परीक्षा के दिन है. परीक्षाएं हो रही हैं. नेताओं की परीक्षा का मौसम तो है ही, साथ-साथ विद्यार्थियों की परीक्षाएं भी हो रही हैं. परीक्षाएं होनी भी चाहिए. परीक्षा न हो तो विद्यार्थी पास कैसे होगा? कभी-कभी लगता है जैसे परीक्षा लेने का आईडिया ज़रूर विद्यार्थियों ने ही दिया होगा. आखिर विद्यार्थी को पास जो होना है. और पास होने के लिए परीक्षा से बढ़िया कोई चीज नहीं. ज्ञान हो या न हो, परीक्षा ज़रूर होनी चाहिए नहीं तो विद्यार्थी पास नहीं हो सकेगा.
शायद कभी किसी जमाने में विद्यार्थियों के प्रतिनिधिमंडल ने ही परीक्षा लेने पर जोर लगाया होगा.
टीवी पर खबर देख रहा था. नेशनल ओपन स्कूल के एक परीक्षा रूम का सीन दिखाया जा रहा था. संवाददाता यह दिखाने की कोशिश कर रहा था कि परीक्षार्थियों की जगह कोई दूसरे लोग परीक्षार्थी बने बैठे हैं. केवल बैठे ही नहीं हैं, उत्तर पुस्तिकाएं लिख डाल रहे हैं.
संदीप का एडमिट कार्ड हाथ में दबोचे परमीत पेपर लिख रहे हैं. संदीप बाबू शायद आज बिजी होंगे. हो सकता है किसी मल्टीप्लेक्स में बैठे कोई मूवी देख रहे होंगे. इसीलिए नहीं आ पाए होंगे. नहीं आ पाए तो परमीत को भेज दिया. हिदायत देते हुए कि; "आज मेरी परीक्षा है. मैं तो आज बिजी रहूँगा, तुम मेरी जगह परीक्षा देकर आ जाओ."
परमीत से संवाददाता ने पूछा; "एडमिट कार्ड आपका है?"
लीजिये. भाई देख रहा है कि एडमिट कार्ड में जो फोटी चिपकी है, उस फोटो का चेहरा किसी भी एंगल से उत्तर पुस्तिका रंगने वाले लड़के से मेल नहीं खा रहा. लेकिन वो तो संवाददाता है. उसे तो अपने संवाददाता धर्म का पालन करना है.
उसे तो अदालत की तरह से पेश आना है.
संवाददाता जी का सवाल सुनकर शोले फिल्म का डायलाग; "तुम्हारा नाम क्या है बसन्ती याद आ गया."
परमीत जी भी शायद टीवी कैमरे के सामने आने से खुश हैं. बड़े आराम से बता रहे हैं; "नहीं ये एडमिट कार्ड मेरा नहीं है."
उसकी बात सुनकर मेरे मन में आया कि बड़ा ईमानदार लड़का है. आखिर वो तो यह भी कह सकता था कि; "ये तो जी मेरा ही एडमिट कार्ड है."
साथ ही यह कहकर अड़ जाता कि "साबित कीजिये कि मेरा एडमिट कार्ड नहीं है."
ठीक कसाब जी की तरह जो अब इस बात पर अड़े हैं कि; "साबित कीजिये कि मैंने ही मुंबई में हमला किया था."
लेकिन नहीं जी. हमारे देश के बच्चे ऐसे नहीं हैं. वे ईमानदार हैं. वे ईमानदारी से सबकुछ कुबूल कर लेते हैं.
खैर, संवाददाता जी ने और भी लोगों को दिखाया जो किसी और को पास करवा कर ज्ञानी बनाने का महान कर्म अपने कंधों पर लिए बैठे थे.
एक और लड़के को दिखाया गया. वो भी किसी दूसरे का एडमिट कार्ड लिए उत्तर पुस्तिका पेंटिंग में लीन था. उसे देखकर मन में आया कि दोस्त को पास कराने आया होगा. साथ ही इस बात पर भी मन प्रसन्न हो गया कि आज के जमाने में भी एक दोस्त दूसरे दोस्त के काम आता है. कौन कहता है कि दुनियाँ भले लोगों से महरूम होती जा रही है.
मुझे लगा कि परमार्थ के कार्य में लीन यह लड़का सामने होता तो इसे प्रणाम कर लेते.
लेकिन दूसरे ही क्षण इस लड़के की दोस्ती को मज़बूत करने वाली छवि दो टुकड़े हो गई. संवाददाता जब उससे पूछा कि; "आप अपने दोस्त के लिए पेपर लिखने आये हैं?" तो उसने जवाब में बताया कि; "नहीं. जिसका एडमिट कार्ड है वो मेरा दोस्त नहीं है. मैं तो इसलिए आया था कि मुझे पेपर लिखने के १७५ रूपये मिलेंगे."
लीजिये. रूपये की बात करके इस लड़के ने मेरा विश्वास ही तोड़ दिया. कहाँ मैं सपना देखने लगा था कि दुनियाँ अभी भी बहुत अच्छी है और कहाँ यह नालायक पैसा लेकर पेपर लिख रहा है? लानत है.
एक परीक्षार्थी तो दस कदम आगे थे. वो जिसका एडमिट कार्ड लिए बैठा था, वो किसी लड़की का था.
समझ में नहीं आता कि एडमिट कार्ड किस लिए है? एडमिट कार्ड पर फोटो क्यों चिपकाई जाती है? क्या एडमिट कार्ड यह देखने के लिए नहीं बनते कि परीक्षा रूम में परीक्षार्थी के अलावा और कोई न आ सके?
