विषय मिले या ना मिले, खुलकर मौज मनाय
मौज चौगुना हो रहा, विषय अगर मिल जाय
सतत मौज की बात तो, जैसे बरखा मास
आँखें निरखत मौज को देखि देखि आकाश
पूरी फुरसत जो मिले, मौज-पृष्ठ भरि जाय
फुरसत गर आधी मिले, खुला रहे अध्याय
आफिस टाइम कर रहा मौज बीच आघात
आधे में ही मौज को चले छोड़कर भ्रात
मौज-मौज तो सब करें, मौज लेय न कोय
मौज बड़ा ही कठिन है सबसे मौज न होय
मौज मिले तो समझ लें दिन सुन्दर बन जाय
मिले नहीं गर मौज तो भृकुटी फिर तन जाय
गर तनाव हो जाय तो, हो दिमाग जो बंद
मौज-नीति फालो करो, पाओ परमानन्द
उत्तम कछु नहि मौज से, सबका ये आधार
नहीं अगर यह पास तो, ले लो मौज उधार
पाठ पढ़े जो मौज का, ब्रह्मज्ञान वो पाय
जीवन में सबकुछ मिले, पेट-वेट भर जाय
सब तत्वों से बड़ा है दुनियाँ में मौजत्व
इसके आगे फेल हैं जीवन के हर तत्त्व
कानपुरी मौजत्व की बात निराली होय
इसके चक्कर जो पड़े खड़ा-खड़ा वो रोय
सब तत्वों से बड़ा है दुनियाँ में मौजत्व
ReplyDeleteइसके आगे फेल हैं जीवन के हर तत्त्व
कानपुरी मौजत्व की बात निराली होय
इसके चक्कर जो पड़े खड़ा-खड़ा वो रोय
अति सुंदरतम मौज गाथा है. धन्यवाद.
रामराम.
मौजत्व ही नित्य है। शेष सब तो एक लाइना हैं! जो रोज बदलती हैं!
ReplyDeleteमौज के मोजे पहनकर दौड लगा रहे हैं तो मौज में ही होंगे- चलिए मौज कीजिए:)
ReplyDeleteकनपुरिया मौज के चक्कर मे आप तो कवि टाइप हो गए
ReplyDeleteफ्यूचर की कुछ सोच के खूब करो तुम मौज।
ReplyDeleteमौज मौज में बढ रही इन्सानों की फौज।।
कनपुरिया मौज के आप असली चेले हैं। कनपुरिया मौज के अथाह समुंदर में डुबकी लगा के कई तर लिए
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट
मौज मनाया आपने, कहकर दोहे मस्त।
ReplyDeleteकनपुरिया मौजें हुईं, फुरसतिया की पस्त॥
मौज-कथा हो ली विकट, टूट गया पेटेण्ट।
शिवकुमार ने उड़ा दिया,फुरसतिया का टेण्ट॥
घणी बधाई दे रहे रमपुरिया जी संत।
मौज लिया सिद्धार्थ ने मौजूं देख वसन्त॥ :)
रोते रोते लिख रहे हैं:
ReplyDeleteआग लगी पर गाँव में, वो हवा रहे दिखलाये
बुझ जाये जो आग यह, मौज नहीं आ पाये.
-कहो जय हो उनकी-शामत आई हो जिनकी!!!!
वाह जी वाह.....बड़ी मौजा ही मौजा पोस्ट है!
ReplyDeleteबहुत बढिया लिखा है आपने। बधाई।
ReplyDeleteमौजत्व पर धाये है यह तो।
ReplyDeleteकानपुरी मौजत्व की बात सचमुच निराली है...आप तो पूरी मौज में आ ही गए हैं, आपको पढकर दूसरों की भी मौज ही मौज है।
ReplyDeleteबहुत बढिया ... मजे ले लेकर लिखा है।
ReplyDeleteमौजा ही मौजा! इलाहाबादी सिद्धार्थ मौज-मौज में हमारा तम्बूइच उड़ा दिये। क्या इस कार्यवाही में ज्ञानजी की भी मिलीभगत बोले तो मौन सहमति हो सकती है? :)
ReplyDeleteवाह भई क्या बात कही। अगर जीवन में मौजरस स्थाई भाव में आ जाता तो, मजा ही आ जाता।
ReplyDeleteमौज ही मौज है. कानपुरिया संगत छोड़ें :)
ReplyDeleteह्म्म मामला गंभीर है !!!
ReplyDeleteखूब मौज है भाई
ReplyDeleteबहुत मौज लेके लिखे हैं पंडी जी.
ReplyDelete"कानपुरी मौजत्व"इधर भी सरका दीजिये मिश्रा जी
ReplyDeleteअनूप जी से सहमत :-)
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteसच मे, मौज का अलग ही अंदाज प्रस्तुत किया आपने ,बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर..
ReplyDeleteबहुत सुंदर हूण तो मौजां ही मौजां ने अच्छा लगा पढकर
ReplyDeleteभाई सिद्धार्थ की पुनरावृत्ति.
ReplyDeleteफुरसतिया भाई रिसियाना चाहें तो जी भर के रिसियाए
अपने राम चले अब तो कत्तो मौज मनाए.
कबीरा सारारारारारा........
क्या बात है भाई मौजां ही मौजा ।
ReplyDeleteपरमानन्द से ब्रह्मज्ञान तक मौज पर खूब धोये !
ReplyDeleteमौज-मौज तो सब करें, मौज लेय न कोय
ReplyDeleteमौज बड़ा ही कठिन है सबसे मौज न होय
वाह वा..शिव बंधू...आप नहीं जानते आप क्या लिख दिए हैं...ये कालजयी दोहा है जिसे आपने क्या खूबसूरती से धोया है...जय हो...बहुत सच्ची बात कह गए हैं आप मौज मौज में...
विगत दो दिनों से मिष्टी के खोपोली आगमन से ब्लॉग जगत हाशिये पर चला गया था...आज आफिस जा कर याद आया की ब्लॉग जगत भी कुछ है...सो आते ही आपकी पोस्ट पढ़ी और दिल धुल कर साफ़ हो गया...
नीरज
बाकी बातों (किसीसे मौज लेना)को छोड़ कर यदि रचना के शब्द भाव और शिल्प की बात की जाय तो,निसंदेह इसे सफल जीवन सूत्र का विवेचक अद्वितीय उत्कृष्ट सरस कविता है......मौज छोड़ यदि थोडा समय लगा गंभीरता से कविता लिखने पर ध्यान दोगे तो, तुम जो लिख सकते हो किंचित तुम्हे स्वयं ही उसका रंचमात्र भी भान नहीं है.
ReplyDeleteजीवन के विषम परिस्थितियों में फंसे रहकर भी मौज लेना/खुश रहना सबके बस में नहीं होता...खुद हंस पाना ही जब कठिन हो तो औरों के होंठों पर हंसी बिखेरना बहुत बड़ी बात है....
ऐसे ही रहो हमेशा....खुश रहो....तुम्हारी कविता ने हर्ष के साथ साथ परम सुख दिया....
ekdum majedaar!!
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