Thursday, August 21, 2008

कल हमारे शहर में हुए 'औद्योगिक बंद' के कुछ दृश्य....

कल हमारा शहर बंद रहा. कोई नई बात नहीं है. अगर दस दिन भी बिना बंद के निकल जाए तो लोग व्याकुल होने लगते हैं. एक-दूसरे से पूछना शुरू कर देते हैं; "क्या बात है? दस दिन हो गए, एक भी बंद नहीं?" राजनैतिक दलों की क्षमता पर ऊँगली उठाने लगते हैं. लोगों के ऐसा करने से राजनैतिक दलों को शर्म आती है और वे बंद कर डालते हैं.

बंद और हड़ताल सामाजिक जागरूकता की निशानी हैं. वैसे हर बंद के दिन मैं आफिस जरूर जाता हूँ. मेरा मानना है कि साल के ३६५ दिन मेरा आफिस मेरे हिसाब से चलेगा. किसी राजनैतिक पार्टी के हिसाब से नहीं. ये अलग बात है कि कल मुझे पैदल चलकर आफिस आना पड़ा और शाम को पैदल चलकर ही घर जाना पड़ा. कुल मिलाकर २० किलोमीटर पैदल चले. दोस्तों ने गाली भी दी. लेकिन मैंने सोचा अगर साठ किलोमीटर पैदल चलकर लोग सावन के महीने में 'भोले बाबा' को में जल चढ़ा आते हैं तो दस किलोमीटर पैदल चलकर मैं आफिस जा ही सकता हूँ.

इस आने-जाने में कुछ दृश्य दिखाई दिए. मैंने सोचा हमारे शहर के इन दृश्यों से ही शहर की पहचान बनी है. आप लोग भी ये दृश्य पढ़ें (देखेंगे कैसे?) और भविष्य में जब भी इस तरह के दृश्य दिखाई दें तो समझें कि कलकत्ते में हैं.

दृश्य-१

घर से निकलकर जैसे ही सड़क के हवाले हुए हमें आभास हो गया; "बहुत कठिन है डगर आफिस की." सड़क पर आठ-दस क्रांतिकारी टाइप लोग एक जगह खड़े थे. व्यवस्था और अवस्था से नाराज़ ये लोग केन्द्र सरकार को गालियाँ दे रहे थे. ये अलग बात है कि केन्द्र सरकार की तरफ़ से कोई भी इन गालियों को रिसीव कर नहीं आया था. इन क्रातिकारियों ने कुछ गाडियाँ रोककर उनकी हवा निकाल दी थी. एक टैक्सी भी खड़ी थी जिसकी हवा निकल गयी थी. टैक्सी ड्राईवर इस बात से खुश था कि उसकी धुनाई नहीं हुई. टैक्सी की हालत से उसे कोई परेशानी नहीं थी. हम छोटी-छोटी खुशियों से कितने खुश हो जाते हैं. ऐसा होने से हमें बड़े दुखों की परवाह नहीं रहती.

दृश्य - २

मैं करीब चार किलोमीटर पैदल चलकर मेट्रो स्टेशन पहुँचा. जब तक स्टेशन तक नहीं पहुंचे थे तब तक ख़ुद को हौसला देते रहे कि बस कुछ मेहनत और मेट्रो रेल मेरी थकावट दूर करेगा. वहां पहुंचकर देखा कि स्टेशन को बंद कर दिया गया है. स्टेशन के गेट पर पुलिस वाले खड़े थे. उनलोगों ने मुझे अन्दर जाने से रोकते हुए बताया; "ट्रेन सर्विस बंद है." मैंने सोचा बंद करने वाले कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं. आस-पास देखा तो कुछ झंडे लगे हुए थे. ध्यान से देखा तो कुछ दूर पर कामरेड (काम पर रेड मारने वाले) लोग बैठे दिखाई दिए. मैंने पुलिस जी से पूछा; "क्या बात है, आज आप ही बंद करवा रहे हैं?"

वे बोले; "हाँ, आज हम ही बंद करवा रहे हैं." उसके बाद उन्होंने कामरेडों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा; " वैसे भी एक ही बात है. हम बंद करायें चाहे वे"

मैंने कहा; "आप पुलिस हैं कि कामरेड?"

वे बोले; "जो समझ लें. आप हमें पुलिसरूपी कामरेड भी कह सकते हैं. या फिर कामरेडरुपी पुलिस."

उनकी बात सुनकर हम उनसे बड़े प्रभावित हुए. कामरेड से पिटने का जितना डर बना रहता है, उसका दो गुना ज्यादा इस पुलिसरुपी कामरेड से लगा. इतने में देखा कि अचानक एक लोकल टीवी न्यूज चैनल की गाड़ी आकर रुकी. जैसे ही गाड़ी के अन्दर से हाथ में कैमरा लिए संवाददाता उतरा, सारे कामरेड एक होकर मेट्रो रेल के गेट के सामने आ गए और नारा लगाने लगे; "इन्कलाब जिंदाबाद."

पता नहीं कैसा इन्कलाब है जिसे हर दिन नारा लगाकर री-न्यू करना पड़ता है.

दृश्य - ३

मैंने निश्चय किया कि अब तो आफिस जाऊंगा ही. पैदल जाऊंगा. मेट्रो स्टेशन से आफिस की तरफ़ पैदल चल दिया. कुछ दूर चलने पर देखा कि कलकत्ते की सबसे चौड़ी सड़कों में से एक पर क्रिकेट का मैच खेला जा रहा है. टुपलू, बापी, देबू, सोना, खोका टाइप लड़के अपने क्रिकेटीय गुड़ों का प्रदर्शन करने में जुटे हैं. बैट को घुमाया जा रहा है. बैट की मार खाकर गेंद मुहल्ले भर की सैर कर रही है.

इन खिलाड़ियों की हौसला आफजाई के लिए पाड़ा (मोहल्ला) के तमाम संतू काकू, सुजीत काकू टाइप बुजुर्ग बैठे हुए हैं. इनका चेहरा देखने से लग रहा है कि इन्हें सचिन तेंदुलकर को बैट करते देख उतनी खुशी नहीं होती जितनी इन टुपलू और सोना टाइप खिलाड़ियों के लिए हो रही है.

ये काकू लोग वही हैं जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. जब तक नौकरी में थे, इनलोगों ने केवल फाईलें बनाने का काम किया. एक दिन इन्हें पता चला कि ये साठ साल के हो चुके हैं. ख़ुद की बनाई गई फाईलों को सरकारी आफिस के हवाले कर वहाँ से चलते बने. अब ये अपने सारे गुण मुहल्ले के इन लड़कों को दे रहे हैं. जिस दिन गुणों का ट्रान्सफर पूरा हो जायेगा, ये इस दुनियाँ से सटक लेंगे. ये तो केवल इसलिए जी रहे हैं ताकि गुणों को ट्रान्सफर पूरा कर सकें.

दृश्य - ४

हम करीब दो किलोमीटर और पैदल चले. रास्ता कम करने के चक्कर में गली कूचों से होकर निकल रहे थे. अचानक एक जगह देखा कि हमारे मुहल्ले के सुमू दा टाइप एक व्यक्ति तीन-चार लोगों को लिए बैठे थे. चाय की दूकान खुली हुई थी. उसी दूकान पर पान का भी इंतजाम था. मैं पान खाने के लिए रुका तो 'सुमू दा' को बात करते सुना. कह रहे थे; "अफगानिस्तान में असल में क्या हुआ वो मैं बताता हूँ. देखो, वहाँ तो पहले शासन में सारे भारतीय और रूसी लोग थे. अमरीका को ये बात अच्छी नहीं लगी इसलिए उसने अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया."

विश्व राजनीति के उनके ज्ञान से प्रभावित बाकी के लोग उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे थे. मैंने सोचा 'सुमू दा' से अगर मैं कुछ बात करता तो बात-चीत कैसी रहती. शायद ऐसी;

- सुमू दा नमस्कार.
- ऐ, क्या करता है? आदमी देखकर अभिवादन करना नहीं आता तुम्हें?
- क्यों, क्या हुआ? नमस्कार करना आपको ठीक नहीं लगा.
- तुम्हें मेरी भेष-भूषा देखनी चाहिए और उसके हिसाब से अभिवादन करना चाहिए.
- मतलब?
- मतलब ये कि तुम्हें हमें कहना चाहिए; 'कामरेड सुमू दा, लाल सलाम.'
- अच्छा अच्छा. मैं करेक्ट कर देता हूँ. कामरेड सुमू दा, लाल सलाम.
- लाल सलाम. बोलो क्या बात करनी है?
- ये आपने औद्योगिक बंद क्यों किया?
- देखो, जब से बुद्धदेव बाबू मुख्यमंत्री बने हैं, वे उद्योग को बढावा देना चाहते हैं, इसलिए हमने ये औद्योगिक बंद किया.
- लेकिन उद्योग को बढावा देने के लिए कहा है उन्होंने.
- नहीं समझे तुम. उन्होंने कहा था कि जो कुछ भी करो, वो सब औद्योगिक होना चाहिए.
- फिर?
- फिर क्या? हम औद्योगिक क्रान्ति नहीं कर सकते तो औद्योगिक बंद कर रहे हैं. आख़िर औद्योगिक ही तो करना है.
- अच्छा, अब बात समझ में आई.
- ठीक है. मैंने आपकी बात समझ ली. अब मैं चलता हूँ.
- अरे, चाय तो पीकर जाओ.
- नहीं चाय नहीं, मैं तो केवल पान खाऊंगा.
- क्यों? केवल पान क्यों खाओगे?
- मुझे बहुत दूर तक पैदल चलना है. पान खाऊंगा तो लाल-पीक थूकते हुए आफिस तक पहुँच जाऊंगा.
- ऐ, ये तुम्हारा लाल-पीक थूकने में मुझे राजनीति की गंध आ रही है.
- नहीं-नहीं सुमू दा. आप ऐसा न समझें. पान खाना और पीक थूकना मूलरूप से मानवीय काम है. इसमें कोई राजनीति नहीं है.
- तुम सच बोल रहे हो?
- बिल्कुल सच.
- तब ठीक है. तुम पान खा सकते हो.

पान खाकर मैं चल दूँगा. ये सोचते हुए कि पिछले कई सालों में जिस तरह से 'कामरेडी' बढ़ी है, आनेवाले पचास सालों के बाद बंगाल में इंसान पैदा ही नहीं होंगे. यहाँ केवल कामरेड पैदा होंगे.

22 comments:

  1. अपने काम की रेड मार कर कमेंट दे रहे है.. आप दो मिनट रुक कर यदि क्रिकेट खेलते बच्चो का मनोबल बढ़ा देते तो एक और बंगाल टाइगर मिल जाता..

    ReplyDelete
  2. kum rate wale ye log kaam ki rade maar dete hai.ek to kaam nahi karte dusre tankhwah badhane ke liye jab marzee lal-peele hote rahte hai

    ReplyDelete
  3. मान गए तुम्हें. तुम बीस किलोमीटर पैदल चले कल.
    हम अगर बीस मिनट पैदल चल लें तो जान पर आफत
    आ जाए. मैं तो एक बार इन बंद करनेवालों के हाथों
    पिट चुका हूँ. वो दिन है और आजका दिन है. बंद के दिन
    घर से कभी नहीं निकला.

    ReplyDelete
  4. लाल सलाम स्वीकारें.


    काम में रेड मारने वालो को केन्द्र में धमकी देने में व्यस्त रखना था, जब से बेरोजगार हुए है क्रांति सी मचा दी है.

    पैदल चलना स्वास्थय के लिए लाभदायक है. थेंक्स टू कामरेड. :)

    ReplyDelete
  5. इसे कहते हैं सधा हुआ संतुलित व्यंग्य . न कच्चा और न अधिक पका .

    औसतन होता यह है कि जनता व्यंग्य लिखने निकलती है और हास्य की रपटीली गली में सर्राते हुए कीच-कादे से लथपथ हास्यास्पद स्थिति को प्राप्त होती है .

    उत्कृष्ट हास्य-व्यंग्य 'आइडिया' और 'ट्रीटमेंट' के संतुलन में होता है, बासी हो चुके 'वर्ड-प्ले' और कम आटे में ज्यादा नमक की मिलावट में नहीं .

    बधाई ! आपने व्यंग्य की विधा को साध लिया है .

    ReplyDelete
  6. सबसे पहले तुम्हारी कर्मठता को लाल,पीला, हरा, नीला सतरंगी सलाम.
    कामरेड शब्द की व्याख्या जबरदस्त रही.
    सही है,इन बन्दों ने तो नाक में दम कर रखा है.अब शायद समय आ गया है कि एक नई पार्टी बनाई जाए जो सभी प्रकार के बंद / काम रोको पर रोक लगाने के लिए हो.और यदि यह पार्टी अभियान में लग गई तो तय है कि साल के ३६५ दिन अभियान में लगी रहेगी क्योंकि साल का कोई दिन ऐसा नही जब देश के किसी न किसी भाग में कोई न कोई बंद आयोजित न हो.
    बहुत अच्छा लिखा है.

    ReplyDelete
  7. सबसे पहले तुम्हारी कर्मठता को लाल,पीला, हरा, नीला सतरंगी सलाम.
    कामरेड शब्द की व्याख्या जबरदस्त रही.
    सही है,इन बन्दों ने तो नाक में दम कर रखा है.अब शायद समय आ गया है कि एक नई पार्टी बनाई जाए जो सभी प्रकार के बंद / काम रोको पर रोक लगाने के लिए हो.और यदि यह पार्टी अभियान में लग गई तो तय है कि साल के ३६५ दिन अभियान में लगी रहेगी क्योंकि साल का कोई दिन ऐसा नही जब देश के किसी न किसी भाग में कोई न कोई बंद आयोजित न हो.
    बहुत अच्छा लिखा है.