या फिर एडमिट कार्ड इसलिए बनाया जाता है ताकि साबित किया जा सके कि परीक्षार्थी के रूप में जो लड़का बैठा है वह असल में परीक्षार्थी नहीं है. एक बार यह साबित हो जाए तो टीवी न्यूज़ बनाई जा सके.
हद तो तब हो गई जब एक बुआ जी अपनी भतीजी के एडमिट कार्ड के साथ बरामद हुई. बुआ जी दिल्ली से पधारी थी बुलंदशहर ताकि भतीजी को पढ़ा-लिखा साबित कर सकें.
शायद उन्होंने जिस लड़के से भतीजी के शादी की बात चलाई होगी वो लड़का केवल बारहवीं पास लड़की से शादी करने पर अड़ा होगा. बुआ जी बुआ-धर्म का पालन कर रही थीं और टीवी वाले इतने पापी कि वे बुआ जी के धरम-पालन कार्य में विघ्न डाल रहे हैं.
ठीक वैसे ही जैसे राक्षस लोग ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालते थे.
एक तरफ तो शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए नेशनल ओपन स्कूल है दूसरी तरफ ये टीवी वाले हैं जो शिक्षा के प्रसार में टांग अडा रहे हैं. यह तो ठीक बात नहीं लगी मुझे. अरे भाई, शिक्षित होने का अधिकार सबको है. बिना सर्टीफिकेट के किसी को शिक्षित नहीं माना जाता. ऐसे में विद्यार्थियों को परीक्षा पास करके सर्टिफिकेट तो लेने दीजिये. बिना सर्टिफिकेट के वे अशिक्षित कहलायेंगे.
नेशनल ओपन स्कूल इस कार्य में इतना महत्वपूर्ण कदम उठा रहा है और आप हैं कि उसे ऐसा करने से रोक रहे हैं. आप तो उन्हें सहयोग करें जिससे देश में शिक्षा का प्रसार हो सके.
ओपन स्कूल मे नकल भी तो ओपन मे ही होगी
ReplyDeleteअड़ंगों को मैं भी पसन्द नहीं करता :)
ReplyDeleteऐसे न्यूज़ चैनल वालो पर शिक्षित वकीलों द्वारा मुकदमा चलाना चाहिए
ReplyDeleteइस प्रोग्राम को सौ ग्राम चढाये मेरे पडोसी लल्लन राड्रीग्ज ने भी देखा । उनका विचार था कि ये न्यूज चैनल वाले आम लोगों के बीच आपसी भाईचारे, और प्रेम को पनपना नहीं देना चाहते इसलिये ऐसा कर रहे हैं। भला आज के जमाने में कौन किसी के लिये इतना करता है।
ReplyDeleteलल्लन रॉड्रिग्ज भाई साहब का बस चले तो ऐसे उदाहरणों को पाठ्य पुस्तकों में 'अनुकरणीय बातें' शीर्षक से छपवा दें :)
सटीक व्यंग्य।
बिना परीक्षा ही दिये हो जाते हैं पास।
ReplyDeleteआम बात कहते इसे लिखा आपने खास।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
पुराना रिवाज है। 40 साल पहले की एक परीक्षा का मुझे ध्यान है जब रात को पेपर आ जाता था, रात भर बैठ कर कागजों पर उन के उत्तर लिखे जाते थे और सुबह परीक्षा भवन में उन की कॉपी उतार दी जाती थी।
ReplyDeleteमिश्राजी हम तो इस बात के ब्डे हिमायती हैं. काहे कॊ अडंगेबाजी करना?:)
ReplyDeleteरामराम.
जय हो……:)
ReplyDeleteबिलकुल सही बात आपने कही है. हम आपसे सौ फीसदी सहमत हैं. इससे सिर्फ़ शिक्षा और देश की तरक्की ही नहीं होगी, रोज़गार के कुछ नए साधन सामने आएंगे और आपसी भाईचारा भी बढ़ेगा.
ReplyDeleteइसमें कहां व्यंग है? यह सीधी सपाट बात है - ओपन का मतलब ही "खुला खेल फर्रुक्खाबादी" होता है। कम से कम हमने तो यही जाना है।
ReplyDeleteसंवाददातागण व्यर्थ तिल का ताड़ बनाते रहते हैं। :)
इसे पढ़ो कहानी सीखो ज्ञान नामक बच्चों की पुस्तक में छपवाना अनिवार्य है।
ReplyDeleteशिक्षा के प्रसार में बाधा डालने वालों पर कार्यवाही होनी चाहिए. जल्दी ही उत्तर प्रदेश का कोई नेता घोषणा करेगा: मेरी सरकार के आते ही इन सबको बंद करवा दिया जायेगा, मस्त पोस्ट !
ReplyDeleteha ha ha .....waah !!
ReplyDeleteये शिक्षित सर्टिफिकेटधारी हुये कि सर्टिफिकेटधारी शिक्षित ...???
ReplyDelete"कभी लगता है जैसे परीक्षा लेने का आईडिया ज़रूर विद्यार्थियों ने ही दिया होगा. आखिर विद्यार्थी को पास जो होना है. "
ReplyDeleteपरीक्षा का आइडिया इसलिए दिया था कि एक ही क्लास में मौज करते रहें। परंतु हमारे लीडर भी बडे खिलाडी निकले -NO DENTENTION SCHEME निकाल कर सारा खेल बिगाड़ दिया:)