पहले जीवन सरल था. कुल मिलकर तीन-चार मौसमों में बंटा जीवन. धीरे-धीरे बीत जाता था. चार मौसम कम्प्लीट होने से ही जीवन का एक साल कम हो जाता.
ये अलग बात है कि किसी की उम्र के बारे में कोई जानना चाहता तो पूछ लेता; "वैसे भाई साहब ने कितने बसंत देख लिए?"
भाई साहब ये सोचते हुए ढेर हो लेते कि; 'ये ऐसा क्यों सोचते हैं कि मैंने सिर्फ़ बसंत ही देखा है. जेठ की गरमी, भादों की मूसलाधार बारिश और जनवरी की शीतलहर क्या मेरे बिहाफ पर कोई और देख गया है? भादों का कीचड़ और कोसी की बाढ़ भी तो मैंने देखी है. उसके बारे में क्यों नहीं पूछते? क्यों नहीं पूछते कि; "छाती तक लगे हुए पानी से कितने साल गुजरे हो?"
लेकिन जैसा कि शुकुल जी कहा है; "लोग बीते हुए समय को अपनी सुविधा से देखते हैं. जो अच्छा मिलता है, उसी को याद करते हैं."
अब जाहिर सी बात है कि इन मौसमों में सबसे बढ़िया बसंत को ही याद करेंगे.
पहले लोग अपने जीवन को मौसम-वाईज जी लेते थे. ज्यादा कठिन जीवन नहीं था. ये सोचते हुए जीते कि; 'बस ये गरमी से बच गए तो बरसात किसी तरह से झेल ही लेंगे. बरसात में आई बाढ़ से बच गए तो फिर सर्दी की शीतलहर. और उससे बच गए तो बसंत में थोड़ा चैन रहेगा. बसंत तक साईकिल चल गई तो एक साल बीत लेगा. आज पचपन के हैं, एक साल बाद छप्पन के हो जायेंगे. ऐसा करते-करते जीवन बीत जायेगा.'
ठीक वैसे ही जैसे टेस्ट मैच ड्रा करने के चक्कर में कोई महान बैट्समैन सेशन वाईज बैटिंग करने की फिराक में रहता है.
ज्यादातर होता भी ऐसा ही था. गरमी गई नहीं कि बरसात आ गई. बरसात शुरू हुई तो लोग सोचने लगते कि; 'बस तीन महीने और, फिर सर्दी आ जायेगी.' सर्दी बीतने के कगार पर आई तो ऋतुराज आ जाते थे. डेढ़-दो महीने रहते. कुछ कवितायें वगैरह लिखवाते. होली खेलने का मौका देते. पूरा माहौल रंगीन करने के बाद गरमी को आने का रिक्वेष्ट करते हुए निकल लेते.
लेकिन अब जीने का मामला उतना सरल नहीं रहा. मौसमों की संख्या बढ़ गई है. तीन-चार मौसम तो भगवान ने बना कर दिए थे. अब अगर किसी को कुछ मिले तो उसका कर्तव्य है कि वो उसमें अपनी हैसियत और औकात के हिसाब से इजाफा कर ले.
हमने अपनी हैसियत के हिसाब से इजाफा भी किया. अपनी मेहनत से कई सारे मौसमों का आविष्कार किया. त्योहारों का मौसम, चुनावों का मौसम, भगदडों का मौसम, विस्फोटों का मौसम, ढिलाई का मौसम, मंहगाई का मौसम, पढाई का मौसम, लिखाई का मौसम, इश्क का मौसम, मुश्क का मौसम, शिक्षा का मौसम, परीक्षा का मौसम वगैरह वगैरह. (अगर किसी मौसम का नाम लेना भूल गया तो उस मौसम से आग्रह है, कि क्षमा करें.)
कुल मिलाकर जीवन अब विकट मौसमीय बन चुका है. हालत ये है कि इस मौसमीय माहौल में जीते हुए चिंता और चिंतन, दोनों अलग लेवल पर पहुँच चुके हैं.
चिंता की बात ये कि इतने सारे मौसम समूचे देश में एक साथ सेट-इन भी नहीं करते. दो महीने पहले महाराष्ट्र के लोग बरसात से दो-दो हाथ कर चुके तब जाकर बिहार के लोगों को मौका मिला. बेचारे पूरा एक महिना बेहाल रहे. तब जाकर कहीं गुजरात का नंबर आया. गुजरात वाले खाली हुए तो बरसात से जूझने का नंबर उड़ीसा वालों का आया.
ऐसे ही एक महिना पहले दिल्ली के लोग विस्फोटों के मौसम से गुजरे तब जाकर कर्णाटक वालों का, गुजरात वालों का, जयपुर वालों का नंबर आया. अब चिंता इस बात की है कि अगला नंबर किसका है?
