सिर पर ढिठाई के साथ जमे हुए कुछ बाल हर पन्द्रह-बीस दिन पर मुझे सैलून तक पहुंचा ही देते हैं. ये ढीठ थे तो जमे रहे. जिनके अन्दर ढिठाई की मात्रा कम थी, उन्हें टिकने नहीं दिया गया. किसने टिकने नहीं दिया, ये शोध का विषय है. कोई भी इस बात की जिम्मेदारी ले सकता है. सिर के रूसी से लेकर जींस (क्रोमोजोम्स वाला जींस) तक और शहर के पल्यूशन से लेकर बढ़ती उम्र तक. लेकिन आजतक किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली. इससे अच्छा तो लश्कर-ए-तैयबा वाले हैं जो किए गए खुराफात की जिम्मेदारी तुरंत ले लेते हैं.
खैर, रविवार का दिन ऐसा ही था. सैलून में घुसकर समझ में आ गया कि काफी समय लगेगा. कारण था वहाँ इकठ्ठा हुए लोग. ऊपर से बाबू दा, जो मेरे बाल काटता है (कह सकते हैं छांटता है) वो नहीं आया था. मुझे देखते ही बाकी के दो 'कारीगरों' ने आपस में धीरे-धीरे कुछ बात की. बात खत्म होने के बाद उनमें से एक मेरी तरफ़ मुखातिब होते हुए बोला; "ऊ नहीं आया है." मुझे समझ में आ गया कि इसके कहने का मतलब है; "जब भी आते हो और हम खाली भी रहते हैं तो हमसे तो बाल कटवाते नहीं हो. लो, आज भुगतो."
मैंने उनसे कहा; "कोई बात नहीं. आप काट दीजियेगा." उसने मुझे बैठने के लिए कहा. सैलून में बैठने की बाद जो सबसे पहला काम करना होता है, मैंने भी वही किया. चार-पाँच महीने पुरानी फिल्मी पत्रिका हाथ में ले ली. पिछली कई बार के सैलून विश्राम के दौरान मैं इस पत्रिका को पढ़ चुका हूँ. लेकिन सैलून में अपना नंबर आने का इंतजार करता आदमी और क्या कर सकता है? हर बार वही पुरानी पत्रिका इस आशा के साथ उठा लेता है कि शायद इस बार कोई नई रोचक ख़बर पढने को मिल जाए जो उसे पहले दिखाई नहीं दी. लेकिन ऐसा होने का चांस कम था, ये बात मुझे पता थी. खासकर तब जब यही पत्रिका मैं पहले भी तीन बार पढ़ चुका हूँ. खैर, जॉन अब्राहम से बिपाशा बसु की अनबन की ख़बर, जो मैं पहले भी तीन बार पढ़ चुका था, फिर से पढ़ना शुरू किया.
अनबन की ख़बर पर बिपाशा जी का वक्तव्य पढ़ ही रहा था कि दो नौजवान अन्दर घुसे. दोनों आधुनिकता के रंग में सराबोर. दोनों की जींस घुटनों से नीचे फटी हुई. अन्दर से पैबंद लगा कर सिली हुई. ये जींस एक फैशन धर्म के तहत फाड़ी गई है, इस महत्वपूर्ण बात की जानकारी थी मुझे. वैसे यही जींस अगर गाँव का कोई नौजवान पहन लेता तो बड़े-बुजुर्ग कानाफूसी शुरू कर सकते थे. ये कहते हुए कि; "अरे ई फलाने के घर की हालत कुछ ठीक नहीं लग लग रही. कल उनके बेटे को देखे. पूरा पैंट फटा हुआ है."
इस फटी हुई जींस के अलावा आधुनिकता के चढावे के रूप में एक कान में छोटी सी बाली, दाहिने हाथ में स्टील का कडा, बायें हाथ में चौड़ा सा चमड़े का पट्टा और बहुत बड़ा सा चश्मा जो मोटरसाईकिल चलाते वक्त पहना जाता है. अन्दर घुसते ही उनमें से एक ने 'कारीगर' को हिदायत दी; "सुन, इसको न, 'मेसी लुक' देना है. चारों तरफ़ चूल (बंगाल में सर के बालों को चूल कहा जाता है) छोटा कर देना और बीच में बडा छोड़ देना. जेल-वेल मार के मेसी लुक देना है. बाकी देख लेना, जो तुमको अच्छा लगे, कर देना." इतना कहकर वो नौजवान चला गया. जो नौजवान 'मेसी लुक' लेने आया था, वो मेरे पास ही बैठ गया.
