Monday, September 22, 2008

कृपया परमीशन धर्म का पालन करें......

अनुमति, जिसे बोल-चाल की भाषा में परमीशन कहते हैं, बड़ी जरूरी चीज होती है. जरूरी इसलिए कि लेनेवाले और देनेवाले दोनों को औकातोचित ऊंचाई प्रदान करती है. जिसे मिलती है, उसे कुछ करने की औकात का एहसास होता है और जो देता है वो यह सोचकर संतुष्ट होता है कि उसके पास भी औकात है कुछ देने की. लेकिन अगर परमीशन के लेन-देन का कार्यक्रम पूरी तरह से न संपन्न किया जाय तो बड़ी झंझट होती है.

होली के मौके पर दैनिक जागरण वालों ने मुझे मेल लिखकर मेरे कुछ लेख छापने की परमीशन लेनी चाही. परमीशन लेने की उनकी ये कवायद मुझे खुश कर गई. लगा जैसे मैं भी किसी को परमीशन देने की हैसियत रखता हूँ. मेरे पास परमीशन थी, सो मैंने उन्हें दे दिया. उनलोगों ने थोक में चार लेख छापने की परमीशन माँगी थी. सो मैंने उन्हें थोक में परमीशन दे दी. ये सोचते हुए कि क्या पता, भविष्य में कोई मांगे ही नहीं, इसलिए परमीशन लुटा दो. वैसे भी और कुछ नहीं है लुटाने के लिए.

उन्होंने लेख छापा. चार में से दो लेखों में अपने हिसाब से परिवर्तन कर दिया. बोले; "कार्टून लगाने के लिए लेख की काट-छाँट आवश्यक थी." उस समय पता चला कि बिना कार्टून के मेरे लेखों की कोई औकात नहीं है. चाहकर भी कुछ नहीं कह सका इन्हें. वैसे भी, छप गया तो कुछ कर भी नहीं सकते थे. लेकिन उनकी इस काट-छाँट और लेख के साथ छपे उनके कार्टूनों ने मेरी हैसियत की क्वालिटी मुझे अच्छी तरह से समझा दी. बाद में उनलोगों ने मुझे कुछ पैसे भी दिए. पैसे मिलने से लगा जैसे ये लोग मुझे काट-छाँट करने की कीमत अदा कर रहे हैं.

आप पूछ सकते हैं कि होली पर घटित इस घटना का जिक्र अब किस काम का? आपका प्रश्न उचित भी है. आख़िर होली पर लेख छपा था उसी समय एक पोस्ट लिखनी चाहिए थी. अखबार को स्कैन करते, एक पोस्ट लिखते. बधाई स्वीकार करते. बधाई मिलने से लेखों के कमपेंशेशन पैकेज की कीमत बढ़ जाने की संभावना रहती. लेकिन हाय री किस्मत. उस समय ये बात मन में आई ही नहीं. मौका हाथ से निकल गया.

लेकिन परमीशन वाली बात का जिक्र एक बार फिर से. शनिवार को अपने ताऊ जी ने मेरी पोस्ट पर टिपण्णी के रूप में मुझे बधाई दे डाली.

बोले; " आदरणीय मिश्राजी ! बहुत बधाई हो ! मैं आपकी इस पोस्ट पर टिप्पणी नही कर रहा हूँ !आपकी दुर्योधन की डायरी आज हमारे शहर से शाम को प्रकाशित होने वाले अखबार प्रभात किरण में प्रकाशित हुई है ! आपके नाम के साथ ! बधाई हो ! शायद आपकी जानकारी में होगा ! अगर नही हो तो आपको भिजवाता हूँ ! शुभकामनाएं !"

उनकी टिप्पणी पढ़कर मुझे अपनी हैसियत का पता चला. मतलब ये कि परमीशन दे देने से हैसियत का तो पता चलता है लेकिन अगर कोई परमीशन न मांगे तो? तो क्या? हैसियत का पता और अच्छे ढंग से चलता है.

मन में बात आई कि इसमें बेचारे ताऊ जी का क्या दोष? उन्हें तो लगा ही होगा कि उनके शहर के इस सांध्य दैनिक ने परमीशन धर्म का पालन किया ही होगा. हर जिम्मेदार करता है. लेकिन उनकी बधाई लेने के साथ-साथ मैं ज़मीन पर. कितना बेचारा लग रहा था मैं कि क्या कहूं?

मुझे लगा कैसे ढीठ लोग हैं? बिना मुझसे पूछे ही छाप लिया. परमीशन मांगकर एक बार थोडी खुशी ही दे देते. उनकी इस ढिठाई का कारण समझने की कोशिश की. मन में बात आई कि इनलोगों ने अनुमति लेना शायद इसलिए ज़रूरी नहीं समझा कि उन्हें मेरे ब्लॉग पर कहीं लिखा हुआ नज़र नहीं आया; 'इस ब्लॉग की सारी सामग्री शिव कुमार मिश्रा और ज्ञानदत्त पाण्डेय की संपत्ति है.'

कहने का मतलब ये कि केवल घर बनाने से काम नहीं चलने वाला. घर के सामने नाम की एक पट्टी लगानी ज़रूरी है. ये बताते हुए कि ये कुटिया जिसे आप देख रहे हैं, ये मेरी ही है. सामने वाले के लिए आपका घर में रहना आपको घर का मालिक तबतक नहीं बनाता, जबतक आप अपने नाम का शिलालेख घर पर नहीं चिपकाते.

अब ऐसे लोगों को कहूं भी तो क्या जिन्होंने सांध्य दैनिक का नाम 'प्रभात किरण' रखा है. "ऐसे लोगों की बुद्धि और व्यवहार कुशलता पर बलिहारी जाऊं" कहने के अलावा और कोई चारा नहीं.

ताऊ जी का बधाई संदेश सुनकर मैं ज़मीन पर गिरा ही था. अभी उठने की कोशिश कर ही रहा था कि ज्ञान भैया ने मुझे बताया कि अमर उजाला ने भी एक-दो बार मेरे लेख छाप लिए हैं. उन्होंने बताया; "मैंने सोचा कि तुमसे परमीशन लेने के बाद ही छापा होगा."

ज्ञान भैया की बात सुनकर मेरी हैसियत नई नीचाइयां नाप रही थी. हे भगवान, कैसे-कैसे दैनिक! कैसे-कैसे सांध्य दैनिक! अब छाप ही लिए थे तो एक बार मुझे ख़बर तो कर देते. कितने दिनों से इच्छा थी कि कहीं अखबार में मेरे बारे में कुछ छपे तो उसे स्कैन करके एक-दो पोस्ट लिखकर बधाई पात्र भरवा लूँ. लेकिन मेरी छोटी सी इच्छा की कीमत इन समाचार पत्रों के लिए कुछ भी नहीं.

अब क्या करता. ज्ञान भैया के ब्लॉग से वो सूचना कॉपी की जिसमें बताया जाता है कि इस ब्लॉग पर जो कुछ भी छपा है वो हमारा है. इसलिए आप अपनी इच्छा से यहाँ-वहां, जहाँ-तहां छापने की कोशिश न करें.अब मालिकाना हक़ की सूचना अपने ब्लॉग पर लगा दिया है.

ये सोचकर कि हो सकता है सूचना पढ़ने के बाद कोई बिना परमीशन लिए कुछ नहीं छपेगा.

24 comments:

  1. सही कह रहे हो शिव भैया,छापते तो वैसे भी पुछ ही लेते तो क्या जाता

    ReplyDelete
  2. "well said, just a word permisson has got a great importance and value, nicely decsribed"

    Regards

    ReplyDelete
  3. शिव महोदय, आपकी सूचना रूपी धमकी भी देख ली पर सच में बता ही देते तो पैसा क्लेम करने तो बाद में जाते पहले आभार ही व्यक्त करते।

    ReplyDelete
  4. चलिए दोनों तरह के अनुभव कर लिए आपने. दैनिक जागरण की (यथासम्भव) शराफत भी देखी और उजाले की किरण की लफंगियाई भी. इनकी अच्छे से ख़बर ली आपने या नहीं? वैसे यही हाल ब्लॉग जगत का भी है. यहाँ अजित जी जैसे बेहतरीन पत्रकार भी हैं और ....... जैसे तलछट भी.

    ReplyDelete
  5. यदि परमिशन हो तो दो ल्शब्द टिपनि में लिख के डाल दू.. वैसे ख्याल रखिएगा अख़बार में जिनकी रचनाए छपती है वो ब्लॉगिंग में छुपे हुए से रहते है..

