कुर्सी पर बैठे कुछ सोच रहे थे. थोडी देर बाद दोनों हाथों की दसों उंगलियाँ बालों में घुसा कर सिर नीचा कर कुछ सोचने लगे. फिर कुछ आश्वस्त से होते पेंसिल उठा ली. कागज़ पर कुछ लिखा. फिर उसे पेंसिल चलाकर खारिज कर दिया. फिर पेंसिल के पिछले हिस्से को दांतों तले दबा छत की सीलिंग देखने लगे. थोडी देर में चेहरे पर संतोष के भाव उमड पड़े. सिर हिलाया, मानो कह रहे हों, "हाँ, ये ठीक है." उसके बाद पेंसिल को कागज़ पर फिर चला दिया. मुझे लगा कि इस बार जो भी लिखा, उससे आश्वस्त होंगे. लेकिन ये क्या? फिर से पेंसिल से काट दिया. मैं उनके सामने बैठा ये सब देख रहा था. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि एक पत्रकार ऐसी कौन सी लाइन लिखना चाहता है जो जम नहीं रही?
मैंने उनसे पूछा; "क्या हुआ? किस उलझन से पीड़ित हो? सिर्फ़ एक लाइन लिखना है, और वो भी तुम लिख कर खारिज कर दे रहे हो. किस लाइन की तलाश है जो इतने परेशान हो? पत्रकार को एक लाइन के लिए इतनी मशक्कत करते कभी नहीं देखा."
बोले; "यही तो बात है न. पत्रकार लाइन के लिए मशक्कत नहीं करता. लेकिन जब पत्रकार को दार्शनिक बनना पड़े तो मशक्कत करनी ही पड़ती है."
मैंने उनकी तरफ़ आश्चर्य से देखा. मुझे लगा ये दार्शनिक क्यों बनना चाहते हैं? मैंने उनसे पूछा; "ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई जो दार्शनिक बनने की जरूरत पड़ रही है?"
बोले; "अरे यार समझा करो. जयपुर ब्लास्ट की रिपोर्टिंग के लिए हेडलाइन गढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ." मुझे देखते हुए उन्होंने टेबल पर पड़ा कागज़ मेरी तरफ़ बढाते हुए कहा; "लो, ख़ुद ही देख लो."
मैंने कागज़ को हाथ में लिया. पढ़ना शुरू किया तो मुझे मामला समझ में आ गया. मेरे मित्र सचमुच जयपुर में हुए बम ब्लास्ट की रिपोर्टिंग के लिए हेडलाइन लिखने की मशक्कत कर रहे थे. ढेर सारी हेडलाइन पेंसिल से लिख कर काट दी गई थीं. उनमें से कुछ यूं थी;
लाल रंग में रंग गया गुलाबी शहर, जयपुर को लगी ये किसकी नज़र?
धमाकों से दहला जयपुर, शहर के लोगों की नींद काफुर
विस्फोट से दहल तो गया लेकिन डरा नहीं जयपुर
धमाकों से बेहाल जयपुर.... आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता - प्रधानमंत्री
मुझे उनकी समस्या समझ में आ चुकी थी. मैंने पूछा; "एक लाइन लिखने के लिए अगर इतनी मशक्कत करनी पड़ रही है तो रिपोर्टिंग में इतने पैराग्राफ लिखने में तो पसीने छूट जायेंगे."
बोले; "अरे नहीं यार. पैराग्राफ लिखने में कोई समस्या नहीं है. समस्या केवल हेडलाइन लिखने में है. पैराग्राफ तो कहीं से भी कॉपी पेस्ट कर देंगे."
मैं सोचने लगा इनका दोष नहीं है. आतंकवादी घटनाएं पत्रकारों को ही नहीं, और बहुत सारे लोगों को दार्शनिक बना देती हैं. नेता, जनता, विशेषज्ञ, गृहमंत्री, प्रधानमंत्री सब ऐसे समय में दार्शनिकता का गमछा गले में लपेट लेते हैं. आतंकवाद इन लोगों के लिए कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं रह जाती. ऐसे मौकों पर ये लोग आर्थिक विकास और निरक्षरता से आतंकवाद को जोड़ सकते हैं. भारत में फैले आतंकवाद को बोस्निया और चेचन्या से जोड़ सकते हैं. सामाजिक कारणों की पड़ताल शुरू कर सकते हैं. पूरे देश में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर सकते हैं. रेड अलर्ट घोषित कर सकते हैं.
