वही रतीराम जी की चाय-पान की दूकान. निंदक जी मिल गए. कड़क चाय बनाने की फरमाईश कर ही रहे थे कि मैं पहुँच गया. मुझे देखते ही चाय बनाने वाले 'कारीगर' को हिदायत देते हुए बोले; " दू ठो बनाओ. मिश्रा जी भी आ गए हैं."
सर्दी बढ़ जाने की वजह से सर्दी की काट के लिए जैकेट से सजे थे. एक दिन पुराना अखबार हाथ में. गले में मफलर लपेटे हुए. चेहरे से लग रहा था जैसे चाय दूकान पर काफी देर से खड़े हैं और थोडी देर पहले ही किसी के साथ किसी मुद्दे पर बहस कर चुके हैं.
मेरी तरफ़ मुखातिब हुए. बोले; "जब से रतीरमवा चाह का दुकान खोला है, इसका त चांदी हो गया है. आ समय भी खुबे चुन के निकाला."
मैं उनकी तरफ़ देखकर मुस्कुराया. मैंने कहा; "क्या मतलब?"
बोले; "वोही, देश में आतंकवादी घटना बढ़ा त चाह का दुकान खोल लिया. शुरू-शुरू में लोग आतंकवादी घटना सब पर बहस करते हुए चाह पीता था. अब इस बात पर बहस करता है सब कि पकिस्तान के साथ युद्ध होना चाहिए या नहीं. एही वास्ते कह रहे हैं कि समय का चुनाव खूब किया है ई."
मैंने कहा; "दिमाग वाले हैं रतीराम जी. वैसे आप क्या सोचते हैं? पकिस्तान के साथ युद्ध होना चाहिए या नहीं?"
मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "पाहिले त हम सोचते थे कि युद्ध होना ही चाहिए. ई पकिस्तान को उसका औकात बताना बहुत ज़रूरी है. हम तो चार दिन पाहिले रैली निकालने का सोच रहे थे. देश का इज्जत का सवाल है. लोग बाहर के देश से आकर ताल ठोंककर हमला कर जाता है लेकिन ई दिल्ली में त निकम्मा बैठा हुआ है सब. ई लोग को देश का इज्जत से का लेना-देना? हम त सोच रहे थे कि रैली निकालकर नेतवा सबका बिरोध करना बहुत ज़रूरी है."
मैंने कहा; "लेकिन रैली निकली नहीं आपने."
मेरी बात सुनकर बोले; " अरे का कहें आपसे. सारा तैयारी हो गया था. भाषण तक याद कर लिए थे. बैनर बन गया था. हरिओम पवार का तीन-चार ठो कविता भी कंठस्थ कर लिए थे. अरे वोही, युद्ध वाली सब बीररस की कविता. बाकी मामला गड़बड़ा गया."
मैंने पूछा; "क्यों? क्या अड़चन आ गई?"
वे बोले; "अरे तब तक त सरकारे का मंत्री सब बोलने लगा कि भारत अपना सब आप्शन खोल के रक्खा है. ई लोग खुदे कहना शुरू कर दिया कि भारत युद्ध भी कर सकता है. फिर सुने कि सीमा पर सेना तैनाती चल रहा है. अब अईसे में रैली निकालें भी त बिरोध किसका होगा?"
मैंने कहा; "हाँ, वो तो है. अब तो लग रहा है कि मुम्बई में जब हमला हुआ, उसके दूसरे दिन ही आपको रैली निकालनी चाहिए थी. उस समय रैली को अच्छा कवरेज़ भी मिलता."
मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर पछतावा-भाव उभर आया. बोले; "आप ठीक कह रहे हैं. मौका त ओही समय बढ़िया था."
मैंने कहा; "तो अब आप सरकार के समर्थन में एक रैली निकाल दीजिये."
मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "समर्थन में रैली निकालने से का मिलेगा? हमें त एस्टेब्लिश्मेंट का विरोध करना है."
मैंने पूछा; "तो अब क्या करेंगे?"
वे बोले; "अब सोच रहे थे कि एक रैली निकालें जिसमें सरकार का युद्ध-नीति का विरोध कर दें. आज देश का अर्थ-व्यवस्था जईसा है, उसमें युद्ध का बात करना कहाँ तक जायज है? सरकार का त कुछ जायेगा नहीं न. पैसा त हमारा और आपका खर्च होगा. एतना पैसा खर्च होगा सब. एतना-एतना लोग मर सकता है. आ फ़िर पकिस्तान भी चूड़ी पहन के थोड़े न बैठा है. आज का डेट में ऊ भी त न्यूक्लीयर पॉवर वाला देश है. परमाणु बमे छोड़ दिया तब? कौन जिम्मेदार होगा इसका?"
