Friday, June 27, 2008

हम बिजी हैं...

"प्रधानमंत्री इस्तीफा देंगे?"

"न न, वो ऐसा नहीं करेंगे."

"लेफ्ट वाले ही समर्थन वापस ले लेंगे."

"लेकिन अभी चुनाव कोई नहीं चाहेगा. कौन रिस्क लेगा इस मंहगाई में?"

"लेकिन प्रधानमंत्री की भी कोई इज्जत है कि नहीं?"

"अब काहे की इज्जत? जितनी थी, सब गंवा दिए."

"सुना है समाजवादी पार्टी से कांग्रेस वालों की बातचीत हो गई है. लेफ्ट वाले समर्थन वापस भी ले लें तो सरकार नहीं गिरेगी."

"अरे भइया, सब पब्लिक को बेवकूफ बना रहे हैं."

"अजीब होती है, ये राजनीति भी. आज जो साथ में है, वो कल साथ में नहीं रहेगा. आज जो दूर में है, वो कल पास में रहेगा."

"ठीक कहते हो भइया, अभी तीन महीने पहले तक अमर सिंह और मुलायम सिंह कांग्रेस वालों को मीडिया के सामने गाली देते थे. आज साथ-साथ हैं."

"सब पैसे का खेल है जी. सहारा वाले पैसा खर्चा करके दोनों को करीब ले आए हैं."

"उन्हें भी सरकार, रिज़र्व बैंक और कोर्ट से राहत चाहिए थी."

"अब राजनीति अलग तरह की होगी."

"अरे, अलग तरह की क्या होगी? सब वैसी ही रहेगी. साठ साल से वैसे ही है."

"लेकिन मर रही है तो जनता. इनलोगों को क्या?"

"अरे भइया, जनता कम नहीं है. इनलोगों को नेता किसने बनाया? इसी जनता ने."

"वैसे क्या लगता है? बीजेपी वाले चुनाव जीतेंगे?"

"अरे जीते चाहे हारें. वो कौन से दूध के धुले हुए हैं?"

"मंहगाई में इलेक्शन कराएँगे तो मंहगाई और बढेगी."

"सुनने में आ रहा है कि कल पीएम रिजाइन कर देंगे."

"क्या करेंगे? ख़ुद उनकी पार्टी वाले समर्थन नहीं दे रहे हैं."

"नहीं-नहीं, पार्टी वाले देंगे समर्थन. पार्टी उनको ऐसे ही मजधार में छोड़ देगी?"

आते-जाते, उठते-बैठते, सुबह-शाम, यही सारे वाक्य सुनाई दे रहे हैं. वो भी उस समय, जब देश में मंहगाई बढ़ती जा रही है. आर्थिक विकास रुकने के कगार पर है. जलाने के तेल से लेकर खाने के तेल तक में आग लगी है. कठिन समय के लिए क्या केवल नेता जिम्मेदार हैं?

15 comments:

  1. मेरी पोस्ट आपने लिख डाली.. हम भी आस पास यही सब सुन रहे है..

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  2. जिस दिन वाम दल वाकई अड़ जायेंगे.....तब मानेगे अभी तो फिलहाल खेल है......वाही पुराना घिसा पिटा....

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  3. लिखते पढ़ते सुनते समझते हम भी थक गए हैं. तेल, जमाखोरी, उपभोग ने सब कुछ बिगाड़ दिया है. ठाकरे कि राजनीति कहती है कि कलाम के बाल अजीब हैं. भाजपा मनमोहन सिंह को महंगाई सिंह कहती है. पद और कद सब गया तेल लेने. कोंग्रेस कि राजनीति में परिवार से बड़ा कुछ होता ही नही है. यही सब सोच सोच कर मैंने लिखा था मैं कलरलेस रहना चाहता हू

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  4. जिस सरकार के लिए बचे रहना ही एक उपलब्धि हो, उसे लेकर सबसे बड़ी चर्चा तो यही हो सकती है कि वो बचेगी या नहीं! कुछ करेगी या नहीं? यह सवाल तो डायनासोर की तरह कब का गौण हो चुका है।

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  5. देश निठल्लत्व का शिकार है। जैसे जैसे चुनाव आयेंगे, वैसे वैसे यह बढ़ता जायेगा। लोग कुछ करने की बजाय इस पर यकीन करने में आराम महसूस करेंगे कि नयी सरकार जादू की छड़ी चलायेगी।
    द मोर द डिस्कशन, द सेम इट रिमेन्स!

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  6. ये का लिखे जा रहे है जी हम स्मर्थन वापस भी लेगे तो सरकार थोडे ही ना गिरायेगे , का बुडबक समझे हो का ? :)

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  7. सारा दोष सरकार का नहीं, मगर हर उपलब्धी का श्रेय लेती है सरकार तो महंगाई के लिए कोसा भी उसे ही जायेगा.


    सरकार बदलेगी, मगर क्या फर्क आयेगा कहना मुश्किल है.

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  8. हम फालतू हैं....
    तभी तो कब से इस तमाशे को देख रहे हैं...कभी ताली बजाते हैं कभी तेवर दिखाते हैं...राजनीती अब "सास भी कभी बहु थी" की तरह का खेल है बंधू...लोग बुराई भी किए जा रहे हैं और देखे भी जा रहे हैं...इसमें एकता कपूर उर्फ़ हमारे नेतागण क्या करें? खेल बंद कर दें? बोलिए?????
    नीरज

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  9. सबकी अपनी मजबूरी है :-) सबके अपने फायदे हैं !

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  10. और कर भी क्या सकते हैं? हम ठहरे वोटर.
    अपना दिन ऐसे ही कटेगा.

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  11. राजनीति मेँ कुछ नहीँ बदला - डेमोक्रसी तो है पर,
    लोग फिर भी असहाय !
    -
    यही विडम्बना है !
    -- लावण्या

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  12. सब सियासी खिलवाड़ है..अब ध्यान देना बंद कर दिया जब तक खुद इस खेल में न आ जायें, तब तक के लिए. :)

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  13. अटकल.. अटकल...अटकलें

    पब्लिकिया को आख़िर जीने का कोई सहारा भी तो चाहिये,
    तो लेयो..खाओ अटकल...पीयो अटकल..जीओ अटकल !

    अब आप अटकलों पर भी घात लगा दिये ? वेरी अनफ़ेयर !
    पुरातन भारतीय दर्शन भी तो कह रहा है, कि यह जीवन ही
    एक अटकल है, सत्य की अंटी तक पहुँचना, जीवन का ध्येय !

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  14. jo kuch nahi kar sakta wo baaten to kar hi sakta hai...

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  15. अब ये मत समझियेगा कि हम बिना पढे टिपिया रहे है इस पर तो पहले ही टिपिया चुके थे जी :)

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय