हमारा शहर तमाम बातों के लिए प्रसिद्द है. चीजों के लिए भी. लेकिन इस शहर में जो चीजें सबसे ज्यादा पायी जातीं हैं उनमें नेता और भाषण प्रमुख हैं. इन सबके अलावा जब वोटर और भक्त सड़क पर उतरते हैं तब डेमोक्रेसी भी दीखती है. जनता को सताने के न जाने कितने डेमोक्रेटिक तरीके विकसित कर लिए गए हैं.
कई बार यह विचार मन में आता है कि लोकतंत्र का इतिहास नामक पुस्तक में अगर कलकत्ते की सड़कों और उन पर विचरण करने वाले वोटरों और भक्तों का जिक्र न हो तो हम उस पुस्तक को नकारने का अधिकार रखते हैं. सीधे-सीधे.
रानी रासमोनी एवेन्यू एक जगह है जो शहर के बीचो-बीच है. शहर में डेमोक्रेसी के रख-रखाव के काम आती है यह जगह. जब नेता रूपी राजाओं को लगता है कि डेमोक्रेसी की झाड़-पोंछ का समय आ गया है तो वे वहां आकर अपनी प्रजा से मिल जाते हैं. यही कारण है कि आये दिन नेता-नेत्री लोग यहाँ भाषण उगलन कला को निखारते हैं. कभी सत्ता पक्ष के नेता तो कभी विपक्ष के.
अगर रानी 'रासमोनी' एवेन्यू को अपनी आत्मकथा लिखने का मौका मिले, मैं दिल्ली हूँ की तर्ज पर, तो एक से बढ़कर एक सूक्तियां, उक्तियाँ, कटूक्तियां, उपयुक्तियां और न जाने क्या-क्या पढने को मिलेगा.
पूरी आत्मकथा बड़ी धाँसू होगी.
आज सुबह आफिस आते समय देखा कि वहां तैयारियां चल रही थीं. कुर्सियां थीं, स्टेज था, बांस थे, लाऊडस्पीकर थे, पुलिस थी और बाकी के सपोर्टिंग कलाकार टाइप चीजें भी थीं. सुबह आठ बजे सड़क को एक तरफ से बंद कर दिया गया था.
देखकर बड़ी कोफ्त हुई. मुंह से निलका; "सुबह-सुबह ये हाल है?"
टैक्सी ड्राईवर बोला; "का कीजियेगा, ई लोग का बात खत्मे नहीं होता है. एतना दिन से बोल रहा है ई लोग, लेकिन अभी भी केतना कुछ है ई लोग के पास कहने को."
समझ में नहीं आया कि 'ई लोग' के पास कहने को 'केतना कुछ' है, या हमारे पास सुनने को 'केतना कुछ' है?
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रानी रासमोनी के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिकिया सकते हैं. अगर पहले से जानते हैं तो कोई बात नहीं.
आपके बताये सूत्र पर जाकर देखा अंग्रेजी में कुछ लिखा था,
ReplyDeleteकल हिन्दी दिवस ने सब अंग्रेजी ज्ञान भुला दिया, अब फिर से अंग्रेजी सीखनी पड़ेगी !
आपके विचारो से सहमत चुनावों के समय डेमोक्रेसी सड़को पर चलती दिखाई देती है और बाकि समय मंहगाई और गरीबी से लड़ती रहती है .आभार
ReplyDelete"समझ में नहीं आया कि 'ई लोग' के पास कहने को 'केतना कुछ' है, या हमारे पास सुनने को 'केतना कुछ' है?"
ReplyDeleteशाश्वत है यह नासमझी । निरन्तर चली आ रही है ।
हम तो तरस जाते है, वर्ष गुजर जाते है, एक ठो बन्द नहीं होता. कोनो हाय हाय भी नहीं. एक दम बोरिंग लाइफ है. लगता है लोगो को अपने अधिकारों की पड़ी ही नहीं. जो टाइम क्लब-सलब बनाने का होता है, बच्चे कमाने के पीछे लग जाते है. वही हाल नेता लोगन का है. बेसी ठेलते नहीं. चुनाव टू चुनाव बस. बोलो कैसा लोकतंत्र है.
ReplyDeleteआपको लोक(ताला)तंत्र मुबारक. आशा है आने जाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई होगी.
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteकृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य को हिंदी की किताब लाकर दीजिये जिससे कि वो हिंदी सीख सके और सीखने के बाद हो सके तो उनके लिए एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये..
जय हिन्दी!
नोट : कृपया आधी अधूरी टिप्पणियों से सावधान रहे..
देखकर बड़ी कोफ्त हुई. मुंह से निकला; "सुबह-सुबह ये हाल है?"
