मिल गई इज्ज़त मिट्टी में. इज्ज़त भी अजीब चीज है. किसी को दे दो तो खुद को भी मिलती है. नहीं दो तो मिट्टी को मिल जाती है. जिसने भी इज्ज़त के इस लेन-देन की नीति निर्धारित की थी, उसे इस तरह की किसी भी अनिवार्यता को रखना ही नहीं चाहिए था. मैं पूछता हूँ कि ये कहाँ की नीति है कि इज्ज़त दो तभी इज्ज़त मिले? मैं कहता हूँ, कम से कम राजपुत्रों को इस अनिवार्यता से बरी कर देना चाहिए था. उनके लिए अलाऊ रहे कि वे इज्ज़त दें या न दें, उन्हें इज्ज़त मिलनी ज़रूर चाहिए.
नहीं मालूम था कि द्रौपदी के स्वयंवर में जाकर यह हाल हो जाएगा. गए थे जीतने द्रौपदी को, जीत तो पाए नहीं, ऊपर से जब से वहां से लौटे हैं, पूरे कुनबे में किच-किच मची हुई है.
सब एक-दूसरे पर दोष दाग रहे हैं. दुशासन मुझे गरिया रहा है. मामाश्री मुझे और दुशासन को गरिया रहे हैं. कर्ण उधर भुरकुसाए बैठा है. इस बात पर भुरकुसाए बैठा है कि कि द्रौपदी ने उसे सूद्पुत्र क्यों कहा? विकट इमोशनल बन्दा है ये कर्ण भी. मैं कहता हूँ कह दिया तो कह दिया. औरतों की बात को लेकर इतना इमोशनल होने से चलेगा क्या?
मैं तो कहता हूँ कि काहे नहीं ऑन द स्पॉट झूठ बोल दिया कि वो सूद्पुत्र नहीं बल्कि बहुत बड़े क्षत्रिय खानदान का चिराग है. ये तो कुम्भ के मेले में खो गया था बोलकर उसका लालन-पालन सूद के घर हुआ. कुम्भ के मेले में खोया है तो एक न एक दिन तो अपनी माँ से मिलेगा ही. जिस दिन माँ से मिलेगा उसदिन एस्टेब्लिश कर देगा कि वह क्षत्रिय है.
असली झमेला तो बाहर वालों की वजह से है. कोई कह रहा है कि वाण चलाने की पर्याप्त प्रैक्टिस नहीं होने की वजह से हारे. कोई कह रहा है कि जाने से पहले कम से कम चार सप्ताह का शिविर होना चाहिए थे. शिविर में जमकर प्रैक्टिस की जाती तो धनुष-वाण के खेल में पास हो जाते. ऐसे में द्रौपदी को अर्जुन नहीं जीत पाता.
लेकिन किसे पता था कि ऐसे विकट खेल का आयोजन होगा?
कोई नहीं देखता कि कितना कठिन काम था वहां. अरे आज तक तो कहीं नहीं देखा था कि मछली को ऊपर टांग कर घुमाया जाय और कहा जाय कि नीचे रखे बर्तन के तेल में देखकर मछली पर वाण दागना है. मैं कहता हूँ कि प्रतियोगिता तो ऐसी होनी चाहिए थी कि दस फीट की दूरी पर रस्सी में बांधकर मछली को लटका देते और वाण चलाने के लिए कहते. देखते फिर कि हर वाण सही निशाने पर लगता.
इतनी कठिन परीक्षा भी लेता है कोई भला? मुझे तो इसमें केशव की चाल लगती है. उन्हें पता था कि हमलोग इसमें नहीं सकेंगे. बस उन्होंने मरवा दिया हमें.
उधर अर्जुन वगैरह इतने खुश हैं कि मुझे तो ज्यूस तक नहीं पच रहा.
मीडिया तो पीछे ही पड़ गई है. हर अखबार, हर टीवी चैनल मज़ाक उड़ा रहा है. एडिटोरियल में पूरे कुनबे की ऐसी-तैसी की जा रही है. कोई कह रहा है कि गुरु द्रोण के आश्रम में रहकर मैंने क्या झक मारा है? क्या कुछ नहीं सीखा? कोई कह रहा है कि मुझे वाण पकड़ने तक की तमीज नहीं है. पढ़कर लग रहा है कि ये लिखने वाले सामने होते तो इन्हें दौड़ा-दौड़ा कर मारता.
आखिर अभी एक महीना भी नहीं हुआ जब यही लोग धनुष-वाण, भाला प्रक्षेपण और तलवारबाजी के अभ्यास शिविर देखकर मेरी, दुशासन और कर्ण की बड़ाई करते नहीं अघाते थे. आज यही लोग कह रहे हैं कि अभ्यास शिविर में वाण चलाना एक बात है और सही जगह पर चलाना दूसरी.
