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रमेश बाबू राम अवतार जी को झेलने के लिए कमर कस चुके थे. और कर भी क्या सकते थे? राम अवतार जी को झेलने का उनका अनुभव हमेशा उनके काम आता है. वैसे भी राम अवतार जी जैसे ट्रेडर के साथ 'ट्रेडरई' कैसे की जाती है, उन्हें बखूबी पता है.
इंस्टीच्यूट ने अपने सिलेबस में नहीं रक्खा तो क्या हुआ, ऐसे क्लाइंट के साथ बात करके सब सीख जाते हैं.
खैर, राम अवतार जी के सवाल कि; "बच्चे कैसे हैं?" के जवाब मेंने
चोखानी जी ने कहा; बच्चे तो ठीक-ठाक हैं. पिछले पंद्रह दिनों से छोटे वाले के एडमिशन के लिए बहुत बिजी था."
उनका जवाब सुनकर मानो राम अवतार जी की बांछे खिल गईं. उन्होंने प्लान बनाकर रखा था कि अगला सवाल वे श्याम बाबा के कीर्तन समारोह में उनकी अनुपस्थिति के बारे में पूछेंगे लेकिन जैसे ही चोखानी जी ने बच्चे के एडमिशन की बात की, उन्होंने सवाल को ड्राप करना ही उचित समझा.
इससे पहले कि बात कहीं और खिसके वे तुंरत बोल पड़े; "अरे मत पूछिए. मैं भी उसी चक्कर में फंसा था. क्या ज़माना आ गया है. एक हम लोग थे जो बीस रूपये फीस देकर बी कॉम तक पढ़ लिए और एक आज का हाल है कि दूसरी क्लास में एडमिशन के लिए पचीस हज़ार तो डोनेशन देना पड़ता है."
चोखानी जी ने भी शायद अपने बेटे की एडमिशन कथा अभी तक किसी के साथ शेयर नहीं की थी. लिहाजा दोनों ने एक साथ करीब पांच मिनट तक एडमिशन को लेकर अपने अनुभव शेयर किये. दोनों के मन में रखी भड़ास धीरे-धीरे करके मुंह के रास्ते बाहर हो रही थी.
जैसे ही राम अवतार जी को लगा कि कहीं बात खिसक कर जमाने के खराब होने पर पहुंचे वैसे ही उनका व्यापारी दिमाग बोल पड़ा; "अब असली मुद्दे पर आ जाओ."
दिमाग का सुझाव मानते हुए वे चोखानी जी से बोले; "लेकिन एक तरह से देखें तो सरकार भी कितना करेगी शिक्षा के लिए? वैसे भी सरकार मदद ही तो कर रही है. मैं कह रहा हूँ, जिसके पास पैसा है, उसके स्कूल के धंधे में जाने का रास्ता तो दिखा ही दिया है सरकार ने."
राम अवतार जी की बात सुनकर रमेश बाबू मन ही मन सोचने लगे कि असली व्यापारी इसे कहते हैं. आखिर जो आदमी विषम परिस्थियों में भी व्यापार का आईडिया निकाल ले, उससे बड़ा व्यापारी और कौन है? न जाने कितने उद्योगपति और व्यापारी इस बात का इंतजार करते हैं कि कोई सूखा आये...कोई बाढ़ आये...और कुछ नहीं तो कहीं युद्ध वगैरह ही शुरू हो जाए.
ऐसी विषम परिस्थितियां मौजूदा व्यापारियों को सुदृढ़ तो करती ही हैं, नए लोगों को भी व्यापार वगैरह करने का मौका देती हैं.
खैर, रमेश बाबू कुछ सोचते हुए बोले; "एक दम सही बात कह रहे हैं. मैं तो कहता हूँ कि इस बारे में आपको खुद भी सोचना चाहिए. कोई बहुत बड़ी बात नहीं है स्कूल खोलना. अरे मैं कहता हूँ, पैसा है तो आदमी कुछ भी कर सकता है."
राम अवतार जी को रमेश बाबू की बात खूब जमी. लेकिन कहीं रमेश बाबू को उनके प्लान और उनकी उत्सुकता के बारे में पता न चल जाए इसलिए वे बोले; "अरे क्या बात कह रहे हैं आप? मैं और स्कूल के धंधे में! नहीं-नहीं ये काम हमसे नहीं होगा. भाई अपना जमा-जमाया काम ही काफी है."
रमेश बाबू बोले; "अरे क्यों नहीं होगा? आप क्या समझते हैं, जिन लोगों के स्कूल हैं वे क्या पहले से स्कूल चलाते थे? आखिर बिड़ला जी भी तो पहले एम्बेसडर ही बनाते थे. सीमेंट ही तो बनाते थे. जब वे कर सकते हैं तो आप क्यों नहीं कर सकते? वैसे भी आपको क्या करना है? आप तो बस हाँ कीजिये. बाकी का काम तो मुझपे छोडिये."
राम अवतार जी को लगा कि अब ज्यादा फूटेज खाने की जरूरत नहीं रही. फिर भी आखिरी मनौव्वल का रास्ता साफ़ करते हुए उन्होंने पूछ लिया; "आपको लगता है मैं इस धंधे में जा सकता हूँ?"
रमेश बाबू को लगा कि इन्हें कांफिडेंस देने की ज़रुरत है. वे बोले; "अरे मैंने कहा न कि बाकी का काम आप मेरे ऊपर छोडिये. आप तो बस हाँ कीजिये उसके बाद देखिये. आपका हर काम तड-तड होगा."
दोनों एक दूसरे को उकसा रहे थे.
राम अवतार जी अब तक आश्वस्त हो चुके थे कि उनका निशाना ठीक जगह लगा. फिर भी रमेश बाबू को थोड़ा और उकसाने के लिए उन्होंने फिर कहा; "बड़ा झमेला है रमेश जी. स्कूल की मान्यता वगैरह दिलाना. हेड मास्टर खोजना. मास्टर खोजना.....सबसे बड़ा झमेला है सरकारी मान्यता दिलाना."
उनकी बात सुनकर रमेश जी को लगा कि कहीं सरकारी मान्यता मिलने या फिर सी बी एस ई से एफिलियेशन न मिलने के डर से कहीं ये अपना प्लान त्याग न दें. वे तुंरत बोल पड़े; "अरे राम अवतार जी, मैंने कहा न कि आपको चिंता करने की ज़रुरत नहीं है. ये सारा काम मेरे ऊपर छोडिये."
राम अवतार जी को लगा कि रमेश बाबू के मन को एक बार फिर से टटोलने की ज़रुरत है. उन्होंने पूछा; "तो क्या कोई आदमी है आपके पास जो दिल्ली में सी बी एस ई वाला काम वगैरह करा दे?"
"अरे मैंने कहा न कि आप मुझपे छोडिये. वो अपना पंकज है न, अरे वही पंकज सिंह, आपका दिल्ली से रिलेटेड हर काम करवा कर देगा. उसके रहते आप को किस बात की चिंता?"; रमेश बाबू ने राम अवतार जी को फिर से आश्वस्त किया.
अब अगर आपके मन में यह सवाल उठा रहा है कि पंकज सिंह कौन हैं, तो फिर पढिये कि वे कौन हैं.
पंकज सिंह जी को बोल-चाल की भाषा में 'बहुत पहुँची हुई चीज' कहा जाता है. ग्रेजुयेशन तक की पढ़ाई की है सिंह जी ने. ग्रेजुयेशन के दौरान तो क्या उससे न जाने कितने पहले से दुनियाँदारी की सारी बातें वे सीख चुके थे. ग्रेजुयेशन की पढ़ाई तो इसलिए की क्योंकि माँ-बाप चाहते थे कि ग्रैजुएट हो जाएँ तो शादी-व्याह में कोई असुविधा नहीं होगी.
जब राजनीतिशास्त्र से बीए की पढ़ाई कर रहे थे तभी इन्होने सबसे बड़े सामाजिक सत्य का पता लगा लिया था. और वो ये था कि पढ़ाई-लिखाई का काम बेवकूफ करते हैं. पढ़-लिख कर पैसा ही तो कमाना है. ऐसे में अगर कोई अपनी प्रतिभा के दम पर बिना पढ़े-लिखे ही पैसा कमाने की काबिलियत रखता हो तो क्या ज़रुरत है पढाई-लिखाई की?
कालेज के दिनों से ही छात्र राजनीति के आधार स्तंभ बन चुके थे. छात्रों की भलाई का काम इन्होने अपने मज़बूत कन्धों पर ले लिया था. जैसे-जैसे भलाई करते गए इनके कंधे मज़बूत होते गए. कालेज में एडमिशन लोलुप छात्रों का पैसे लेकर एडमिशन करवाने का धंधा इन्होने छात्र जीवन में ही शुरू कर दिया था. कद धीर-धीर बढ़ने लगा तो मार-पीट जैसा पूण्य कार्य भी करने लगे.
आज के एक 'राजनेता' से पंकज सिंह जी बहुत बहुत प्रभावित रहते थे. हमेशा कहते थे कि उनको देखो. पहले क्या थे? छात्र नेता ही तो थे. कलकत्ते के ही थे. अरे यहीं सेंट्रल एवन्यू में जाम वगैरह करवाने का काम करते थे. और आज देखो. हिन्दुस्तान की सरकार बनेगी कि बिगडेगी, इस बात का निर्धारण वही करते हैं.
इन राजनेता से प्रभावित पंकज सिंह जी उन्ही के पदचिन्हों पर चल रहे हैं. महीने में पचीस दिन कलकत्ते से दिल्ली आते-जाते रहते हैं. एक पाँव कलकत्ते में तो दूसरा राजधानी एक्सप्रेस में रहता है. किसी भी मंत्रालय में कोई भी काम करवाने का दावा करते हैं. कंपनी अफेयर मिनिस्ट्री हो या फिर फायनांस मिनिस्ट्री, स्टील मिनिस्ट्री हो या फिर ह्युमन रिसोर्स मिनिस्ट्री, हर मिनिस्ट्री में कोई भी काम करवा सकते हैं.
जब कलकत्ते में रहते हैं तब हनुमान जी के मंदिर में शाम को जाना नहीं भूलते. वहां जाते हैं, इस बात का पता इनके माथे पर सिन्दूर वाले चन्दन को देखने से लग जाता है. लगता है जैसे भगवान जी को धंधे में पार्टनर बना रक्खा है इन्होने.
जारी रहेगा...
जम रहा है.. वणिक बु्द्धी को करीने से उकेरा है...
ReplyDeleteहूं. रामअवतार जी का चरित्तर तो अनुकरणीय हइये है, पंकज जी का भी कुच्छो कम अनुकरणीय नहीं है. ऐसे लोगों का चरित्तर छप के आप देस की अगली पीढ़ी का बड़ा भारी उद्धार कर रहे हैं. आपको लढ़िया भर धन्यवाद इसके लिए.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिख रहे हो.
ReplyDeleteरमेश बाबू, चोखानी जी, के बाद यह सिंह जी तो पुरे माईंड ब्लोविंग हैं, लगता हैं हम लोगों ने इन्हे राम मंदिंर , सन्मार्ग में भी आते जाते देखा हैं.
होत न आज्ञा बिनु पैसा रे।
ReplyDeleteपवन पुत्र की जय हो!
बहुत गजब कर रहे हैं..अभी तो लगता है कि शुरुआत ही है.
ReplyDeleteरामराम.
वाह !! वाह !! वाह !! एकदम जमा दिया......इसे जारी रखो...बहुत आनंद आ रहा है.....
ReplyDeleteमजी हुई लाजवाब कथा शैली है.वाह !!
पंकज जी तो मामा शकुनि को पछाड़ देंगे - सामर्थ्य और पॉपुलारिटी में!
ReplyDeleteवाह...येही शब्द है जो बार बार होटों पर आ रहा है ...वाह...वाह...जैसे आप टाटा इंडिकोम का विज्ञापन देखें ही होंगे जिसमें हर कोई बात बात में हेलो बोलता नज़र आता है....वैसे ही हम बात करते हुए वाह....वाह...किये जा रहे हैं...अब किसे समझाएं की हम आपकी पोस्ट पढ़ कर आये हैं...
ReplyDeleteनीरज
अरे ज्ञानजी क्या बात कर रहें है, आजकल पंकजजी पूरी पार्टी को ही पछाड़ने में लगे है.
ReplyDeleteकभी कभी लगता है बंगाल न होता तो राष्ट्रीय राजनीति का क्या होता? एक से एक 'जामी' नेता दिये है.
भाई सकूल खूले तो एक ठो एडमिसन करवाना है. घर का है, डोनेसन नहीं देंगे.. :) :) कोई दूसरा काम करवा लियो...
एक पंकज सिंह को तो मैं भी जानता हूँ... इंजीनियरिंग पढने गए थे. दो साल पढने के बाद अब उसी कॉलेज में एडमिशन कराते हैं. डोनेशन में डिस्काउंट भी दिलाते हैं :)
ReplyDeleteइष्टदेव के जूता शास्त्र की तरह ही कम से कम दो दर्जन एपिसोड पढ़ने की आशा रखता हूं, मजेदार है.
ReplyDeleteएक ऐसे ही पंकज बाबू अपने पड़ोस में भी हैं...
ReplyDeleteकथा जमती जा रही है सर
आस पास के जीवन मेँ ऐसे ही कई लोगोँ से मुलाकात हो जाती है परँतु आपकी तरह लिखने पर यादगार बन जाती है शिव भाई !
ReplyDelete- लावण्या
आज ही तीनों भाग पढ़े....सोच रही हूँ पहले क्यों नहीं पढ़े थे! जारी रखिये इसे. अब मिस नहीं करुँगी!
ReplyDeleteस्कूल खुलने का इंतजार है । अपने नाती पोतों को फिट कराना है । शिवभाई की जान पहचान कब काम आयेगी ?
ReplyDeleteआज आकर पढ़ा..ज्ञानचक्षु चिलमिला गये.
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