किसी बांग्ला टेलीविजन चैनल पर डांस रियलटी शो में भाग लेने वाली एक बच्ची,सृन्जिनी सेनगुप्ता की बोलती अचानक बंद हो गई. अस्पताल में भर्ती है. उसकी हालत पर सब दुखी हैं. टीवी न्यूज़ चैनल से लेकर अखबार तक, सब जगह चर्चा हो रही है. कहा जा रहा है कि शो के जज लोगों ने उसे कड़े शब्दों में कुछ कह दिया था, जिसकी वजह से उसे सदमा लग गया. जज बेचारे चैनल वालों को सफाई देते फिर रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसकी वजह से बच्ची को सदमा लग सके. एक जज को सफाई देते हुए मैंने देखा. कह रहे थे; "शो से निकलने के एक सप्ताह बाद भी बच्ची वापस रियल्टी शो में एक डांस प्रोग्राम में हिस्सा लेने आई थी. काफी खुश थी. देखने से नहीं लग रहा था उसके ऊपर हमारे कहने से कोई बुरा प्रभाव पड़ा था."
मुझे इन जज साहब से सहानुभूति है. क्यों है? वो इसलिए है कि रियल्टी शो में जज लोगों को हिदायत दी जाती है कि वे प्रतियोगियों को भला-बुरा कहें. डांट लगायें. ऐसा करने से शो नेचुरल लगता है. अब जज भला-बुरा कहना शुरू करेगा तो कहाँ जाकर रुकेगा, कौन जानता है? अब डांट लगाने के नाम पर जज बेचारा दवाई तो दे नहीं सकता. अगर ऐसी कोई व्यवस्था होती तो जज लोग डांट का कैप्सूल खिला देते. साफ़-साफ़ कह देते; "आज तुम्हारे स्टेप्स एक दम ठीक नहीं थे. तुम्हें मैं डांट की एक बीस मिलीग्राम की टिकिया देता हूँ." परफेक्ट डांट के लिए अलग-अलग पावर के कैप्सूल होते. जैसे कोई कैप्सूल दस मिलीग्राम का होता. कोई कैप्सूल बीस मिलीग्राम का होता. डांट की मात्रा के हिसाब से कैप्सूल दे दिया जाता. लेकिन फिर ये रियल्टी शो कहाँ रहता?
इस बच्ची के पिता को देखा. बहुत दुखी दिख रहे थे. कह रहे थे हमने मीडिया के थ्रू ये मामला इसलिए उठाया है जिससे आगे किसी और बच्ची की हालत सृन्जिनी जैसी न हो. मुझे इन महाशय के साथ कोई सहानुभूति नहीं है. क्यों नहीं है? वो इसलिए नहीं है क्योंकि जब तक इनके जैसे माँ-बाप को पुरस्कार में पाँच-दस लाख रूपये दीखते हैं, ये बच्चों से कुछ भी करवाने के लिए तैयार रहते हैं. बिना ये सोचे-समझे कि बच्चे इस तरह का तनाव सह पायेंगे, या नहीं. जब तक बच्चे इस तरह के शो से बाहर नहीं हो जाते, ये माँ-बाप उनके साथ लगे रहते हैं. अपना काम-धंधा छोड़कर. कई बार तो मुझे लगता है जैसे बच्चों और माँ-बाप के बीच संवाद कुछ इस तरह का होता होगा;
"नहीं माँ, मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ. मुझे डांस नहीं सीखना है"; बच्ची कहती होगी.
"क्या कहा!, डॉक्टर बनना चाहती हो? डॉक्टर बनकर हमारी नाक कटवावोगी क्या? बेटा, आजकल कोई डॉक्टर इंजीनियर बनता है भला?"; माँ कहती होगी.
"नहीं माँ. प्लीज मेरी बात सुनो. डांस की प्रैक्टिस करके मैं थक जाती हूँ. फिर पढाई नहीं कर पाती"; बच्ची कहती होगी.