कभी-कभी तो लगता है कि इतने सारे राज्य हुए ही क्यों? न तो इतने राज्य होते और न ही विस्फोटों के मौसम को इतनी चिंता होती.
अब यही देखिये न, बंगाल में पूजा का मौसम आ गया तो साथ ही साथ ये चिंता भी है कि कहीं विस्फोटों का मौसम यहीं न सेट-इन कर जाए. एक साथ दो-दो मौसम से जूझने के लिए तैयारी चल रही है. पूजा की तैयारी तो कर रहे हैं लेकिन मन में सोचते जा रहे हैं कि; "अच्छा, कौन से दिन निकलें कि सुरक्षित घर लौट आयें. पुलिस वाले बता रहे हैं कि पूजा के दौरान विस्फोट होने का चांस है. अगर होगा तो कौन से दिन हो सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि घर से पूजा देखने निकले और घर वापस ही नहीं लौटे?"
कहीं मौसम का शिकार तो नहीं हो जायेंगे? अभी मंहगाई के मौसम से जूझ ही रहे थे कि ये लोग सर पर चढ़ आए.
बंगाल वाले इससे परेशान हैं तो छत्तीसगढ़ में चुनावों का मौसम आ गया है. वे बेचारे भी परेशान. मंहगाई के मारे लोगों को अगर चुनावों के मौसम से भी गुजरना पड़े तो फिर उनके कष्ट का कोई अंत नहीं. फिर तो वहां चुनाव के मौसम के बाद मंहगाई के मौसम के ख़त्म न होने की संभावना असीम है.
करीब सात-आठ महीने बाद असम में एक बार फिर से हिंसा का मौसम सेट-इन कर चुका है. अब ये कितने दिन चलेगा ये देखने की बात है. अभी दस दिन हुए थे वहां बाढ़ का मौसम आए हुए. अब हिंसा का मौसम भी आ गया तो तो दोनों मौसम मिलकर धूम मचाएंगे.
दिल्ली में पिछले तीन-चार महीने से न्यूक्लीयर डील और खरीद-फरोख्त का मौसम चल रहा है. पिछले दस-पन्द्रह दिन तक इफ्तार पार्टियों का मौसम रहा. अब रामलीला का मौसम आएगा. वो ख़तम होगा तो विदेशी नेताओं के आने का मौसम शुरू होगा.
सर्दियाँ आने को हैं. ऐसे में कश्मीर घाटी में आतंकवादी मौसम सेट-इन करेगा. आतंकवादी बेचारे अगर अभी बॉर्डर नहीं क्रॉस कर सके तो उन्हें सर्दी का मौसम बहुत सताएगा. पूरे पांच महीने का इंतजार उनके लिए ठीक नहीं रहेगा.
ऐसे में अच्छा यही रहेगा कि आतंकवादी मौसम अभी आ जाए.
कुल मिलाकर देश विकट 'मौसमीय' दिनों से गुजर रहा है. गुजरना ही पड़ेगा. आख़िर इतने सारे मौसमों का आविष्कार हमने ही तो किया है. कोई दूसरा थोड़ी न आएगा इनसे गुजरने के लिए.
लो अब ब्लॉगिंग का भी मौसम आ गया! ये मौसम बड़ा विकट है एक बार आने का नाम लेता है जाने का नहीं लेता.
ReplyDeleteकुल मिलाकर देश विकट 'मौसमीय' दिनों से गुजर रहा है. गुजरना ही पड़ेगा. आख़िर इतने सारे मौसमों का आविष्कार हमने ही तो किया है. कोई दूसरा थोड़ी न आएगा इनसे गुजरने के लिए.
ReplyDelete" kya baat khee hai, bhut accha artical. sach hee to kha ke kudrt ne sirf gintee kee char mausam bnaye or insano ney char ke tukde tukde kr ke na jane kitney mausam bna diye hain, ab bnaye hain to inhe gujerna bhee pdega, wonderful artiacl on the subject'
regards
शिव जी इतने मौसम तो मैंने कहीं नहीं पढ़े थे। और हर वक्त याद किया जाता है सिर्फ खुशी के वक्त ही नहीं, सोच पर निर्भर है। लेकिन इन मौसमों से हम ही गुजरेंगे। अभी पूजा पाठ का मौसम है।
ReplyDeleteमौसमी (यह बात और है, इसे अल्पकालिक के लिए भी कहा जाता है :) ) मगर ठोस पोस्ट है.
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन मौसम चर्चा की आपने ! धन्यवाद !
