पंकज सिंह जी के बारे में याद आते ही राम अवतार जी आश्वस्त हो गए. उन्हें याद आया कि न जाने कितनी बार वे पंकज सिंह जी को रमेश जी के आफिस में देख चुके हैं. जितनी बार उन्होंने पंकज सिंह जी को वहां देखा, हर बार रमेश बाबू ने राम अवतार जी के सामने सिंह जी की तारीफों के पुल ही बांधे थे. उनकी काबिलियत की चर्चा करते हुए रमेश बाबू ने हर बार यही बताया था कि कैसे दिल्ली के मंत्रालय वगैरह में काम करवाना पंकज सिंह जी के बायें हाथ का खेल है.
पंकज सिंह जी की काबिलियत को साबित करने के लिए रमेश बाबू ने न जाने कितनी कहानियां सुनाई होंगी. तरह-तरह की कहानियां. तरह-तरह की उनकी परेशानियां. हर परेशानी का पंकज सिंह जी के द्बारा तरह-तरह से इलाज किया जाना.
कभी कंपनी अफेयर मिनिस्ट्री में कोई काम फंस गया था तो कभी फायनांस मिनिस्ट्री में. कभी सामाजिक न्याय मंत्रालय में तो कभी पंचायत मंत्रालय में. लेकिन हर बार पंकज सिंह जी ने रमेश बाबू को संकट से उबार दिया था.
संकट से हनुमान छोडावें, मन-क्रम बचन ध्यान जो लावें....टाइप हिसाब था दोनों के बीच.
बात आगे बढ़ी तो राम अवतार जी को लगने लगा कि सारी बातें फ़ोन पर नहीं की जा सकतीं. आखिर मामला भी तो कोई छोटा-मोटा नहीं था. धंधे के डाईवर्शीफ़िकेशन की बात थी. सालों से चले आ रहे उनके विश्वास कि तेल के धंधे से बढ़िया और कोई धंधा नहीं है को इस स्कूल के धंधे ने हिला डाला था. और जो बात राम अवतार जी के विश्वास को हिला दे वो किसी भी तरह से छोटी नहीं हो सकती थी. लिहाजा उन्होंने सोचा कि रमेश बाबू के आफिस जाकर ही बाकी की बातें हो सकती हैं.
यही सोचते हुए उन्होंने रमेश बाबू से पूछा; "अच्छा एक बात बताईये. आज शाम को क्या कर रहे हैं?"
राम अवतार जी द्बारा अचानक पूछे गए इस सवाल से रमेश बाबू को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. न जाने कितनी बार वे राम अवतार जी द्बारा अचानक पूछे गए ऐसे सवालों को झेल चुके थे. उन्हें पता था कि जब भी राम अवतार जी का कोई काम होता है तो वे फ़ोन पर बात करते हुए अचानक ऐसे ही सवाल दाग देते थे. ऐसे सवालों का मतलब यह होता था कि राम अवतार जी किसी भी हालत में आज शाम को मिलकर रहेंगे. रमेश बाबू का पहले से बनाया हुआ कोई प्रोग्राम रहे या न रहे.
खैर, राम अवतार जी के सवाल के जवाब में रमेश बाबू ने कहा; "मैं शाम को खाली ही हूँ. आप आ जाइये. बाकी बातें यहीं आफिस में करेंगे."
रमेश बाबू ने ये कह तो दिया लेकिन इतना कहने के बाद उन्हें बड़ा पछतावा हुआ. उन्होंने खुद को मन ही मन धिक्कारा. उन्हें लगा कि एक बार में ही मान जाना और राम अवतार जी को आफिस बुलाना ठीक नहीं हुआ. ऐसा करने से इम्पार्टेंस घट जाता है.
उन्हें लगा कि वे कम से कम राम अवतार जी के ऊपर एहसान जताते हुए यह तो कह ही सकते थे कि; "प्लान तो ये था कि आज घर ज़रा जल्दी चला जाऊं. हमारे साले साहब आ रहे हैं शाम को. लेकिन कोई बात नहीं. आपका का काम सबसे से पहले. बाकी काम बाद में होता रहेगा."
