मैंने कहा; "मैं तो ठीक-ठाक हूँ. आप कैसे हैं? कोई नई कविता लिखी आपने?"
मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "पिछले कुछ दिनों से कोई नई कविता नहीं लिखी. फुरसत ही नहीं मिली."
मैंने कहा; "समय अभी चिंतन करने का है, शायद?"
मेरी बात सुनकर फिर मुस्कुरा दिए. बोले; " एक कवि के लिए हर समय चिंतन का ही रहता है. लेकिन अब आप से क्या छुपाना, असल में आजकल नए फील्ड एक्सप्लोर कर रहा हूँ."
मैंने पूछा; "कवि के लिए नए फील्ड में आजकल क्या-क्या आता है?"
वे बोले; "मैंने सोचा सिनेमा के गीत लिखूं. सोचा, जावेद अख्तर साहब आजकल रियल्टी कम्पीटीशन में जजबाजी करने में बिजी हैं. गुलज़ार साहब भी आजकल सेलेक्टिव ही लिखते हैं. ऐसे में अगर थोड़ा समय दिया जाय तो सिनेमा के गीतकार के रूप में पाँव जमाया जा सकता है."
उनकी बात सुनकर बड़ा अच्छा लगा. अच्छा इसलिए कि अगर वे सिनेमा में जम गए तो हम भी बोल सकेंगे कि एक गीतकार को हम भी जानते हैं. मैंने पूछा; "तो कोई गीत लिखा है आपने?"
वे बोले; "सात दिन नैनीताल में बिता कर आया. ये सोचते हुए कि वहाँ की वादियों से लिखने की प्रेरणा मिलेगी. प्रेरणा मिली भी. गीत भी लिखे. लेकिन जैसा की हमेशा होता है, अच्छी चीजों की कीमत लोग नहीं पहचान पाते."
मैंने कहा; "अच्छी चीजों की कीमत लोग तुंरत तो सचमुच नहीं पहचानते. वैसे क्या हुआ आपके उन गीतों के साथ?"
वे बोले; "मैं एक प्रोडक्शन हाउस को अपने गीत भेजे. उनलोगों ने आउटराइट रिजेक्ट कर दिया."
मैंने पूछा; "क्यों? क्या गीत उन्हें अच्छे नहीं लगे?"
मेरे इस सवाल पर कमलेश जी के चेहरे पर दर्द उभर आया. इतना दर्द कि उससे वे मुकेश साहब के लिए कम से कम दो दर्द भरे नगमें लिख लेते. खैर, दर्द को सँभालते हुए बोले; "फ़िल्म प्रोड्यूसर को गीत में इस्तेमाल किए गए शब्द बकवास लगे. उन्होंने ये कहकर गीतों को रिजेक्ट कर दिया कि आजकल ऐसे गीत फैशन में नहीं हैं."
मैंने सोचा ऐसे कौन से शब्द थे जिन्हें पसंद नहीं किया गया. मैंने उनसे पूछा; "क्या शब्द उन्हें अश्लील लगे?"
कमलेश जी बोले; "आपतो मुझे जानते हैं. मैं कभी अश्लील शब्द इस्तेमाल कर सकता हूँ. ठीक है, व्यावसायिक होना चाहता हूँ लेकिन अश्लीलता तो मेरे लिए एकदम ही ना ना है. बात दरअसल ये हुई कि गीत में सजन, बलम, जान-ए-जनाना जैसे शब्द थे. मैंने ये सोचकर लिखे थे कि पुराने गानों का दौर लौटा लाऊंगा. लेकिन अब क्या कहें?"
मैंने कहा; "ये शब्द तो पहले भी फिल्मी गानों में इस्तेमाल हुए हैं. प्रोड्यूसर को इन शब्दों से गुरेज क्यों हुई?"
वे बोले; "आपको असल बात तो अभी बताया ही नहीं. प्रोड्यूसर साहब ने अपने कमेन्ट में लिखा है कि मेरे गीतों में पंजाबी शब्द एक भी नहीं हैं. और आजकल बिना पंजाबी शब्दों के गाना दो कौड़ी का. कह रहे थे वो ज़माना गया जब हिन्दी फिल्मों में हीरो सजन, बलम, सैयां वगैरह और हिरोइन जान-ए-जनाना और जोहरा-जबीं होती थी. आजकल हीरो मखना होता है और हिरोइन सोणिया."