अब इन मीडिया वालों को कौन समझाए कि एक योद्धा के लिए क्या धनुष-वाण चलाना ही काम है? और कोई काम नहीं है क्या? घूमना-फिरना, आखेट करना, हाट में जाकर वस्त्र, परफ्यूम वगैरह खरीदना क्या काम नहीं है? वो कौन करेगा?
ऊपर से एक गुरु द्रोण हैं. उन्हें जो कुछ कहना था पिताश्री के सामने कहते. क्या ज़रुरत थी मीडिया के सामने सबकुछ कहने की? हस्तिनापुर की मीडिया के सामने कह दिया कि अभ्यास शिविर में धनुष-वाण वगैरह चलाकर हम थक गए थे. हद आदमी हैं गुरु द्रोण भी. अरे हम थक रहे थे तो आप क्या कर रहे थे? हमें थकने से रोका क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप दिल से चाहते थे कि आपका प्रिय शिष्य अर्जुन स्वयंवर जीत जाए?
दुशासन ने तो कह दिया कि गुरु द्रोण अपनी औकात में रहे, यही उनके लिए अच्छा है.
इसी महीने के अंत में एक और स्वयंवर है. क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा. सभी इस बात के पीछे पड़े थे कि कुनबे की बागडोर मुझसे छीनकर किसी और को दे दी जाय. कुछ लोग तो विकर्ण का नाम सुझा भी चुके हैं. वो तो भला हो पिताश्री और कृपाचार्य जी का जिन्होंने एक बार फिर से मुझे ही कुनबे की बागडोर संभला दी है.
अब देखते हैं इस स्वयंवर में क्या होता है?
निशाना एकदम सटीक है। बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले----।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुन्दर! दुर्योधन की पीड़ा ऐसे बयान की है जैसे लग रहा है भारत की क्रिकेट टीम के हाल कहे हैं! क्या अद्भुत साम्य। यही होता है कालजयी लेखन! :)
ReplyDeleteसूद्पुत्र ...
ReplyDeleteशिव भाई,
दुर्योधन की व्यथा से
दिल भर आया ! //aah !
अजी,
द्रौपदी को अर्जुन जीत कर ले गया और १०० कौरव
बुध्धुओँ की तरह
हस्तिनापुर लौट आये ..
लाहौलविलाकुवत्` !
;-)
आगे सस्पेन्स बकरार है ...
दूसरे स्वयँवर मेँ ,
दुर्योधन कन्या का हाथ
जीत पाते हैँ या नहीँ ?
आगे के एपिसोड को
देखने की
उत्सुकता बनी रहेगी जी
- लावण्या
और हाँ,
ReplyDeleteक्या उसका नाम
"भानुमती" था ? :-)
(दुर्योधन की पत्नी का वही नाम था )
- लावण्या
माहांत वाले स्वयंवर को देखने हम भी लाला बने लालायित हैं, बालक!! देखो, क्या होता है!
ReplyDeleteशुरुआत में तो लगा कि आडवाणी की धुलाई होने वाली है लेकिन आगे कुछ और ही माजरा मिला।
ReplyDeleteजब इस डायरी के पन्ने को पढ़ रहा हूँ तो पाकिस्तान फाइनल में पहुँच चुका है। दक्षिण अफ्रीका एक बार फिर गला घुँटवाकर बाहर निकल लिया।
फाइनल में लगता है लड़ाई दो एशियाई शेरों के बीच ही होगी। श्रीलंका सेमी फाइनल में वेस्ट इण्डीज को हरा तो देगा ही। इस डायरी का अगला पन्ना (sequel) फाइनल मुकाबले के बाद लिखिएगा। धोनी के शेर तो अभी अपने घाव सहला रहे हैं।
@ अनूप शुक्ल - कालजयी क्या है? क्रिकेट, क्रिकेट में भारत की सर्वदा हार या यह लेखन?
ReplyDeleteयह तो हारने वालों का शाश्वत सत्य है । यदि हार पचती नहीं है तो वर्णित ’साइड इफेक्ट्स’ झेलने पड़ते हैं । हार गये तो हार गये, फिर काहे की बघार रहे हैं ।
ReplyDeleteदोष पिता श्री का है. बेचारों को लगातार स्वयंवरों में भेजते रहते है. कहीं न हो तो अपने ही राज्य में "फ्रेण्डली" स्वयंवर का आयोजन करते है. थक गए हैं बेचारे. फिर हारे नहीं तो और क्या हो?
ReplyDeleteदुर्योधन उर्फ़ धोनी ने तो पहले ही द्रौपदी के कोप से डर कर बाल कटवा लिये हैं।वैसे संजय की बातों पर गौर किया जाना चाहिये।
ReplyDeleteलपेट के मारना कोई आप से सीखे...अद्भुत लेखन...वाह.
