हिन्दी सिनेमा के पोस्टर भी अपने साथ मनोरंजन का ढेर सारा सामान लेकर चिपकते थे. हीरोगीरी करता हुआ हीरो, और हिरोइनगीरी पर उतारू हिरोइन तो रहती ही थी, परम चिरकुटई करता हीरो का कामेडियन दोस्त भी पोस्टर से चिपकना नहीं भूलता था. इनलोगों से थोड़ी जगह सेव करके विलेन को एक बन्दूक के साथ छाप दिया जाता था. वो भी विलेन अगर रिसोर्सफुल रहा तो बन्दूक की जगह रॉकेट लांचर लेकर चिपकता था. इनलोगों से जितनी जगह बचती थी, उसमें प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का नाम समा जाता था.
कुल मिलाकर बड़ा बम्फाट पोस्टर बनाया जाता था, पब्लिक को सिनेमा घर तक लाने के लिए. कई बार तो पोस्टर देखकर मन में सवाल आता है कि जितनी मेहनत पोस्टर पर की गई है, उतनी अगर फ़िल्म पर की गई होगी तो फ़िल्म हिट हो जायेगी.
लेकिन अब हिसाब थोड़ा अलग हो गया है. थोड़ा क्या, पूरा ही अलग हो गया है. अब बेचारे कामेडियन और विलेन के लिए जगह ही नहीं बची है. पूरे पोस्टर पर हीरो-हिरोइन का कब्जा हो चुका है. विलेन लोग भी अब बन्दूक वगैरह नहीं रखते. सिक्स पैक एब्स वाला हीरो रहता है. देखकर दर्शकगण समझ नहीं पाते कि ये हीरो हीरोगीरी पर उतारू है कि विलेनगीरी पर. कुल मिलाकर विकट कन्फ्यूजियाहट से जूझते दर्शक फिलिम के बारे में आईडिया नहीं लगा पाते.
ये तो हुई हिन्दी फिलिम के पोस्टरों की बात.
लेकिन फिलिम अगर भोजपुरी भाषा की रही तो? तो फिर भइया पोस्टरवा में और बहुत कुछ इनकार्पोरेट करना पड़ता है. तीन-चार पोज में हीरो-हिरोइन, दो पोज में विलेन, तीन पोज में हीरो का माई-बाबू और दो पोज में आइटम गाना पर डांस करने वाली लड़की. लेकिन एक बात और है. ई फोटो-सोटो से भोजपुरी सिनेमा का पोस्टर पूरा नहीं होता. नीचे में कम से पाँच गाना का पहिला दू लाइन. मतलब कुल मिलाकर दस लाइन का जगह खाली गाना खातिर. अब ई पाँच गाना में से कम से कम दू गाना तो डबल मीनिंग वाला रहता है. साथ में म्यूजिक डायरेक्टर का नाम और गाना लिखने वाले का नाम.
देखकर लगता है जैसे डायरेक्टर पोस्टर पर ही पूरा फिलिम देखाने का कोशिश किया रहा लेकिन थोड़ा सा जगह कम पड़ गया. इसलिए पूरा फिलिम देखने के लिए सिनेमा हाल में पधार ल्यो.
हाल ही में एक बांगला फ़िल्म का पोस्टर देखा. फ़िल्म का नाम था 'लव'. अंग्रेज़ी नाम पर मत जाइये, फ़िल्म पूरी तरह से बांग्ला में है. और आजकल बांग्ला में भी लव ही होता है, प्रेम नहीं होता. टीवी पर इस फ़िल्म के बारे में चर्चा सुनी थी. डायरेक्टर बता रहे थे कि टीन-एज लव स्टोरी है. मतलब ये कि हीरो-हिरोइन स्कूल या फिर कालेज में पढ़ते होंगे.
अब ये टीन-एज लव स्टोरी बनाने का मामला बड़ा उलझा हुआ रहता है. कारण है लगभग सारे हीरो तीस साल से ऊपर के हैं. अब उन्हें कैसे टीन-एज कैसे बनाएं? इसी फ़िल्म के हीरो को देखकर लगता है कि कम से कम पैंतीस साल का है. आंखों के नीचे या बड़े-बड़े आई बैग. हिरोइन भी देखने से तीस साल से कम की नहीं लग रही. मेकअप करने की बावजूद. कैसे बनाएं इनदोनों को टीन-एज?
शायद इन्ही सवालों के जवाब के लिए क्रिएटिव डायरेक्टर रहता होगा. ऐसे ही कठिन समय में उसकी ज़रूरत पड़ती होगी. पहले प्रयास के तहत हीरो को टीन-एज बनाने के लिए उसे लाल रंग का जैकेट पहना दिया जाता है. साथ में जींस. लेकिन ये क्या? अब भी हीरो टीन-एज नहीं लग रहा. अब क्या करें? अच्छा ठीक है, एक काम करो, इसके हाथ में एक गिटार थमा दो. अब देखो, कैसा लग रहा है? थोड़ा-थोड़ा टीन-एज लगने लगा है.