ReplyDeleteमौसमीय पंचांग बनना चाहिये। और नहीं तो मास भर के मौसम के नाम से एक पोस्ट पब्लिश होनी चाहिये हर पहली तारीख को - जिससे ब्लॉगर समझ सकें कि कब गांधी जयन्ती की पोस्ट लिखनी है, और कब जन्माष्टमी की। :)
ReplyDeleteबंधू...क्या जमाना आ गया है...लोग मोसमों पर पोस्ट लिख रहे हैं...हमारे ज़माने में गीत गाया करते थे...गीत से ही मालूम पढता था की मौसम कौनसा आने वाला है जैसे..." आज मौसम म म म म म बड़ा बईमान है बड़ा बईमान है बड़ा बईमान है आज मौसम...आने वाला कोई तूफ़ान है बड़ा तूफ़ान है आज मौसम..." और लोग गीत सुन कर तूफ़ान से बचने की तैय्यारी में जुट जाते...या फ़िर "कलियों ने घूंघट खोले हर फूल पे भंवरा डोले लो आया प्यार का मौसम गुलो गुलजार का मौसम...." और लोग बाग की सैर को चल पड़ते...
ReplyDeleteअब ये मौसम तो पता नहीं कहाँ हवा हो गए सिर्फ़ आप की पोस्ट वाले मौसम ही बच रहे हैं...हमारा दुर्भाग्य...बंधू.
नीरज
पता नही कोई खुशियो का मौसम भी कभी आएगा... या हम सपनो के मौसम में ही खोए रहेंगे...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट.. इतने सारे मौसम एक साथ ले आए आप.. बधाई
बहुत सटीक पोस्ट
ReplyDeleteअभी कल ही हम त्यौहार के मौसम की बात कर रहे थे और आज इतनी अच्छी पोस्ट पढने को मिली वाह भाई वाह
वीनस केसरी
हम तो अभी तक यही सुनते आए थे की एक बरस के मौसम चार पांचवा मौसम प्यार का / लो आया प्यार का मौसम हर फूल पे भँवरे डोले / तीन मौसम थे छ : ऋतुएं थी -ये मौसम बढ़ते ही चले जारहे है आप ने तो बहुत ही संख्या बढ़ा दी
ReplyDeleteवाह शिवजी, आपने तो मौसमों का मौसम ला दिया। जैसे बसन्त। बधाई।
ReplyDelete...मौसम के साथ एक बहुत सच्ची बात जुड़ी हुई है-यह कि जो भी मौसम आता है वह जाता जरूर है। इसलिए जब जो मौसम आए, उसका मजा जरूर लीजिए... जम के। पता नहीं जब अगली बार आए तब तक आप कहाँ और किस हाल में रहें।
अब जो भी, जैसा भी मौसम हो..हमारा तो सावन के अँधे वाला हिसाब है-हर मौसम टिपियाने का मौसम, सो वही कर रहे हैं. हर तरफ हरा हरा दिख रहा है. मगर यहाँ तो गजब हरियाली है भाई. बहुत बेहतरीन लिखा है.
ReplyDeleteअजी अभी तो हंसने का मोसम चल रहा है, ओर टिपण्णी का मोसम भी आने वाला है, सुना है इस बार बडी हंसती हंसती टिपण्णीया मिलने वाली है, ओर फ़िर उस के बाद धन्यवाद का मोसम आयेगा , शायद फ़िर जाने का मोसम आये, क्योकि अगर जाने का मोसम नही आया तो फ़िर से आने के मोसम मै देर हो सकती है.
ReplyDeleteअभी अपन का ब्लागिंग से संन्यास का मौसम चल रहा है.
ReplyDeleteइसलिए
नो कमेन्ट
देश के नये और महान मौसम विद को प्रणाम। सुखे का मौसम,भुखमरी का मौसम,खरीद-फ़रोख्त का मौसम दल-बदल का मौसम,ट्रांस्फ़र-प्रमोशन जैसे कुछ छोटे-मोटे लोकल इफ़ेक्ट छूट गयें हैं,उन पर भी आपकी दया चाहूंगा।गज़ब लिखा आपने लगता है दिल गद-गद होने का मौसम आ गया।
ReplyDeleteब्लागिंग के मौसम बताओ, गुरु !
ReplyDeleteदेश विकटीय मौसम से गुजरता जा रहा है
ReplyDeleteमध्य प्रदेश टिकिट के मौसम से गुजरता जा रहा है
लाइन जो लम्बी लगी है पार्टी ऑफिस के बाहर
कितने दिल टूटेंगे अब पार्टी ऑफिस के बाहर
आपको मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रण है मेरी नई रचना " कांग्रेसी दोहे " पढने के लिए
प्रतीक्षा है