अब चूंकि नौजवान पास बैठ गया तो मैंने भी फिल्मी पत्रिका को थोड़ा आराम दे दिया. जब असली मनोरंजन का हिसाब बैठ गया है तो इतनी बासी पत्रिका की जरूरत भी किसे है? मैंने नौजवान को देखा. करीब बीस-इक्कीस साल उम्र होगी लेकिन स्वस्थ बिल्कुल नहीं. पेट निकला हुआ. कमीज के ऊपर के दो बटन खुले हुए. बड़ा सा धूपी चश्मा हाथ में. कपड़े गंदे थे. लड़का बहुत पैसेवाले घर का था, ऐसा नहीं लगा मुझे. मैंने जिस पत्रिका को आराम दिया उसी को इस नौजवान ने उठा लिया. कुछ देर उलट- पलट कर देखा. एक पेज पर जॉन अब्राहम की तस्वीर दिखाई दी उसे. उसी तस्वीर को दिखाते हुए उसने कारीगर से पूछा; "भइया, ये जो हेयर स्टाइल है, इसे क्या बोलते हैं?"
"इसे फंकी कहते हैं"; उस 'कारीगर' ने जवाब दिया. जवाब देने के बाद शायद उसे अपनी भूल का एहसास हुआ होगा इसलिए उसने उचित संसोधन करते हुए फिर कहा; "नहीं-नहीं, ये स्पाईकी फंकी है." उसके मुंह से फंकी शब्द सुनकर मुझे जातिफलादि चूर्ण की बात याद आ गई थी.
अपने सवाल का जवाब पाकर नौजवान आश्वस्त हुआ. उसके बाद उसने जेब से सेलफ़ोन निकाला और किसी को फ़ोन किया. शायद कोई लड़की थी. उसने लड़की को जानकारी देते हुए कहा; " अभी मैं स्पार्केल में हूँ. आज लुक चेंज कराने आया हूँ. शाम को फेम में मिलते हैं." थोडी देर बाद उस नौजवान का नंबर आया. लुक चेंज करवाने के लिए वो कुसी पर बैठ गया. 'कारीगर' ने उसके कान की बाली की बड़ी प्रशंसा की. मैं दोनों की फैशनमय बातचीत पूरी तरह से एन्जॉय कर रहा था.
थोडी देर में ही मेरे बाल कट गए. मैं वहाँ से निकलते हुए सोच रहा था; 'क्या नौजवानी की 'कन्फ्यूजियाहट' इसी को कहते हैं?'... 'क्या इस नौजवान को इसकी प्राथमिकताओं के बारे में पता है?'... 'क्या फैशन की होड़ इतनी महत्वपूर्ण है कि इस दौड़ में हम वैसा दिखने की कोशिश करें जो हम नहीं हैं?'
सोचते-सोचते मुझे परसाई जी का लिखा हुआ याद आ गया. एक जगह उन्होंने लिखा था; 'आत्मविश्वास कई तरह का होता है. बल का, बुद्धि का, विद्या का, धन का ...लेकिन सबसे ऊंचा आत्मविश्वास मूर्खता का होता है.... हैं फूहड़ और ख़ुद को बताते हैं फक्कड़....और ये विश्वास भी रहता है कि सामनेवाला इन्हें फक्कड़ ही समझ रहा है.........
पता नहीं नौजवान के अन्दर किस बात का आत्मविश्वास था...या फिर वो आत्मविश्वास की तलाश में ये सब कर रहा था.
हम भी आज के युवा वर्ग से ही आते हैं और बचपन से घर में कोई कमी भी नहीं रही.. ग्रैजुएसन के दिनों के शुरूवाती साल में मुझे भी फैशन का शौक चढा था.. मगर जल्द ही उतर गया.. आज तो आलम ये है कि जो भी मिल जाता है पहन लेता हूं, जब लगता है कि आज ऐसे जाऊंगा तो आफिस में भी नहीं घुसने देंगे तो 3-4 दिनों पर सेविंग भी कर ही लेता हूं..