    ReplyDelete
  6. मिश्राजी , ये लेख छापने से पहले इन्होने जिस तरह से लेखक
    और ब्लागिंग का परिचय लिखा है उससे मुझे लग गया था की
    आपकी परमिशन तो हो ही नही सकती ! फ़िर मैंने सोचा की यूँ
    बिना परमिशन के थोड़ी कोई छापता होगा यह सोच कर मैंने
    आपको बधाई दे दी ! मैं आज आपको इसको स्केन करवाके
    भेजता हूँ ! आप स्वयं ही देखे ! ऐसा लगता है की इन लोगो ने
    मुफ्त का माल समझ रखा है ! और भाषा तो बलिहारी जाऊं !

    ReplyDelete
  7. ताऊ जी,

    मैंने कल इन अखबार के डायरेक्टर से बात की थी. वे बोले उन्हें कुछ पता नहीं है. उनकी बात भी ठीक है. डायरेक्टर वही तगड़ा, जिसे कुछ पता ही न हो. फिर आज एडिटर साहब से बात की. प्रकाश पुरोहित नाम है उनका. वे बोले उन्हें तो अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि बिना अनुमति लिए मेरा लेख छाप लिया गया. हमारे एक मित्र हैं. उन्होंने शनिवार को अखबार में प्रयोग की गई भाषा की जानकारी दी थी मुझे.

    एडिटर साहब कह रहे थे कि वे माफी मांगते हैं. कह रहे थे कि मुझसे कान्टेक्ट करने का कोई तरीका नहीं रहा होगा इसीलिए अनुमति नहीं ले सके होंगे इनके लोग. आप ख़ुद ही सोचिये. किसी की भी रचना छाप लें और बहाना बना दें कि कान्टेक्ट का कोई तरीका ही नहीं रहा होगा.

    आप अगर अखबार के उस पेज को स्कैन करवा के भेज सकें तो बहुत अच्छा रहेगा. क्योंकि मुझे लगता है कि एक बार पेज देख लूँ फिर इनसे बात करूं.

    ReplyDelete
  8. मानसिक हलचल पर कॉपीराइट वाला विजेट लगाने का ज्यादा लाभ नहीं है - वहां फुटकर माल है - जो चोरी योग्य शायद ही हो।
    पर वह यहां प्रारम्भ से लगना चाहिये था, वह न कर मैने ही चूक कर दी!
    लेकिन वह विजेट तो चोरों के लिये है, डकैतों को उससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता! :-)

    ReplyDelete
  9. पता नहीं कहाँ कहाँ छप गए...पैसा मिला न टका...कम्बख्तो ने पूछा तक नहीं...


    सही है, बहुत ही दर्दनाक घटानाएं हुई है, बधाई स्वीकारें. :)

    ReplyDelete
  10. आदरणीय मिश्रा जी , आपकी टिपणी पढ़ते ही मैं समझ गया था और
    शायद आपको स्केन कापी वाली मेल मिल गई होगी ! मैंने करीब
    आधा घंटा पहले ही आपको भेज दी थी ! नही मिली हो तो कृपया
    सूचित करिएगा !

    ReplyDelete
  11. आदरणीय ताऊ जी,

    मुझे आपकी मेल अभी तक नहीं मिली है. अगर हो सके तो एक बार फिर से shiv2601@gmail.com पर भेज दीजिये.

    ReplyDelete
  12. मेरी तरफ़ से सौ फीसदी बधाई... परमीसन ली गई या नही प्रश्न इस हर्ष के आगे गौण हो जाता है जो यह यह सूचित करती है कि तुम्हारे लिखे को कुछ सौ नही लाखों लोगों ने पढ़ा.
    चिंता मत करो इसे सैम्पल समझो. माल तेजी से बाज़ार में चल निकलेगा तो फ़िर प्रकाशक बाकायदा लिखित में अनुमति मांगनेवालों के कतार में खड़े रहेंगे.फ़िर इतनी हिम्मत नही पड़ेगी किसीकी.

    ReplyDelete
  13. आपका दर्द समझ सकते हैं लेकिन फिर भी आप इस बात पर खुश हो सकते हैं की भले लोगों ने खुद के नाम से नहीं छापा!वरना कई ऐसे दुखियारे भी हैं जिनकी मेहनत से लिखी रचनाएं रचना चोरों ने शान से अपने नाम से छपवा दीं...

    ReplyDelete
  14. pehle to akhbar me apna lek apne naam ke saath chapne ki badhai.yahi soch santosh kar lijiye ki bhagte bhoot ki langoti sahi.

    hamari prarthana hai ki aapke lekh ko chaapne ke liye bahut se log aapki permission maange.