ReplyDeleteनीरज
इसका नाम दुर्योधन पुराण रखें, तो ज्यादा उचित है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ek line meri taraf se jor lijiye.. jahan aapko ye fit baithe.. :)
ReplyDeleteमैं तो कर्ण को बचा कर रखना चाह रहा था अंत के लिये, तभी तो उसे बाद में भेजा था तीर चलाने के लिये. मगर मुझे क्या पता था कि कर्ण को सूत-पुत्र कह कर खारिज कर दिया जायेगा..
ओह दुर्योधन का दुख देखते नहीं बन रहा...।
ReplyDeleteइ लो जी .हमें तो कल रात ही किसी टी वी ने वाले बताया की अर्जुन से लेकर सारे पांडवो को पहले से चोट लगी हुई थी ...उनकी फिटनेस रिपोर्ट सलंग्न थी ...राजकीय चिकित्सक की.......ये तो खामखाँ शोर मचा रही है प्रजा...अगली बार जीत लेगे ....दो साल की तो बात है ....ललित मोदी ने सुना है इस्तीफे की धमकी दे डाली है की तुम बात बात में आई पी एल को क्यों ले आते हो....दिलशान को देखो.....ब्रेवो को देखो...वहां खेलकर ही तो बने है ....
ReplyDeleteबहुत सटीक...
ReplyDeleteवत्स दुर्योधन काहे परेशान होते हो.. अर्जुन ले गया तो क्या... उससे उसका क्या भला हो गया.. तुम तो आगे कैसे हारना है इसकी तैयारी में लगो..
मिल गई इज्ज़त मिट्टी में. इज्ज़त भी अजीब चीज है. किसी को दे दो तो खुद को भी मिलती है. नहीं दो तो मिट्टी को मिल जाती है.
ReplyDeleteवत्स इस असार संसार मे इस बात की काहे को फ़िक्र करनी? क्या इज्जत साथ लेकर आये थे जो साथ लेजाने की व्यर्थ चिंता करते हो?
सब कुछ यहीं रह जाना है, इसलिये सदा मुझे याद करते रहो. मैं अपनी भैंस के गोबर अपने लठ्ठ से सबका बेडा पार लगा दूंगा.
रामराम.
भाई रोज-रोज स्वयम्बर रखोगे तो, हर बार थोडी न जीतेंगे.
ReplyDeleteभाई आज "द्रोपदी" से भी इम्पोर्टेंट "अर्थ" है, और उसमे दुर्योधन और सभी कौरव कमाल कर रहे है, खजाने में दिन दुगना बरोतरी हो रहा है... .... द्रोपदी हार गए तो क्या? फिर कल स्वयम्बर होगा, तब देख लेंगे, और इतिहास तो इतिहास है........इसमें तो "+ " " -" जनता करते ही रहेगी. अब तो केसव को भी दूसरा प्लान बनाना होगा.....
भाई एक बात तो है आप कमाल का चौका-छक्का लगते हो
दुर्योधन दावा ठोकने या केस करने नहीं आएगा.......तो इसका क्या मतलब तुम ऐसे सरे आम उसकी डायरी के पन्ने सार्वजनिक करते रहोगे????? बताओ तो भला ऐसे भी कोई किसी की इज्ज़त की भुज्जी उडाता है.....
ReplyDeleteदुर्योधन बहुत उपयुक्त पात्र है। महाभारत काल का होते हुए भी आधुनिक काल में कहीं भी फिट हो जाता है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर व्यंग्य, बहुत दिनों में देखने को मिला।
दुर्योधन की डायरी क्या मिल गई, लो महाभारत छिड़ गया:-)
ReplyDeleteबहुत सारे कामों में से एक... आजकल ऐड्स भी तो बहुत मिलते हैं :)
ReplyDeleteसुन्दर!* * * * *
ReplyDeleteधन्यवाद एवम नमस्कार जी
हे प्रभु यह तेरापथ
मुम्बई टाईगर
मिल गई इज्ज़त मिट्टी में. इज्ज़त भी अजीब चीज है. किसी को दे दो तो खुद को भी मिलती है. नहीं दो तो मिट्टी को मिल जाती है. जिसने भी इज्ज़त के इस लेन-देन की नीति निर्धारित की थी, उसे इस तरह की किसी भी अनिवार्यता को रखना ही नहीं चाहिए था. मैं पूछता हूँ कि ये कहाँ की नीति है कि इज्ज़त दो तभी इज्ज़त मिले? मैं कहता हूँ, कम से कम राजपुत्रों को इस अनिवार्यता से बरी कर देना चाहिए था. उनके लिए अलाऊ रहे कि वे इज्ज़त दें या न दें, उन्हें इज्ज़त मिलनी ज़रूर चाहिए.