ReplyDeleteहां मगर एक बात तो है कि हर कोई अच्छा दिखना चाहता है और मेरी समझ में जो जैसा है वैसा ही दिखे तो ज्यादा अच्छा लगता है..
ye aatmvishvaas se paripuurn hain aur ek tarah ki andhii daud me daudey chaley jaa rahey hain...
ReplyDeleteपहले तो यह बतायें की आपने कौन सा लूक बनवाया और आत्मविश्वास कितना ऊँचा गया :)
ReplyDeleteबहूत मेहनत करने पर ऐसे आत्मविश्वास मिलते है.
लेकिन सबसे ऊंचा आत्मविश्वास मूर्खता का होता है
ReplyDeleteलेकिन तब भी हममें आत्मविश्वास की कमी क्यों हो रही है! :)
वो जो भी तलाश कर रहा था पर हम उन्हे देखने वाले ये तलाश करने मे लगे होते है कि ये क्या तलाश कर रहे हैं। ;)
ReplyDeleteबाकी रही हेयरस्टाईल और जीन्स की बात तो मेरा बड़ा भतीजा शौकीन है इन सब का, अभी आमिर खान ने अपना हेयर स्टाईल बदला तो वह चिंतन मे डूब गया था कि यह नया हेयर स्टाईल बनवाए या न बनवाए!
फैशन बुरा नहीं। हम तो अब भी इस के शौकीन हैं, मगर अकल से, नकल और मूर्खता से नहीं।
ReplyDeleteये आत्मविश्वास बड़ी मुश्किल से मिलता है .....जो इसे हासिल किए घूम रहे है उनसे पूछिये .......एक झटके मे बेचारे मगर नीचे भी आ जाते है....
ReplyDeleteबहुत जोरदार रहा. ये बच्चा भले "फंकी" या "मंकी" की तरफ़ गया हो मगर आपने जरूर "ढंग की" स्टायल चुनी होगी. कोई नया फोटो लगाइए ना.
ReplyDeleteक्या आप भी पिछली पीढ़ी जैसी बातें करते हैं... स्टाइल का ज़माना है. आप को भी वहीं जेल-वेल लगा के थोड़ा फंकी बनना था, बाली-वाली पहनिये... पियार्सिंग कराइए :-)
ReplyDeleteमतलब डयुड बनिए :-)
काश मिल जाये कहीं आत्मविश्वास!!!
ReplyDeleteकहाँ हजामत बनवाते हैं, जरा पता बताईयेगा. बहुत बेहतरीन विचार किया है.
अद्भुत! आप लगातार अपने पसंदीदा परसाईजी की नजदीकी हासिल करने की तरफ़ बढ़ते जा रहे हैं। हमको बहुत अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteजमाये रहिये
ReplyDeleteबालों को नहीं।
मुझे समझ में आ गया. तुम्हारे सर में बाल नहीं हैं इसीलिए दूसरों से जलते हो.
ReplyDeleteतुम फैशनबाज होने लायक नहीं हो न इसलिए भड़ास निकाल रहे हो.
ये नौजवान बिल्कुल सही रास्ते पर चल रहा है.
आत्मविश्वास की खोज करने की जरूरत उसे नहीं बल्कि तुमको है...:-)
सही है. वैसे बाल किशनजी फिर बालसुलभ बातें कर रहे हैं? आपकी संगत में- बाल न सही, कुछ स्टाइल तो किशनजी को दिलवा दीजिये? बाल पर किशन का इतना इतराना सही है?
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteई बहुत ग़लत बात है....वो दिन भूल गए जब ख़ुद शुरू में देव आनंद इस्टाईल के बाल बनवाते थे, समय बदला फ़िर अनुपम खेर की नक़ल मारने लगे और अब डेविड वाला लुक लिए शर्मा रहे हो. भाई ये चार दिन की अमावस्या (काले बाल) है फ़िर तो चांदनी ही चांदनी है (बिना बालों के) सर के आकाश पर. अगर ये सच नहीं है तो अपनी १५ और ५ साल पुरानी और अभी की फोटो ब्लॉग पर लगा कर हमें ग़लत सिध्ध करके दिखाओ. आत्मविश्वाश की आढ़ में उस नौजवान पर अपनी खीज मत उतारें.
नीरज