"अरे बेटा, क्या जरूरत है पढाई करने की? आजकल कोई पढाई करता है भला?"; माँ कहती होगी.
"मेरी बात सुनो तो माँ. हमारी टीचर भी कहती हैं कि दुनियाँ में हर कोई सफल नहीं हो सकता. मैं मानती हूँ कि मैं डॉक्टर बनने से असफल कहलाऊंगी. तो क्या हुआ? मैं एवरेज बच्ची हूँ इसलिए डॉक्टर बन जाऊंगी. जो बच्ची तेज है, वो डांसर बन जायेगी. यही तो होगा"; बच्ची बोलती होगी.
माँ उसी जगह से पतिदेव को आवाज लगती होगी; "अजी सुनते हो?"
पतिदेव वहीँ से जवाब देते होंगे; "अरे क्या हुआ, क्यों शोर मचा रही हो?"
"शोर नहीं मचाऊंगी तो और क्या करूंगी. सुन लो, तुम्हारी लाडली बेटी क्या कह रही है. कह रही है डॉक्टर बनेगी. लो और सर पर चढ़ाकर रखो इसे. डॉक्टर बनकर हमारा नाम डूबोने के लिए ही बड़ा कर रहे हैं हम इसे"; माँ जवाब देगी.
अब बच्ची को समझाने की बारी पिताश्री की होगी; "बेटा, एक बार कांटेस्ट में पार्टीसिपेट कर लो. अगर नहीं जीत पाओगी तो हम अपने किस्मत को रो लेंगे. फिर तुम्हारी जो इच्छा हो, करना. हम तुम्हें डॉक्टर बनने से नहीं रोकेंगे."
बच्ची मान जाती होगी.
लेकिन इस पार्टिसिपेशन की वजह से बच्ची को क्या-क्या झेलना पड़ता होगा. घंटों तक डांस की प्रैक्टिस. जो डांस सिखाते होंगे, उनकी डांट. स्कूल में जाती होगी तो दोस्तों की अपेक्षाएं. घर में माँ-बाप की अपेक्षाएं. जज लोग अगर टीवी स्क्रीन पर सारी दुनियाँ के सामने बच्ची को अच्छा डांसर बता देंगे तो जज की अपेक्षाएं. इन सब के साथ-साथ उन लोगों की अपेक्षाएं, जिनसे बच्ची वोट की अपील करेगी. जो रुपया खर्च करके अपना वोट देते होंगे. ऊपर से प्रोग्राम के सेट पर एक्टिंग करने की काबिलियत चाहिए. घर वाले मिलने आते हैं. बच्चों को रोना पड़ता है. क्या करेंगे, स्क्रिप्ट ही ऐसी लिखी गई है. आख़िर रियल्टी शो है.
अब इतनी सारी अपेक्षाओं पर खरा उतरना एक तेरह-चौदह साल की बच्ची के लिए हिमालय को हटाने जितना बड़ा काम है. और कोशिश करने के बाद अगर हिमालय अपनी जगह से जरा भी नहीं हटा तो क्या होगा. यही होगा, जो हुआ. बच्ची की बोलती बंद हो जायेगी.
टीवी न्यूज़ चैनल वाले भी बहुत दुखी हैं. कह रहे हैं कि अब इस बात पर बहस होनी चाहिए कि बच्चों के ऊपर इस तरह का दबाव कहाँ तक जायज है? क्यों भइया, दो साल हो गए, इस तरह का ड्रामा शुरू हुए, आपको बहस की जरूरत अब महसूस हुई है. आप भी सरकार की तरह हैं, जो बम विस्फोट हो जाने के बाद रेड एलर्ट घोषित करती है. वैसे सोती रहती है. आपलोग पूरे साल भर भूत-प्रेत दिखाते रहते हैं. स्टिंग ऑपरेशन करते रहते हैं. अमिताभ बच्चन की मन्दिर यात्रा कवर करते नहीं थकते. और ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर तीस मिनट का प्रोग्राम नहीं दिखा सकते?