    ReplyDelete
  8. लिखते हैं मिश्रा जी तो सब की रेड मार देते हैं.... खूब लिखा है परसाई और दिनकर के प्रशंसक ने

    ReplyDelete
  9. ठीक ही कहा उन्होंने एक ही बात है कामरेड हो यह पुलिस सिंगुर में देखा नही ..वैसे आप कहाँ रहतें हैं? मैं तो टालीगंज के पास रहती हूँ

    ReplyDelete
  10. अद्भुत। अगस्त महीना परसाई जी का जन्म माह है। इस माह आपने तमाम लेख लिखे जिससे लगा किसी न किसी रूप में वे हमारे बीच हैं। यह लेख भी उसी कड़ी का धांसू लेख है। कामरेड मतलब काम की रेड -शानदार!

    ReplyDelete
  11. अद्भुत। अगस्त महीना परसाई जी का जन्म माह है। इस माह आपने तमाम लेख लिखे जिससे लगा किसी न किसी रूप में वे हमारे बीच हैं। यह लेख भी उसी कड़ी का धांसू लेख है। कामरेड मतलब काम की रेड -शानदार!

    ReplyDelete
  12. अद्भुत। अगस्त महीना परसाई जी का जन्म माह है। इस माह आपने तमाम लेख लिखे जिससे लगा किसी न किसी रूप में वे हमारे बीच हैं। यह लेख भी उसी कड़ी का धांसू लेख है। कामरेड मतलब काम की रेड -शानदार!

    ReplyDelete
  13. अद्भुत। अगस्त महीना परसाई जी का जन्म माह है। इस माह आपने तमाम लेख लिखे जिससे लगा किसी न किसी रूप में वे हमारे बीच हैं। यह लेख भी उसी कड़ी का धांसू लेख है। कामरेड मतलब काम की रेड -शानदार!

    ReplyDelete
  14. अच्छी तस्वीर खीँची है आपने आपके आलेख मेँ !
    बँगाली भद्र जन
    "कामरेड" बनते जा रहे हैँ :-(
    आगे क्या होगा ?

    ReplyDelete
  15. कुश की बात पर गौर करते तो बंगाल को एक बंगाल टाइगर से वंचित नही रहना पड़ता ....इस बार ४ द्रश्य हो गये मिश्रा जी...

    ReplyDelete
  16. कामरेड यानि काम की रेड-हा हा! जबरद्स्त!! लाल सलाम स्वीकारो!! एक बेहतरीन एवं अद्भुत रचना! बधाई.

    २० किमी चल कर ऑफिस जाना हो, तो हमारा तो इस्तीफा पक्का ही जानो!!

    ReplyDelete
  17. अरे कुछ लालिमा इधर भी भेजिए एक-दो दिन बंद हो तो ऑफिस न जाना पड़े :-) अब आपकी तरह तो हम जाने से रहे. लगता है कलकत्ते में ही कोई काम ढूँढना पड़ेगा !

    ReplyDelete
  18. कलकत्ते में तो बड़े मजे हैं...! जब चाहो छुट्टी मना लो, बन्द तो होता ही रहता है। लाल पीक थूकने का मजा भी जोरदार होगा। यहाँ इलाहाबाद में तो दुर्भाग्य से मेरा आवास और ऑफ़िस एक ही परिसर में है। सड़क पर निकलने के बहाने ढूंढने पड़ते हैं। ...मुझे तो आपसे कई तरह की ईर्ष्या हो रही है...
    मस्त, धाँसू च फाँसू...

    ReplyDelete
  19. आवारा बंजारा जब भी आपके व्यंग्य पढ़ता है, चिंतन प्रक्तिया में डूब जाता है कि क्यों न उड़न तश्तरी के शिष्यत्व के साथ ही साथ आपका भी चेलत्व ग्रहण कर लिया जाए ;)

    ReplyDelete
  20. कामरेड की सही परिभाषा दी है आपने. बधाई!

    ReplyDelete
  21. पता नहीं कैसा इन्कलाब है जिसे हर दिन नारा लगाकर री-न्यू करना पड़ता है.
    लाल सलाम

    ReplyDelete
  22. बंधू
    क्षमा करें आप ने लिखा है की" आनेवाले पचास सालों के बाद बंगाल में इंसान पैदा ही नहीं होंगे. यहाँ केवल कामरेड पैदा होंगे." निवेदन है की हमें ये समझाएं की पिछले पचास वर्षों में जो वहां पैदा हुए हैं क्या वे इंसान हैं?"
    मेरी अल्प बुद्धि पर तरस खा कर ही जवाब देदो मान्यवर.....
    नीरज

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय