैं .देखिये ज़रा गौर से देखिये जिन बिचारों ने भैय्या की पोस्ट पे टिपण्णी की होगी उनको क्या मालूम था की उनकी ऐसी धुलाई होगी. अगली बार ये विद्वान लोग टिपण्णी से पहले अपनी जन्मपत्री पढ़वा के ही ऐसा जोखिम मोल लेंगे .
धन्य हैं आप प्रभु....यदा यदा धर्मस्य.....भारत की जगह ब्लॉग पढ़ें... याने ब्लॉग पर धर्म की हानि होने पर "शिव" अवतरित होते हैं. वाह....
नीरज