मैंने कहा; "ठीक ही कह रहे हैं. वैसे भी मेरा मानना है कि युद्ध करने से नुकशान ही होगा. इससे अच्छा तो ये रहेगा कि आतंरिक सुरक्षा को सुधारने पर ज्यादा ध्यान दिया जाय."
मेरी बात सुनकर मुस्कुराने लगे. उन्हें देखकर लगा जैसे मन में सोच रहे हैं कि; 'एक बार सरकार को युद्ध की बात बंद करने दो. फिर हम इस बात पर रैली निकालेंगे कि जो सरकार पकिस्तान से युद्ध न कर सके, उसे भारतवर्ष पर शासन करने का अधिकार नहीं है.....आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने से कुछ नहीं होगा......'
उनकी मुस्कराहट से लग रहा था जैसे कह रहे हों; 'हमरे बिरोध का वजह से से भारत में लोकतंत्र जिन्दा है...'
भई बात तो सच है, वक्त बेवक्त कुछ चकरघिन्नी प्राणी रैली निकालने में अपनी शान समझते हैं। रही बात लोकतंत्र के जिंदा रहने की, तो वह तो वैसे भी इन चकरघिन्नी प्राणियों के कारण ही प्रकाश मे आ पाता है वरना किसे फुरसत है कि टाईम निकालकर कोई अपना लोकतांत्रिक विरोधाधिकार प्रकट करे।
ReplyDeleteबढ़िया है.. :)
ReplyDeleteरैली और मेरेथोन दौड से कुछ हासिल नहीँ होनेका जब उस तरफ सरहद पार युध्ध की तैयारियाँ जारी हैँ
ReplyDelete- लावण्या
रत्तीराम ने नेता बनने की योग्यता हासिल कर ली है।
ReplyDeleteदिन भर इस उम्मीद में टीवी से चिपके रहते है, अब हमला हो अब हमला हो.. पर पता नहीं इंतजार कब खत्म होगा :(
ReplyDelete"कड़क चाय बनाने की फरमाईश कर ही रहे थे कि मैं पहुँच गया. मुझे देखते ही चाय बनाने वाले 'कारीगर' को हिदायत देते हुए बोले; " दू ठो बनाओ. मिश्रा जी भी आ गए हैं.""
ReplyDeleteआपको देखकर चाय का ऑर्डर कैंसिल करके ठो का ऑर्डर दे दिया . मतलब ? आपको ठो चाय से भी ज्यादा पसंद है . पर ये होता क्या है ? हमने कभी पिया/खाया नहीं .
वही बात हुई ना- सांप छिछुंदर वाली, उगले बने न निगले बने। या फिर उस प्रेमिका की जो गा रही है... उनके बुलावे पे जाऊं तो मुश्किल न जाऊं तो मुश्किल...
ReplyDeletekaaphi chinta kar rahe hain desh ki thalua log.
ReplyDeletebahut badhiya rahi..accha laga padh kar....
ReplyDeleteदिमकवा भक्क से खुल गया ई पोस्ट पढ़ कर। आज ही कबाड़ते हैं युद्धविरोधी बिचार और ठेलते हैं एक हाइपरबोलिक पोस्ट!
ReplyDeleteबाकी यह पोस्ट लिखने की बजाय हमें आइडिया दे दिये होते निन्दक जी का तो हमारी पोस्ट ओरीजिनल होती! :(
गज़ब
ReplyDelete"समर्थन में रैली निकालने से का मिलेगा? हमें त एस्टेब्लिश्मेंट का विरोध करना है."
ReplyDeleteWaah ! Bahut Bahut badhiya.......Lajawaab vyangy...
aanand aa gaya bhai.
मैं विरोध में हूँ ! किसके ??? बूझत रहा !!! मैं विरोध में हूँ ! किसके ??? बूझत रहा !!! काहे बताई यहिए तो लोकतन्तर होए | अवध-प्रवास
ReplyDeleteहमें तो पहले कड़क चाय पीने को मिले तबई सोचेगें कि विरोध करें या समर्थन…॥:) रैली में बुलाना हो तो चाय से काम नहीं चलने का।
ReplyDeleteयह रती राम भाई कब इलेकशन लड रहे है?
ReplyDeleteधन्यवाद
अब संकेतों और प्रतीकों से काम नहीं चलने वाला। साफ-साफ बात होनी चाहिए। ये प्रदर्शनकारी और नारेबाज कोई और धन्धा सोचें, और दूसरे धन्धे में लगे नेता और नौकरशाह गम्भीरता से इस दुष्ट पड़ोसी से निपटने के बारे में सोचें।
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