सृन्जिनी सेनगुप्ता की इस हालत से मेरे मन एक ही बात आई. अगर बच्ची बीमार हो ही गई थी तो फिर माँ-बाप के लिए क्या यह जरूरी नहीं था कि वे शान्ति से उसका इलाज करवाते? क्या जरूरत थी इस बात का ढिंढोरा पीटने की. अस्पताल में बेड पर पड़ी एक बच्ची के सामने कैमरे फ्लैश करवाने की. कहीं ऐसा तो नहीं कि मीडिया की सामने दहाड़ मार कर रोने का कार्यक्रम भी एक योजना के तहत किया गया है? मुझे लगता है ऐसा ही है. और हमें आश्चर्य नहीं होगा, अगर इस साल के दुर्गापूजा में हम सृन्जिनी सेनगुप्ता को पूजा पंडाल का उदघाटन करते हुए देखें तो.
शत प्रतिशत सहमत हू आपसे.. क्या उम्दा सोच का परिचय दिया आपने..
ReplyDeleteडांट का कैप्स्यूल! क्या ब्रिलियेण्टेस्ट आइडिया है।
ReplyDeleteकहां हो पंगेबाज?! ज्वाइण्ट बिजनेस खोलने की जबरदस्त अपार्चुनिटी है। टीवी चैनल जहां रियाल्टी शो रिकार्ड करते हैं उसकी बगल में खोमचा लगाया जाये!
और कैप्स्यूल में लवण भास्कर चूर्ण भरें या खड़िया, क्या फरक पड़ता है!
मार्केट बहुत जबरदस्त है। कोटा के आईआईटी कोचिंग से ज्यादा चलेगा!
चूँकि मैंने लड़की और उसके पिता के बारे में केवल मीडिया में सुना है इसलिए अभी कुछ नही कह सकता... ये एक अच्छा गल्प जैसा लग रहा है.
ReplyDeleteबात तो सही है… आपने इस ताम झाम का घटिया पहलू उजागर किया है जिसकी ओर शायद किसी का ध्यान जाता ही नहीं है।
ReplyDeleteशुभम।
मुझे इन महाशय के साथ कोई सहानुभूति नहीं है
ReplyDeleteyou have given a very right outlook , all parents who throw such small children in rat race are depriving the child their child hood . when finals are conducted the singer have to perform live and its a heart rendering to see a child merely 6-7 years singing continuouly for 6 hours before the sms are collected a nd results declared
It would be good if we all bloggers decide not smsfor any child contestent please try and make apel because your blog is well read
बच्चों को हाइफाइ मजदूर बना दिया है, क्या कहें...
ReplyDeleteआपसे बिल्कुल सहमत हूँ मैं। बच्चों के साथ अन्याय बढ़ता ही जा रहा है। नन्हें लिपे पुते बच्चे,अजिब परिधान , अजब लटके झटके ! कैसे करवाते होंगे माता पिता अपने बच्चों से यह सब ! मुझे तो देककर वितृष्णा होती है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
Sahi kaha sir aapne... mujhe bhi yeh mudda pulicity stunt hi lag raha hai... yeh baat aur hai ki aaj kal 13.14 saal ke bache chhae itna cha ga de ya dance kare magar Judge mahoday yahi kahege " mujhe tumhara dance pasand aayi.. tum acha nachi magar isme twistick fustick thoda kam hai.. aur tumhara dance mein jhankaar nahi tha.... hum ummeed karti hai ki tum agli baar achha karogi "
ReplyDeleteRohit Tripathi : I Love Allahabad
maaf kijiyega " Publicity stunt "
ReplyDeleteअमरीका मेँ छोटी छोटी बच्चीयोँ का ब्युटी कोन्टेस्ट रखते हैँ और उन्हेँ बडी मोडेलोँ की तरह लिपस्टीक मेकाप से पुता देखकर घुघूती जी की तरह मुझे भी दुख और वितृष्णा का भाव होता है - एक ऐसी ही छोटी बच्ची "जो बेनेट " का ऐसी ही प्रतिपर्धा मेँ हिस्सा लेनेके बाद, उसीके घर मेँ एक रात्रि को कत्ल हुआ था - कोलोराडो प्राँत की बात है - अपराधी का आजतक पता नहीँ चला :-(
ReplyDelete- लावण्या
टी आर पी हो या कुछ और.. पर जजों का तरीका कई बार बहुत अशोबनीय होता मैने कई बार देखा है..।
ReplyDeleteइस मामले में जावेद अख्तर खास हैं। जावेद साब, अच्छे कवि भले ही हों पर बतौर एक जज उनका रवैया एकदम घटिया होता है।
उपर अशोबनीय की बजाय अशोभनीय पढ़ें।
ReplyDeleteachcha likte hain aap.
ReplyDeletevipinkizindagi.blogspot.com
सही बात कही है आपने...न्यूज़ चैनल वालों को तो वैसे भी 'न्यूज़' के अलावा सबकुछ दिखाने की आदत सी हो गई है... ख़ास कर 'ब्रेकिंग न्यूज़' . पर ये माता-पिता को तो समझना चाहिए !
ReplyDeleteसही लिखा है आपने बच्चे अब बच्चे जैसे नही लगते ..माता पिता के सपने जब बच्चो कि आँखों में खिलने लगते हैं तो बच्चे के अपने सपने कहीं गुम हो जाते हैं ...और ऐसे शो की तो जैसे आज कल बाढ़ आई हुई है ..
ReplyDeleteबहुत शर्म और दुख की बात है कि हमारी नन्ही पीढी को इस तरह से बेवजह एक्स्पोज़ और प्रताडित किया जा रहा है.सारा सिस्टम ही दिशाहीन हो गया है, क्या मा-बाप,क्या जज और क्या मीडिया?
ReplyDeleteक्या किया जाये ऐसे संहारी शोज़ का? समाज का? जो ऐसे कार्यक्रमों का मुकुट धारे दायें-बायें मटक रहा है? ऐसी माताओं और बाबाओं का? फ़िल्म और समाज में रहने की एक्टिंग सीखे जर्जर जजों का? किस-किसको बंगाल की खाड़ी में बुड़ोया जाये? कि सृन्जिनियों को ही अरब सागर में बहा दिया जाये जो सबके सुख में आग लगाये दे रही हैं?
ReplyDeleteसही कहा सरजी.
ReplyDeleteये एक बड़ी विडम्बना ही है.
अक्सर ऐसे बच्चे माँ-बाप की महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ जाते हैं.
जबरदस्त सामयिक और विचारोत्तेजक लेख के लिए आप बधाई के पात्र है.
बिकुल वैसे ही जैसे धोनी के थकान वाले ब्यान पर चैनल वाले दिखा रहे है की देखिये यहाँ थकान नही होती ..अब उन्हें कौन समझाये की ख़बर बनाने ओर पत्रकारिता करने में बहुत बड़ा अन्तर है जिसे उन्हें जल्दी ही समझना चाहिए ......इस केस की डिटेल आने दीजिये ...सच का दूसरा रूप भी निकलेगा....
ReplyDeleteव्यंगकार को गुस्सा भी आता है। सबसे ज्यादा आता है। इसीलिए वह व्यंगकार होता है।
ReplyDeleteशत प्रतिशत सहमत हू आपसे,
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूँ. न जाने किस दौड़ में बच्चों को शामिल किया जा रहा है कि जैसे इसके बाद कोई जिन्दगी ही न हो जैसे. गल्तियाँ दोनों तरफ से ही हैं. आपने बहुत अच्छा विश्लेषण पेश किया है.
ReplyDeleteहरे राम हरे राम...
ReplyDeleteघोर कलियुग....साधो साधो !
यानि कि, यहाँ मात्र व्यंग नहीं फ़ुफ़कार भी मिलती है,
जिस आक्रोश में आपने इसे गढ़ा है, वह आदर करने लायक है, साधो साधो !