यही हाल हिरोइन के साथ भी है. हिरोइन को देखकर लग रहा है कि ये तो तीस साल की है. मेकअप के बावजूद आंखों के नीचे झुर्री दिखाई दे रही है. अब क्या करें? एक काम करो, इसके हाथ में एक टेडी बीयर थमा दो. अब देखो, कुछ टीन-एज लग रही है? नहीं लग रही है! एक काम करो, इसे छोटी सी साईकिल पर बैठकर इसका एक फोटो ले लो. हाँ, अब ठीक है. अब ये टीन-एज लग रही है.
पहले प्रदीप कुमार जी को भी देख चुके हैं. वो भी कालेज से टॉप करके निकलते हुए. अब सोचिये कि प्रदीप कुमार जी कालेज से टॉप करके निकल रहे हैं. मुझे भीगी रात फ़िल्म याद है. उसमें कालेज से ताजा-ताजा निकले प्रदीप कुमार जी, मीना कुमारी जी से इश्क फरमाते हैं. एक सीन में अशोक कुमार जी को बताते हैं; "मैं कालेज में निशानेबाजी में चैम्पियन था."
बात आगे बढ़ती है. एक जगह तैरने की बात होती है. वहां भी वही बखान; "आपको शायद मालूम नहीं कि मैं कालेज में तैराकी का चैम्पियन था." मतलब ये कि खेल का नाम ले लो. जितने खेल का नाम लोगे, मैं सब में चैम्पियन. चैम्पियन होने का ये हाल कि; " आपको शायद मालूम नहीं कि मैं पढाई में भी चैम्पियन था."
समझने की बात ये कि चैम्पियन होने का कॉपी राईट्स थोक में इनके ही पास था.
उनदिनों हीरो के इतने बड़े चैम्पियन होने के बावजूद पोस्टरों पर उन्हें हाथ में किताब लेकर कालेज जाते नहीं दिखाया जाता था. शायद प्रोड्यूसर को मालूम था कि ऐसा करने से फ़िल्म का फ्लॉप होना तय था. लेकिन अब समय बदल गया है. अब तो हीरो जो कुछ भी कर सकता है (या नहीं भी कर सकता है), उसे पोस्टर पर दिखाया जाना ज्यादा ज़रूरी है.
हा... हा...हा.जबरदस्त.मजा आ गया पढ़कर.लाजवाब विवेचना किए हो.खतरनाक पैनी नजर है तोहरी.भगवान् तोहका बुरी नजर से बचाए.
ReplyDeleteसच में भोजपुरी फिल्म के विज्ञापन में ढ़ेरों हाइपर लिंक होते हैं - जैसे फुरसतिया का चिठ्ठाचर्चा हो!
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पुन: जरा कलकत्ता में गिटार का दाम पता करना। अपनी पर्सनालिटी को हीरोचित बनाने का यत्न किया जाये!
बहुत सही और सूक्ष्म विश्लेषण किया है आपने ! आपकी लेखन शैली ही कुछ ऎसी है की मजा आ जाता है !
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएं !
पोस्टर बहुत ध्यान से देखते हो बाबू! :)
ReplyDeleteमान गए बंधू..आप की पारखी नजर और पोस्टर प्रेम.... दोनों को...बहुत ही आनंद आया पढ़ कर...बहुत माने बहुत ही ज्यादा...
ReplyDeleteनीरज
फटा पोस्टर निकला हीरो.......नसीर की एक फ़िल्म याद आ गई मिश्रा जी
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिखा हे आप ने , पोस्टरो के बारे अगली बार ध्यान दुगां
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत गहन अध्यन किया है आपने सिनेमाई पोस्टरर्स पर. लगे हाथ, पी एच डी कर ही डालिये. :)
ReplyDeleteपोस्टरों का बड़ा महत्त्व है. अब बम्बईया फिल्मों के पोस्टर रंगते रंगते अपने हुसैन साहब टॉप के कलाकारों में गिने जाने लगे. आप भी ऐसे ही गहराई से इन पोस्टरों का अध्ययन करते रहें. खुदा ने चाहा तो कहाँ से कहाँ पहुच जायेंगे. मतलब कहाँ पर तो हैं ही, और भी कहाँ कहाँ पहुँच जायेंगे. :-)
ReplyDeleteबढिया है जी। थोड़ा जगह हमारे लिये भी निकालिये न पोस्टर में।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ....
ReplyDeleteumda likha he, aapka FAN ho chala hun, halanki internet par jyada samay nahin deta par aapka koi na koi blog to padh hi leta hun. Likhte rahiye............
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