अगर कुछ नहीं कर पाते तो वो है अगली आतंकवादी गतिविधि को रोकने का प्रयास.
बहुत खूब। इस व्यंग्य में तीखापन है और मन को छू लेने की ताकत भी। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन सटायर .
ReplyDeleteक्या बात है शिव जी भाई. मुझ से पढ़वा ही लिया पूरा. और ख़ूबी ये कि मुझे समझ में भी आ गया शायद. कहीं मैं भी .....
ReplyDeleteबहरहाल, बहुत बढ़िया है भाई....
आपको भी दार्शनिक बना दिया... !
ReplyDeleteApane sahi kaha hai sir..
ReplyDeleteकिसी की त्रासदी उनके लिए महज टी आर पी है साहब.....ओर आपने उनके मर्म पे सीधी चोट की है.....
ReplyDeleteसही लिखा है, कबख्त चीख चिल्ला रहे है, समाचार बाँचने की जगह.
ReplyDeleteशिव भैया वे दार्शनिक बनने की सोच रहे हैं और बन रहे हैं तुक्कड़।
ReplyDeleteशिव भाई, अच्छी चुटकी ली है। लेकिन जिस देश के दर्शन में नौ सदियों से शून्य छाया हो, वहां सचमुच दार्शनिकों की बड़ी ज़रूरत है, लेकिन हवाई नहीं, काम के।
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है.
ReplyDeleteइश लेख से हमारे देश की न्यूज़ चैनलों की वास्तविक मानसिकता का पता चल जाता है ! उनलोगों की होड़ सिर्फ़ रंग बिरंगी मसालेदार हेड लाइन से है...... जनता जाए भाड़ में ....देश जाए भाड़ में ...सिर्फ़ सबसे तेज़ का अवार्ड मिलना चाहिए
ReplyDeleteजमाये रहियेजी।
ReplyDeleteटीवी की मजबूरी समझिये जी।
दंगों से, नंगों से
धमाकों से, फाकों से
चोरों से, डाकों से
चोरी से गोरी से
गधे से घो़ड़ी से
पोलाइटली या बरजोरी से
टीआरपी चाहिए
आतँकवाद से,
ReplyDeleteहर इन्सान के जजबात,
अलग तरीके से, उभरते हैँ
आपने सही चोट की है -
-- लावण्या
Koi nirapradhon ka rakt bahana,dharm maanta hai.Koi unki khoon se sansanikhej kahaniyan/headlines bana paisa kamata hai aur koi inpar apni rajniti ki roti sek maal banata hai.Par bahut se log abhi bhi hain is duniya me jo pratyaksh ya paroksh roop se bhuktbhogiyon ke aanshoon ponch unka dhandhas badhate hain.
ReplyDeleteBahut achcha likha bhai.
अच्छी चुटकी है , पर ऐसा लगा जैसे परसाई जी के बारे मे कुछ कहेगें।
ReplyDeleteअच्छा है - लेकिन अभी थोड़ा जल्दी में हूँ - तारे गिनने जाना है - सलाम [ :-); :-); :-); :-); :-)......]
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteसुना है मुख्य मंत्री दार्शनिक अंदाज़ में ये बयान जारी करने की कोशिश कर रही हैं " अगर आतंक वाद को मिटाना है तो हमें देश में साईकल की बिक्री और इस्तेमाल को रोकना होगा, क्यों की ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी" अगर आप भी साईकिल खरीदने या चलाने की सोच रहें हैं तो सावधान हो जाईये ,कहीं धर लिए गए तो फ़िर ना कहना की भईया बताया नहीं.
नीरज
"अरे नहीं यार. पैराग्राफ लिखने में कोई समस्या नहीं है. समस्या केवल हेडलाइन लिखने में है. पैराग्राफ तो कहीं से भी कॉपी पेस्ट कर देंगे."
ReplyDelete- क्या बात है शिव भाई! आपने तो नस ही पकड़ ली!
करारा वार है. बहुत जबरदस्त. हेड लाईन का झुनझुना ही तो सारा खेल.
ReplyDeleteसटीक।
ReplyDeleteyes sir
ReplyDeleteशिव जी जायज़ बात कहीं आपने। समस्या इस देश में शायद सबसे बड़ी सम्भावना है। दूसरे की तकलीफ में खुद के लिए उम्मीद ढूंढते हैं हम!
ReplyDeletehindi mein bohot dino baad padh raha hun . achha likhte hain.
ReplyDelete