मैंने कहा; "ठीक ही कह रहे हैं. बदलते समय की निशानियाँ हैं सब. वैसे क्या करेंगे अब? प्रोड्यूसर के हिसाब से गीत लिखेंगे?"
वे बोले; "और कर ही क्या सकते हैं? अगर गीतकार कहलाना है तो यह करना ही पड़ेगा. इसीलिए तैयारी में जुटे हैं."
इतना कहकर उन्होंने हाथ का कागज़ मेरी तरफ़ बढ़ा दिया. कागज़ देखने पर मुझे पंजाबी के करीब बीस-पचीस शब्द लिखे हुए मिले. मखना, सोणिया, चखणा, बल्ले-बल्ले, सावा-सावा, कुड़ी, मुंडा.....और न जाने क्या-क्या.
मैंने पूछा; "ओह, तो कागज़ शब्दों वाला है?"
वे बोले; " हाँ, ये कागज़ शब्दों वाला ही है. ये बीस-पचीस शब्द घोटने की कोशिश कर रहा हूँ. याद हो जाएँ तो इन्हें गानों में फिट करने की कोशिश करूंगा."
कागज़ देखते हुए मैं अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था कि हिन्दी सिनेमा कितना आगे निकल गया है? एक ज़माना था जब किसी फ़िल्म में पंजाबी किरदार भी हिन्दी और लखनवी उर्दू के शब्द यूज करते हुए गाना गाता था और आज यूपी का किरदार भी पंजाबी शब्दों वाले गाने गा रहा है.
ऐसे गानों से प्रोड्यूसर की बल्ले-बल्ले और सावा-सावा हो रही है.
मुझे अचानक साहब बीबी और गुलाम फ़िल्म की याद आ गई. मीना कुमारी जी ने इस फ़िल्म में शराब के नशे में गाना भी गाया है. अरे वही; "न जाओ सैयां, छुडा के बईयां..."
आज गाती तो शायद रहमान साहब के सामने बोलती; " मखना ना जा...ना जा......" आगे शायद ये कह देतीं कि... "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."
शिव कुमार जी
ReplyDeleteपिछले दो साल से मैं मुंबई में फिल्मी पल्टरों के बीच अड्डाबाजी कर रहा हूं,अधिकतर प्रोड्यूसरो का दिमाग बिना पेंदे वाले लोटे की तरह है, और रहा सहा कसर आजकल के संगीतकार लोग पूरा कर देते हैं। पहले गीत लिखे जाते थे उसके बाद संगीत का ट्रैक बनता था। अब पहले प्रोड्यूसर अपने शब्द घुसड़ेता है उसके बाद ट्रैक तैयार होता है फिर गीत लिखा जाता है....आबा, साबा, डाबा सब इसी नई व्यवस्था की उपज है। एक बात हो सके तो अपने कवि दोस्त को बोलिये की जो कुछ भी वह लिखे पहले उसका राइटर एसोसिएशन में रजिस्ट्रेशन करा ले...नहीं तो उनके गीत का यहां पर इस्तेमाल भी हो जाएगा और उन्हें पता भी नहीं चलेगा...उनकी मजूरी मारी जाएगी। इस फिल्म नगरी में जो भी करे व्यवस्थित तरीके से करे...यह उच्चकों की नगरी है...उनकी अच्छी चीजों को प्रोड्सूर टिपिया लेंगे, एसा खूब होता है यहां.
हमने तो तौबा ही कर ली है इस नयी व्यवस्था से. कवि हृदय की पीड़ा समझ में आती है. अब सहानुभूति के अतिरिक्त क्या दर्शाया जाए. सुंदर आलेख. आभार.
ReplyDeleteये बम्बई नगरिया ऐसि ही है ! जो चल गया सो चल गया ! और नही चला वो सारी उम्र जूते घसीटता रहे ! वहां टेलेन्ट नही कुछ और ही चलता है !
ReplyDeleteराम राम !
अभी तो फिल्म उद्योग ही पूरा टल्ली है.
ReplyDeleteताजा फिल्म में एक गाना है, जिन्दडी चार दिनों की और अगले ही पल कहता है, हड़बड़ी क्या है धीरे धीरे हो जाएगा!
अर्थ की किसे पड़ी है? तुकबन्दी हो जाय बस.
कमलेश बैरागीजी का प्रयास तो अच्छा है>>>>पर अभी आपके शब्दो का दोर आने मे वक्त लगेगा, ऐसा Shiv Kumar Mishra जी कि बातो से लग रहा है>>>>> मेरी माने तो कुछ इस तरह के शब्दो कि अपने गानो मे मिलावट करे मखना, की जगह मखनी, सोणिया जैसा है वैसा ही रहने दे, चखणा की जगह चखणी, बल्ले-बल्ले भी ठीक है, सावा-सावा की जगह सावी सावी, कुड़ी ठीक है, मुंडा की जगह मुंडी .....बाम, फटाका, पतली कमरीया, फुलझडी, जैसे भी शब्द आजकल मार्केट मे धुम से चल रहे है। कमलेश बैरागीजी फील्ड एक्सप्लोर करने वाले है तो शब्दो का पहरेज क्यो ? नैनीताल जाकर अब आप वैसे गाने नही लिख पायेगे जैसा फिल्मकारो को चाहिये उसके लिये चाय कि चुचकियॉ भी ज्यादा कारगर नही हो सकती। आजकल के गितकार सगितकार कलकता या मुम्बई के पब बार का ही सहारा लेते है, यहॉ ही से ही वो आईटम सान्गस कि सोच पैदा करते है। अब बेचारे गितकारो का क्या कसुर दुकान मे जो माल बिकेगा वो ही तो रखना पडेगा। आदरणिय बैरागीजी, अब फैसला आपको करना है, मेरी माने तो पुरानी फील्ड जमी जमाई है, नऐ घन्धे मे हाथ अजमाना आप जैसे महान कवि के लिये थोडा मुसकिल रास्ता रहेगा।
ReplyDeleteये तो राष्ट्रीय एकता है जी.. मजा आयेगा जब एक गाने में हिन्दी, उर्दु, पंजाबी, गुजराती, तमिल, तेलगु.... सभी.. नये गीतकार अभी से लिस्ट बना ले.. :)
ReplyDeleteफिर भी गनीमत है कि कोई विदेशी धुन नहीं पकडाई और कुछ अंग्रेजी, अफ्रीकन शब्द नहीं दिये कि जा बेटा एक रेप (सारी रैप) पंजाबी तडका लगाकर लिख मार.
ReplyDeleteचिन्तन चलता रहे।
ReplyDeleteसमय समय का फेर है।
वैसे फ़िल्मी गानों ने पंजाबी का जो रूप सब को दिखाया है वह बेहद ही असल रूप से मेल न खाने वाला है।पंजाबी में गीतों व साहित्य की ऐसी समृद्ध परम्परा है कि वे प्रतीक औ बिम्ब आज भी टटके हैं किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य से (ऐसा तुलनात्मक साहित्य के विशेषज्ञ स्वीकारते हैं)।
पंजाबी शब्दों की भरमार बढ़ रही है, कोई बात नहीं, कम से कम "कमीना", "कम्बख्त" का दौर लौट कर न आये बस… वरना आगे चलकर हीरोईन पता नहीं "इश्क" को किस गाली से बुलाये…
ReplyDeleteबैरागी साहब से कहिए की ज़रा मुंबई जाइए तो सही.. पंजाबी भूल जायंगे.. सिर्फ़ मराठी ही लिखना पड़ेगा
ReplyDeleteअरे ५० शब्दों की डिक्सनरी है आज के गानों की उनको बोलिए समीर से खरीद लें :-)
ReplyDelete@ अभिषेक जी
ReplyDeleteसमीर की डिक्सनरी में तीन नए शब्द कब जुड़ गए...सैतालीस थे पिछले संस्करण तक...चलिए हाफ सेंचुरी तो हुई....
वैसे मैंने सुझाव दिया था कमलेश जी को. वे बोले; "सैंतालीस शब्दों की डिक्सनरी में केवल चार शब्द पंजाबी के हैं. इसीलिए तो समीर भी नहीं चल रहे आजकल. अब तो मीका ख़ुद ही गाना बना भी लेते हैं...."ऐ गनपत चल दारू ला टाइप..."
उनसे कहिये भोजपुरी फिल्मो में try करे शायद वहां दांव चल जाये !
ReplyDeleteबहुत शिक्षाप्रद पोस्ट है - कम से कम मेरे लिये! मुझे तो खबर ही न थी कि इतनी प्रगति हो गयी है। बेचारे शिव कुमार बटालवी की आत्मा तो जार जार रोती होगी!
ReplyDeleteहे राम!
अब तो नकबजनी ( नासिका गायक) गाना गाता है और जिसे सबसे कम सुनाई देता है या कहें कि बहरा है वह रिकॉर्डिंग करता है ताकि फुल्ल वॉल्युम गाना बने....अच्छी तरह सुनने वाला अगर गाने रिकॉर्ड करे तो कम्बख्त वहीं टैं बोल जायेगा :)
ReplyDeleteये है बम्बे ये है बम्बे ये है बम्बे मेरी जां... और ये बम्बे जो न कराये सो कम है। वो तो किसी से भी एक अच्छा लेख लिखा लेती है-:)
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है आपने। पढ़ कर लगा जैसे सबकुछ मेरी आंखों के सामने हो रहा हो। यही पोस्ट की असली क़ामयाबी है। मुबारकबाद।
ReplyDeleteकमलेशजी मेरे साथ नैनीताल में सात दिन नहीं दस दिन रहे। तीन दिन किधर गायब कर दिये आपको बताने में जी। बकिया गाना ऊना तो डर लगने पर ही गाया जाता है। और गब्बरजी कहते हैं जो डर गया सो मर गया। इसीलिये मरने के डर से गाने का चलन कुछ कम हो गया है।
ReplyDeleteआपने तो मेरे सपनों पर पानी फेर दिया जबकि अभी सपना देखना शुरू ही किया था। साकार करने की अभी कोशिश भी शुरू नहीं हुई थी। ब्हूहूहू...हूहू :(
ReplyDeleteअनूप जी के कुतर्क में दम है :)
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ReplyDeleteशिवभाई बुराई का कभी न कभी अंत तो होना ही है.. सो होगया !
बलम बैरी बने रहे.. सज़न ज़ुल्मी हो गये थे..
पिया परदेसिया ग्रीनकार्ड होल्डर बन गये
दिलदार चाँद के उस पार चले गये
तो.. मखणा को तो बना रहने दो, भाई
हमारी बहू बेटियों को गुनगुनाने के लिये कोई तो चाहिये
फिर, यह तो चिंघाड़ने तक का अवसर दे रहे हैं !
मैंने बख़्स दिया था, आप भी बख़्स दो
मखना ना जा...ना जा......" आगे शायद ये कह देतीं कि... "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."
ReplyDeleteमिश्र जी पंजाबी भी तंग हो गये है इन गीतो से शव्द भी गलत लगाते है, ओर लोक गीतो का तो सत्यनाश कर दिया, जो गीत विवाह शादीयो मै गाय जाते थे, उन्हे तोड नरॊड कर इन फ़िल्म वालो ने तलाक के गीत बना दिया .
धन्यवाद
वड़ियाजी,ओ काके तुसी ग्रेट हो जी।दर अस्ल कमलेश बैरागी जी को डिक्सन्ररी का पहला पार्ट मिला है दूसरा पार्ट जिसमें अल्ला खुदा रब अल्लाहू और न जानें कौन कौन से शब्द भ्ररे पड़े हैं मिलना बाकी है।महान सूफी हाजी कुली मस्तान से लेकर बरास्ता ‘भाई’अबू सलेम एण्ड कम्पनीं का जब से पैसा लगनें लगा है तब से दीनदार आशिकों के लिए इश्क मज़ाजी में इश्क हक़ीकी का पुट देना जान सलामती के लिए जरूरी हो गया है।रही सही कस़र पों पों पों पूरी कर देनें के लिए है ही।सेल्युलाइड़ की चमकीली दुनिया के पर्दे के पीछे के अन्धेरे कितनें घनें गहरे और काले हैं इसका बखूबी वर्णन मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासात्मक रिपोतार्ज‘कुरु कुरु स्वाहा’में हुआ है।
ReplyDeleteअच्छा है ये ना कहा मीनाजी ने कि, "मैँ झल्ली हो गई "
ReplyDeleteआज की पोस्ट एन्टर्टेनीग है इसिलिये सबसे ज्यादा नँबर मिले हैँ आपको शिव भाई :)
स स्नेह,
- लावण्या
"पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."
ReplyDeleteमीना जी का तो पता नहीं लेकिन हम आप की पोस्ट पढ़ कर टल्ली हो गए...भाई हम पंजाबी हैं और पंजाबी की महिमा पढ़ के हम टल्ली नहीं होंगे तो क्या आप होंगे...????
नीरज
वड्डी सच्ची और खरी बात करदे हो तुसी ।
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