ReplyDeleteउम्दा पंक्तियां। मुझे बस अब एक ही फिक्र बाकी है...कहीं पाकिस्तान न जीत जाए।
समय-समय की बात है अब कोई यह भी नही जानना चाहता कि पहले यही दुर्योधन सुयोधन कहा जाता था।
ReplyDeleteमुझे तो आपके निर्विवाद लेखन में बड़ा आनन्द आया.
ReplyDelete@दिनेशराय द्विवेदी
ReplyDeleteदुर्योधन बहुत उपयुक्त पात्र है। महाभारत काल का होते हुए भी आधुनिक काल में कहीं भी फिट हो जाता है।
ना जी मैं तो इसमें लेखक का कमाल देखता हूँ....खूब फीट कर देते हैं.
@सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’
दुर्योधन सुयोधन कहा जाता था।
हारने वाले के साथ इतिहास सदा से यही करता आया है.
हुम्म! मुझे तो यह आडवाणी जी की डायरी लग रही है.......:)
ReplyDeleteउधर अर्जुन वगैरह इतने खुश हैं कि मुझे तो ज्यूस तक नहीं पच रहा.
ReplyDeleteक्या मारा है कसकर । अब धोनी जी का भी यही हाल होने वाला है अगर पाकिस्तान मैच जीत जाता है ।
वर्ग विभाजित समाज व्यवस्था में दुर्योधन को इसलिए रखता है ताकि व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह को टाला जा सके। इस व्यवस्था में जनता को तो पिसना ही है। इस मे दुर्योधन का दोष क्या है। आप ने व्यंग्य के लिए गलत विषय चुन लिया। व्यंग्य करना था तो गांधारी पर करते। आप के व्यंग्य ने व्यवस्था के नंगे सच को ढ़क दिया है। और दुर्योधन को निशाना बनाया है।
ReplyDeleteदेश के दुर्योधन की कुल संख्या में से आधे से अधिक की आय तो साधारण क्लर्क से अधिक नहीं है। वे हास्य का विषय हो सकते हैं व्यंग्य का नहीं।
आप का आले दुर्योधन बिरादरी के लिए बहुत ही अपमान जनक है। यह तो अभी हिन्दी ब्लाग जगत में दुर्योधन पाठक इने गिने ही हैं और वे भी मित्र ही हैं। मैं ने भी आप के इस आलेख का किसी दुर्योधन मित्र से उल्लेख नहीं किया है। इस आलेख के आधार पर कोई भी सिरफिरा दुर्योधन मीडिया में सुर्खियाँ प्राप्त करने के चक्कर में आप के विरुद्ध देश की किसी भी अदालत में फौजदारी मुकदमा कर सकता है। मौजूदा कानूनों के अंतर्गत इस मुकदमे में सजा भी हो सकती है। ऐसा हो जाने पर यह हो सकता है, कि हम पूरी कोशिश कर के उस में कोई बचाव का मार्ग निकाल लें, लेकिन वह तो मुकदमे के दौरान ही निकलेगा। जैसी हमारी न्याय व्यवस्था है उस में मुकदमा कितने बरस में समाप्त होगा कहा नहीं जा सकता। मुकदमा लड़ने की प्रक्रिया इतनी कष्ट दायक है कि कभी-कभी सजा भुगत लेना बेहतर लगने लगता है।
एक दोस्त और बड़े भाई और दोस्त की हैसियत से इतना निवेदन कर रहा हूँ कि कम से कम इस पोस्ट को हटा लें। जिस से आगे कोई इसे सबूत बना कर व्यर्थ परेशानी खड़ा न करे।
आप का यह आलेख व्यंग्य भी नहीं है, आलोचना है, जो तथ्य परक नहीं। यह दुर्योधन समुदाय के प्रति अपमानकारक भी है। मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में बहुत लोगों को परेशान होते देख चुका हूँ। प्रभाष जोशी पिछले साल तक कोटा पेशियों पर आते रहे, करीब दस साल तक। पर वे व्यवसायिक पत्रकार हैं। उन्हें आय की या खर्चे की कोई परेशानी नहीं हुई। मामला आपसी राजीनामे से निपटा। मुझे लगा कि आप यह लक्जरी नहीं भुगत सकते।
अधिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूँ।
Duryodhan ki Dayari Padh kar Kaleja muh ko aa jata hai. Vakaee, Bahut Baeezatti Sahi bechare ne.
ReplyDeleteबेचारा दुर्योधन , किसके हाथ देदी डायरी !
ReplyDeleteसब कुछ सार्वजनिक हुआ जाता है !