बंधू
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखे हैं आप. बाल शोषण तो युगों से होता आ रहा है, अब क्यूँ की मीडिया उपलब्ध है इसलिए हल्ला कुछ अधिक ही मचता है. हमारे फिल्मों के बाल कलाकार कितने कष्ट में अपना बचपन बिताये हैं अब सब जानते हैं लेकिन उसवक्त किसे पता चलता था? मीडिया को समाचार चाहियें लोगों को लाईम लाईट में आने का मौका चाहे उसके लिए किसी भी हद तक क्यूँ ना जाना पड़े.इतनी जल्दी आपने इस विषय पर अपनी पोस्ट लिख डाली आप को भी मीडिया में ही होना चाहिए.
नीरज
आपसे सहमति है । तारे ज़मीन पर - फिल्म देखकर न जाने कितने अभिभावक रोये थे , पर लगता है हॉल से बाहर आते ही वे भी अभिनायक की तरह अपना नाटकीय चोला उतार फेंकते हैं ।
ReplyDeleteअफसोस है ऐसे माता पिता की सोच पर ।
भाई साहब...आगे बढ़ते रहिये !
ReplyDeleteअब अगली पोस्ट को आने दीजिये ।
कहीं आप भूल तो नहीं रहे कि..' अटको मत, बढ़ते चलो '
बहुत ही सही लिखा भाई.हाल के कुछ वर्षों में जिस तेजी से जो मानसिकता बनती और फलती फूलती जा रही है उसे देखकर मन क्षुब्ध हो जाता है.आज हर किसी को धन मान यश नाम सब एक दम शार्ट कट से जल्दी से जल्दी चाहिए,चाहे उसके लिए जो करना पड़े.
ReplyDeleteवर्षों पहले एक कहानी पढ़ी थी "अखबार में नाम" जिसमे अखबार में नाम आ जाए इस लालसा में व्यक्ति ख़ुद को गाड़ी के आगे कर अपना अक्सिडेंट करा लेता है. आज यह स्थिति सब ओर है.अभिभावकों को यह धैर्य नही कि यदि उनके बच्चों में प्रतिभा है तो उसका समुचित विकाश कर उसे उस हुनर में परिपक्व होने दें.उनमे उत्साह वर्धन के साथ साधना के महत्व को अंगीकार करना भी सिखाएं.किसी समय यह परम्परा थी कि बिना सिद्धहस्त हुए पारंगतता पाए प्रदर्शन की अनुमति नही मिलती थी.खासकर कला क्षेत्र में.वर्षों साधना के उपरांत ही कला प्रर्दशित की जाती थी.पर अब तो सबको सबकुछ झटपट चाहिए चाहे वो मिडिया हो या अभिभावक.
कुछ दिनों पहले की घटना है,मेरा बेटा अपने स्कूल के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि बच्चों के साथ किसी दूसरे स्कूल में क्विज कम्पिटीसन के लिए जा रहा था.मैंने बच्चों से आशीर्वाद देते हुए कहा जाओ सीखकर आओ,जीतो या न जीतो यह इतना महत्वपूर्ण नही है. . मेरे बेटे ने प्रतिवाद किया कि आप भी न ,कुछ भी बोल देती हैं,पता है मेरे साथियों और शिक्षक किसी को यह अच्छा नही लगा.सबके माता पिता जीतने को कह रहे हैं और आप सीखने को.
सबको विजेता ही बनना है और न बन पाये तो उसे जिंदगी की हार मान लेते हैं. चारों ओर हर कोई हर किसी का प्रतिस्पर्धी है..सबको पहले नंबर पर आना है.बच्चों के बचपने को अपने अपेक्षाओं के पहाड़ तले रौंदते दबाते डुबोते एक पल को अभिभावक नही झिझकता.
बच्चो से उनका बचपन छीन लिया है इन टुच्चे लोगो ने
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