ReplyDeleteअरे ये तो सीधी सी बात है! महान चीजें, महान कृत्य तो कालातीत होते हैं, क्या सुबह? क्या दोपहर? क्या सांझ? आखिर ये भारत-भूमि है जहां जन्म लेने को देवता भी तरसते हैं!यहां जो न हो वो थोड़ा!!
राजनीति तो असल मायने में पश्चिम बंगाल में ही बसती है....
ReplyDeleteहवाई अड्डे से शहर आने के क्रम में पहली बार जब कार्यकर्ताओं की रैली देखी तो पहले तो लगा कहीं शहर में सांप्रदायिक दंगा तो नहीं हो गया है.सभी कार्यकर्त्ता हॉकी डंडे बन्दूक तथा ऐसे ही अनेक अस्त्र शश्त्रों से लैस थे.......डर के मारे जो हाल हुआ क्या बताऊँ...तीन घंटे सड़क किनारे जबतक पूरा हुजूम गुजरा हम दुबके खड़े रहे...
बिहार उड़ीसा वगैरह में ऐसा माहौल कभी नहीं देखा था...भाषण बाजी और बंदी में यूँ भी बंगाल शायद देश में अग्रणी है...
हम भी यही ठेलना चाहते हैं (आज हाईकोर्ट के पास माननीय जजों की घरों की प्राइवेसी बनाये रखने हेतु बन्द किये गये रास्ते और कोर्ट के सामने बनाये वकीलों के पण्डाल से त्रस्त हम केवल २० मिनट लेट दफ्तर पंहुचे!):
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हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य को हिंदी की किताब लाकर दीजिये जिससे कि वो हिंदी सीख सके और सीखने के बाद हो सके तो उनके लिए एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये..
जय हिन्दी!
नोट : कृपया आधी अधूरी टिप्पणियों से सावधान रहे..
अरे शिवकुमारजी आप तो बंगाल में जहां गाल बजाकर ही तो बरसों से शासन-सत्ता चल रही है।
ReplyDeleteCALCUTTA IS FAMOUR FOR THREE Ps- PUBLIC, PROCESSION AND PROSTITUTION!
ReplyDeleteईब ईसमें पूजाजन[भक्तजन] भी जूड़ गोया है! ओछा होय ...ओछा होय:)
अब का कीजियेगा ! अइसा ही है !
ReplyDeleteप्रात: अभी आपका वक्तव्य बांच कर बैठना हूं! मन तो न जाने कैसा -कैसा हो रहा है। किंचित अनमना सा हो गया। लेकिन चाय पीनी है अत: अनमनापन झाड़कर उठता हूं!
ReplyDeleteएतना बात जरूर है की कोलकाता में और कोई समझदार हो न हो लेकिन टाक्सी वाला बहुता ही समझदार है...उसका एक वाक्य से ब्लोगर लोग को पोस्ट का मसाला मिल जाता है...आज का ब्लॉग्गिंग का दुनिया में और का चाहिए बंधू...??
ReplyDeleteशोला फिलिम का डायलोग "ओ री छमिया...जब तक तेरा नाच चलेगा तब तक तेरे यार का सांस चलेगा..." को सुधार कर यूँ लिखिए..." ओ रे नेता जब तेरा भाषण चलेगा तब तक ही तू भी चलेगा जिस दिन भाषण देना बंद उस दिन तू भी खल्लास..." अब देखिये न बाजपेयी जी ने भाषण देना जब से बंद किया है तब से टीवी अखबार में उनका कोई फोटो देखें हैं...??? भाषण देना बहुता ही जरूरी है डेमोक्रेसी में...
आप "शंकर" द्वारा लिखित "चौरंगी" की तरह" रासमोनी चौक " पर एक ठो उपन्यास काहे नहीं लिख देते...आपका नाम भी अमर हो जायेगा.
नीरज
बिचित्र बात है. ओही लोग कहता है जेकरे पास कहने को कुछो नहीं होता है औ सुनने को ऊ मजबूर होता है जेकरा कहना चाहिए.
ReplyDeleteसम्वाद मे भी कितने विविध आयाम हो सकते हैं ..।
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ReplyDeleteसर्वहारा सँघर्ष की अँतहीनता को उजागर करने वाली ई पोस्ट ’ एतना कुछ’ कह गयी,
कि अँखिया एतना डबडबा आई हैं, के टीपनी में ’केतना कुछ’ लिखें यह समझ नहीं पा रहे हैं ।
महानगरीय सँदर्भों के अँतर्द्वँद को बखूबी उभारने में सक्षम है, आपकी यह पोस्ट !
आपकी लेखनी को नमन !
ऊ ठो ड्राइवर अपना कंट्री-कजिन मालूम जान पड़ता...और हमार कजिनवा लोग खूबे समझदार लोग होते हैं!!!
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