पेश है चंद फुटकर ब्लॉग-कवितायें. इन्हें लिखने की तथाकथित प्रेरणा हाल ही में मिली. हाल ही में मिली? नहीं-नहीं, ब्लॉग पर मिली. टिप्पणियां करने के लिए रखे जाने वाले नामों से. अब तो आप मानेंगे न कि जिसे कविता लिखना होता है उसे प्रेरणा के लिए भटकना नहीं पड़ता. ये अलग बात है कि चिरकुट प्रेरणा से चिरकुट कविता पैदा होती है...:-)
जसौदा कहा कहों मैं बात?
तुम्हरे सुत को करतब ब्लॉग पे
कहत कहे नहिं जात
करि कमेन्ट होई फिरे दिगंबर
बार-बार टिपियात
जो बरजों यो अच्छो नाही
मोको मारत लात
जसौदा कहा कहों मैं बात?
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जदपि मातु बहु अवगुन मोरे, पर असत्य मैं कवहु न भोरे
ता पर मैं रघुवीर दोहाई, जानहु न कछु झूठ उपाई
एक बार सुनु बात हमारी, देहु दुई कान मोरि महतारी
कहत विदेह जेहि हम थकेऊ, धारन किये देह औ फिरेऊ
लिखि टिप्पणी बवाल मचावे, पुनि-पुनि ब्लॉग पे आवे-जावे
जसोदा के लाल संग लिए फिरे जहाँ-तहाँ
पर्दा डारि प्रोफाइल पर टीपे बस इहाँ-उहाँ
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कसो अब कमर, बजाओ बजर
उठो हे वीर उड़ा दो गर्दा
कि मचे बवाल, करो कुछ लाल
कि डालो प्रोफाइल पर पर्दा
बना लो गोल, बजाओ ढोल
कापें सबलोग
कि कोई ऐसी जुगत लगाओ
कि माफी मांगे फिर सब कोय
कि तुमको देखे जो भी रोय
कि गाओ ऐसा कोई गान
कि छेड़ो गाली वाली तान
दिखाओ बन्दर वाला रूप
करो झट से सबको हलकान
तान लो धमकी वाला बान
कि लें सब तुमको अब पहचान
दाग दो कोरट वाला बम
ख़ुशी होंगे तब तुमसे हम
मंदी के दौर मे
ReplyDeleteमान हानि से कमाया
मिल बाँट कर खाया
दुश्मन के दुश्मन को
मंदी ने दोस्त बनाया
वाह-वाह।हम तो सोचे की अच्छी होगी पर ये तो सच्ची कविता निकली शिव भैया।
ReplyDeleteकि कोई ऐसी जुगत लगाओ
ReplyDeleteकि माफी मांगे फिर सब कोय
क्या बात है पंडित जी . बेहतरीन प्रस्तुति आभार
:)
ReplyDeleteदेखिए, ब्लॉग की बदौलत आपके भीतर का एक रीतिकालीन कवि जागृत हो उठा!
ओह, गलती हो गई - रीतिकालीन के बजाए भक्तिकालीन पढ़ा-समझा जाए.
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने ।
ReplyDeleteरीति/भक्ति नहीं यह युक्तिकालीन कविता है। जुगाड़मेण्ट की तकनीक से परिमार्जित! :)
ReplyDelete@ रवि रतलामी जी,
ReplyDeleteरवि जी, ब्लॉग ने भक्तिकालीन नहीं बनाया. प्रोफाइल में इस्तेमाल किये जाने वाले नामों ने बनाया है....:-)
तीसरी वाली वीररस की कविता है. पूरे जोश से गाए, लय में, सूर में गाए. आँखे लाल हो गई, रक्तसंचार बठ गया.
ReplyDeleteहे स्वयं प्रेरणा प्राप्त ब्लॉग कवि, हमें तीसरी वाली खास पसन्द आई. अतः कोई गा कर युट्युब पर डाले तो मजा आ जाए.
हम तो रेफरेंस टू कॉण्टेक्स्ट जाने बिना टिपेर गये!
ReplyDeleteये हाल वाली प्रेरणाबेन के ब्लॉग लिंक का खुलासा तो कर दें कृपया! :-)
अब भैया तुम कहाँ से प्रेरणा ले यह रचना रचित कर डाले यह तो पूरा पल्ले नहीं पडा ,पर हम तो इन सरस रचनाओं के रस में डूब खूबै आनंदित हुए...बहुतेई बढ़िया रचना रचे भाई...
ReplyDeleteयुक्तिकालीन कविताओं के नये अध्याय की शुरूआत के लिए बडे भाई को प्रणाम.
ReplyDeleteक्या करें? खुलासा ही न कर रहे प्रेरणा-लिंक का!
ReplyDeleteसो हम बिना दरी-कालीन के एक युक्तिकालीन कविता ठेल देते हैं, टिप्पणियों की संख्या बढ़ाने को!
जरा ध्यान दें (नीरज जी आयें तो वे भी देखें कि युक्तिवादी कविता कितनी कठिन होती है लिखनी भी और ठेलनी भी! :-))
दिक्
दिक्
दिक्
अम्बर
डम
डम
डम
बाजै डमरू
बम
बम
बम
थरती
धरा!
न जोबन
न जरा
टिप्पणी
दिगम्बरा!
ज्ञान जी आप तो पहले तो रीति काल से भक्ति काल आया था। आप युक्तिवादी नाम दिया। और यह क्या? आप तो सीधे मुक्तिवादी कविता करने लगे।
ReplyDeleteनहीं नहीं द्विवेदी जी मुक्तिवादी (कालीन) शव्द पर रानारायण्ा 'विकल' जी का कापीराईट है इस पर भागलपुर विवि में उनका शोध प्रबंध अटका हुआ है, इसे युक्तिवादी कविता ही कहना है, इसके प्रणेता हैं शिव भईया अउर इसे नामकरण करने वाले ज्ञान जी बस.
ReplyDeleteसरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट करता है। चूंकि कविता अनुभव पर आधारित है, इसलिए इसमें अद्भुत ताजगी है।
ReplyDeleteसोलह लोग वाह वाह कर गए मिश्रा जी.....तो अब मै इसे कविता समझूं .....
ReplyDelete`लिखना होता है उसे प्रेरणा के लिए भटकना नहीं...’
ReplyDeleteकविताकोश है ना :)
* कविता तो कविता है भाई
ReplyDeleteब्लाग - कविता क्या नई विधा है?
ये लीजिये इतनी रात गये हम ठठा कर हँस दिये हैं...
ReplyDeleteबेजोड़!
भाईसाहब हम तो यहाँ आये कमेन्ट पढ़कर ही खुश हो लिए...
ReplyDelete:)
बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने ।
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने ।
ReplyDeleteब्लागिंग तेरा चरित स्वयं ही काव्य है/ कोई कवि बन जाये सहज सम्भाव्य है।
ReplyDeleteइतनी ऊर्जा मयी कवितायें हैं पढ़ते ही दिल पुर्जा-पुर्जा हो गया।
ये कवितायेँ "दिल बरा दिल बरा अपुन की तू अपुन तेरा" लेवल की हैं...बहुत पापुलर होंगी कहे देते हैं...एक बात है आप की खोपडिया बहुत ही फरटाईल है...पंजाब की धरती भी शरमा जाये ऐसी फर टाईल...कसम से...
ReplyDeleteनीरज
वह भाई !
ReplyDeleteरस्साकशी पै फुर्र से यक
फुरै - फुर कविता बनि गै ---
'' खोपड़ी म है दिमाग औ'
ट्यूमर सा हुई गवा |
अब का उठावै हाथ ,
पखौरा उचरि गवा ||
वाह ! कहाँ छुपे हुए थे आप आजतक? पांचवी कक्षा से हाई स्कूल तक के बाद पहली बार ऐसी कविता पढ़ी है. एकदम सटीक.
ReplyDeleteकविता बिन कमेंट न होवे तो बिन कमेंट कविता भी रोवे
ReplyDelete--कविता और कमेंट ने मन हर्षित किया।
सत्य काव्य महाराज !
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