लेकिन अब तो बात निकल गई थी. अचानक उनकी नज़र अपने चेंबर की दीवार पर चिपके उस स्टिकर पर गई जिसपर कई चीजों की लिस्ट बनी थी. वे चीजें जो वापस नहीं आतीं. लिस्ट लम्बी थी. हरिद्वार बेस्ड किसी धार्मिक मठ ने यह स्टिकर बनवाया था.
आखिर देश में सामजिक चेतना को जगाने की जिम्मेदारी मठों के ऊपर है.
इस लम्बी लिस्ट में तमाम चीजों का जिक्र था जो वापस नहीं आतीं. इन चीजों की लिस्ट में लिखा था;
तीर कमान से
बात जुबान से
स्टिकर देखकर वे खिसिया गए. उन्हें लगा कि सालों से स्टिकर उनके चेंबर की दीवार पर चिपका है लेकिन इसके बावजूद उनसे गलती हो गई और बात जुबान से निकल गई.
उनके चेहरे पर "धिक्कार है" टाइप भाव उभर आये.
खैर, अब कुछ किया नहीं जा सकता था. अब उनके हाथ में कुछ नहीं था. वैसे भी, उन्हें इस बात से कोई ऐतराज नहीं था कि शाम को राम अवतार जी उनके आफिस में आयेंगे और उन्हें झेलना पड़ेगा. उन्हें ऐतराज इस बात से था कि एहसान जताने के एक मौका उनके हाथ से जाता रहा.
गुस्से में उन्होंने चपरासी को झाड़ दिया. चपरासी की गलती केवल इतनी थी कि वो गिलास में रखे पानी को ढांकना भूल गया था.
उधर राम अवतार जी ने फैसला कर ही लिया था कि बाकी की बातें रमेश बाबू के आफिस जाकर करनी हैं. वे शाम को दूकान से जल्दी निकलने की तैयारी करने लगे. अपने मैनेजर याने मौसी के बेटे को बुलाया.
आप मन ही मन ज़रूर खिसिया रहे होंगे कि;"क्या मैं हर बार "मौसी का बेटा-मौसी का बेटा" लिखता रहता हूँ. अरे, इस मैनेजर याने मौसी के बेटे का कोई नाम भी तो होगा?"
आपका खिसियाना जायज है. मौसी के इस बेटे का ज़रूर एक नाम है.
जैसे पूरी दुनियाँ के माँ-बाप शेक्सपीयर बाबू से प्रभावित नहीं हुए और उनकी ये बात नहीं मानी कि; "नाम में क्या रक्खा है?" वैसे ही मौसी के इस बेटे के माँ-बाप भी शेक्सपीयर बाबू से बिलकुल प्रभावित नहीं हुए.
लिहाजा उन्होंने अपने बेटे का नाम रख कर शेक्सपीयर बाबू के इस सदुपदेश की ऐसी-तैसी कर डाली. नाम रक्खा सुशील.
तो अब से मौसी के इस बेटे को हम सुशील के नाम से जानेंगे.
हाँ, तो राम अवतार जी ने सुशील को बुलवाया. सुशील जब उनके चेंबर में दाखिल हुआ तो उन्होंने कहा; " सुन, आज शाम को मैं नहीं रहूँगा. हावड़ा वाले गोदाम में सरसों गिरेगी आज. उसको देख लेना. और टू चालान पर साइन मत करना. बोलना भैया कल करेंगे."
जैसे अदालतों में जज साहब लोग अपना फैसला सुनाते हैं, वैसे ही राम अवतार जी ने अपना फैसला सुना डाला.
इसके अलावा उन्होंने सुशील को दो-चार और हिदायतें दी जो किसी लिहाज से ज़रूरी नहीं थीं. मालिक द्बारा दी गई हिदायतें ज़रूरी हों, ये किसी बिजनेस-शास्त्र की किताब में नहीं लिखा है. आफिस से निकलने के पहले मालिकों द्बारा दी जाने वाली ज्यादातर हिदायतें गैर-ज़रूरी ही होती हैं. मालिक ऐसी हिदायतें केवल इसलिए देता हैं क्योंकि उसे मालिक-धर्म का पालन करना रहता है.
कई समाज-शास्त्री भाइयों की मानें तो मालिक अगर हिदायत न दे तो उसके पेचिस से पीड़ित होने का चांस रहता है. ऐसे में यही श्रेयस्कर है कि मालिक उठते-बैठते ज़रूरी-गैर ज़रूरी हिदायतें देता रहे. उसका स्वास्थ ठीक रहता है.
राम अवतार जी तो इस सिद्वांत को आँख मूंदकर फालो करते हैं. लिहाजा वे हमेशा स्वस्थ रहते हैं.
खैर, शाम को राम अवतार जी पहुँच गए रमेश बाबू के आफिस. मिलते ही दुआ-सलाम का बाजा बजा. बात आगे चली तो रमेश बाबू ने कहा; "ठीक सोचा है आपने. आज के डेट में इससे बढ़िया कोई धंधा नहीं है."
रमेश बाबू की बात सुनकर राम अवतार जी ने मन ही मन अपना कालर ऊपर कर डाला. मुस्कुराते हुए बोले; "अरे, मेरा तो दिमाग ही फिर गया. सनी का एडमिशन करवाने न जाता तो ये आईडिया तो आता ही नहीं. फिर सोचा कि बड़ा झमेले वाला काम होगा. ऐसे में इसके बारे में सोचना ठीक नहीं होगा. वो तो उस दिन आपसे बात की तब जाकर थोड़ा कांफिडेंस आया कि इस बिजनेस में उतरा जा सकता है."
उनकी बात सुनकर रमेश बाबू ने उन्हें एक बार फिर अस्योर करते हुए कहा; "आप तो अपने आदमी हैं. मैंने तो उस दिन भी कहा कि बस आप सारा काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिये. अरे सबसे बड़ा काम है मंत्रालय से मान्यता दिलवाना. दिल्ली वाला सारा काम पंकज कर ही देगा. आप कहें तो उसको कल ही बुलवा लूँ."
राम अवतार जी एक बार फिर से आश्वस्त हुए. मालिक टाइप लोग समय-समय पर आश्वस्त होते रहें तो आस-पास के कई लोगों की उम्र बढ़ जाती है.
कुछ सोचते हुए बोले; "आप तो हैं ही. फिर मुझे किस बात की चिंता? मुझे तो इतना मालूम है कि स्कूल बनेगा तो केवल मेरा नहीं होगा. स्कूल तो आप का ही होगा. सारा क्रेडिट आपका. मेरा क्या है, मैं तो केवल इतना मानता हूँ कि भगवान ने समाज के लिए कुछ करने लायक बनाया है तो अपना भी धरम बनता है कि जो कुछ बन पड़े किया जाए."
इतना कहकर वे रमेश बाबू की तरफ देखने लगे. शायद उन्हें रमेश बाबू के रिएक्शन का इंतजार था. दोनों की नज़रें मिलीं तो दोनों ठहाका लगाकर हंसने लगे.
हंसी रुकी तो रमेश बाबू बोले; "बिल्कुल जी बिल्कुल. मैंने तो आपको कहा ही कि दिल्ली का काम आप मेरे ऊपर छोड़ दें. आप तो बस ज़मीन वगैरह का इंतजाम कीजिये. वैसे आप कहेंगे तो स्टेट गौव्मेंट से ज़मीन की बात भी चलाई जा सकती है. चैनल सब है अपने पास. हाँ, लेकिन एक बात है. स्टेट गौव्मेंट के पास गए तो थोडी देर हो सकती है. जानते ही हैं सरकारी काम इतने जल्दी तो होने से रहा."
रमेश बाबू की बात सुनकर राम अवतार जी बोले; " वो तो ठीक रहेगा. अरे अपने अप्लाई तो कर ही देते हैं. देर से ही सही, ज़मीन तो मिल ही जायेगी. जब मिल जायेगी तो स्कूल का काम आगे बढा देंगे. एक और ब्रांच खोल देंगे. हाँ जब तक गौव्मेंट से ज़मीन नहीं मिलती, तबतक पहले स्कूल के लिए अपने पास जगह की कमी नहीं है."
रमेश बाबू उनकी बात सुनकर खुश हो गए. बोले; "मतलब ज़मीन है आपके पास?"
राम अवतार जी ने उनकी बात का जवाब देते हुए कहा; "ज़मीन तो नहीं है, हाँ वो अपना बी टी रोड वाला गोदाम है न, अरे वही बड़ा वाला गोदाम. वैसे ही पड़ा है सालों से. किसी काम तो आता नहीं. इसी काम में आ जायेगा. पिताजी ने बड़े सस्ते में काबाडा था उसे."
रमेश बाबू ने पूछा; "क्या एरिया होगा उसका?"
राम अवतार जी ने बताया कि गोदाम करीब बारह हज़ार स्क्वायर फीट का है. पूरा खाली. आगे बोले; "बस स्ट्रक्चर ही तो चेंज करना है. गोदाम को स्कूल बनाने में कितना समय लगेगा?"
रमेश बाबू को इस गोदाम के बारे में जानकारी थी. राम अवतार जी का गोदाम को स्कूल में बदलने का आईडिया उन्हें अच्छा तो लगा लेकिन उनके मन में कुछ सवाल भी आये.
वे बोले; "लेकिन वो तो बड़े कंजेस्टेड जगह में है. सामने तो बिलकुल भी जगह नहीं है. मेरे कहने का मतलब है कि स्टूडेंट्स के खेलने-कूदने के लिए भी तो कुछ जगह रहनी चाहिए?"
राम अवतार जी को ये सवाल बिलकुल नहीं भाया. मन ही मन सोचने लगे कि स्कूल में बच्चों के खेलने-कूदने की क्या ज़रुरत है? अरे बच्चे वहां पढने आयेंगे कि खेलने-कूदने? पता नहीं किस जाहिल ने स्कूल में खेल-कूद को प्राथमिकता देने की बात कही? क्या ज़माना आ गया है कि लोग पढाई-लिखाई से ज्यादा खेल-कूद को महत्व देने लगे हैं.
ऐसे में तो देश का फ्यूचर पूरी तरह से बरबाद हो जाएगा.
उन्हें यह भी लगा कि जितनी जगह बच्चों के खेलने के लिए छोड़ी जाती है, उसमें एक पूरा हाऊसिंग काम्प्लेक्स डेवलप हो सकता है. खेलने-कूदने के लिए जगह छोड़ना तो करोडों रूपये की बरबादी है. पता नहीं लोगों को बिजनेस सेंस कब आएगा?
खैर, यही सोचते हुए वे बोले; "अरे क्या ज़रुरत है खेल-कूद की? वैसे अगर खेल-कूद के लिए जगह न होना स्कूल की मान्यता प्राप्त करने के रास्ते में रुकावट बनेगी तो अन्दर एक रूम बनवा देंगे. एक टेबल टेनिस का टेबल और कैरम वगैरह का प्रबंध करवा देंगे. क्या है? वैसे भी हर काम पैसे से होता है. वो सब ठीक हो जाएगा."
जारी रहेगा......
ज्यादा बारीकी से वर्णन होने लगा है. व्यापार वगेरे में रोजमर्रा के व्यवहार की बातें पढ़ मजा आ रहा है. टू चलान वाली बात मुस्कान ले आए.
ReplyDeleteटिप्पणी भी जारी रहेगी.... :)
वैसे तो पहले भी पढ चुकी थी .. पर एक बार फिर पहलेवालों को पढा .. बिल्कुल सही लिख रहे हैं .. सचमुच शिक्षा के केन्द्र विद्यालयों की हालत आज व्यवसायिक केन्द्रों मे बदल गयी है .. अगली कडी का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteउज्वल भविष्य है देश का - हर गोदाम स्कूल में तब्दील होगा और हर स्कूल गोदाममय होगा! :)
ReplyDeleteलम्बे धारावाहिकों का एक उसूल होता है वो ये की उनकी कड़ियों में अधिक अन्तराल नहीं रखा जाता...अब पंकज सिंह का नाम पढ़ कर जोर डालना पढ़ा की ये कौन? लोग अपना नाम याद रखने में परेशानी अनुभव करते हैं तो कोई अनजान पंकज का नाम कैसे याद रक्खे गा...अस्तु आपके पुराने प्रकरण दुबारा पढ़े और तारतम्य बिठाया...
ReplyDeleteआपने अद्भुत लिखा है उसमें हर दूसरा वाक्य ब्रह्म वाक्य है...मुझे "मालिक ऐसी हिदायतें केवल इसलिए देता हैं क्योंकि उसे मालिक-धर्म का पालन करना रहता है." पढ़ कर कल की हमारी वीडीओ कांफ्रेंस याद आ गयी...जिसमें हमारे एम् डी. ने पूछा..."और गोस्वामी जी कैसा चल रहा है? मैंने कहा ठीक चल रहा है सर ...वो बोले "कर लेना यार" मैंने कहा "जी सर..." क्या कर लेना ये न उनको पता था न मुझे...उनको कहना था मुझे सुनना था...बस...
बहुत आनंद आया...हमेशा की तरह...अगली कड़ी इस से पहले की मैं रमेश बाबू या शुशील को भूल जाऊं पोस्ट कर देना...
नीरज
देश में सामजिक चेतना को जगाने की जिम्मेदारी मठों के ऊपर है-देखिये न, हरिद्वार बेस्ड वाले की सुक्तियां बचपन से पढ़ पढ़ कर आप भी चेतन हो गये हैं.
ReplyDeleteबहुत मस्त जा रहे हैं...
वैसे खेल में पतंगबाजी को प्रमुख स्थान देते हुए छत पर खिलाया जा सकता है-खेल का खेल और अलग से मैदान की जरुरत भी नहीं.
-मुझे उनका सलाहकार बनवा दो..शाम को खाली हो, तो आऊँ. :)
बाजू में सूचना रुपी धमकी देखकर कॉपी करने की बजाय पूरा टाईप करके टिपियाये हैं.
ReplyDeleteएकदम सही चल रही है कहानी.......बहुत बहुत आनंद दायक है....परन्तु अन्तराल संक्षिप्त रखो,यह रस बाधित करता है....
ReplyDeleteकहानी बहुत सही जा रही है। पूरे एक उपन्यास का कैनवस है। अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteआप राम अवतारजी को समझा देना, आजकल एक्टिविटी के नाम पर मोटी कमाई की जा रही है, अतः खेल फालतू की चीज न हो कर कमाई का एक बहाना हो गया है. साथ में स्कूल के मेदान में शाम को खेल की क्लासें लगा कर भी कमाया जा सकता है. भरपूर कमाई....कोई आयकर नहीं.
ReplyDeleteएक सुझाव है, क्योंकि रस आने लगा है. साथ में पात्रों का परिचय हर बार जोड़ते रहें, मुझ जैसे नाम भूलने वाले को सुविधा रहेगी.
ReplyDeleteयथा फलाणाराम : वकील.
सचमुच शिक्षा का व्यवसायिकरण, दुखद फ्युचर हमरा गुरुदेव!!!!!
ReplyDeleteआपके विचारो मे सटिकता तो है पर शिक्षायुक्त भी है।
आभार
हेप्रभु यह तेरापन्थ और मुम्बई-टाईगर का सभी को नमस्कार!!!
बहुत सटीक है..भाई धंधा तो धंधा है फ़िर चाहे स्कूल का हो या शेयर का?:)
ReplyDeleteरामराम.
दिलचस्पी और रोचकता बरकरार
ReplyDeleteसंजय जी के सुझाव पर ध्यान दीजियेगा
तीर कमान से
बात जुबान से
स्कूलों में फ़ीस जमा करने का मौसम निकल रहा है। आप जरा मन लगा के स्कूल खोलिये फ़टाक से वर्ना ये सीजन तो निकल गया हाथ से समझो !
ReplyDelete"कभी कंपनी अफेयर मिनिस्ट्री में कोई काम फंस गया था तो कभी फायनांस मिनिस्ट्री में. "
ReplyDeleteआजकल स्कूल में इल्लीगर अफ़ेयर बहुत चल रहे हैं। ज़रा उस मिनिस्ट्री में भी झांक लेना:)