    Badhai sweekar karein...

    ReplyDelete
  15. आपकी सूचना रूपी धमकी
    धमाकेदार लगी.
    कृपया बताएँ इसे कापी कर
    इसके ज़रिए हम भी
    लोगों को धमकाना चाहें तो
    कोई आपत्ति ?
    ===================
    परमीशन धर्म में आपका
    धुरीण सहभागी
    चन्द्रकुमार

    ReplyDelete
  16. छपने की बधाई लीजिये... बाकी आप संभालिये :-)

    ReplyDelete
  17. बंधू...आप भी कैसे निर्दयी हो गए हैं...दुर्योधन की डायरी लिखते लिखते उसके एक आध गुण लगता है आप में प्रविष्ट हो गए हैं...आप को उन अखबार वालों का गुणगान करना चाहिए की आप की रचना को छपने योग्य समझा, हमको देखो सुबह से शाम दुकान लगाये बैठ हैं ब्लॉग पे मजाल है कोई भूला भटका आ कर कहे की साहेब आप की एक रचना हम छापना चाह रहे हैं...और ये बताईये की अगर वो आप से पूछ लेते या परमीसन मांगते तो क्या आप इनकार करने की स्तिथी में होते ??? हाँ कह कर हमें शर्मिंदा न करें बंधू...ख़ुद को धोखा भी ना दें......पल्लवी जी ने ठीक कहा है की आप को आभारी होना चाहिए उनका की आप के नाम से लेख छापा अगर कुमार शिव के नाम से छाप देते तो क्या करते? बताईये...लोग पढ़ रहे हैं ना आपको और क्या चाहिए...बोलिए ना?????
    नीरज

    ReplyDelete
  18. आपका दुःख हम समझ रहे है .शुक्र मानिये आप का नाम दे दिया ...कई लोग तो दूसरे नाम से छाप देते है...

    ReplyDelete
  19. आदरणीय मिश्रा जी ,
    आपका जो कमेन्ट आता है मैंने उसी पते पर मेल किया था ! और मैंने उसके बाद आपका ब्लॉग अभी देखा है !
    आपने जो मेल एड्रेस दिया है , उस पर भेज रहा हूँ ! मुझे आप वापस कनफर्म जरुर करिएगा ! मैंने मेरे जीमेल और
    याहू दोनों से भेज दिया है !

    ReplyDelete
  20. आप परमिशन और कॉपी राईट की बात कर रहे हैं, आप बड़े भाग्यशाली हैं जो कम से कम इस बारे में विचार कर पा रहे हैं. हम तो सोच रहे हैं कि एक बोर्ड टांग दें कि भईया, आओ और ले जाओ-सब आपका ही है, काहे शरमा रहे हो. मगर कोई आये, जब तो!!

    ReplyDelete
  21. भैया अखबार लाईन मे काम करता हूं इसलिए जानता हूं कि ये अखबार खासतौर से छोटे अखबार इंटरनेट से सामाग्री बिना अनुमति लिए ही उठा लेते हैं।
    आप एक्शन लो तब ही शायद इन्हे समझ में आएगा।

    ReplyDelete
  22. राम राम केसे केसे चोर हे , शिव जी के यहां भी नही छोडा, लेकिन आप का लेख पढ कर मजा ज्यादा आया, आप की लेखनी का ही कमाल हे गुस्से की बात को भी मजाक मे कह गये
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  23. काश मेरा लिखा भी कोई छापने लायक समझता! मैं तो एड्वान्स परमिशन दिए बैठा हूँ। कोई गलती से छाप चुका हो तो मुझे बतादे, बैक डेट की परमिशन भी दे दूंगा। हा, हा, हा,...

    शिवकुमार जी आप तो महान हो। सच्ची में। मजाक नहीं।

    ReplyDelete
  24. यहां कवि यह कहना चाह रहा है कि उसको मात्र ब्लागर ही न समझा। वह अब छपाऊ लेखक भी बन गया है। अखबारों के सम्पादक उससे माफ़ी-ऊफ़ी मांगने लगे हैं। मतलब जलवे हो चुके हैं उसके। कवि की इस बात को ग्रहण करने में लोग न जाने क्यों हिचकिचा रहा हैं। कवि बेचारा वह है जो हो है- किंकरेअबविमूढ़!!

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय